उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख उत्तराखंड से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र संडे पोस्ट के भारतीय जनता पार्टी विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है।)
नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव प्रचार अभियान की कमान और बाद में प्रधानमंत्री पद की उम्मदीवारी पर उठा विवाद फिलहाल थमता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में लालकृष्ण आडवाणी नेअपने चेले की सरकार का गुणगान करके यह संदेश दे दिया है कि वे तकरीबन मान गए हैं। हालांकि पहले प्रचार अभियान की कमान और दूसरी बार प्रधानमंत्री पद पर मोदी की उम्मीदवारी पर मुहर के बाद लालकृष्ण आडवाणी के कोपभवन में जाने और नाराज होने के बाद उनके खिलाफ के इर्द-गिर्द घटी घटनाएं भारतीय जनता पार्टी के मौजूदा चाल, चेहरा और चरित्र को उजागर करने के लिए काफी है। छह अप्रैल 1980 को दिल्ली में पार्टी का गठन करते वक्त जिस आडवाणी ने पार्टी विथ डिफरेंस का नारा दिया था, मोदी को कमान मिलने के बाद कोपभवन में जाकर उन्हीं आडवाणी ने साफ कर दिया कि पार्टी बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन वे खुद इस बदलाव को सहजता से स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अलबत्ता इस पूरी प्रक्रिया में एक बात जरूर रही कि उन्होंने अपनी खुद की छवि जरूर बदल ली। राममंदिर आंदोलन के साथ ही उन्हें रेडिकल छवि वाले नेता के तौर पर देखा जाता था। दिलचस्प यह है कि उनकी इस रेडिकल और हिंदूवादी छवि में नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने निष्ठावान स्वयंसेवक की छवि नजर आती थी। उनकी तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी कहीं ज्यादा उदार नजर आते थे। लेकिन उनके कोपभवन में जाने और इस्तीफे की खबरों के बाहर प्रचारित होने के बाद उन्हें लोग नरेंद्र मोदी की तुलना में उदार मानने लगे। इस लिहाज से देखें तो बहुलतावादी दर्शन के जबर्दस्त पैरोकारों के बीच आडवाणी की यह छवि उनकी उपलब्धि ही है।