मोहन धारिया से उमेश चतुर्वेदी की बातचीत
आपके मन में वनराई और सीएनआरआई का विचार कैसे आया ?
देखिए, हमने जनता पार्टी के जरिए देश की तस्वीर बदलने का सपना देखा था। इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ एक हुए थे। लोगों ने हम पर भरोसा भी किया। मुझे याद है – 1977 के चुनाव प्रचार में कई जगहों पर हमने कहा कि हमारा उम्मीदवार अच्छा आदमी है। उसके पास पैसा नहीं है तो लोगों ने हमारी तरफ सिक्के तक उछाल कर फेंके थे। हमें रूपए भी दिए। जनता ने हम पर भरोसा किया। लेकिन हमने 1980 आते-आते उसे भरोसे को तोड़ दिया। तब मुझे लगा कि मौजूदा राजनीति में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। और मैंने राजनीति को विदा कह दिया। इसके बाद ही मैंने वनराई का गठन किया। गांधी के सपनों के मुताबिक गांवों को आत्मनिर्भर और हरा-भरा बनाने की दिशा में जुट गया। वैसे 1972 में स्टॉकहोम में पर्यावरण को लेकर पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था। उसमें धरती के बदले वातावरण और पर्यावरण को हो रहे नुकसान को बचाने को लेकर विचार हुआ था। उसमें मैंने भी हिस्सा लिया था। बाद में जब आपातकाल के दौरान जेल में 16 महीने तक बंद रहा तो उस दौरान भी मैंने इस विषय पर खूब सोचा। तभी मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि अगर धरती और पेड़-पौधों को बचाने की कवायद शुरू नहीं की गई तो मानवता ही खतरे में पड़ जाएगी। जनता पार्टी के टूटने के बाद उसी विचार की बुनियाद पर हमने काम शुरू किया।
आप पर्यावरण को लगातार पहुंच रहे इस नुकसान के लिए किसे जिम्मेदार मानते हैं?
देखिए, पहले पर्यावरण की रक्षा पूरे समाज का सरोकार था। मुझे याद है कि जब बरसात आने को होती थी तो मेरे बाबा पूरे गांव को इकट्ठा करके गांव के तालाब को साफ और गहरा करने की बात कहते थे। फिर पूरा गांव श्रमदान करके तालाब को गहरा कर देता था। इसके लिए पैसे की जरूरत नहीं होती थी। लोगों को लगता था कि अगर उन्होंने तालाब को नहीं सुधारा तो गांव में पानी नहीं बचेगा और पानी नहीं होगा तो उन्हें पीने के साथ ही खेती के लिए भी पानी की कमी होगी। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। तालाब को सुधारने की इच्छा तो सभी रखते हैं – लेकिन ये काम ठेकेदार करता है। उसका काम सरकारी पैसे की लूट-खसोट में ज्यादा रहता है। हमने सीएनआरआई का गठन इसी लिए किया है कि वह ठेकेदारों और ऐसे कामों की निगरानी रखे। वैसे मेरा मानना है कि आज भी लोगों को समझाया जाय तो अपने गांव-घर की खातिर पर्यावरण की रक्षा के लिए श्रमदान करने से नहीं हिचकेंगे।
देश में महंगाई और अनाज संकट की आजकल खूब चर्चा हो रही है। लेकिन लोगों का इस ओर ध्यान नहीं है कि शहर के विस्तार और सेज के लिए लगातार उपजाऊ जमीनों का ही इस्तेमाल हो रहा है। इसे लेकर आपके क्या विचार हैं ?
