Monday, December 20, 2010

वैचारिकता और सादगी की राजनीति के आखिरी प्रतीक

उमेश चतुर्वेदी
सन 2001 के गर्मियों की एक दोपहर दिल्ली के एक अखबारी दफ्तर में सादगी से भरी एक शख्सियत नमूदार हुई। उस अखबार ने उस शख्सियत से तब के दौर की राजनीति पर एक लेख की फरमाइश की थी। किसी व्यस्तता के चलते तय वक्त पर लेख न दे पाने की बात उन्हें याद आई तो वे सीधा अखबार के दफ्तर चले आए। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से कागज की मांग रखी और एक कोने में तल्लीनता से लेख लिखने बैठ गए। अभी वे लेख लिख ही रहे थे कि भोपाल से आए एक दफ्तरी मित्र ने उनके बारे कुछ इस अंदाज में पूछताछ की- पंडित जी, कौन है यह शख्स, जिसके ऐसे दिन आ गए हैं कि अखबारी दफ्तर के कोने में बैठ कर लिखना पड़ रहा है। जब उस मित्र को बताया गया कि ये सज्जन जनता पार्टी के पूर्व महासचिव तथा खादी और ग्रामोद्योग आयोग के पूर्व अध्यक्ष सुरेंद्र मोहन हैं तो उनका मुंह हैरत से खुला का खुला ही रह गया।
सुरेंद्र मोहन का नाम आज की पीढ़ी हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में छपते रहे उनके राजनीतिक लेखों के लिए ही जानती होगी। लेकिन समाजवादी आंदोलन की धारा से ताजिंदगी जुड़े रहे इस शख्स की एक दौर में देश के राजनीतिक गलियारों में तूती बोलती थी। डॉक्टर लोहिया और किशन पटनायक के नजदीकी रहे सुरेंद्र मोहन का जनता पार्टी के गठन में खास योगदान था। इंदिरा सरकार ने देश पर जब आपातकाल थोप दिया तो उसका जोरदार विरोध करने वाले लोगों में सुरेंद्र मोहन आगे थे। जिसकी कीमत उन्हें जेल यात्रा के तौर पर चुकानी पड़ी। आपातकाल खत्म होने के बाद समूचे विपक्ष की एकता के तौर पर जनता पार्टी बनी और सुरेंद्र मोहन उसके महासचिव बने। महासचिव रहते नौजवानों को राजनीति में आगे लगे और उन्हें समाजवादी नैतिकता में प्रशिक्षित करने में सुरेंद्र मोहन की भूमिका को आज भी लोग याद करते हैं। आज की राजनीति का साहित्य-लेखन और संस्कृतिकर्म से लगभग रिश्ता टूटता जा रहा है। लेकिन सुरेंद्र मोहन ऐसे राजनेता थे, जिनका लेखन और संस्कृतिकर्म से बराबर रिश्ता बना रहा। अरविंद मोहन, कुरबान अली, विनोद अग्निहोत्री से लेकर नई पीढ़ी तक के पत्रकारों से उनका रिश्ता बना रहा। रिश्तों के बीच अपनी राजनीतिक ऊंचाई को कभी आड़े नहीं आने देते थे। इन पंक्तियों के लेखक को याद है कि 1996 के लोकसभा चुनावों में किस तरह लोग उनके सामने जनता दल का टिकट पाने के लिए लाइन लगाए खड़े रहते थे। 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद जब किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो संयुक्त मोर्चा की सरकार बनवाने में हरिकिशन सिंह सुरजीत के साथ जिन नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उनमें सुरेंद्र मोहन का नाम भी आगे था। बदले में उन्हें राज्यपाल का पद वीपी सिंह सरकार ने प्रस्तावित किया। लेकिन उन्होंने विनम्रता पूर्वक इसे ठुकरा दिया। जब उन्हें खादी और ग्रामोद्योग आयोग का अध्यक्ष पद प्रस्तावित हुआ तो गांधी जी के कार्यों को आगे बढ़ाने के नाम पर उन्होंने यह भूमिका स्वीकार कर ली।
1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के गठन में भी सुरेंद्र मोहन की भूमिका रही। लेकिन बदले में उन्होंने कोई प्रतिदान लेना स्वीकार नहीं किया। 1977 और 1989 में भी उन्हें राज्यपाल और कैबिनेट मंत्री पद का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन गांधीवादी सादगी में भरोसा करने वाले सुरेंद्र मोहन को पदों का मोह लुभा नहीं पाया। समाजवादी मूल्यों से उनका ताजिंदगी रिश्ता बना रहा। समाजवादी आंदोलन पर जब भी आंच आती दिखी या समाजवादी कार्यकर्ता पर हमला हुआ, आगे आने से वे कभी पीछे नहीं हटे। 2009 की गर्मियों पर जब डॉक्टर सुनीलम पर हमला हुआ तो दिल्ली के मध्यप्रदेश भवन के सामने चिलचिलाती धूप में प्रदर्शन करने से भी वे पीछे नहीं हटे। खादी के पैंट-शर्ट में लंबी-पतली क्षीण काया को संभालते कंधे पर खादी का झोला टांगे उनकी शख्सियत हर उस मौके पर नमूदार हो जाती, जहां उनकी जरूरत होती। अस्सी पार की वय और दमे का रोग उनकी राह में कभी बाधा नहीं बना। दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल हाउस के ठीक सामने अखबारों का गढ़ आईएनएस बिल्डिंग स्थापित हैं। वहां संजय की चाय की दुकान पर पत्रकारों के साथ चाय पीने और सामयिक राजनीति की चर्चा करते उन्हें देखा जा सकता था। हालांकि पिछले कुछ सालों से उम्र के तकाजे ने इस आदत पर विराम लगा दिया था।
शुक्रवार की सुबह जब सामयिक वार्ता से जुड़े एक मित्र का फोन उनके न रहने की खबर के साथ आया तो सहसा भरोसा नहीं हुआ। गुरूवार की देर शाम वे मुंबई से लौटे थे और लिखाई-पढ़ाई के बाद सो गए थे। शुक्रवार की सुबह उठकर उन्होंने पानी पिया और बेचैनी की शिकायत की। पत्नी मंजू मोहन जब तक उन्हें अस्पताल ले जाने की तैयारी करतीं, समाजवाद का सादगीभरा सितारा उस राह पर कूच कर गया, जहां से सिर्फ स्मृतियां ही लौट पाती हैं। जब-जब समाजवाद की चर्चा छिड़ेगी, दिल्ली के नौजवान पत्रकारों को समाजवादी दुरभिसंधियों को समझने की जरूरत पड़ेगी, सुरेंद्र मोहन की याद आती रहेगी।

