Friday, October 31, 2008
ये है स्पेशल मेरी जान
उमेश चतुर्वेदी
स्टेशन हो या बस स्टॉप...शादी-ब्याह का घर हो या सरकारी दफ्तर..हम लोग जब भी इन जगहों पर जाते हैं ...हमारी एक ही ख्वाहिश होती है हमें स्पेशल ट्रीटमेंट मिले..हमारे लिए स्पेशल इंतजाम हो..हवाई जहाज से आज भी आना-जाना बेहद अहम माना जाता है। इस माहौल में भी आपको हवाई अड्डे पर स्पेशल इंतजाम मिले तो क्या कहने ....सरकारी दफ्तर में पहुंचते ही वहां पुराने जमाने की धूलभरी फाइलों के अंबार के बीच मेज पर अस्त-व्यस्त कागजों के साथ बैठे बाबू महाशय से बात करने में सबको एक खटका लगा रहता है ...आपके सवाल को वे टरका न दें। हो सकता है कई बार वे आपके सवाल का जवाब दे भी दें ..लेकिन वह जवाब इतना चलताऊ या फिर इतना कर्कश होता है कि आपका सारा उत्साह काफूर हो जाए। ऐसे हालात वाले दफ्तर में जाने से पहले हर कोई किसी न किसी ऐसे जुगाड़ में जुटा रहता है – जिससे दफ्तर में पहुंचते ही स्पेशल तरीके से ना सिर्फ आवभगत मिले- बल्कि चटपट काम भी हो जाए।
स्पेशल की माया कम से कम अपने देश में इतनी महत्वपूर्ण तो है ही कि हर कोई स्पेशल खातिरदारी और स्पेशल इंतजाम कराने – पाने के ही जुगाड़ में लगा रहता है। लेकिन इसी देश में एक स्पेशल इंतजाम ऐसा भी है – जिसका फायदा उठाने से अच्छे-भले लोगों की भी रूह कांपती रहती है। आप चौंकिएगा नहीं ...स्पेशल चाहत की दुनिया रखने वाले भी इस स्पेशल से बचने में ही अपनी भलाई देखते हैं। दरअसल ये इंतजाम है अपने देश में पर्व-त्यौहारों के मौकों पर चलने वाली स्पेशल ट्रेन। दशहरा- दीवाली, छठ और होली से लेकर गर्मी की छुट्टियों तक में रेलवे हर साल सैकड़ों स्पेशल ट्रेन चलाता है। स्पेशल चाहने वाले इस देश में कायदे से तो ये होना चाहिए कि लोग स्पेशल ट्रेनों की ओर दौड़ पड़ें। लेकिन होता ठीक उलटा है। लोग नियमित ट्रेन से ही भीड़ और सांसत भरी यात्रा करना पसंद करते हैं। स्पेशल ट्रेनों की माया ऐसी है कि एक बार किसी ने इनकी सवारी कर ली तो समझो अगली बार के लिए वह कान ही पकड़ लेता है। इसकी वजह भी बिल्कुल सामान्य है। स्पेशल ट्रेनों का टाइम टेबल तो होता है – लेकिन शायद ही वे कभी अपने नियत समय पर चल पाती हैं। जहां ठहराव नहीं होता – वहां भी रेलवे के अधिकारी उन्हें ना सिर्फ रोक देते हैं – बल्कि घंटों तक रोके रखते हैं। स्पेशल हुई तो समझिए ट्रेन में पैंट्री और सुरक्षा भी ना के बराबर हुई। लिहाजा खोमचे से लेकर उठाईगिरों तक की पौ बारह हो जाती है। यूं तो रेलवे पूछताछ केंद्र से वैसे ही सही जानकारी नहीं मिल पाती, ऐसे में अगर ट्रेन स्पेशल हुई तो समझिए कि करेला और उपर से नीम चढ़ा...क्या मजाल कि पूछताछ केंद्र वाला बाबू उसके बारे में सही जानकारी दे दे। अगर आपने उससे बहस कर ली तो उल्टे वह धमका भी देता है – इतना ही शौक है तो स्पेशल का टिकट क्यों लिया ...( लालू जी गौर फरमाएंगे )
कुछ दिनों पहले मेरा भी साबका दरभंगा स्पेशल ट्रेन से पड़ा। लखनऊ जाने के लिए कन्फर्म टिकट उसमें मिला तो मैंने ले लिया। पुरानी दिल्ली स्टेशन से ट्रेन को रात के 11 बजकर 50 मिनट पर खुलना था। लेकिन उसका कोई पता-ठिकाना नहीं था। और तो और उसके बारे में कोई बताने वाला भी नहीं था। रेलवे ने यात्रियों की सहूलियत के लिए 139 पर फोन सेवा शुरू की है। वहां से एक ही जवाब मिलता रहा – ऐसी किसी ट्रेन का कोई रिकॉर्ड ही नहीं है। तीन-तीन घंटा करके ये ट्रेन सुबह छह बजे तक रवाना नहीं हो पाई तो मजबूरन यात्रियों को अपना झोला-बोरा समेट वापस लौटना पड़ा।
वैसे भी हम अपने पुराने अनुभवों से कम ही सबक लेते हैं। रेल-वेल के मामले में तो ये कुछ ज्यादा ही होता है। चार साल पहले पटना जाते वक्त भी मेरा ऐसे ही एक स्पेशल ट्रेन से पल्ला पड़ा था। पंद्रह की बजाय पच्चीस घंटे में पहुंची थी। इस अनुभव के बावजूद एक उम्मीद थी कि इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा..
ऐसे में सवाल उठता है कि इन ट्रेनों को स्पेशल ही क्यों कहा जाय ...इनकी जो हालत है उसमें इन्हें एक्ट्रा यानी फालतू कहें तो कोई हर्ज ...क्या रेल मंत्रालय इस पर गौर फरमाएगा !
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इस मामले में अपने भी अनुभव कुछ ठीक नहीं हैं.
ReplyDeleteखैर आज आपके ब्लॉग तक पहुँच हो ही गई