बिल्कुल गलत हो रहा है। चीन जैसे बड़े देश में सिर्फ 75 स्पेशल इकोनॉमिक जोन हैं। लेकिन भारत में सेज की ऐसी आंधी चल पड़ी है कि हर राज्य दस-बीस को कौन कहे सौ-दो सौ सेज बनाना चाहता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इतने सेज की देश में जरूरत नहीं है। वैसे भी सेज के लिए देश में अब भी काफी ज्यादा बंजर भूमि है। उसका इस्तेमाल होना चाहिए। अगर इसे लेकर सरकार नहीं चेती तो साफ है आने वाले दिनों में देश को और ज्यादा अनाज संकट से जूझना पड़ेगा।
आप युवा तुर्क के ग्रुप के सदस्य रहे। आपके साथी चंद्रशेखर और रामधन तो उत्तर प्रदेश के ही थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। क्या आपका ध्यान कभी पूर्वी उत्तर और बिहार के गांवों को बदलने की ओर नहीं गया।
ऐसा नहीं है। मैंने अपने दोस्त चंद्रशेखर से कई बार कहा कि तुम मुझे लोग दो- मैं तुम्हारे इलाके के गांवों की भी तस्वीर बदलना चाहता हूं। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। मैं लोग इसलिए चाहता था – क्योंकि बलिया या बिहार के लोगों से वह सीधे संपर्क में था। उसका कहा लोग मानते – लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। चंद्रशेखर ऐसे विकास करने-कराने के लिए नहीं बना था। उसने मेरी बात नहीं सुनीं। लिहाजा हमने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों को बदलने का काम हाथ में नहीं लिया। मैंने तो उसे भोंडसी में निर्माण कराने से भी मना किया था। लेकिन वह नहीं माना। वैसे भी वन भूमि पर निर्माण गैरकानूनी ही होता है। इसका हश्र बाद में दिखा भी।
लेकिन चंद्रशेखर ने भी तो भारत यात्रा केंद्र के जरिए विकास का सपना देखा था।
चंद्रशेखर के भारत यात्रा केंद्र बाद में किस तरह की राजनीति के अड्डे बन गए। ये भी किसी से छुपा नहीं है।
आपने ग्रामीण भारत के स्वयंसहायता समूहों का राष्ट्रीय परिसंघ (सीएनआरआई) बनाया है। आम एनजीओ को लेकर धारणा ये है कि ये सिर्फ पैसे बनाने का जरिया हैं-विकास से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। एनजीओ को लेकर इस धारणा को बदलने को लेकर आपकी कोई योजना है?
देखिए, सीएनआरआई की सदस्यता के लिए हमने पहली शर्त रखी है कि उस एनजीओ को अपने काम में पूरी पारदर्शिता रखनी होगी। हमारा मानना है कि एनजीओ का काम ठेका लेना नहीं- बल्कि ठेकेदार और सरकारी मशीनरी की मॉनिटरिंग करना है। हमारे संगठन में शामिल हर एनजीओ पर हमारी कड़ी निगाह रहती है। अगर उसकी गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो उसे अपने संगठन से निकालने से हमें कोई परहेज नहीं होगा।
Monday, May 19, 2008
आम भागीदारी से गांवों की तस्वीर बदलता युवा तुर्क
उमेश चतुर्वेदी
चौरासी साल की उम्र में आम आदमी थककर जिंदगी के आखिरी वक्त को रामनाम के सहारे काटने लगता है। पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में युवा तुर्क के नाम से भारतीय राजनीति में विख्यात रहे मोहन धारिया उनमें से नहीं हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी वे पूरी शिद्दत से जुटे हुए हैं। ये उनकी सक्रियता और कुशल नेतृत्व का ही असर है कि इस समय ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ में छह हजार से ज्यादा एनजीओ एक छतरी के नीचे काम कर रहे हैं। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल को जब इसी संगठन सीएनआरआई का तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तो उसके उद्घाटन सत्र में ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को कहना पड़ा कि अब सरकारी मशीनरी और सरकार को गांवों में विकास कार्य कराने के स्वयं सहायता समूहों के पास आना पड़ेगा।
ग्रामीण भारत के स्वयं सहायता समूहों के परिसंघ की स्थापना तीन साल पहले कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के गुरूकुल में मोहन धारिया ने की।