Saturday, December 4, 2010

बेशर्मी की इंतिहा

उमेश चतुर्वेदीदिल्ली मेट्रो रेल के महिला कोच में सवारी के आदी हो रहे पुरूषों की धुनाई के बाद नए सवाल उठ खड़े हुए हैं। महिला पुलिस के हाथों मार खाए पुरूषों के एक वर्ग का अहम जाग गया है। ऐसे पुरूषों ने नेशनल कॉलिजन फॉर मेन नामक संगठन बनाकर अपने लिए अलग से कोच लगाने की मांग की है। अभी तक समाज का कमजोर तबका ही अपने लिए आरक्षण और आरक्षित स्थानों की मांग करता रहा है, यह पहला मौका है जब मजबूत समझे जाने वाले पुरूष समाज के किसी संगठन ने अपने लिए आरक्षित डिब्बे की मांग रखी है। अगर पहले से चल रहे फार्मूले को ही आधार बनाया जाय तो यह मानना ही पड़ेगा कि महिलाओं की बढ़ती ताकत के सामने पुरूष वर्ग खुद को असहाय समझने लगा है। इस असहायता के दबाव में उन्हें अपने लिए महिलाओं की ही तरह खास हैसियत की मांग रखने की जरूरत पड़ने लगी है।
लेकिन यह मांग सिर्फ असहायता या महिलाओं की तुलना में पुरूषवाद को कमतर देखने का नतीजा नहीं है। दिल्ली में भी देश के बाकी इलाकों की तरह बसों तक में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें रहती हैं। देश के दूसरे इलाकों में लोग महिलाओं को देखते ही सीट खाली कर देते हैं। पश्चिम बंगाल में तो महिला के लिए सीट नहीं छोड़ना बस हो या फिर मेट्रो, मारमीट तक की वजह बन सकता है। लेकिन दिल्ली में ऐसे अपवाद ही कभी दिखते हैं, अलबत्ता यहां महिलाओं को अपमानित करने की ही संस्कृति रही है। कई बार सीट मांगते वक्त सीट के सामने उपर महिला लिखा दिखाना महिलाओं के लिए उल्टा भी पड़ जाता है। बेशर्म पुरूष सवारी को यह कहने में भी हिचक नहीं होती कि उपर लिखा है तो उपर ही बैठ जाओ। ऐसी दिल्ली में मेट्रो रेल कारपोरेशन ने ट्रेनों में महिलाओं के लिए खासतौर पर अलग कोच का इंतजाम यह सोचकर किया था कि महिलाएं यात्रा के दौरान खुद को महफूज महसूस कर सकें। लेकिन दिल्ली के पुरूषों की सोच नहीं बदली, उन्हें महिलाओं के लिए आरक्षित कोच में ही चढ़ने में आनंद आने लगा। शुरू में तो मेट्रो अधिकारियों ने इसे इक्का-दुक्का घटना मान कर नजरअंदाज किया। कई बार नजरअंदाज करना बड़े नासूर की वजह बन जाता है। दिल्ली में भी कुछ ऐसा ही हुआ। दिल्ली की मेट्रो रेलों के महिला आरक्षित डिब्बों में पुरूष सवारियों का घुसना नहीं रूका। इस बहाने महिला सवारियों से छेड़खानी की घटनाएं भी बढ़ने लगीं। हारकर मेट्रो और उसकी सुरक्षा में तैनात सीआईएसएफ के अधिकारियों को आखिरी रास्ता अख्तियार करना पड़ा। सादी वर्दी में महिला सिपाहियों को तैनात किया गया और महिला सवारियों की वेश में चढ़ी सीआईएसएफ की इन सिपाहियों ने शोहदों की जमकर धुनाई की। इस धुनाई को अखबारों और खबरिया चैनलों की सुर्खियां भी हासिल हुईं। संस्कारवान तबके को यह कदम महिलाओं के हित में नजर आया। लेकिन नेशनल कॉलिजन फॉर मेन की सोच कुछ दूसरी है। लिहाजा उसे इन घटनाओं ने पुरूषों को चेताने की बजाय अलग ही मांग रखने का आधार मुहैया करा दिया। कॉलिजन का तर्क है कि जब महिलाओं के लिए अलग और रिजर्व कोच हो सकते हैं तो पुरूषों के लिए क्यों नहीं। लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि पुरूषों की तरह क्या महिलाएं भी ट्रेनों और बसों में छेड़खानी करती पाई जाती हैं। सवाल तो यह भी है कि सुनसान सड़कों में देर रात अकेले गुजरते पुरूषों से क्या महिलाएं भी रेप करती हैं। सवाल तो यह भी है कि क्या महिलाएं भी पुरूषों को वक्त-बेवक्त छूने का सुख उठाने की ही कोशिश में रहती हैं। जाहिर है इन सभी सवालों का जवाब ना में ही है। अभी हाल ही में दिल्ली के एयरटेल हाफ मैराथन में शामिल होने के बाद बॉलीवुड अभिनेत्री गुल पनाग ने कहा था कि दिल्ली के पुरूष छूने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। जाहिर है कि उस दिन दिल्ली वालों ने उनसे शारीरिक छेड़खानी का सुख उठाने का मौका नहीं गंवाया। कुछ साल पहले मुंबई की लोकल रेलों में भी महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे में पुरूष चढ़ने से परहेज नहीं करते थे। सुनसान महिला डिब्बों में बलात्कार तक की घटनाएं भी हुईं। इसके बाद मुंबई पुलिस को सख्त रवैया अख्तियार करना पड़ा और महिला डिब्बों से पुरूष सवारियों को बाहर निकाला गया। अगर दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन ने भी मनचले पुरूषों पर काबू पाने के लिए ऐसा कोई कदम उठाया तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। अपनी शारीरिक बनावट के चलते महिलाएं पुरूषों से उनके स्तर पर कम से कम शारीरिक तौर पर मुकाबला कर ही नहीं सकतीं। लिहाजा उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी। बहरहाल पुरूष अपनी वर्चस्ववादी मानसिकता से अब तक उबर नहीं पाए हैं। इसीलिए महिलाओं को दी जा रही महिलाजनित जरूरी सुविधाएं भी उनसे पच नहीं पा रही है। नेशनल कॉलिजन फॉर मेन की मांग बेवकूफी से ज्यादा कुछ नहीं है। एक दौर में पत्नी पीड़ित संघ ने जिस तरह सुर्खियां हासिल की थीं, इस संगठन की ओर लोगों का ध्यान कुछ उसी अंदाज में जा रहा है। ऐसे में इसका भी पत्नी पीड़ित संघ की तरह अगर हास्यास्पद हश्र होता है तो हैरत नहीं होनी चाहिए।

