उमेश चतुर्वेदी
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....
Monday, March 31, 2008
Friday, March 14, 2008
कब थमेंगी जहरखुरानी की घटनाएं
रेल सुरक्षा तंत्र की तमाम कोशिशों के बावजूद ट्रेनों में जहरखुरानी की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जहरखुरानी की बढ़ती घटनाओं से रेल यात्रियों में दहशत है। वहीं रेलवे की कार्य पद्धति पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं।गुरुवार को मुंबई से कमाकर घर लौट रहा यात्री जहरखुरानों के हत्थे चढ़ गया। आजमगढ़ जिले के जहानागंज निवासी राजेश कोल्हापुर में किसी कंपनी में काम करता है। राजेश कई महीने कमाने के बाद ट्रेन से अपने घर आ रहा था। वाराणसी में जहरखुरानी गिरोह की उस पर नजर पड़ गई। बकौल राजेश जहरखुरानों ने आत्मीयता जताते हुए अपने को उसी के गांव के आस पास का होना बताया। इसके बाद सभी ने चाय पी और भटनी की तरफ आने वाले 550 डाउन पैसेंजर ट्रेन में सवार हो गए। वाराणसी के एकाध स्टेशन आगे बढ़ने के बाद राजेश बेहोश हो गया। रात होने के चलते सहयात्रियों ने राजेश को निद्रामग्न होना जानकर ध्यान नहीं दिया। इस बीच जहरखुरानों ने राजेश की अटैची पर हाथ साफ कर दिया। राजेश के सोए रहने पर सहयात्रियों को शंका हुई। उन्हें माजरा समझते देर नहीं लगी और अचेतावस्था में स्थानीय रेलवे स्टेशन पर उतार दिया। जीआरपी की मदद से अद्धüमूछिüत राजेश को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद सीयर ले जाया गया। राजेश के पाकेट में मिली डायरी के आधार पर उसके परिजनों को फोन कर बुलाया गया। राजेश की अटैची में पांच हजार रुपये नकद, कपड़े व अन्य जरूरी सामान थे। कुछ ऐसी ही घटना करीब पखवारेभर पहले मनियर थाना क्षेत्र के पिलुई निवासी छोटे लाल कुर्मी के साथ हुई थी। बंबई से कमाकर आ रहे छोटेलाल को जहरखुरानों ने वाराणसी रेलवे स्टेशन परिसर में ही अपना शिकार बना लिया था। उसके पास से नकदी समेत सभी सामान ले लिया गया था। बड़ी मुश्किल से छोटेलाल चार दिन बाद अपने गांव पहुंचा था। ऐसी घटनाएं रोज घट रही हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हो रहे हैं। लेकिन बिहारी रेल मंत्री होने के बावजूद इस समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वैसे ही लालू यादव गपोड़शंखी हैं और उन्हें गपोड़ करने में ही मजा आता है। चूंकि इसका कोई राजनीतिक माइलेज उन्हें मिलता नजर नहीं आ रहा है - लिहाजा उनका ध्यान इस ओर नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा- कब तक निरीह और गरीब बिहारी-पूरबिया इसका शिकार बनते रहेंगे।
Wednesday, March 5, 2008
पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है गंगा एक्सप्रेस वे
उमेश चतुर्वेदी
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
Tuesday, March 4, 2008
दहशत के साए में फसल
उमेश चतुर्वेदी
आपने शायद ही सुना होगा कि बुवाई के वक्त खेत का मालिकाना हक किसी और के पास होता है और जब फसल तैयार हो जाती है तो उसे काटने के लिए कोई और पहुंच जाता है। इसके लिए उसे खून की नदी बहाने से भी कोई गुरेज नहीं होता। सुनने-पढ़ने में ये हमें भले ही अचरजभरा लगे- लेकिन उत्तर प्रदेश – बिहार सीमा पर हर साल रबी के मौसम में ऐसा ही होता है। दोनों राज्यों के बीच जारी सीमा विवाद इसकी अहम वजह है।