इस देश में करीब 29 लाख एनजीओ हैं जो ग्रामीण से लेकर शहरी भारत में अपनी-अपनी तरह से विकास का काम कर रहे हैं। वैसे भी एनजीओ का नाम आते ही आम लोगों के सामने सहायता के नाम पर पैसा बनाने वाले जेबी संगठनों की ही तस्वीर उभरती है। इसके लिए स्वयं एनजीओ का गोरखधंधा ही जिम्मेदार है। राजनीति और अफसरशाही में कई ऐसे लोग मिल जाएंगे- जिन्होंने एनजीओ के नाम पर जेबी संगठन बनाकर मलाई काट रहे हैं। मोहन धारिया का नाम उसूलों की राजनीति के लिए जाना जाता रहा है। ऐसे में उनके सामने ये चुनौती है कि उनके संगठन पर ऐसे दाग ना लगें। इसके लिए उन्होंने चाकचौबंद व्यवस्था करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि सीएनआरआई के गठन के दिन ही ये तय कर दिया गया कि इसका सदस्य बनने वाले एनजीओ को पारदर्शी तरीके से काम करना होगा और अपने आय-व्यय और काम करने का ब्यौरा हर साल पेश करना होगा। इस संगठन के छह हजार से ज्यादा सदस्य होने से साबित होता है कि अब भी देश में काम करने वाले और उसूलों वाले लोग कम नहीं हैं। सीएनआरआई के लिए उन्होंने तय कर दिया है कि एनजीओ का काम ठेकेदारी करना नहीं है- बल्कि उसका मानिटरिंग करना है। राजधानी दिल्ली में 25 अप्रैल से 27 अप्रैल तक चले इसके तीसरे सालाना सम्मेलन में इसकी बार-बार चर्चा हुई। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपने उद्घाटन भाषण में इससे जहां सहमति जताई- वहीं पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू तक ने एनजीओ को ये भूमिका देने की जोरदार वकालत की।
साठ और सत्तर के दशक में भारतीय राजनीति में युवा तुर्क के तौर पर विख्यात पांच नेताओं में से अब सिर्फ मोहन धारिया ही सक्रिय हैं। अपनी समाजवादी सोच के साथ कांग्रेस के अंदर काम करने वाले बाकी चार युवा तुर्क रामधन, ओम मेहता, कृष्णकांत और चंद्रशेखर इस दुनिया में नहीं हैं। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोप दिया तो उसका विरोध करने वाले लोगों में ये युवा तुर्क ही थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके विरोध को तवज्जो नहीं दी और उन्हें भी जेल के सींखचों के भीतर पहुंचाने में देर नहीं लगाई। जबकि इसके ठीक पहले इन युवा तुर्कों की ही रिपोर्ट पर उसी इंदिरा गांधी ने राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म किए, 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। जब जनता पार्टी बनी तो ये युवा तुर्क कांग्रेस को छोड़ जनता पार्टी में शामिल हो गए। चंद्रशेखर तो अध्यक्ष ही चुने गए। मोहन धारिया उसके महासचिव थे। लेकिन जनता पार्टी का प्रयोग जब असफल हुआ तो मोहन धारिया को बहुत चोट पहुंची। इसके बाद से ही उन्होंने राजनीति की दुनिया को अलविदा कह दिया और बनराई नाम का संगठन बना कर पर्यावरण के लिए जागरूकता फैलाने के काम में जुट गए। जनता पार्टी का प्रयोग असफल रहने की पीड़ा उनके चेहरे अब भी उभर आती है। उन्हें ये कहने से गुरेज नहीं है कि उन्होंने यानी जनता पार्टी के नेताओं ने जनता से धोखा किया।
1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहला पृथ्वी सम्मेलन हुआ था। जिसमें धरती के लगातार बदल रहे पर्यावरण को लेकर दुनियाभर के नेताओं और संगठनों ने चिंताएं जताईं थीं। उस सम्मेलन में बतौर सरकारी प्रतिनिधि मोहन धारिया भी शामिल हुए थे। तभी से सृजनशीलता की राजनीति का बीज उनके मन में पड़ गया था। आपातकाल के दिनों की 16 महीने के जेल प्रवास के दौरान इसे लेकर खासा विचार-मनन किया। और जनता पार्टी की सरकार जब गिर गई तो उन्होंने पर्यावरण को लेकर नई जागरूकता फैलाने और उसे जमीनी हकीकत बनाने में जुट गए। इसे स्वयं सहायता समूह वनराई का 1982 में गठन करके मूर्त रूप दिया। आज ये संगठन 250 गांवों के लोगों को गांधी के सपने के मुताबिक आत्मनिर्भर बना चुका है। जहां आधुनिक तरीकों से खेती होती है, पशुपालन का पूरा फायदा उठाने के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अख्तियार किया गया है। इन गांवों की गलियां इनके ही मानव मल और गोबर गैस के जरिए बनाई गई बिजली के जरिए रात को रौशन होती रहती हैं। मोहन धारिया कहते हैं कि दादरा नागर हवेली की राजधानी सिलवासा के आसपास के गांवों की पूरी तस्वीर बदल गई है। धारिया का दावा है कि वनराई का काम इतना सफल रहा है कि पूना के आसपास के कई गांवों के वे लोग अपने घरों को वापस लौट आए हैं – जो मुंबई की झुग्गियों में बदतर जिंदगी गुजार रहे थे। उनका काम महाराष्ट्र के बाहर भी फैलता जा रहा है। हाल ही में उन्होंने हरिद्वार के बगल में पांच गांवों की तस्वीर बदलने का जिम्मा उठाया है।