जीत ने बदल दिए सुर

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय समाजवादी आंदोलन और राजनीति की जब भी चर्चा होती है, सहज ही एक पुरानी फिल्म का गीत – इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा- याद आ जाता है। समाजवादी आंदोलन और पार्टियों की यह नियति में एकजुटता और साथ चलने का स्थायी भाव नहीं रहा है। यही वजह है कि उनमें आपसी विरोधाभास और अलगाव कुछ ज्यादा ही दिखता रहा है। बिहार में प्रचंड बहुमत हासिल कर चुके जनता दल यूनाइटेड चूंकि एक दौर में समाजवादी आंदोलन का प्रमुख अगुआ दल रहा है। लिहाजा समाजवादी आंदोलन के रोग से यह दल भला कैसे अछूता रह सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने के ठीक पहले जिस तरह पार्टी के मुंगेर से सांसद राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन, कैमूर के सांसद महाबली सिंह और औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार ने नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था तो समाजवादी विचारधारा की राजनीति की सीमाएं एक बार फिर याद आ गई थीं।
समाजवादी चिंतन में आपसी खींचतान का हश्र कम से कम हर अगले चुनाव में पराजय और टूटन के तौर पर दिखता रहा है। सुशील कुमार हों या ललन या फिर महाबली सिंह, उन्हें लगता रहा होगा कि अपने विद्रोही कदम के जरिए वे नीतीश कुमार को सबक सिखा सकते हैं। लेकिन इतिहास ने इस बार पलटी खाई है। यह पहला मौका है, जब समाजवादी विचारों के अनुयाइयों के आपसी विचलन से जनता विचलित नहीं हुई और उसने नीतीश कुमार को ही समर्थन देकर उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली नीतियों की तसदीक कर दी है। हालांकि राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन को अपने विद्रोह पर इतना ज्यादा भरोसा था कि उन्होंने नैतिकता और संसदीय राजनीति के मूल्यों तक की परवाह नहीं की। जनता दल यू के सांसद रहते हुए उन्हें कांग्रेस के बिहार प्रभारी मुकुल वासनिक के साथ मिलकर नीतीश कुमार को हराने की जोड़-जुगत बिठाने से कोई गुरेज नहीं रहा। इतना ही नहीं, कई जगह कांग्रेस के प्रत्य़ाशी तय करने और उनके लिए खुलेआम प्रचार करने से भी वे पीछे नहीं हटे। राजनीति में ऐसे कदम तब उठाए जाते हैं, जब या तो राजनीतिक हाराकिरी करनी होती है या फिर कदम उठाने वाले को नतीजे अपनी तरफ रहने का पूरा अंदाजा होता है। ललन बिहार की राजनीति में कुछ वक्त पहले तक नीतीश कु्मार की दाहिनी बांह माने जाते रहे हैं। कुख्यात चारा घोटाले में लालू यादव को जेल भिजवाने के अभियान में भारतीय जनता पार्टी के झारखंड के नेता सरजू राय और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी के साथ ललन का भी महत्वपूर्ण हाथ रहा है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस को बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों में खुद के लिए कहीं ज्यादा समर्थन की उम्मीद बढ़ गई थी। कैमूर के सांसद महाबली सिंह पहले लालू यादव के साथ थे। लेकिन वहां उनकी दाल नहीं गली तो वे बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए थे। इसके बाद उन्हें जनता दल यू में अपना राजनीतिक कैरियर दिखा और पिछले लोकसभा चुनाव में जेडीयू के टिकट पर जीत गए। कैमूर से जीत के बाद उनकी भी उम्मीदें बढ़ गईं। अपने क्षेत्र की चैनपुर विधानसभा सीट से अपने बेटे के लिए टिकट चाहते थे, लेकिन नीतीश ने नहीं दिया तो बेटे को आरजेडी से चुनाव मैदान में उतार दिया। लेकिन नीतीश लहर के सामने उनका बेटा नहीं टिक पाया। कुछ इसी तरह औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार अपने भाई के लिए टिकट चाहते थे। जेडीयू ने उनकी इच्छा पूरी नहीं कि तो उन्होंने भाई को आरजेडी के टिकट पर मैदान में उतार दिया। लेकिन वह भी खेत रहा। इसी तरह टिकटों के बंटवारे को लेकर कभी नीतीश कुमार के खास सहयोगी और दोस्त रहे उपेंद्र कुशवाहा भी नाराज हो गए। सभी नाराज नेताओं को यही लगता था कि उनकी नाराजगी नीतीश को जरूर गुल खिलाएगी। लेकिन बिहार की जनता ने जिस तरह पुराने मुहावरे को बदल दिया है, उससे सबक सिखाने की मंशा रखने वाले इन नेताओं के सुर बदल गए हैं। ललन सिंह ने तो बिना देर किए नीतीश को जीत की बधाई तक दे डाली। महाबली सिंह को अब समाजवादी नैतिकता याद आने लगी है और वे कहते फिर रहे हैं कि उनके बेटे की राजनीति से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। कुछ इसी अंदाज में सुशील कुमार भी जनता दल यू और नीतीश कुमार से अपनी निष्ठा जता रहे हैं। इन नेताओं की सोच में आए इस बदलाव के बाद अब एक और कहावत याद आने लगी है- जैसी बहे बयार, पीठ तैसी कीजै। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि हवा के झोंके की ओर पीठ करके चेहरे को बचाया तो जा सकता है, लेकिन क्या नीतीश कुमार नाम की हवा इन चेहरों को माफ करने के मूड में है। इसका जवाब नीतीश का वह बयान ही देता है, जो उन्होंने ललन सिंह की बधाई के बाद मीडिया के सवालों के जवाब में दिया था- ललन सिंह पर फैसला पार्टी आलाकमान लेगा।