गंगा किनारे पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया और आरा जिले की सीमा पर हासनगर दियारे में इस साल भी सीमा विवाद को लेकर गोलियां तड़तड़ाने का दौर जारी है। फरवरी के पहले हफ्ते में इलाके के गांव गायघाट के किसान खेत नापी का काम कर रहे थे। इसी बीच बिहार के दबंग किसान भी वहां पहुंच गए। दोनों के बीच कहासुनी होने लगी। मामला तूल पकड़ते देर नहीं लगा और दोनों तरफ के किसान आमने-सामने हो गए। दोनों तरफ के किसानों के बीच खेतों पर हक को लेकर तू-तू-मैं-मैं के बाद तकरीबन हर हफ्ते गोलियां बरसाने का दौर चल रहा है। दरअसल इस इलाके के 39 गांवों की 7062 एकड़ जमीन विवादित है। उत्तर प्रदेश के किसान इसे अपना बताते हैं – तो बिहार की तरफ के लोगों का कहना है कि ये जमीन उनकी है। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि गंगा किनारे जलोढ़ मिट्टी वाले इन खेतों में असल विवाद कटाई के दौरान होता है। बुवाई के वक्त खेतों पर मालिकाना हक के लिए दोनों तरफ से कम ही विवाद होता है। लेकिन शायद ही कोई साल हो – जब फसल कटाई के दौरान गोलियां नहीं चलतीं। हर साल कई लोग इस खूनी विवाद की भेंट चढ़ जाते हैं। लेकिन ना तो उत्तर प्रदेश और बिहार की राज्य सरकारें – और ना ही केंद्र सरकार इस मसले पर कोई कारगर कदम उठाती है। ताकि इस खूनी संघर्ष को रोका जा सके।
दरअसल उत्तर प्रदेश के बलिया और बिहार के छपरा,आरा, बक्सर और सीवान जिले के 153 गांवों की करीब 65 हजार एकड़ जमीन आज भी सीमा विवाद में उलझी हुई है। सीवान को छोड़ दें तो बाकी जिलों और बलिया के बीच बहती गंगा नदी इस विवाद की असल जड़ है। यह विवाद 150 साल से भी ज्यादा पुराना है। इसमें बिहार के 114 गांवों की 44177.55 एकड़ और उत्तर प्रदेश के 39 गांवों की 20174.77 एकड़ जमीन को लेकर विवाद है। लेकिन खूनी संघर्ष करीब 7062 एकड़ के लिए ही ज्यादा होता रहा है। इसे लेकर साल दर साल सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है। इसी खूनी संघर्ष से बौखलाई केंद्र सरकार ने साल 1962 में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी सी एम त्रिवेदी की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई थी। जिसने 1964 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। उसी एक्ट के बाद संसद ने बिहार-यूपी ऑल्टरेशन ऑफ बाउंड्री एक्ट 1968 पारित किया। अपनी सिफारिश में त्रिवेदी समिति ने दोनों राज्यों के वर्ष 1879 से 1883 के गांवों की यथास्थिति बनाए रखने पर जोर दिया था। लेकिन अचरज की बात ये है कि संसद के इस कानून बनाए जाने के बावजूद दोनों तरफ की सरकारों और केंद्र ने इसे लागू नहीं किया। यही वजह है कि बलिया-आरा सीमा पर स्थित नैनीजोर दियारे में हर साल रबी के मौसम में कटाई के वक्त खून की होली खेली जाती है। हालांकि अपने किसानों की हिफाजत के लिए दोनों तरफ की सरकारें सुरक्षा बलों को तैनात करती हैं। दोनों तरफ का प्रशासन अपने किसानों के पक्ष में मुस्तैद भी रहता है। साल 1993 में तो उत्तर प्रदेश की पीएसी ने आरा के डीएम पर ही गोली चला दी थी। तब आरा के जिलाधिकारी फसल कटाई में अपने किसानों की सहायता में गंगा के दक्षिणी किनारे तक खुद आ गए थे। बक्सर के विधायक रहे स्वामीनाथ तिवारी के एक ऐसी ही कोशिश पर पीएसी ने गोली चला दी थी। दो साल पहले बिहार के दबंग किसानों ने उत्तर प्रदेश के 11 किसानों को बंधक बना लिया था। वैसे अब तक का इतिहास रहा है कि इस विवाद में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश की तरफ के किसानों को ही उठाना पड़ा है।
इस जमीनी विवाद को बढ़ाने और हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में इस जमीन के उपजाऊपन की ज्यादा विशेषता है। इस इलाके में अगर गंगा में बाढ़ आ गई तो बिना खाद – पानी के गेहूं-चना-मसूर के साथ ही परवल, तरबूज और दूसरी सब्जियों की भरपूर पैदावार होती है। हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन परवल इसी इलाके में पैदा होता है और इसकी सप्लाई पूरे देश में होती है। हर साल करोड़ों की कमाई तो सिर्फ परवल के निर्यात से ही हो रही है। जमीनी विवाद के साथ ही परवल की भारी कमाई के चलते हर साल परवल किसानों को बदमाशों का भी शिकार बनना पड़ रहा है और इलाकाई किसान इस दहशत में जीने और रोजी-रोटी चलाने के लिए मजबूर हैं। रही-सही कसर सीमा विवाद पूरा कर देता है।
