Friday, October 3, 2008

नहीं बदली विदर्भ की तसवीर


यवतमाल से लौटकर उमेश चतुर्वेदी
विदर्भ में किसानों की हत्याओं के आंकड़ों ने 2004 के लोकसभा चुनावों की तसवीर बदलने में जबर्दस्त भूमिका निभाई थी। गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल कुल जमा 441 किसानों की मौत हुई थी। इसके ठीक पहले यानी साल 2003 में किशोर तिवारी और प्रकाश पोहरे जैसे सक्रिय कार्यकर्ताओं के मुताबिक 144 लोगों ने अपनी जान खेती के नाम कुरबान की थी। जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी की सभाएं याद हैं – खासतौर पर विदर्भ और आंध्रप्रदेश के तेलंगाना की – वे एनडीए सरकार की किसान विरोधी नीतियों को कोसती रहीं। उनकी पूरी कोशिश वाजपेयी सरकार के फील गुड और इंडिया शाइनिंग के नारे की धज्जियां उड़ाने पर रहती थीं। विदर्भ और तेलंगाना के किसानों की आत्महत्याओं का मसला जोरदार तरीके से उठाकर अपनी कोशिश में वे कामयाब भी रहीं। वाजपेयी सरकार वापस नहीं लौट पाई और सोनिया गांधी की कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के हाथों में केद्रीय सत्ता आ गई। सोनिया के इस सफल अभियान से ही उन्हें संसद के ऐतिहासिक सेंट्रल हॉल में त्यागमयी राजमाता की भूमिका निभाने का मौका मिला।
इस ऐतिहासिक दौर के बीते पांच साल होने को आ रहे हैं। वर्धा नदी में इन पांच साल में काफी पानी बह चुका है। लेकिन विदर्भ की हालत वैसी की वैसी ही है। बल्कि इन पांच सालों में आत्महत्याओं का आंकड़ा आशंका से भी कहीं ज्यादा बढ़ गया है। जब यूपीए सरकार ने सत्ता संभाली – विदर्भ में आत्महत्याओं में थोड़ी कमी जरूर आई। उस साल 431 लोगों ने अपनी जान देकर अपनी आर्थिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का भयावह रास्ता अख्तियार किया। ये आंकड़ा विदर्भ जनअधिकार समिति के किशोर तिवारी का है। 2006 में ये आंकड़ा तीन गुना से भी ज्यादा 1500 हो गया। इस बीच प्रधानमंत्री के दौरे हुए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने राहत के मद में 1730 करोड़ की सहायता योजना का ऐलान किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी विदर्भ की वादियों में घूमे और 630 करोड़ दे गए। इससे आत्महत्याओं की दर में कुछ कमी तो आई – लेकिन वह कमी भी भयावह हालात को दिखाने के लिए काफी रही। 2007 में 1243 लोगों ने आत्महत्याएं कीं। मौजूदा साल के बजट में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 72 हजार करोड़ के किसान कर्जे की माफी का ऐलान किया। लेकिन हालत ये है कि अब तक करबी 4100 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
विदर्भ का मामला परमाणु करार पर विश्वासमत पाने की कोशिश में जुटी केंद्र सरकार की बहस के दौरान फिर उछला। जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यवतमाल जिले की दो महिलाओं कलावती और शशिकला की बदहाली की चर्चा की। जाखना गांव की कलावती के बहाने उन्होंने विदर्भ के किसानों की बदहाली का जिक्र किया तो पूरे देश का ध्यान उसकी ओर चला गया। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक विंदेश्वर पाठक 2 अगस्त को उसे पच्चीस लाख रूपए की सहायता दे आए। दो सितंबर को यवतमाल जिले के सोनखास गांव की शशिकला भी उनसे फायदा पाने में कामयाब रही। इस सहायता ने विदर्भ में खानाबदोश जातियों के कमजोर और बदहाल लोगों की उम्मीदें बढ़ा दीं। 