Saturday, November 27, 2010

खेल संस्कृति की ओर बढ़ते कदम

उमेश चतुर्वेदी
क्रिकेट सितारों को भगवान की तरह पूजने वाले देश में आमतौर पर दूसरे खेलों के खिलाड़ियों को अपनी पहचान का भी संकट सताता रहा है। लेकिन ग्वांगझू एशियाड में बढ़ती पदकों की संख्या से साफ है कि देश की खेल संस्कृति बदल रही है। ग्वांगझू एशियाड में निश्चित तौर पर चीन अजेय होकर उभरा है। लेकिन भारतीय खिलाड़ियों और पदक तालिका में लगातार बढ़ती उनकी पहुंच से साफ है कि भारतीय खिलाड़ियों का रवैया बदल रहा है। दस स्वर्ण पदकों के साथ ग्वांगझू की पदक तालिका में अब तक भारत 53 पदक जीत चुका है और मुक्केबाजी में तीन के साथ ही पुरूष कबड्डी और महिला कबड्डी में एक-एक पदक मिलना तय हो गया है। क्योंकि ये सभी पांच खिलाड़ी अपनी प्रतियोगिताओं के फाइनल में पहुंच चुके हैं। जाहिर है कि अब तक के प्रदर्शन के मुताबिक भारत को 58 पदक मिलने ही हैं। इस तरह एशियाड में भारत का यह अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन है। इसके पहले दोहा एशियाड में भारत ने दस स्वर्ण, 17 रजत समेत 53 पदक जीता था। एशियाड में भारत ने सबसे ज्यादा पदक 1982 के दिल्ली एशियाड में जीता था। उस वक्त भारत ने अपनी झोली में 13 स्वर्ण, 19 रजत और 25 कांस्य समेत 57 पदक डाले थे। इस हिसाब से देखें से ग्वांगझू एशियाड में यह भी रिकॉर्ड टूटने जा रहा है, क्योंकि 58 पदक जीतना तय हो गया है। हालांकि यह रिकॉर्ड भारतीय ओलंपिक संघ के दावे और अपेक्षाओं के मुताबिक नहीं है। 629 सदस्यीय दल ग्वांगझू भेजते वक्त भारतीय ओलंपिक संघ ने 80 से 85 पदक जीतने का दावा किया था। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
क्रिकेट के वर्चस्व वाले इस देश में अगर दूसरे खेलों को लेकर सोच सकारात्मक बनी है और एशियाड खेलों में अपने प्रदर्शन से देश का नाम रोशन कर रहे हैं तो इसकी वजह देश के खेल मानस में आ रहा बदलाव है। निश्चित तौर पर इसमें बीजिंग ओलंपिक में सुनहरा प्रदर्शन कर चुके अभिनव बिंद्रा या पदक तालिका में स्थान बना चुके सुशील कुमार, विजेद्र कुमार जैसे लोगों का भी योगदान है। जिन्हें भारत वापसी के बाद लोगों का प्यार मिला। केंद्र और राज्य सरकारों ने उन पर इनामों की बरसात कर दी। कभी हवाई अड्डों पर ढोल-नगाड़ों से स्वागत का मौका विदेशी धरती से जीत के बाद वापसी करते क्रिकेटरों को ही मिलता था। लेकिन अब दूसरे खिलाड़ियों के लिए भारतीय प्रशंसकों का रवैया बदल रहा है। जबकि पहचान के संकट से दूसरे खेलों के खिलाड़ी जूझते रहते थे। महिला मुक्केबाजी में अब तो एमसी मैरीकॉम को सभी लोग जान गए हैं। दुर्भाग्यवश उन्हें ग्वांगझू एशियाड में रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा है। लेकिन पांच साल पहले उन्हीं मैरीकॉम ने एक टेलीविजन चैनल के संवाददाता से उल्टे पूछ लिया था कि एमसी मैरीकॉम को जानते हैं आप। मैरीकॉम ने यह सवाल पूछ कर एक तरह से अपनी व्यथा ही जाहिर की थी। लेकिन अब अभिनव बिंद्रा, गगन नारंग, एमसी मैरीकॉम, बिजेंद्र, सुशील किसी परिचय के मोहताज नहीं है। यह बदलाव एक दिन में नहीं आया है। इन खिलाड़ियों ने अपनी मेहनत के बूते अपनी और अपने खेलों की पहचान बनाई है। जिसका असर यह पड़ा है कि अब कारपोरेट सेक्टर का हाथ दूसरे खेलों के खिलाड़ियों की मदद आगे बढ़ने लगा है।
अक्टूबर में हुए कॉमनवेल्थ खेलों की उसके आयोजन में हुए भ्रष्टाचार के लिए काफी आलोचना हुई है। इस भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार तीन अधिकारियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को कांग्रेस के सचिव पद से हटा दिया गया है। इतनी लानत-मलामत के बावजूद कॉमनवेल्थ खेल आयोजनों ने भी भारत में खेल संस्कृति को बढ़ाने में मदद दी है। कॉमनवेल्थ खेलों में भी भारत का प्रदर्श बेहतर रहा। दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों के पहले भारत ने 2002 के मैनचेस्टर में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया था। तब उसे 70 पदक मिले थे। लेकिन दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों में 38 स्वर्ण सहित 101 पदक जीतकर खिलाड़ियों ने भारतीय खेल प्रेमियों को निराश नहीं किया। विवादों और आलोचनाओं के साथ ही दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों को अगर याद किया जाएगा तो उसकी एक बड़ी वजह भारत का बेहतरीन प्रदर्शन भी होगा। देश की खेल संस्कृति को बढ़ावा देने में भारत सरकार की खेलनीति का भी कम असर नहीं है। यह खेल नीति ही है कि खेलों को लेकर बजट बढ़ाया गया। हालांकि मौजूदा वित्त वर्ष में खेल मद में 3565 करोड़ ही आवंटित किया गया। जबकि इसके ठीक पहले साल 3706 करोड़ दिए गए थे।
आखिर में : बढ़ती खेल संस्कृति के बावजूद देश के सामने अब भी सबसे बड़ी चुनौती है लालफीताशाही और भाईभतीजावाद। ग्रामीण क्षेत्रों की प्रतिभाओं को उभारने के लिए अब तक कोई मुकम्मल नीति भी नहीं है। ऐसे में बिना किसी ठोस नीति और कार्यक्रम के चीन जैसी अजेय बढ़त हासिल करना कैसे संभव होगा।

