Friday, March 5, 2010

पूर्वांचल वाले अमर भईया


उमेश चतुर्वेदी
पूर्वी उत्तर प्रदेश को अलग करके पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग यूं तो काफी पुरानी है। जब पिछले दिनों तेलंगाना राज्य बनाने को लेकर चल रहा आंदोलन तेज हुआ तो उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी पूर्वांचल को अलग बनाने की मांग करने वालों में शामिल हो गईं। दिलचस्प बात ये है कि सिर्फ दो महीने पहले तक उत्तर प्रदेश के बंटवारे का विरोध करने वाले अमर सिंह को भी पूर्वांचल राज्य में ही पूर्वी उत्तर प्रदेश का भविष्य नजर आने लगा है। इस मांग को जोरदार तरीके से उठाने के नाम पर उन्होंने अपने गृह जिले आजमगढ़ में 26 फरवरी को बाकायदा स्वाभिमान रैली का आयोजन भी कर डाला।
हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अमर सिंह को पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली ने उतना प्रभावित नहीं किया है, जितना वे अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए परेशान हैं। स्वाभिमान रैली का असल मकसद यही था। अमर सिंह को लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल राज्य के नाम पर जनसमर्थन जुटाया जा सकता है। इसीलिए वे जोरशोर से पूर्वी उत्तर प्रदेश की हर सभाओं में इस मांग को उठा रहे हैं।
लेकिन जिन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी की पहचान है, उन्हें पता है कि पूर्वांचल राज्य को लेकर नया आंदोलन यहां खड़ा करना आसान नहीं है। अलग तेलंगाना आंदोलन जब तेज हो रहा था, तब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमान ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को बिहार से जोड़कर नया राज्य बनाने का सुझाव ही दे डाला था। ये सुझाव भले ही लोगों को नया और लीक से अलग नजर आ रहा हो, लेकिन हकीकत ये है कि ऐसी मांग पिछली सदी के आखिरी दिनों में उनके ही पूर्ववर्ती लालू प्रसाद यादव कर चुके हैं। एनटी रामाराव के भारत देशम की तर्ज पर उन्होंने भोजपुरी देशम की मांग रखी थी। लालू यादव ने जिस समय ये मांग रखी थी, उस समय वे अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। राजनीतिक पंडित जनता के रूख को मोड़ने की किसी नेता की ताकत का अंदाजा उसकी लोकप्रियता के जरिए ही आंकते रहे हैं। इस आधार पर भोजपुरी देशम राज्य की मांग अब तक पूरे शवाब पर होती। लेकिन पूर्वांचल का भोजपुरी भाषी समाज भले ही किसी और मसले पर अपने नेता के पीछे चलने लगता हो, लेकिन राज्य और राष्ट्र के मसले पर वह दूसरे इलाके के लोगों की तरह भेड़चाल में शामिल नहीं हो सकता। शायद यही वजह है कि अब तक ना तो अलग पूर्वांचल राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ पाई है, ना ही भोजपुरी देशम का सपना कायदे से खड़ा होता दिख रहा है।
पूर्वांचल के लोगों की इस मानसिकता को वहां के राजनेता भी अच्छी तरह समझते रहे हैं। इसी मिट्टी से निकले चंद्रशेखर खुलेआम मानते रहे कि विकास के दम पर राजनीति नहीं की जा सकती। जिस बलिया की जनता की नुमाइंदगी करते हुए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, वहां आज भी सड़कों के बीच गड्ढा या गड्ढे के बीच सड़क खोजी जा सकती है। लेकिन वहां की जनता को इस बात का मलाल नहीं रहा कि उसका विकास देश के दूसरे वीआईपी नेताओं के चुनाव क्षेत्रों का क्यों नहीं हुआ। बलिया के लोग इसी तथ्य से गर्व भरे संतोष का अनुभव करते रहे हैं कि वे जिस नेता को संसद की दहलीज तक पहुंचाते रहे हैं, उसकी आवाज अंतरराष्ट्रीय मंचों तक सुनी जाती रही है। बदहाली और विकास की किरणों से उत्तर प्रदेश के दूसरे इलाकों से मीलों पीछे स्थित इस इलाके के लोगों की मानसिकता अब तक बदल नहीं पाई है। शायद मायावती भी इस तथ्य को समझ रही हैं, यही वजह है कि उन्होंने पूर्वांचल को अलग करके नया राज्य बनाने के लिए केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखने में देर नहीं लगाई।