400 की जनसंख्या वाले सोनखास गांव के पचास झोपड़ों में से एक को फायदा मिला तो बाकी लोगों के आंखों में एक ही सवाल तैरने लगे। उन्हें सहायता क्यों नहीं ! बदहाली में वे भी जिंदगी गुजार रहे हैं। लेकिन इसका फायदा उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए। आधे-अधूरे कपड़ों में बूढ़े-बूढ़ियों के साथ ही जवान – बच्चों का हुजूम वहां जुट गया। सबका विंदेश्वर पाठक से एक ही सवाल था- सहायता हमें भी चाहिए। दिल्ली से गए संवाददाताओं के पास लोगों की अर्जियां जुटने लगीं। किसी के बच्चे का एक्सीडेंट में हाथ काटना पड़ा तो किसी को आंख से दिखाई नहीं देता और सबको सहायता चाहिए। विंदेश्वर पाठक को ऐसी परिस्थितियों में हाथ तो खड़ा करना ही था। उन्होंने खड़ा कर दिया कि वे कितने लोगों को सहायता दे सकते हैं। लगे हाथों उन्होंने सुझाव भी दे डाला कि नागपुर बढ़ते हुए करोड़पतियों का शहर है। मुंबई में 110 खरबपति रहते हैं। सभी एक-एक दो परिवारों को गोद ले लें- समस्या का समाधान हो जाएगा। पता नहीं यवतमाल से उठी ये आवाज मुंबई और 115 किलोमीटर दूर नागपुर में कितने कानों तक पहुंची।
कलावती और शशिकला को फायदा तो मिल गया, क्योंकि उनकी झोपड़ी में रोड शो करते हुए राहुल गांधी पहुंच गए थे। लेकिन विदर्भ में हजारों लोग परेशान हैं। कर्जे में डूबे हुए हैं। ये संभव नहीं है कि सभी बदहाल झोपड़ियों में राहुल गांधी पहुंचे और उनकी बदहाली दूर करने के लिए कोई सुलभ इंटरनेशनल पहुंच जाए। अगर राहुल गांधी सभी झोपड़ियों में पहुंचने भी लगें तो बाजार अर्थव्यवस्था का कोई नुमाइंदा उन झोपड़ियों में दो या तीन लाख का चेक देने के लिए आने से रहा। (विंदेश्वर पाठक ने इतनी ही रकम शशिकला और कलावती को दी है।)
झोपड़ियों में जाकर चुनावी तैयारियों के लिए जनसमर्थन तो जुटाया जा सकता है। लेकिन हजारों-लाखों लोगों की समस्या का समाधान मुकम्मल रणनीति के तहत नीतियों में बदलाव लाकर - फिर उसे सही तरीके तक गांवों के स्तर तक पहुंचा कर ही किया जा सकता है। लेकिन विदर्भ में जो हालात हैं – उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि हालात बदले हैं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 1923 में अंग्रेजों ने जिस रेलवे लाइन का दोहरीकरण किया था – वह मुंबई – नागपुर रेलवे लाइन ही थी। इसकी वजह ये थी कि विदर्भ में उन दिनों दुनिया का बेहतरीन कपास पैदा होता था और उसे मुंबई बंदरगाह तक पहुंचने में देर न हो, इसलिए दो ट्रैक बनाए गए। मुंबई से ये कपास मानचेस्टर की सूती मिलों तक पहुंचाया जाता था। डंकेल प्रस्तावों के लागू होने के बाद तक यहां का कपास किसान उगाते थे और खुद बेचते थे। तब खेती की लागत कम होती थी। किसान अपना बीज खुद संरक्षित करते थे, उन बीजों से पैदा फसल में ज्यादा रासायनिक खाद और कीटनाशक का उपयोग नहीं होता था। लेकिन जब से बीटी कॉटन का दौर शुरू हुआ है – हर साल किसान को हजारों रूपए बीज में खर्च करने पड़ रहे हैं। इस बीज से उगी फसल को बचाने के लिए कीटनाशकों और रासायनिक खादों का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ता है। किसानों के लिए संघर्षरत वरिष्ठ कार्यकर्ता विजय जावंधिया और किशोर तिवारी के मुताबिक इससे प्रति हेक्टेयर किसान की लागत करीब सात हजार रूपए पड़ रही है। इस फसल से सूंडी कीड़े भारी संख्या में पैदा होते हैं और उन्हें बचाने के लिए कीटनाशकों पर काफी खर्च करना पड़ रहा है। इसके लिए वे साल दर साल बैंकों से कहीं ज्यादा सूदखोरों से कर्ज लेने को मजबूर हैं। किशोर तिवारी के मुताबिक अकेले विदर्भ में बीजों का कारोबार 12 हजार करोड़ को पार कर गया है। यानी ये सारा पैसा मोनसेंटो जैसी अमेरिकी कंपनियों के खाते में जा रहा है। यहां ये ध्यान देने की जरूरत है कि विदर्भ की पूरी खेती वर्षा के पानी पर निर्भर है। अगर बारिश ना हुई तो सारी लागत गई सूखे में।