बिहार के आंकड़े भी कुछ कहते हैं

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीति में एक बड़ी बिडंबना देखने को मिलती है। हर कामयाब राजनेता अपनी गलतियों से सीखने के बावजूद अपने पिछले प्रदर्शन को ही अपनी उपलब्धि मान बैठता है। लगातार साथ चलने वाले कथित सलाहकार और चंपू उसके स्पष्ट नजरिए को धुंधला बनाने में कुछ ज्यादा ही योगदान करते हैं। इसका खामियाजा उसे और बड़ी कीमत देकर चुकाना पड़ता है। बिहार के मौजूदा चुनाव के आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो कई और दिलचस्प निष्कर्ष भी सामने आते हैं। मौजूदा विधानसभा अभियान में एक तथ्य साफ नजर आ रहा था – नीतीश लहर का उभार। लालू प्रसाद यादव को विपक्षी नेता होने के नाते इसे नकारना ही था। लेकिन उनकी यह नकार जमीनी हकीकतों से दूर थी। दरअसल पिछले यानी 2005 के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें 31.1 प्रतिशत वोट मिला था। तब रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी के साथ उनका गठबंधन नहीं था। तब पासवान की पार्टी अकेले चुनाव मैदान में थी। उस वक्त उसे 13.2 प्रतिशत वोट मिला था। जबकि जनता दल-यू और बीजेपी गठबंधन 36.2 प्रतिशत वोटों के साथ कामयाब हुआ था। लालू यादव और रामविलास पासवान को उम्मीद थी कि उनके साथ आने से उनका कुल मिलाकर वोट प्रतिशत 34.3 प्रतिशत हो जाएगा। जो बीजेपी-जेडी-यू गठबंधन के पिछले वोटों की तुलना में महज 2.8 फीसदी ही कम रहेगा। उन्हें यह भी उम्मीद रही होगी कि बटाईदारी कानून के लागू किए जाने की चर्चा से भूमिहार और ठाकुर वोटरों की नाराजगी का उन्हें फायदा मिलेगा। जिससे उनके गठबंधन के साथ कम से कम इन सवर्ण जातियों का समर्थन भी हासिल हो जाएगा। लेकिन लालू यादव यहीं पर एक चूक कर गए। उन्होंने बहुमत मिलने की हालत में खुद के मुख्यमंत्री बनाए जाने का ऐलान कर दिया। लालू यादव ऐसा करते वक्त भूल गए कि उनके पंद्रह साल के राज में उनसे अगर कोई सबसे ज्यादा नाराज रहा है तो वे सवर्ण मतदाता ही रहे हैं। उनका यह आकलन गलत रहा, क्योंकि तमाम बदलावों के बावजूद कम से कम सवर्ण मतदाता अभी-भी लालू को स्वीकार करने के मूड में नहीं है। फिर भारतीय राजनीति में यह देखा गया है कि अनुसूचित जातियों का वोट बैंक वाली पार्टियों के साथ जब भी किसी दूसरी किसी पार्टी का गठबंधन होता है तो यह वोट बैंक दूसरी पार्टी के साथ चला जाता है, लेकिन दूसरी पार्टी के वोटर अनुसूचित जातियों के साथ कम ही आते हैं। यानी रामविलास पासवान के वोटरों ने आरजेडी उम्मीदवारों के लिए वोटिंग में झिझक नहीं दिखाई, लेकिन आरजेडी के समर्थकों के लिए पासवान के उम्मीदवारों को वोट देना रास नहीं आया। नीतीश कुमार