दुनिया में पर्यावरण को लगातार हो रहे नुकसान को रोकने और बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए आज साझा वन प्रबंध को अपनाया जा रहा है। योजना आयोग का उपाध्यक्ष रहते मोहन धारिया ने इस विचार को मूर्त रूप दिया था। उनका ये विचार कितना सफल है – इसी का असर है कि 1992 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने इसे अपना लिया। धारिया कहते हैं कि भले ही अभी-भी पेड़ों और जंगलों की गैरकानूनी कटाई हो रही हो- लेकिन इस प्रबंध का ही असर है कि एक करोड़ तिहत्तर लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर वन लगाए जा चुके हैं। जिसका फायदा एक लाख 64 हजार 63 गांवों को फायदा हुआ है। इसी के जरिए करीब नौ लाख आदिवासी परिवारों की आय बढ़ी है और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठा है। धारिया कहते हैं पंद्रह साल की ये कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।
आज भी देश की पैंसठ फीसदी आबादी गांवों में रहती है। बिना इनके विकास के देश की की तरक्की की कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं उभर सकती। शहरी मध्य वर्ग को लुभाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों की गांवों के विकास में कोई सीधी भूमिका नहीं है। लेकिन वनराई के प्रयासों से जुआरी ग्रुप और हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियां भी कुछ गांवों के विकास में दिलचस्पी ले रही हैं। लेकिन ये कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। तकलीफ तो इस बात की है कि युवा तुर्क के ग्रुप के तीन नेता उत्तर भारतीय ही थे। लेकिन चंद्रशेखर इनमें सबसे ज्यादा असरदार रहे। लेकिन मोहन धारिया को ये कहने में गुरेज नहीं है कि उनके दोस्त ने अपने इलाके के गांवों के विकास में उनके अनुरोध के बावजूद कोई दिलचस्पी नहीं ली। अन्यथा बदहाली और भ्रष्टाचार के लिए बदनाम उत्तर भारत – खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार की बदहाली की तस्वीर बदलने में ये प्रयास सकारात्मक भूमिका निभा सकता था।
इतिहास के इस युवा तुर्क का मानना है कि सरकार साथ ना दे तो भी लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाई जा सकती है। बस जरूरत है लोगों को भरोसा दिलाने की। लोगों को एक बार भरोसा हो गया कि सामने वाला सचमुच उनके साथ काम करेगा – उनके सुखदुख का ख्याल रखेगा, वे गोवर्धन पर्वत में टेक लगाने के लिए साथ खड़े होने में देर नहीं लगाएंगे।
Friday, April 25, 2008
पुरोहित जी हुए `हाईटेक´
आपको याद होगा एक मोबाइल कंपनी का विज्ञापन – जिसमें एक पुरोहित जी काफी व्यस्त नजर आ रहे हैं। उनके पास शादियां कराने का इतना ठेका होता है कि कुछ शादियां वे एक मंडप में बैठे-बैठे मोबाइल फोन के जरिए ही करा देते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इन दिनों विज्ञापन की तरह हूबहू नजारा तो नहीं दिख रहा है- लेकिन उसके जैसी हालत तो दिख ही रही है। इन दिनों लग्न का जोर है – सिर्फ अप्रैल महीने में ही शादी-विवाह का मुहूर्त है, लिहाजा एक ही गांव में एक ही दिन तीन-तीन, चार-चार शादियां हो रही हैं। जाहिर हैं इससे नाई और पुरोहित की मशरूफियत बढ़ गई है। लेकिन विकास की बाट जोह रहे पूर्वी इलाके में अभी – भी बिजली की जो हालत है , उसमें नेटवर्क मिल जाए तो गनीमत ही समझिए। लेकिन नाई