पूरी दुनिया में अलग राष्ट्र या अलग राज्य बनाने की मांग के पीछे स्थानीय अस्मिताओं की राजनीतिक और जातीय पहचान बचाए रखना सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। विकास और स्थानीय हाथों में राजनीतिक सत्ता को बनाए रखना दूसरा बड़ा कारण है। इन अर्थों में देखा जाय तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को काटकर अलग राज्य बनाए जाने की मांग को जनता का व्यापक समर्थन मिलना चाहिए था। एक दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता और राज्य के पूर्व वित्त मंत्री मधुकर दिघे ने भी इस इलाके को अलग राज्य बनाने की मांग रखी थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के रसूखदार नेता रहे शतरूद्र प्रकाश और भदोही से भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे वीरेंद्र सिंह मस्त भी अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग संसद से लेकर सड़क तक उठा चुके हैं। लेकिन जनता का उन्हें साथ नहीं मिल पाया। यहां की जनता विकास की बजाय इसी बात से गर्वान्वित होती रही कि उसने पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया।
छोटे राज्यों की मांग के पीछे स्थानीय समुदाय और सियासत के हाथ सत्ता की ताकत हासिल करना भी रहा है। ताकि स्थानीय स्तर पर विकास की नदी की धार बहाई जा सके। इस आधार पर देखें तो छह प्रधानमंत्रियों वाले इस इलाके का नक्शा देश के दूसरे इलाकों से ज्यादा चमकदार होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।
सच तो ये है कि विकास की दौड़ में यह राज्य आज भी दूसरे विकसित राज्यों की कौन कहे, पश्चिमी और मध्य प्रदेश की तुलना में ही कोसों पीछे है। राष्ट्रीय नमूना सवेँ के 61वें दौर के सर्वेक्षण के मुताबिक पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों में 56.5 प्रतिशत और शहर में 54.8 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। 1999-2000 में अकेले पूर्वी उत्तर प्रदेश की 35.6 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, जबकि पूरे उत्तर प्रदेश में गरीबी का औसत 31 प्रतिशत था। नियोजन विभाग की अध्ययन रिपोर्ट में पाया गया कि प्रदेश के सबसे कम विकसित 14 जिलों में 11 पूर्वी उप्र के हैं और दो बुंदेलखंड के। खुद योजना आयोग की उत्तर प्रदेश विकास रिपोर्ट ही मानती है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में पूर्वी उत्तर प्रदेश में निवेश भी कम हो रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां 66.8 प्रतिशत निवेश हुआ है तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में महज साढ़े सत्रह फीसदी ही निवेश हुआ। आज बिजली विकास का पैमाना बन गई है। लेकिन खुद राज्य के ही नियोजन विभाग के मुताबिक ग्रामीण विद्युतीकरण के मसले में भी पूर्वी उत्तर प्रदेश सिर्फ बुंदेलखंड इलाके से ही आगे है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जहां 88.81 प्रतिशत गांवों में बिजली