ऐसा नहीं कि इस मसले को सुलझाया नहीं जा सकता। अगर दोनों तरफ की सरकारें चाहें तो दोनों तरफ के लोगों को साथ बैठाकर इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। बाहरी लोगों को जानकर ये ताज्जुब होगा कि सीमा विवाद और गोलियों की गड़गड़ाहट के बावजूद दोनों तरफ के लोगों के बीच रोटी और बेटी का रिश्ता भी बदस्तूर जारी है। लेकिन फसलों को लेकर हर साल दोनों तरफ के दो-चार लोगों को जान गंवानी पड़ रही है। कोई कारण नहीं कि मायावती और नीतीश कुमार मिलकर इस समस्या का समाधान ना निकाल सकें। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि पहल कौन करे।
आपने शायद ही सुना होगा कि बुवाई के वक्त खेत का मालिकाना हक किसी और के पास होता है और जब फसल तैयार हो जाती है तो उसे काटने के लिए कोई और पहुंच जाता है। इसके लिए उसे खून की नदी बहाने से भी कोई गुरेज नहीं होता। सुनने-पढ़ने में ये हमें भले ही अचरजभरा लगे- लेकिन उत्तर प्रदेश – बिहार सीमा पर हर साल रबी के मौसम में ऐसा ही होता है। दोनों राज्यों के बीच जारी सीमा विवाद इसकी अहम वजह है।
गंगा किनारे पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया और आरा जिले की सीमा पर हासनगर दियारे में इस साल भी सीमा विवाद को लेकर गोलियां तड़तड़ाने का दौर जारी है। फरवरी के पहले हफ्ते में इलाके के गांव गायघाट के किसान खेत नापी का काम कर रहे थे। इसी बीच बिहार के दबंग किसान भी वहां पहुंच गए। दोनों के बीच कहासुनी होने लगी। मामला तूल पकड़ते देर नहीं लगा और दोनों तरफ के किसान आमने-सामने हो गए। दोनों तरफ के किसानों के बीच खेतों पर हक को लेकर तू-तू-मैं-मैं के बाद तकरीबन हर हफ्ते गोलियां बरसाने का दौर चल रहा है। दरअसल इस इलाके के 39 गांवों की 7062 एकड़ जमीन विवादित है। उत्तर प्रदेश के किसान इसे अपना बताते हैं – तो बिहार की तरफ के लोगों का कहना है कि ये जमीन उनकी है। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि गंगा किनारे जलोढ़ मिट्टी वाले इन खेतों में असल विवाद कटाई के दौरान होता है। बुवाई के वक्त खेतों पर मालिकाना हक के लिए दोनों तरफ से कम ही विवाद होता है। लेकिन शायद ही कोई साल हो – जब फसल कटाई के दौरान गोलियां नहीं चलतीं। हर साल कई लोग इस खूनी विवाद की भेंट चढ़ जाते हैं। लेकिन ना तो उत्तर प्रदेश और बिहार की राज्य सरकारें – और ना ही केंद्र सरकार इस मसले पर कोई कारगर कदम उठाती है। ताकि इस खूनी संघर्ष को रोका जा सके।
दरअसल उत्तर प्रदेश के बलिया और बिहार के छपरा,आरा, बक्सर और सीवान जिले के 153 गांवों की करीब 65 हजार एकड़ जमीन आज भी सीमा विवाद में उलझी हुई है। सीवान को छोड़ दें तो बाकी जिलों और बलिया के बीच बहती गंगा नदी इस विवाद की असल जड़ है। यह विवाद 150 साल से भी ज्यादा पुराना है। इसमें बिहार के 114 गांवों की 44177.55 एकड़ और उत्तर प्रदेश के 39 गांवों की 20174.77 एकड़ जमीन को लेकर विवाद है। लेकिन खूनी संघर्ष करीब 7062 एकड़ के लिए ही ज्यादा होता रहा है। इसे लेकर साल दर साल सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है। इसी खूनी संघर्ष से बौखलाई केंद्र सरकार ने साल 1962 में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी सी एम त्रिवेदी की अध्यक्षता में एक जांच समिति बनाई थी। जिसने 1964 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी थी। उसी एक्ट के बाद संसद ने बिहार-यूपी ऑल्टरेशन ऑफ बाउंड्री एक्ट 1968 पारित किया। अपनी सिफारिश में त्रिवेदी समिति ने दोनों राज्यों के वर्ष 1879 से 1883 के गांवों की यथास्थिति बनाए रखने पर जोर दिया था। लेकिन अचरज की बात ये है कि संसद के इस कानून बनाए जाने के बावजूद दोनों तरफ की सरकारों और केंद्र ने इसे लागू नहीं किया। यही वजह है कि बलिया-आरा सीमा पर स्थित नैनीजोर दियारे में हर साल रबी के मौसम में कटाई के वक्त खून की होली खेली जाती