और पुरोहित जी के हाथ में पंडोरा बाक्स ( पूर्व प्रधानमंत्री अटलविहारी वाजपेयी ने बीएसएनएल की मोबाइल सेवा का उद्घाटन करते वक्त इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था ) आ गया है। लिहाजा आप को दुआ करनी होगी कि आपके सात फेरे लेने से पहले तक मोबाइल का नेटवर्क दुरुस्त रहे। अगर कोई परेशानी हुई तो तय मानिए विवाह का मुहूर्त पंडित और हज्जाम को खोजने में ही गुजर जाएगा। संचार सुविधाओं के बढ़ते पांव का ही असर है कि विवाह मंडप में वैदिक मंत्रोंचार के बीच मोबाइल की घंटी घनघनाते लगती है। कोई कहीं रुककर इंतजार करने के चक्कर में नहीं रहा। सब अपने काम में मगन, जब जरूरत पड़े तो काल कीजिए। छोटे-मोटे रस्म तो मोबाइल पर ही पूरे हो रहे हैं। बदले मौसम में हर कोई बदला-बदला नजर आ रहा है। पवनी हाईटेक हो गए हैं, तो पुरोहित आनलाइन उपलब्ध है। पंडित लोगों की हालत यह है कि छोटे-मोटे रस्म मोबाइल पर ही पूरे कराए जा रहे हैं। आसानी से दो-तीन जगह का काम देख लेते हैं। यजमान भी हर छोटी-बड़ी मुश्किल पर पंडितजी की सलाह तुरंत लेते हैं। पहले पूजा-पाठ से घंटों पहले पंडित पहुंच जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। शादी-विवाह के मौके पर नाई से संपर्क बनाए रखते हैं और हमेशा तैयारी करते रहने के लिए निर्देश देते रहते हैं। सीताकुंड निवासी पंडित अक्षयवर नाथ दूबे बताते हैं कि मोबाइल के कारण काफी आसानी हो गई है। समय-समय पर सूचना मिलने के कारण ठीक वक्त पर पहुंच जाते हैं। विवाह मंडप में वे सारी तैयारी पहले से ही कराए रहते हैं और पंडितजी की `इंट्री´ बालीवुडिया फिल्मों के `मेन हीरो´ की तरह होती है। चौका पर बैठते ही इस बात की चिंता नहीं रहती कि तैयारी क्या हुई है। दनदनाते हुए मंत्रोच्चार शुरू कर देते हैं।
Thursday, April 24, 2008
बढ़ती जा रही है धड़कन ...
वाराणसी खंड निर्वाचन क्षेत्र से स्नातक विधायक के चुनाव को लेकर जिले में चहलकदमी तेज हो गई है। वक्त के साथ ही समर्थकों की धड़कने बढ़ती जा रही हैं। भाजपाई इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए कटिबद्ध है, तो कांगे्रस और सपा के लोग भी सीट हथियाने के लिए कोई कसर छोड़ने को तैयार नहीं।28 अप्रैल को होने वाले स्नातक एमएलसी चुनाव को लेकर तैयारियां तेज हो गईं हैं। सभी प्रत्याशियों के समर्थक मतदाताओं तक अपनी पहुंच बनाने में जुटे हैं। जीत-हार के दावों के साथ जोड़-तोड़ भी चल रही है। भारतीय जनता पार्टी ने निवर्तमान विधायक केदार नाथ सिंह को ही मैदान में उतारा है। पिछले चुनाव में वे द्वितीय वरीयता के मत से विजयी हुए थे। पार्टी के वोट बैंक के सहारे भाजपाई अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं। गत चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे पूर्व स्नातक एमएलसी और वाराणसी के सांसद डा. राजेश मिश्र के भाई बृजेश मिश्रा उनको इस बार भी कड़ी टक्कर दे रहे हैं। बैंक यूनियन के नेता श्री मिश्रा को बैंककर्मियों के सहयोग की भी उम्मीद है। कांगे्रस कार्यकर्ता भी लगातार जनसंपर्क में लगे हुए हैं। कांगे्रस के सूचना का अधिकार टास्क फोर्स ने बाबा हरदेव सिंह के पक्ष में हवा बनाना शुरू कर दिया है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी बाबा हरदेव के साथ नौकरशाहों का समर्थन भी मिल रहा है। प्रबुद्ध तबका उनके साथ लगा हुआ है। वहीं एससी कालेज छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष राम अवध शर्मा को छात्र-नौजवानों का सहयोग मिल रहा है। पूर्वांचल छात्र संघर्ष समिति के कार्यकर्ता भी राम अवध के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई जनपदों का भ्रमण कर चुके हैं। समाजवादी पार्टी ने अबकी बार मोहरा बदल कर मैदान मारने की कोशिश की है। पार्टी कार्यकर्ता सूबेदार सिंह की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं।
Wednesday, April 23, 2008
तो ये है बलिया की शिक्षा व्यवस्था !