पहुंच गई है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के 76.78 प्रतिशत गांवों को ही बिजली नसीब हो पाई है। नियोजन विभाग ने अपने प्रमुख पैमाने पर राज्य की प्रति व्यक्ति आय का जो आंकड़ा दिया है, उसमें भी उत्तर प्रदेश काफी पीछे है। इसके मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय जहां 17083 रुपए है, वहीं पूर्वांचल के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 9499 रुपए है। कुल सिंचित भूमि के हिसाब से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश बाकी इलाकों से पीछे है। पश्चिमी इलाके में जहां 62 फीसदी भूमि सिंचित है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज चालीस फीसद ही है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार औद्योगिक विकास में भी पश्चिमी उप्र का पलड़ा अन्य क्षेत्रों से काफी भारी है। राज्य नियोजन विभाग की वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004-05 में जहां पश्चिमी उप्र में पंजीकृत कारखानों की अनुमानित संख्या 7265 थी, वहीं मध्य उप्र में यह 2245, पूर्वी उप्र में 1379 और बुंदेलखंड में महज 159 थी। और तो और साक्षरता के मसले पर भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे इलाकों से पीछे ही है। पूर्वांचल के जहां 55.22 प्रतिशत लोग साक्षर हैं, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 58.44 प्रतिशत लोग साक्षर है। इस मामले में बुंदेलखंड दूसरे इलाकों से आगे है, जहां के करीब 60.32 प्रतिशत लोग साक्षर हैं। शिक्षा भले ही आज विकास का सबसे बड़ा पैमाना माना जा रहा हो। लेकिन प्रति लाख जनसंख्या पर प्राथमिक विद्यालयों की संख्या के लिहाज से भी पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य के दूसरे क्षेत्रों से पीछे है। सबसे ज्यादा प्राथमिक स्कूल 104 प्रतिलाख बुंदेलखंड में हैं। ऐसा इसलिए संभव हो पाया है, क्योंकि इस इलाके का जनसंख्या घनत्व राज्य के दूसरे इलाकों की तुलना में बेहद कम है। वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रति लाख जनसंख्या पर 79 स्कूल हैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में ये आंकड़ा महज 68 है। यही हालत अस्पतालों और उनमें मौजूद बिस्तरों की भी है।
आंकड़ों का आधार गवाह है कि उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड से पूर्वी उत्तर प्रदेश की थोड़ी बेहतर स्थिति है। लोगों को पता है कि उनके यहां बिजली नहीं आने वाली, सड़कों में गड्ढे ढूंढ़ने की उनकी अनवरत यात्रा जारी रहेगी। इन दुश्वारियों को झेलने के बावजूद अगर यहां अलग राज्य की मांग सिरे से परवान चढ़ती नजर नहीं आ रही तो इसकी एक बड़ी वजह ये है कि यहां के लोग राष्ट्रीयताबोध से बेहद ओतप्रोत हैं।
1962 में गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ गहमरी ने जब इस इलाके की गरीबी की दास्तान सुनाते हुए लोकसभा को बताया था कि यहां के गरीब लोग गोबर से अनाज का दाना निकाल कर खाने को मजबूर हैं, तो नेहरू की ऑंखें भी छलछला उठी थीं। इस घटना को बीते भी पांचवा दशक होने को है। अब लोग बेशक गोबर से दाना निकाल कर नहीं खा रहे, लेकिन यहां की ज्यादातर आबादी की हालत में खास बदलाव नहीं आया है। ऐसे हालात में भी मायावती के सुझाव के बावजूद अलग राज्य की मांग को लेकर कोई खास सुगबुगाहट नजर नहीं आ रही है।
(यह लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हो चुका है।)