के पक्ष में सिर्फ उनका सुशासन ही नहीं रहा। बल्कि समाज के दूसरे वर्गों को भी सत्ता में मिली भागीदारी ने उनकी साख और समर्थन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चुनाव नतीजों के विश्लेषण में कुछ तथ्यों की ओर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है। यह सच है कि करीब ढाई दशक बाद 2006 में बिहार में पंचायत चुनाव हुए। जिसमें महिलाओं को पचास प्रतिशत का आरक्षण दिया गया। महिलाओं को विकास और फैसले लेने की प्रक्रिया में पहली बार भागीदारी मिली। कानून-व्यवस्था की हालत सुधरने के बाद उनमें आत्मविश्वास भी जगा। दलितों में महादलित जातियों को घर बनाने की सुविधाएं और जमीन देकर नीतीश कुमार ने नया वोट बैंक भी बनाया। चूहा खाने के लिए अभिशप्त मुसहर जैसी जातियों को पहली बार घर की छत नसीब हुई। देश में पहली ग्राम कचहरी योजना की शुरूआत भी नीतीश कुमार ने ही की। इसका दोहरा फायदा हुआ। छोटे-मोटे झगड़ों के लिए गांव वालों को थाना-कचहरी के चक्कर काटने से मुक्ति मिली और न्यायमित्र के तौर पर हजारों लोगों को रोजगार भी मिला। गांवों के स्कूलों में शिक्षा मित्र के साथ ही हजारों शिक्षकों की नियुक्ति ने भी नीतीश कुमार के लिए नया वोट बैंक बनाने में मदद दी।
मौजूदा चुनाव में फिर भी दूसरी पार्टियों को 26.8 फीसद वोट मिले हैं, जिनमें सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी समेत कई पार्टियां शामिल हैं। कांग्रेस भी 8.4 प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रही है। यानी नीतीश के खिलाफ 52.8 फीसदी वोटिंग हुई है। इससे साफ है कि अगर पहले की तरह लालू यादव ने कांग्रेस का भी साथ लिया होता और अपनी पुरानी सहयोगी वामपंथी पार्टियों के साथ तालमेल किया होता तो उनके लिए तसवीर इतनी बुरी नहीं होती। सबसे बड़ी बात यह है कि 1990 के बाद यह पहला मौका होगा, जब लालू यादव या उनके परिवार के लिए अहम संवैधानिक स्थिति नहीं होगी। 1990 से 2005 तक उनके या उनके परिवार के पास मुख्यमंत्री या नेता विपक्ष की कुर्सी रही है। लेकिन चुनावी नतीजों ने इस बार उनसे यह अधिकार भी छीन लिया है। कायदे से नेता विपक्ष होने के लिए कुछ विधानसभा सीटों की दस फीसदी सदस्य होने चाहिए। इस हिसाब से बिहार में नेता विपक्ष की संवैधानिक कुर्सी हासिल करने के लिए आरजेडी के पास 25 विधायक होने चाहिए थे। लेकिन इस बार उनके पास महज 22 विधायक ही जीत कर आए हैं।
आखिर में : आंकड़ों की नजर में बिहार चुनाव ने कुछ नई इबारतें भी लिखी हैं। दुनिया में किसी गठबंधन की यह सबसे बड़ी जीत है। बिहार में इसके पहले 1995 में लालू यादव की अगुआई में आरजेडी ने 320 सीटों में 182 सीट जीत हासिल की थी।