बलिया को लोग बागी का उदाहरण देते हैं। उन्नीस सौ बयालिस की क्रांति और आजादी का ढिंढोरा पीटते -पीटते 66 साल बीत गए। लेकिन बलिया में भ्रष्टाचार इन दिनों जोरों पर है। पहले तो यहां के इंटर कालेजों के मैनेजरों और प्रिंसिपलों ने घूस लेकर लोगों को अध्यापक बनाने का वादा कर दिया। जिले के नामी-गिरामी नेता और पूर्व मंत्रियों के कब्जे वाले कॉलेजों और स्कूलों तक में ऐसा हुआ। अध्यापक तैनात भी कर दिए गए। उन्हें तनख्वाह दी भी गई- लेकिन ये तनख्वाह पहले से काम कर रहे अध्यापकों की भविष्यनिधि से गैरकानूनी तरीके से निकाल कर दी गई। जब इसका भंडाफोड़ हुआ तो गोरखधंधा रूका। अवैध तरीके से काम कर रहे सैकड़ों प्रशिक्षित बेरोजगार अध्यापक फिर से बेरोजगार हो गए और उनकी घूस दी हुई रकम भी डूब गई। लेकिन घूस लेने वाले अब भी अपनी चमकदार टाटा सूमो या बलेरो से बलिया का चक्कर लगाते नजर आ रहे हैं। अब ऩई बात ये है कि प्राइमरी स्कूलों में भी ऐसा ही कुछ गोरखधंधा चल रहा है। सूत्रों से पता चला है कि जिले भर में कम से कम पंद्रह प्राइमरी स्कूल अध्यापक बिना काम किए वेतन ले रहे हैं। कोई दिल्ली में पढ़ाई या रिसर्च कर रहा है तो कोई महिला अध्यापक अपने पति के साथ दूसरे राज्य में है। लेकिन उन लोगों का वेतन हर महीने मिल रहा है। सूत्रों का कहना है कि बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर की मिली भगत से ये सारा गोरखधंधा जारी है। कहा तो ये जा रहा है कि इसके लिए जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को हर महीने पगार की एक निश्चित रकम दी जाती है।
Sunday, April 6, 2008
जड़ समाज में बदलाव कब !