है। हालांकि अपने किसानों की हिफाजत के लिए दोनों तरफ की सरकारें सुरक्षा बलों को तैनात करती हैं। दोनों तरफ का प्रशासन अपने किसानों के पक्ष में मुस्तैद भी रहता है। साल 1993 में तो उत्तर प्रदेश की पीएसी ने आरा के डीएम पर ही गोली चला दी थी। तब आरा के जिलाधिकारी फसल कटाई में अपने किसानों की सहायता में गंगा के दक्षिणी किनारे तक खुद आ गए थे। बक्सर के विधायक रहे स्वामीनाथ तिवारी के एक ऐसी ही कोशिश पर पीएसी ने गोली चला दी थी। दो साल पहले बिहार के दबंग किसानों ने उत्तर प्रदेश के 11 किसानों को बंधक बना लिया था। वैसे अब तक का इतिहास रहा है कि इस विवाद में सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश की तरफ के किसानों को ही उठाना पड़ा है।
इस जमीनी विवाद को बढ़ाने और हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने में इस जमीन के उपजाऊपन की ज्यादा विशेषता है। इस इलाके में अगर गंगा में बाढ़ आ गई तो बिना खाद – पानी के गेहूं-चना-मसूर के साथ ही परवल, तरबूज और दूसरी सब्जियों की भरपूर पैदावार होती है। हिंदुस्तान का सबसे बेहतरीन परवल इसी इलाके में पैदा होता है और इसकी सप्लाई पूरे देश में होती है। हर साल करोड़ों की कमाई तो सिर्फ परवल के निर्यात से ही हो रही है। जमीनी विवाद के साथ ही परवल की भारी कमाई के चलते हर साल परवल किसानों को बदमाशों का भी शिकार बनना पड़ रहा है और इलाकाई किसान इस दहशत में जीने और रोजी-रोटी चलाने के लिए मजबूर हैं। रही-सही कसर सीमा विवाद पूरा कर देता है।
ऐसा नहीं कि इस मसले को सुलझाया नहीं जा सकता। अगर दोनों तरफ की सरकारें चाहें तो दोनों तरफ के लोगों को साथ बैठाकर इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। बाहरी लोगों को जानकर ये ताज्जुब होगा कि सीमा विवाद और गोलियों की गड़गड़ाहट के बावजूद दोनों तरफ के लोगों के बीच रोटी और बेटी का रिश्ता भी बदस्तूर जारी है। लेकिन फसलों को लेकर हर साल दोनों तरफ के दो-चार लोगों को जान गंवानी पड़ रही है। कोई कारण नहीं कि मायावती और नीतीश कुमार मिलकर इस समस्या का समाधान ना निकाल सकें। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि पहल कौन करे।
Tuesday, February 12, 2008
इनकी भी सुध लीजिये
उमेश चतुर्वेदी
इनकी भी परवाह कीजिए
नोएडा से बलिया तक के गंगा एक्सप्रेस वे बनाने की अभी कायदे से शुरूआत भी नहीं हुई- लेकिन इसे लेकर विवाद अभी से शुरू हो गया है। समाजवादी पार्टी चूंकि उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल की भूमिका में है। उसका काम ही है विरोध करना। लेकिन इस एक्सप्रेस वे के विरोध में ना सिर्फ पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी, बल्कि सामाजिक आंदोलनों का संगठन इंसाफ और किसान संगठन भी लामबंद होते जा रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि प्रदेश के विकास में अहम बदलाव लाने का दावा करने वाले इस एक्सप्रेस वे को लेकर जिन विन्दुओं पर ये संगठन विरोध में उतर रहे हैं - ना तो उन मुद्दों की राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा हो रही है ना ही इस विरोध की।
उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस एक्सप्रेस वे के बनने के बाद उत्तर प्रदेश के पूर्व इलाके के पिछड़े जिलों की तस्वीर बदल जाएगी। इसके जरिए लोगों को रोजगार मिलेगा और इस फ्रेट कारीडोर के बन जाने के बाद इन जलों से होते हुए देश के पूर्व इलाकों में सड़क के जरिए माल ढुलाई बढ़ जाएगी। लेकिन विरोधियों का दावा है कि जिस कीमत पर ऐसा होगा, उसके लिए जो कीमत चुकानी होगी - वह काफी महंगी होगी। वैसे इस देश में जन सरोकारों से जुड़े होने का दावा करने वाले संगठनों को लेकर इन दिनों संशय और संदेह का जो माहौल बना है - उसमें ऐसे विरोधों को लेकर उनकी नीयत पर भी शक होना आम बात है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले से लेकर बलिया तक गंगा किनारे के किसान इस परियोजना के खिलाफ स्वत: स्फूर्त ढंग से जिस तरह खड़े होते नजर आ रहे हैं - उससे स्वयंसेवी संगठनों और समूहों के विरोध पर सवाल उठाने की गुंजाइश कम हो गई है। इसकी वजह ये है कि ये संगठन अभी तक इन इलाकों में उस तरह विरोध के तेवर में नहीं पहुंचे हैं - जैसे वे सिंगूर, नंदीग्राम या फिर टिहरी में पहुंचे।
करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस प्रोजेक्ट के तहत गंगा के उत्तरी किनारे तक नोएडा से लेकर बलिया तक एक्सप्रेस वे गुजरेगा। उत्तर प्रदेश सरकार का अनुमान है कि इस परियोजना पर करीब चालीस हजार करोड़ रूपए का खर्च आएगा। इस प्रोजेक्ट के तहत एक्सप्रेस वे की चौड़ाई 153 मीटर होगी। इस पर करीब 15 हजार हेक्टेयर से कुछ ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार करीब 64 हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। इस एक्सप्रेस वे को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा को लेकर इस जमीन के अधिग्रहण ने ही परियोजना के विरोधियों को सवाल उठाने का मौका दे दिया है। विरोधियों का सवाल है कि चार गुना ज्यादा जमीन के अधिग्रहण का क्या औचित्य है। हकीकत तो ये है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच ही ज्यादा जमीन अधिग्रहीत की जानी है। इसकी वजह ये है कि अधिग्रहीत की गई इन जमीनों पर एक्सप्रेस वे बनाने वाली कंपनी का मालिकाना हक होगा और वह इसे जिसे चाहे बेच सकेगी। परियोजना विरोधी किसानों का कहना है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच कई बिल्डर कंपनियों की निगाह है। जो टाउनशिप विकसित करने की मंशा रखती हैं। यानी एक्सप्रेस हाईवे के साथ गंगा किनारे नोएडा से लेकर बलिया तक कम से कम बड़े शहरों यानी अलीगढ़, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और बलिया और इन जिलों के बड़े कस्बों के किनारे जगह-जगह नए शहर बनाने की योजना पर काम हो रहा है। उत्तर प्रदेश के पूर्व राजस्व मंत्री अंबिका चौधरी का दावा है कि जिस कंपनी को ये हाईवे प्रोजेक्ट बनाने की जिम्मेदारी दी जा रही है - उससे इलाहाबाद की मेजा तहसील के पास एक बिल्डर कंपनी ने तीन हजार एकड़ जमीन खरीदने का प्रस्ताव रख दिया है। अंबिका चौधरी का दावा है कि ऐसे कई और प्रस्ताव प्रोजेक्ट पूरा करने जा रही कंपनी को आ चुके हैं।
सरसरी तौर पर देखने में इस प्रस्ताव में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसके कानूनी पहलुओं पर विचार किया जाय - इसके दूरगामी असर का आकलन किया जाय तो हकीकत कुछ और ही है। जहां तक कानूनी सवाल की बात है तो उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जिस मकसद की खातिर किसानों से जमीन अधिग्रहीत की जाती है - अगर किसी कारणवश वह मकसद पूरा नहीं होता तो वह जमीन खुद-ब-खुद उस किसान की हो जाती है। यानी एक्सप्रेस वे के लिए जमीन ली जा रही है और किसी कारणवश इसका एक्सप्रेस वे बनाने में इस्तेमाल नहीं हो पाता तो ये जमीन कानूनी तौर पर खुद-ब-खुद किसानों की हो जानी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होने जा रहा। किसानों का विरोध इसे ही लेकर है कि एक तो एक्सप्रेस वे की जरूरत से ज्यादा उनकी जमीन को अधिग्रहीत किया जा रहा है। वह भी सरकारी रेट पर - लेकिन उसे लेने वाली कंपनी बाद में ऊंची कीमत पर टाउनशिप विकसित करने वाली कंपनियों को देकर मुनाफा कमाएगी। सदियों से गंगा के किनारे वाली ये जमीन बेहद उपजाऊ रही है। गंगा ने मिट्टी फेंकी तो समझो हर साल किसानों को बिना हर्र-फिटकरी लगे किसानों की बखार गेहूं और चने से भरती रही है। लेकिन उनकी ये जमीन टाउनशिप के सौदागरों के हाथ में चली जाएगी और उनके लहलहाने वाले खेतों पर नगर और बाजार खड़े हो जाएंगे। जिन पर उनका कोई हक नहीं होगा। एक और तथ्य को लेकर भी विरोध की