Thursday, September 16, 2010

राजनीतिक दलों में सचमुच कब आएगा आंतरिक लोकतंत्र


उमेश चतुर्वेदी

सोनिया गांधी चौथी बार कांग्रेस आई की अध्यक्ष चुन ली गई हैं। कहने को तो जनप्रतिनिधित्व कानूनों के मुताबिक पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत उन्हें अध्यक्ष चुना गया है। वैसे तो उनका चुनाव महज औपचारिकता ही था। लिहाजा पार्टी में जश्न का माहौल है। उन्हें बधाईयां देने-दिलाने का दौर तेज है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन पश्चिमी लोकतांत्रिक समाजों की तरह यहां बड़ी पार्टियों के अध्यक्षों के चुनावों के बाद बधाईयों या समालोचनाओं की परंपरा भी नहीं है। लोकतांत्रिक समाज की पहली ही शर्त वैचारिकता और कार्यक्रम आधारित विरोध होता है। लेकिन हमारे राजनीतिक दलों की आपसी दुश्मनी इससे भी कहीं आगे की है। उनके बीच अश्पृश्यता की हद तक विरोधी होने की परंपरा है। उपर से देखने पर यही कारण नजर आता है कि जब किसी दल विशेष का नया नेता चुना जाता है तो उसे बधाई देने या उसकी समालोचना नहीं की जाती। हमारी राजनीतिक संस्कृति इसे सामने वाले दलों का आंतरिक मामला मानकर उस पर टिप्पणियां करने से बचती है। लेकिन क्या देश का शासन संभाल रही महत्वपूर्ण पार्टियों का आंतरिक चुनाव मामूली घरेलू मसला जैसा ही है। जिन अध्यक्षों और कार्यकारिणी के फैसलों पर देश के करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला निर्भर करता हो क्या वह सचमुच मामूली घरेलू मामला हो सकता है, अगर भारतीय राजनीति और उसके पुरोधा ऐसा मानते हैं तो उसका भगवान ही मालिक है। हालांकि बात इतनी सी नहीं है। दरअसल आज हमारे यहां जो राजनीतिक संस्कृति विकसित हो चुकी है, उसमें आम कार्यकर्ता का अपनी योग्यता और नेतृत्व क्षमता के दम पर अपनी पार्टी के सर्वोच्च पद पर पहुंचना संभव ही नहीं रहा। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस हो या फिर देश का प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी, उनके यहां कार्यकर्ताओं की भूमिका महज दरी बिछाने और पानी पिलाने तक ही सीमित हो गई है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी परिवार आधारित पार्टियों की तो बात ही छोड़ देनी चाहिए, जो पारिवारिक लिमिटेड कंपनियों की तरह चलती हैं। यही वजह है कि जब सोनिया गांधी अध्यक्ष बनती हैं तो भारतीय जनता पार्टी प्रतिक्रिया देने से बचती है और जब नितिन गडकरी सारे वरिष्ठों को दरकिनार करके अध्यक्ष पद की कुर्सी पर काबिज किए जाते हैं तो कांग्रेस को यह घटना प्रतिक्रिया के लायक नहीं लगती।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का पूरा विकास चूंकि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ हुआ है, इसलिए उससे लोकतांत्रिक परंपराओं की उम्मीद कुछ ज्यादा ही की जाती है। आजादी का सपना और आजादी के बाद के लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की रूप रेखा कांग्रेस की अगुआई में ही देश ने देखा था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि आजादी के बाद उसी कांग्रेस में चुने हुए पहले अध्यक्ष सीताराम केसरी थे। जिन्हें पहले तो कांग्रेस ने मजबूरी में कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया और बाद में बाकायदा वे अध्यक्ष चुने गए। कांग्रेस के शुभचिंतकों की नजर में केसरी ने हो सकता है कांग्रेस का खास भला न किया हो, देवेगौड़ा के मुताबिक वे प्रधानमंत्री बनने की हड़बड़ी में भी थे। सबसे बड़ी पार्टी का अध्यक्ष बनते ही उनके मन में ऐसी अभीप्सा जागना संभव भी था। लेकिन उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे चुने हुए अध्यक्ष थे। लेकिन 1998 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में उस अर्जुन सिंह की पहल पर उन्हें अध्यक्ष पद से हटा दिया गया, जो खुद पीवी नरसिंह राव के चलते कांग्रेस से बाहर हो चुके थे और उन्हें केसरी ने ही कांग्रेस में प्रवेश कराया था। रामशरण जोशी की किताब 'अर्जुन सिंह : एक सहयात्री इतिहास का' में अर्जुन सिंह की इन कोशिशों का विस्तार से वर्णन किया गया है। सोनिया गांधी तब से कांग्रेस से अध्यक्ष हैं। हां उनके पहले औपचारिक चुनाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेस नेता जितेंद्र प्रसाद और दूसरे चुनाव में राजेश पायलट ने जरूर ताल ठोंका था। लेकिन वे खेत रहे थे।