उमेश चतुर्वेदी
सन 2000 की बात है। दीपावली के ठीक पहले मैं जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष शरद यादव के एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए मैं आज़मगढ़ गया था। उस वक्त मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता काम करता था। अपना काम खत्म करने के बाद हम पत्रकारों की टोली सड़क मार्ग के जरिए वाराणसी लौट आई। वहां से बाकी लोग आज के कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन प्रकाश के साथ दिल्ली लौट आए। लेकिन मैं बलिया जिले के अपने गांव जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वाराणसी से सुबह करीब पौने पांच बजे एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। उसमें सवार होने स्टेशन पहुंचा तो भारी भीड़ से साबका हुआ। किसी तरह खड़े होने की जगह मिली। ट्रेन में भीड़ इतनी की पैर रखने को जगह नहीं...हर स्टेशन पर रूकते –रूकाते ट्रेन करीब दो घंटे बाद गाजीपुर पहुंची। वहां भी भीड़ का एक रेला ट्रेन में चढ़ने के लिए उतावला। इसी बीच एक औरत छठ का डाली-सूपली लिए हमारे डिब्बे में चढ़ी। उसे चढ़ाने उसके दो किशोर उम्र से युवावस्था की ओर बढ़ रहे बेटे आए थे। उन्हें अपनी मां को ट्रेन में सम्मानित जगह दिलानी थी और अपनी ताकत भी दिखानी थी। इसका मौका उन्हें मिल भी गया- सामान रखने के रैक पर एक लड़का किसी तरह सिमटा-लेटा दिख गया। उसे लड़कों ने खींच कर नीचे गिरा लिया और बिना पूछे-जांचे उसकी लात-जूतों और बेल्ट से पिटाई शुरू कर दी। इस बीच जगह बन गई और अपनी मां को बिठा कर वे चलते बने। ट्रेन खुलने के बाद पता चला कि मां तो अकेले ही छपरा में अपने मायके जा रही है। अब पिट चुके लड़के और उसके साथ चल रहे बड़े भाई ने कहा कि अब मां जी अगर आपको हम ट्रेन से फेंक दें तो ...उस औरत के पास कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर पहले तक अपने बेटों की वीरता पर बागबाग होने वाली उस औरत को मानना पड़ा कि उसके बेटों ने गलती की थी।
दरअसल ऐसे नजारे पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिख जाएंगे। जहां दिखावे के लिए अपनी ठसक बनाए और बचाए रखने की कोशिश की जाती है। लोगों को परीक्षाओं में नकल कराने से लेकर लाइन से पहले टिकट लेने तक ये ठसक हर जगह दिखती है। इसके लिए मार-पिटाई भी करने से लोगों को गुरेज नहीं होता। ठसक और भदेसपन का ये नजारा इन दिनों पूर्वांचल में बैंकों के एटीएम में भी दिख रहा है। आमतौर पर एटीएम में एक आदमी के अलावा दूसरे के जाने की मनाही है। लेकिन बलिया और गाजीपुर ही क्या – जो इस नियम पर अमल कर सके। वहां लोग एटीएम के एयरकंडिशनर की हवा खा रहे होते हैं और पैसा निकालने वाला पसीने से तरबतर होते हुए पैसा निकाल रहा होता है। इस खतरे के साथ कि कभी –भी उसका पैसा कहीं छीना जा सकता है या उसका पिन चुराया जा सकता है। पूर्वांचल और बिहार के रेलवे स्टेशनों पर आपको एक और नजारा दिख सकता है। यहां महिलाओं के लिए बने वेटिंग रूमों में पुरूष बाकायदा आराम फरमाते दिख जाते हैं। रेलवे प्रशासन भी उन्हें नहीं रोकता। वहां आने वाली महिलाओं पर इन पुरूषों की नजरें कैसी रहती होंगी – इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। बलिया में जब भी मैं खुद अपनी पत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंचा हूं तो यही नजारा मिला है और हर बार रेलवे वालों को धमका कर महिला वेटिंग रूम खाली कराना पड़ा है।
पढ़ाई-लिखाई से तो इस इलाके के अधिसंख्य छात्रों का साबका लगातार दूर होता जा रहा है। ऐसे में बीए और एमए करके ये लोग पिता और भाई की सहायता से नकल के सहारे पास होकर दिल्ली-मुंबई पहुंचते हैं तो उनके हाथ ज्यादातर दरवानी और सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी लगती है। लोगों को सलाम करते जिंदगी गुजर जाती है। लेकिन तुर्रा ये कि जब ये ही लोग अपनी माटी की ओर लौटते हैं तो उनकी ठसक और अकड़ वापस लौट आती है। उनकी ये ठसक देख दिल्ली-मुंबई का आईएएस भी शरमा जाए।
क्रमश:
सन 2000 की बात है। दीपावली के ठीक पहले मैं जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष शरद यादव के एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए मैं आज़मगढ़ गया था। उस वक्त मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता काम करता था। अपना काम खत्म करने के बाद हम पत्रकारों की टोली सड़क मार्ग के जरिए वाराणसी लौट आई। वहां से बाकी लोग आज के कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन प्रकाश के साथ दिल्ली लौट आए। लेकिन मैं बलिया जिले के अपने गांव जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वाराणसी से सुबह करीब पौने पांच बजे एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। उसमें सवार होने स्टेशन पहुंचा तो भारी भीड़ से साबका हुआ। किसी तरह खड़े होने की जगह मिली। ट्रेन में भीड़ इतनी की पैर रखने को जगह नहीं...हर स्टेशन पर रूकते –रूकाते ट्रेन करीब दो घंटे बाद गाजीपुर पहुंची। वहां भी भीड़ का एक रेला ट्रेन में चढ़ने के लिए उतावला। इसी बीच एक औरत छठ का डाली-सूपली लिए हमारे डिब्बे में चढ़ी। उसे चढ़ाने उसके दो किशोर उम्र से युवावस्था की ओर बढ़ रहे बेटे आए थे। उन्हें अपनी मां को ट्रेन में सम्मानित जगह दिलानी थी और अपनी ताकत भी दिखानी थी। इसका मौका उन्हें मिल भी गया- सामान रखने के रैक पर एक लड़का किसी तरह सिमटा-लेटा दिख गया। उसे लड़कों ने खींच कर नीचे गिरा लिया और बिना पूछे-जांचे उसकी लात-जूतों और बेल्ट से पिटाई शुरू कर दी। इस बीच जगह बन गई और अपनी मां को बिठा कर वे चलते बने। ट्रेन खुलने के बाद पता चला कि मां तो अकेले ही छपरा में अपने मायके जा रही है। अब पिट चुके लड़के और उसके साथ चल रहे बड़े भाई ने कहा कि अब मां जी अगर आपको हम ट्रेन से फेंक दें तो ...उस औरत के पास कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर पहले तक अपने बेटों की वीरता पर बागबाग होने वाली उस औरत को मानना पड़ा कि उसके बेटों ने गलती की थी।
दरअसल ऐसे नजारे पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिख जाएंगे। जहां दिखावे के लिए अपनी ठसक बनाए और बचाए रखने की कोशिश की जाती है। लोगों को परीक्षाओं में नकल कराने से लेकर लाइन से पहले टिकट लेने तक ये ठसक हर जगह दिखती है। इसके लिए मार-पिटाई भी करने से लोगों को गुरेज नहीं होता। ठसक और भदेसपन का ये नजारा इन दिनों पूर्वांचल में बैंकों के एटीएम में भी दिख रहा है। आमतौर पर एटीएम में एक आदमी के अलावा दूसरे के जाने की मनाही है। लेकिन बलिया और गाजीपुर ही क्या – जो इस नियम पर अमल कर सके। वहां लोग एटीएम के एयरकंडिशनर की हवा खा रहे होते हैं और पैसा निकालने वाला पसीने से तरबतर होते हुए पैसा निकाल रहा होता है। इस खतरे के साथ कि कभी –भी उसका पैसा कहीं छीना जा सकता है या उसका पिन चुराया जा सकता है। पूर्वांचल और बिहार के रेलवे स्टेशनों पर आपको एक और नजारा दिख सकता है। यहां महिलाओं के लिए बने वेटिंग रूमों में पुरूष बाकायदा आराम फरमाते दिख जाते हैं। रेलवे प्रशासन भी उन्हें नहीं रोकता। वहां आने वाली महिलाओं पर इन पुरूषों की नजरें कैसी रहती होंगी – इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। बलिया में जब भी मैं खुद अपनी पत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंचा हूं तो यही नजारा मिला है और हर बार रेलवे वालों को धमका कर महिला वेटिंग रूम खाली कराना पड़ा है।
पढ़ाई-लिखाई से तो इस इलाके के अधिसंख्य छात्रों का साबका लगातार दूर होता जा रहा है। ऐसे में बीए और एमए करके ये लोग पिता और भाई की सहायता से नकल के सहारे पास होकर दिल्ली-मुंबई पहुंचते हैं तो उनके हाथ ज्यादातर दरवानी और सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी लगती है। लोगों को सलाम करते जिंदगी गुजर जाती है। लेकिन तुर्रा ये कि जब ये ही लोग अपनी माटी की ओर लौटते हैं तो उनकी ठसक और अकड़ वापस लौट आती है। उनकी ये ठसक देख दिल्ली-मुंबई का आईएएस भी शरमा जाए।
क्रमश:
Monday, March 31, 2008
मिट्टी पुकार रही है ...
उमेश चतुर्वेदी
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....
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