आंच सुलग रही है। दुनिया में जब भी कहीं अधिग्रहण होता है तो मुआवजे के तौर पर एक हिस्सा प्रभावित हो रहे किसानों और जमीन मालिकों को मिलता है। लेकिन इस एक्सप्रेस वे की योजना में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। चूंकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ये ड्रीम प्रोजेक्ट है। उससे साफ है कि देर-सवेर उत्तर प्रदेश सरकार इन कमियों को ढंकने के लिए कानूनी प्रावधानों में संशोधन पारित करा सकती हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी जिस तरह इसके विरोध में उठ खड़ी हुई है - वैसे में ये भी सच है कि विधानसभा से उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन पारित करा पाना आसान नहीं होगा।
वैसे भी खासतौर पर पूर्वी जिलों के किसान इस परियोजना से ज्यादा प्रभावित होंगे। सदियों से गंगा के किनारे का ये इलाका अपनी जलोढ़ मिट्टी के लिए बेहद उपजाऊ माना जाता रहा है। बलिया और गाजीपुर का परवल, तरबूज, करेला और गेहूं-चने की बेहतरीन फसल गंगा किनारे की इस जलोढ़ मिट्टी से ही उपजती रही है। जिससे लाखों लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। किसानों के साथ ना Êसर्फ उत्तर प्रदेश - बल्कि गंगा के दूसरे किनारे बिहार के इलाके के खेतिहर मजदूरों की भी जिंदगी जुड़ी रही है। माना उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और उसके किनारे सटे बिहार के जिलों से आम लोगों का पलायन ज्यादा हो रहा है। लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा भी है - जो खेतिहर मजदूर है और इस जलोढ़ मिट्टी के ही चलते कम से कम साल भर की रोजीरोटी चलती रही है। मजे की बात ये है कि ये लोग भी किसानों के साथ विरोध में उठ खड़े होते जा रहे हैं। ये विरोध ही असल वजह है कि बलिया में अपने जन्मदिन 22 जनवरी 2008 को मायावती अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना का शिलान्यास करने वालीं थीं। लेकिन उन्हें लखनऊ से ही काम चलाना पड़ा। हालांकि शिलान्यास स्थल आज भी तैयार है - लेकिन उसे पीएसी, पुलिस के कड़े पहरे में रखा गया है।
तो क्या मान लिया जाय कि मायावती की ये योजना भी सिंगूर और नंदीग्राम बनने की राह पर है। एक हद तक ये आशंका सच भी साबित हो सकती है। लेकिन ये भी सच है कि जिन लोगों पर इस एक्सप्रेस वे प्रोजेक्ट का नकारात्मक असर पड़ने वाला है - जिन गांवों को उजाड़ा जाना है। उनकी भी सुध ली जाए। उनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश भी की जाए। जनतांत्रिक समाज में बातचीत और प्रभावित लोगों की समस्याओं का आकलन किए जाने बिना कोई भी परियोजना चाहे कितनी भी फायदेमंद क्यों ना हो - लागू नहीं की जानी चाहिए। जिद्द के सहारे प्रोजेक्ट लागू करने का हश्र नंदीग्राम और सिंगूर ही होता है। ये नंदीग्राम और सिंगूर का विरोध ही है कि गोवा सरकार को सेज बनाने की योजनाओं से हाथ खींचना पड़ा है। क्या उत्तर प्रदेश सरकार भी ऐसा कदम उठाएगी। फिलहाल सबकी निगाहें इसी पर ही हैं।
इनकी भी परवाह कीजिए
नोएडा से बलिया तक के गंगा एक्सप्रेस वे बनाने की अभी कायदे से शुरूआत भी नहीं हुई- लेकिन इसे लेकर विवाद अभी से शुरू हो गया है। समाजवादी पार्टी चूंकि उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल की भूमिका में है। उसका काम ही है विरोध करना। लेकिन इस एक्सप्रेस वे के विरोध में ना सिर्फ पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी, बल्कि सामाजिक आंदोलनों का संगठन इंसाफ और किसान संगठन भी लामबंद होते जा रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि प्रदेश के विकास में अहम बदलाव लाने का दावा करने वाले इस एक्सप्रेस वे को लेकर जिन विन्दुओं पर ये संगठन विरोध में उतर रहे हैं - ना तो उन मुद्दों की राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा हो रही है ना ही इस विरोध की।
उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस एक्सप्रेस वे के बनने के बाद उत्तर प्रदेश के पूर्व इलाके के पिछड़े जिलों की तस्वीर बदल जाएगी। इसके जरिए लोगों को रोजगार मिलेगा और इस फ्रेट कारीडोर के बन जाने के बाद इन जलों से होते हुए देश के पूर्व इलाकों में सड़क के जरिए माल ढुलाई बढ़ जाएगी। लेकिन विरोधियों का दावा है कि जिस कीमत पर ऐसा होगा, उसके लिए जो कीमत चुकानी होगी - वह काफी महंगी होगी। वैसे इस देश में जन सरोकारों से जुड़े होने का दावा करने वाले संगठनों को लेकर इन दिनों संशय और संदेह का जो माहौल बना है - उसमें ऐसे विरोधों को लेकर उनकी नीयत पर भी शक होना आम बात है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि खासतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिले से लेकर बलिया तक गंगा किनारे के किसान इस परियोजना के खिलाफ स्वत: स्फूर्त ढंग से जिस तरह खड़े होते नजर आ रहे हैं - उससे स्वयंसेवी संगठनों और समूहों के विरोध पर सवाल उठाने की गुंजाइश कम हो गई है। इसकी वजह ये है कि ये संगठन अभी तक इन इलाकों में उस तरह विरोध के तेवर में नहीं पहुंचे हैं - जैसे वे सिंगूर, नंदीग्राम या फिर टिहरी में पहुंचे।
करीब एक हजार किलोमीटर लंबे इस प्रोजेक्ट के तहत गंगा के उत्तरी किनारे तक नोएडा से लेकर बलिया तक एक्सप्रेस वे गुजरेगा। उत्तर प्रदेश सरकार का अनुमान है कि इस परियोजना पर करीब चालीस हजार करोड़ रूपए का खर्च आएगा। इस प्रोजेक्ट के तहत एक्सप्रेस वे की चौड़ाई 153 मीटर होगी। इस पर करीब 15 हजार हेक्टेयर से कुछ ज्यादा जमीन की जरूरत होगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार करीब 64 हजार हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है। इस एक्सप्रेस वे को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा को लेकर इस जमीन के अधिग्रहण ने ही परियोजना के विरोधियों को सवाल उठाने का मौका दे दिया है। विरोधियों का सवाल है कि चार गुना ज्यादा जमीन के अधिग्रहण का क्या औचित्य है। हकीकत तो ये है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच ही ज्यादा जमीन अधिग्रहीत की जानी है। इसकी वजह ये है कि अधिग्रहीत की गई इन जमीनों पर एक्सप्रेस वे बनाने वाली कंपनी का मालिकाना हक होगा और वह इसे जिसे चाहे बेच सकेगी। परियोजना विरोधी किसानों का कहना है कि गंगा और एक्सप्रेस वे के बीच कई बिल्डर कंपनियों की निगाह है। जो टाउनशिप विकसित करने की मंशा रखती हैं। यानी एक्सप्रेस हाईवे के साथ गंगा किनारे नोएडा से लेकर बलिया तक कम से कम बड़े शहरों यानी अलीगढ़, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर, वाराणसी, गाजीपुर और बलिया और इन जिलों के बड़े कस्बों के किनारे जगह-जगह नए शहर बनाने की योजना पर काम हो रहा है। उत्तर प्रदेश के पूर्व राजस्व मंत्री अंबिका चौधरी का दावा है कि जिस कंपनी को ये हाईवे प्रोजेक्ट बनाने की जिम्मेदारी दी जा रही है - उससे इलाहाबाद की मेजा तहसील के पास एक बिल्डर कंपनी ने तीन हजार एकड़ जमीन खरीदने का प्रस्ताव रख दिया है। अंबिका चौधरी का दावा है कि ऐसे कई और प्रस्ताव प्रोजेक्ट पूरा करने जा रही कंपनी को आ चुके हैं।
सरसरी तौर पर देखने में इस प्रस्ताव में कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसके कानूनी पहलुओं पर विचार किया जाय - इसके दूरगामी असर का आकलन किया जाय तो हकीकत कुछ और ही है। जहां तक कानूनी सवाल की बात है तो उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून के तहत जिस मकसद की खातिर किसानों से जमीन अधिग्रहीत की जाती है - अगर किसी कारणवश वह मकसद पूरा नहीं होता तो वह जमीन खुद-ब-खुद उस किसान की हो जाती है। यानी एक्सप्रेस वे के लिए जमीन ली जा रही है और किसी कारणवश इसका एक्सप्रेस वे बनाने में इस्तेमाल नहीं हो पाता तो ये जमीन