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का आरोप लगाने वाले बहुत हैं। लेकिन सोनिया गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद यह सवाल गौड़ हो जाता है। हां, रस्मी तौर पर रविशंकर प्रसाद ने इस चुनाव पर सवाल जरूर उठाया। कांग्रेस से भीतर इस पर सवाल उठने की गुंजाइश तो आज की राजनीतिक संस्कृति ने छोड़ी ही नहीं है। राजनीतिक कार्यकर्ता तो सिर्फ कृतकृत्य भयऊं गोसाईं की तर्ज पर ताली बजाने और आनंदित होने में ही गर्व का अनुभव करता है। लेकिन इससे यह सवाल गौड़ नहीं हो जाता कि कांग्रेस को अपना अध्यक्ष गांधी-नेहरू परिवार से बाहर क्यों नहीं मिलता। क्यों नहीं उसे अब कोई पुरूषोत्तम दास टंडन, पट्टाभि सीतारमैया, के कामराज जैसा आम कार्यकर्ता अध्यक्ष बनने और पार्टी की कमान संभालने योग्य नहीं लगता।
दरअसल आज गांधी और नेहरू परिवार कांग्रेस की ताकत और कमजोरी दोनों ही बन गया है। हाल के वर्षों में जब-जब कांग्रेस की कमान गांधी-नेहरू परिवार से बाहर गई है, कांग्रेस में बिखराव आया है। वह कमजोर भी हुई है। इसका फायदा गांधी-नेहरू परिवार के उत्तराधिकारियों को भी अपना राजनीतिक रसूख बनाने में मिलता है। राहुल गांधी जगह-जगह कहते फिरते हैं कि उनके नाम के आगे गांधी लगे होने के चलते उन्हें काफी फायदा मिला है। अपनी जनता का लगाव देखिए कि उसे भी गांधी-नेहरू परिवार ही ज्यादा अच्छा लगता है। लिहाजा जब कांग्रेस की कमान इस परिवार के हाथ में रहती है तो वह उस कांग्रेस के हाथ का साथ देने के लिए अपनी उंगलियों से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की ओर बढ़ा देती है, लेकिन जैसे ही कांग्रेस की अगुआई इस परिवार से बाहर जाती है, जनता की उंगलियां भी जैसे कांग्रेस के हाथ से दूर जाने लगती है। उसे देश के तारनहार के तौर पर सिर्फ गांधी-नेहरू परिवार ही नजर आता है। सोनिया गांधी को इसका श्रेय जरूर जाता है कि उन्होंने शिथिल हो चुकी कांग्रेस की रगों में नई जान फूंकी और उसे दोबारा सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाया।
आज की राजनीति का सबसे बड़ा साध्य सत्ता हो गई है। राजनीतिक ताकत का आकलन सत्ता तक पहुंच से ही लगाया जाता है। यही वजह है कि आज नैतिक ताकत की सत्ता कमजोर हुई है। फिर सत्ता तक आम कार्यकर्ता की पहुंच भी लगातार कम हुई है। लिहाजा आम लोगों के लिए असल में सोचने वाली ताकतों की सत्ता तक पहुंच लगातार कम हुई है। इसका असर है कि आज आम आदमी हाशिए पर है। मजे की बात यह है कि हाशिए के लोगों की जब भी आवाज उठाई जाती है, उसका मकसद दूरंदेशी राजनीतिक विकास नहीं होता, बल्कि फौरी राजनीतिक फायदा उठाना होता है। सोनिया गांधी का अध्यक्ष बनना कांग्रेस के लिए फौरी फायदे का सौदा भले ही हो, लेकिन यह तय है कि यह उसी राजनीतिक संस्कृति को ही पुष्ट कर रहा है, जिसमें आम आदमी की भारतीय गणतंत्र में असल भागीदारी कम होती जाएगी। कांग्रेस का दावा है कि राहुल गांधी आजकल कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र बहाली की कोशिशों में जुटे हैं। कांग्रेस में यह लोकतंत्र बहाली तभी सफल मानी जाएगी, जब पार्टी के शीर्ष पद पर कोई आम कार्यकर्ता अपनी राजनीतिक क्षमता के दम पर पहुंच पाएगा। निश्चित तौर पर यह दूसरे दलों के लिए नजीर साबित होगा।

सुबह सवेरे में