सूदखोर के यहां पैसा लगातार बढ़ते ही जाना है। ये हालत उन किसानों की है – जो रसूखदार और अच्छी-खासी जमीन के मालिक हैं। जिस कलावती का दलित महिला के तौर पर राहुल गांधी ने संसद में जिक्र करके कांग्रेस जनों की वाहवाही पाई- वह कोई दलित नहीं, बल्कि स्थानीय नंदुबार जैसी दबंग और रसूखदार जाति की महिला है।
कोसी की बाढ़ ने इन दिनों देश का ध्यान बंटा रखा है। नागपुर में किसानों की समस्याओं पर 3 सितंबर को हुए एक सम्मेलन में ये सवाल उठा कि इस बदहाली के बाद भी कोसी इलाके से शायद ही कोई आत्महत्या की खबर सामने आए। आखिर क्या वजह है कि कोसी या पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली के बीच से भी आत्महत्या की शायद ही कोई खबर आती है- जबकि विदर्भ ऐसी अशुभ खबरों से भरा हुआ है। इसकी वजह है – विदर्भ में नगदी फसल की खेती। वहां अनाज उत्पादन की बजाय लोग कपास जैसी कमाई वाली फसल पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लोग कपास से मुड़े भी हैं तो उनका ध्यान सूरजमुखी की खेती पर आ टिका है। विदर्भ में सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। लिहाजा पूरी की पूरी खेती आसमानी कृपा पर है। आसमान की कृपा हुई तो समझो वारा-न्यारा। नहीं हुई तो भुखमरी की हालत। ऐसी हालत में मजदूरी पर जिंदगी गुजारने वाले लोगों को काम नहीं मिल पाता। अन्न उत्पादन वाले इलाके में मजदूरों को नगदी और ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती – लेकिन मजदूरी के तौर पर खाने के लिए अनाज जरूर मिल जाता है। जिससे समाज के कमजोर तबके को भी भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ता है।
आज राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी नरेगा की बड़ी चर्चा है। कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार और जुलाई के पहले तक उसे समर्थन दे रहे वामपंथी दल इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाते रहे हैं। साल के कम से कम एक सौ दिनों तक मजदूर परिवारों को 100 रूपए रोजाना की दर से काम देने का वायदा इसी योजना में शामिल है। केंद्र सरकार के अपनाए जाने के पहले महाराष्ट्र ही पहला राज्य था, जिसने इस नीति की शुरूआत की थी। लेकिन हकीकत ये है कि नरेगा के तहत महाराष्ट्र में भी काम नहीं मिल रहा है। लगातार तीन साल से विदर्भ सूखे का सामना कर रहा है। लेकिन वहां नरेगा के तहत काम कम हो रहा है। शशिकला के गांव यवतमाल जिले के सोनखास में लोगों ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि एक तो काम हो नहीं रहा है। अगर हो रहा है तो उन्हें मजदूरी के तौर पर सिर्फ तीस रूपए दिए जा रहे हैं। ऐसे में उनका काम कैसे चलेगा। अगर लोगों के इस आरोप में दम है तो विलासराव देशमुख सरकार को इसका जवाब भारी पड़ेगा।

2 comments:

  1. bahut barhia Umesh bhai...Bhojpuri ko asal mein aap hee jaisan logan ke zaroorat ba...rauaa mein oo dum ba...oo utsaah ba..oo umang baa je ekra ke ek mukaam par pahunchayee...Hamaar shubhkaamna rauaa ke sang baa..

    shukriya
    Hitendra Gupta

    http://hellomithilaa.blogspot.com

    http://muskuraahat.blogspot.com

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