कानूनी तौर पर खुद-ब-खुद किसानों की हो जानी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं होने जा रहा। किसानों का विरोध इसे ही लेकर है कि एक तो एक्सप्रेस वे की जरूरत से ज्यादा उनकी जमीन को अधिग्रहीत किया जा रहा है। वह भी सरकारी रेट पर - लेकिन उसे लेने वाली कंपनी बाद में ऊंची कीमत पर टाउनशिप विकसित करने वाली कंपनियों को देकर मुनाफा कमाएगी। सदियों से गंगा के किनारे वाली ये जमीन बेहद उपजाऊ रही है। गंगा ने मिट्टी फेंकी तो समझो हर साल किसानों को बिना हर्र-फिटकरी लगे किसानों की बखार गेहूं और चने से भरती रही है। लेकिन उनकी ये जमीन टाउनशिप के सौदागरों के हाथ में चली जाएगी और उनके लहलहाने वाले खेतों पर नगर और बाजार खड़े हो जाएंगे। जिन पर उनका कोई हक नहीं होगा। एक और तथ्य को लेकर भी विरोध की आंच सुलग रही है। दुनिया में जब भी कहीं अधिग्रहण होता है तो मुआवजे के तौर पर एक हिस्सा प्रभावित हो रहे किसानों और जमीन मालिकों को मिलता है। लेकिन इस एक्सप्रेस वे की योजना में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। चूंकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ये ड्रीम प्रोजेक्ट है। उससे साफ है कि देर-सवेर उत्तर प्रदेश सरकार इन कमियों को ढंकने के लिए कानूनी प्रावधानों में संशोधन पारित करा सकती हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी जिस तरह इसके विरोध में उठ खड़ी हुई है - वैसे में ये भी सच है कि विधानसभा से उत्तर प्रदेश भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन पारित करा पाना आसान नहीं होगा।
वैसे भी खासतौर पर पूर्वी जिलों के किसान इस परियोजना से ज्यादा प्रभावित होंगे। सदियों से गंगा के किनारे का ये इलाका अपनी जलोढ़ मिट्टी के लिए बेहद उपजाऊ माना जाता रहा है। बलिया और गाजीपुर का परवल, तरबूज, करेला और गेहूं-चने की बेहतरीन फसल गंगा किनारे की इस जलोढ़ मिट्टी से ही उपजती रही है। जिससे लाखों लोगों का रोजगार जुड़ा हुआ है। किसानों के साथ ना Êसर्फ उत्तर प्रदेश - बल्कि गंगा के दूसरे किनारे बिहार के इलाके के खेतिहर मजदूरों की भी जिंदगी जुड़ी रही है। माना उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और उसके किनारे सटे बिहार के जिलों से आम लोगों का पलायन ज्यादा हो रहा है। लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा भी है - जो खेतिहर मजदूर है और इस जलोढ़ मिट्टी के ही चलते कम से कम साल भर की रोजीरोटी चलती रही है। मजे की बात ये है कि ये लोग भी किसानों के साथ विरोध में उठ खड़े होते जा रहे हैं। ये विरोध ही असल वजह है कि बलिया में अपने जन्मदिन 22 जनवरी 2008 को मायावती अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना का शिलान्यास करने वालीं थीं। लेकिन उन्हें लखनऊ से ही काम चलाना पड़ा। हालांकि शिलान्यास स्थल आज भी तैयार है - लेकिन उसे पीएसी, पुलिस के कड़े पहरे में रखा गया है।
तो क्या मान लिया जाय कि मायावती की ये योजना भी सिंगूर और नंदीग्राम बनने की राह पर है। एक हद तक ये आशंका सच भी साबित हो सकती है। लेकिन ये भी सच है कि जिन लोगों पर इस एक्सप्रेस वे प्रोजेक्ट का नकारात्मक असर पड़ने वाला है - जिन गांवों को उजाड़ा जाना है। उनकी भी सुध ली जाए। उनकी समस्याओं को दूर करने की कोशिश भी की जाए। जनतांत्रिक समाज में बातचीत और प्रभावित लोगों की समस्याओं का आकलन किए जाने बिना कोई भी परियोजना चाहे कितनी भी फायदेमंद क्यों ना हो - लागू नहीं की जानी चाहिए। जिद्द के सहारे प्रोजेक्ट लागू करने का हश्र नंदीग्राम और सिंगूर ही होता है। ये नंदीग्राम और सिंगूर का विरोध ही है कि गोवा सरकार को सेज बनाने की योजनाओं से हाथ खींचना पड़ा है। क्या उत्तर प्रदेश सरकार भी ऐसा कदम उठाएगी। फिलहाल सबकी निगाहें इसी पर ही हैं।
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