Saturday, February 13, 2010

अब नहीं जलती लालटेन

उमेश चतुर्वेदी
हम जैसे – जैसे एक उम्र की सीमा को पार करने लगते हैं, अपने पुराने दिन, घर-परिवार की बातें और स्कूल की शरारतें याद आने लगती हैं। भले ही किसी की उम्र ज्यादा क्यों न हो गई हो, उसकी मौत उसके साथ बिताए दिनों की बेसाख्ता याद दिलाने लगती है। अपने मिडिल स्कूल के एक गुरूजी की मौत के बाद मुझे जितनी उनकी याद आई, उसके साथ ही उनकी छड़ी की सोहबत में गुजारे स्कूली दिन भी स्मृतियों में ताजा हो गए। यही वजह रही कि इस बार गांव जाने के बाद मैं अपने मिडिल स्कूल जा पहुंचा। स्कूल की बिल्डिंग वैसी ही खड़ी है, जैसी शायद पिछली सदी के चालीस के दशक में खड़ी थी। लेकिन चालीस के दशक से ही चलती रही एक परंपरा ने यहां भी अपना दम तोड़ दिया है।
दरअसल तब आठवीं का इम्तहान भी बोर्ड के तहत देना होता था। हमारे स्कूल की चूंकि पढ़ाई की दुनिया में बरसों पुरानी साख थी, लिहाजा इस साख को बचाए रखने के लिए हमारे गुरूजी लोग जाड़े का दिन आते ही स्कूल में ही छात्रों के बिस्तर लगवा देते। इसके लिए धान की पुआल दो कमरों में डालकर उस पर दरी बिछा दी जाती। ये इंतजाम स्कूल की तरफ से ही होता था। फिर उस पर अपने घरों से ओढ़ना-बिछौना लाकर आठवीं के छात्र डाल देते। सिरहाने उनकी पूरी किताबें और नोटबुक होती। तब स्कूल में बिजली नहीं थी, लिहाजा सबको अपने लिए लालटेन भी लानी होती थी। दीपावली बाद से लेकर मार्च – अप्रैल में इम्तहान होने तक सभी छात्र को सिर्फ दिन में एक बार घर जाने की अनुमति होती थी। यह मौका शाम की छुट्टियों के बाद ही आता। घर जाकर सभी लोग खाना खाते, कपड़े बदलते और रात के खाने के साथ ही देसी फास्टफूड की पोटली लेकर आते थे। दिन में कक्षाओं में पढ़ाई होती और रात में गुरूजी लोग के निर्देशन में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती। छात्रों का रिजल्ट खराब न हो, इसके लिए गुरूजी लोग खास ध्यान देते। छात्रों को गुरूकुल की भांति हर दिन चार बजे भोर में जगाया जाता। गुरूजी लोग भी जागते और पढ़ाई कराते। इतनी मेहनत के बाद भी गुरू लोग अपने ही खर्च से स्कूल में खाना बनाते। इसके लिए अलग से कोई फीस नहीं ली जाती थी। हां, परीक्षा पास होने के बाद हर छात्र गुरू दक्षिणा के तौर पर पांच या दस रूपए देता था। अगर मानें तो तीन-चार महीने की पढ़ाई का यही गुरूओं का मेहनताना होता।
स्कूल में पहुंचते ही मुझे अपने जमाने के वे दिन याद आने लगे। मैंने पूछताछ शुरू की तो पता चला कि यह परंपरा टूटे कई साल हो गए। वैसे तो अब खाते-पीते परिवारों के बच्चे यहां पढ़ने ही नहीं आते। उनके लिए अब कस्बे में ही अंग्रेजी नाम वाले कई स्कूल खुल गए हैं। जहां वे मोटी फीस देकर पढ़ते हैं। ये बात और है कि इन स्कूलों के चलाने वाले लोग हमारे स्कूल की लालटेन की रोशनी से ही निकले हुए हैं। कहते हैं, व्यक्ति अपने शुरूआती जीवन में सीखता है, उसे बाद के दिनों में भी अख्तियार किए रखता है। लेकिन तकरीबन इस नि:स्वार्थ परंपरा को हम अपनी जिंदगी में उतार नहीं पाए हैं। बाजार के दबाव ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह निगल लिया है। जहां अब गुरू न तो छात्रों को अपने परिवार का अंग समझता है ना ही छात्रों के मन में उसके लिए श्रद्धा ही बची है। ऐसे में शिक्षा भी व्यवसाय बन गई है। जहां लोग अपनी हैसियत के मुताबिक कीमत देकर उसे हासिल कर रहे हैं। जो बड़ी कीमत देकर ऊंची तालीम हासिल नहीं कर पाता है, उसे बाजार में खुद के पिछड़ने का मलाल रह जाता है। लेकिन आज से करीब दो दशक पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी। कस्बे के जमींदार, थानेदार से लेकर चौकीदार तक का बेटा एक साथ पढ़ते थे। सबकी लालटेनें एक साथ जलती थीं और इनकी सम्मिलित रोशनी समाज में मौजूद अंधियारे को मिटाने की कोशिश करती थीं। ऐसा नहीं कि तब सारे गुरू दूध के धुले ही थे। समाज में कभी-भी सबकुछ दूध का धुला ही नहीं होता। लेकिन उसकी फिजाओं में इसकी तासीर कम या ज्यादा जरूर होती है। कहना ना होगा कि तब के दिनों में शिक्षा कम से कम दुकानदारी के तासीर से मुक्त थी, जहां अध्यापक हर छात्र को पढ़ाना और उसे काबिल आदमी बनाना अपना कर्तव्य समझता था। शायद यही वजह है कि लालटेन से जो रोशनी निकलती थी, वह शिक्षा के साथ एक रिश्ते का भी प्रसार करती थी। आज स्कूल भी वही है। अध्यापकों को पहले से कई गुना ज्यादा पगार मिलती है। वहां बिजली भी आ गई है। उसकी रोशनी की चमक भी कहीं ज्यादा है। लेकिन अफसोस रिश्तों की वह डोर बाकी नहीं बची है, जो लालटेन वाले दिनों की खास पहचान हुआ करती थी।
जनसत्ता के कॉलम दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित

Thursday, January 21, 2010

एक दुनिया ऐसी भी

उमेश चतुर्वेदी
किसी सभा संगत में बोलने का मौका मिले तो अच्छे-भले लोगों की बांछें खिल उठती हैं, ऐसे में किसी नए-नवेले को अवसर मिले तो उसकी खुशियों का पारावार नहीं होगा। दिल्ली की एक संगत से बुलावा मिला तो मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी। लेकिन वहां पहुंचकर जो अनुभव हुआ, उसने मेरी आंखें ही खोल दीं। देश की हालत पर चर्चा करते हुए मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की उस रिपोर्ट का जिक्र कर बैठा – जिसके मुताबिक देश के आज भी करीब चौरासी करोड़ लोग रोजाना सिर्फ बीस रूपए या उससे नीचे पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की बनाई इस कमेटी की रिपोर्ट का जिक्र मैंने इसलिए किया, ताकि वहां बैठे नौजवान श्रोताओं को पता चला कि मॉल और महंगी गाड़ियों से अटी दिल्ली-मुंबई के बाहर की देसी दुनिया और उसके लोग कैसे हैं। इस उदाहरण के बाद पता नहीं कितने नौजवानों की आंखें खुलीं, लेकिन एक नौजवान ने जैसे सवाल मेरी ओर उछाले, उससे चौंकने की बारी मेरी थी।
दरअसल वह नौजवान मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत की इतनी बदतर हालत है। जिस कॉलेज से वह आया था, वह दिल्ली के संभ्रांत कॉलेजों में गिना जाता है। माना जाता है कि वहां संभ्रांत तबके के लोगों के ही बच्चे पढ़ते हैं। जाहिर है वह बच्चा भी वैसे ही समाज से था। महंगे और आधुनिक फ्लैट से निकल कर महंगी गाड़ियों के बाद चमकते मॉल और रेस्तरां और बेहतरीन स्कूलों के बीच उसकी जिंदगी गुजरी थी या गुजर रही है। वह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत में सचमुच इतनी गरीबी और बदहाली है। उसे लगता था कि मैं उसे बेवकूफ बना रहा हूं। अव्वल तो वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि योजना आयोग ने ऐसी कमेटी भी बनाई थी, जिसने कोई ऐसी रिपोर्ट भी दी थी। भारत में ऐसी गरीबी और बदहाली को तो खैर वह मान ही नहीं रहा था। वह तो शुक्र है कि जिस संगत में गया था, वहां इंटरनेट की सुविधा थी। लिहाजा मैंने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की वह रिपोर्ट डाउनलोड की और उसे पढ़ने के लिए दे दिया।
कई लोगों को लग सकता है कि दिल्ली में संभ्रांत घरों के ऐसे भी बच्चे हैं, जिन्हें अखबारी और टीवी की दुनिया से इतना भी वास्ता नहीं है कि वे ऐसी जानकारियों से लैस रह सकें। लेकिन यही सच है। खाए-अघाए वर्ग के बच्चों का एक बड़ा तबका ना सिर्फ ऐसी जानकारियों से दूर है, बल्कि उसे सामान्य ज्ञान की भी जानकारी नहीं है। रही बात भारत की गरीबी की, तो इस बारे में भी उनकी जानकारी अधूरी या अधकचरी है।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैकाले की स्वर्ग में बैठी आत्मा बेहद खुश होगी। मैकाले ने 1835 में जिस शिक्षा व्यस्था की नींव रखी थी, उसका मकसद था भारत नहीं इंडिया का निर्माण। मैकाले सफल कितना सफल हो पाया, यह तो अलग शोध का विषय है, लेकिन उदारीकरण के दौरान या उसके बाद पैदा हुई महानगरीय पीढ़ी ने उसकी मंशा जरूर पूरी कर दी है। मैकाले तो सफल नहीं हुआ, लेकिन उदारीकरण ने वह सीमा रेखा जरूर खींच दी है, जिससे भारत और इंडिया साफ बंटे नजर आ रहे हैं।
इस घटना के बाद मुझे प्रिंस क्रोपाटकिन की किताब – नवयुवकों से दो बातें – काफी शिद्दत से याद आने लगी। जिसे मैंने किशोरावस्था की ओर कदम रखते वक्त पढ़ा था। इस किताब में वह डॉक्टर, अध्यापक और वकील जैसे प्रोफेशनल से पूछते हैं कि अगर उनके सामने गरीब और बेसहारा आम आदमी और उसके बच्चे अपनी समस्या लेकर आते हैं तो उनका क्या जवाब होगा या फिर वे कैसे उससे निबटेंगे। जाहिर है, जवाब पारंपरिक ही होंगे कि मसलन डॉक्टर रोगी के लिए फल और दूध के साथ दवाइयां ही सुझाएगा। तब क्रोपाटकिन दूसरा सवाल उछालते हैं कि जब उनके पास इसकी सामर्थ्य ही नहीं होगी, तब ... और क्रोपाटकिन का यह सवाल ही आंख खोल देता है। काश कि ऐसी किताबें आज की महानगरीय पीढ़ी को पढ़ने को दी जातीं और वह इससे कुछ संदेश लेती। तब शायद उन्हें पता चलता कि देश की असल हालत क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या आज की यह महानगरीय पीढ़ी इसके लिए तैयार भी है या नहीं...

सुबह सवेरे में