Monday, October 27, 2008
तो लोकनायक हैं कायस्थों के नेता ....
उमेश चतुर्वेदी
1974 में जयप्रकाश नारायण को तब के कांग्रेस के प्रभावी नेता चंद्रशेखर ने एक चिट्ठी लिखी थी। संपूर्ण क्रांति के लोकनायक की अपील के बाद नौजवान नेताओं से लेकर इंदिरा गांधी की तानाशाही से परेशान कांग्रेसियों की जमात जेपी के साथ लगातार आती जा रही थी। चंद्रशेखर की ये चिट्ठी उन्हीं लोगों पर केंद्रित थी। चंद्रशेखर ने लोकनायक को लिखा – आप सोच रहे हैं कि ये लोग आपके साथ आकर व्यवस्था परिवर्तन का काम करेंगे..दरअसल ये लोग सत्ता की चाहत में यहां आ रहे हैं और जिस रास्ते पर ये चल रहे हैं- भविष्य में ये अपनी जातियों के नेता के ही तौर पर जाने जाएंगे।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन के सिर्फ सोलह साल बाद ही ये आशंका सच साबित होती नजर आने लगी थी। चंद्रशेखर ने ये चिट्ठी लिखते वक्त शायद ही ये सोचा होगा कि खुद जेपी को भी एक दिन सिर्फ कायस्थों के नेता के तौर पर स्थापित किए जाने की कोशिश शुरू हो जाएगी। इस साल एक बार फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन बिना किसी शोरशराबे के बीत गया। देश के तकरीबन आधे राज्यों में उनके साथ काम कर चुके लोगों या उनके शिष्य होने का दावा करने वाले लोगों की सरकारें हैं। लेकिन उनके चेलों ने उनका जन्मदिन उतने धूमधाम से नहीं मनाया, संपूर्ण क्रांति की शिक्षाओं को उस तरह याद नहीं किया। लेकिन कायस्थों के एक समूह ने उन्हें अपने नेता के तौर पर मानने की कोशिश शुरू जरूर कर दी। बलिया से लेकर कुछ जगहों से ऐसी खबरें आईं – जिसमें जेपी के जन्मदिन को कायस्थों के युगपुरूष की वर्षगांठ के तौर पर मनाया गया।
ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि देश में संपूर्ण तौर पर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के सूत्रधार रहे जेपी को क्या सिर्फ कायस्थों के ही नेता के तौर पर भविष्य याद करना शुरू करेगा।
गांधीजी ने जयप्रकाश को कैसा देखा और समझा था- इसे जानने के लिए जेपी के बारे में कहे गए उनके शब्दों पर ही गौर करना होगा। गांधी ने कहा था – ‘ वे कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं। वे समाजवाद के अधिकारी ज्ञाता हैं। यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी समाजवाद के बारे में वे जो नहीं जानते हैं, भारत में दूसरा कोई भी नहीं जानता। वे एक सुंदर योद्धा हैं। उन्होंने अपने देश की मुक्ति के लिए सब कुछ त्याग दिया है। वे अथक परिश्रमी हैं। उनकी कष्ट सहन की क्षमता से अधिक किसी की क्षमता नहीं हो सकती।’
सन बयालीस के आंदोलन के दौरान गांधी, नेहरू और पटेल समेत सभी बड़े नेता जेलों के अंदर डाल दिए गए थे। तब आंदोलन की अगुआई में तीन लोग चमके थे। ये तीन नेता थे जेपी, लोहिया और अरूणा आसफ अली। कहा तो ये जाता है कि हजारीबाग जेल तोड़कर फरार होने के बाद जेपी तब के नौजवानों के रोल मॉडल हो गए थे। तब वे ना तो किसी ब्राह्मण, ना ही किसी ठाकुर या किसी कायस्थ के नेता थे। गांधीजी ने उन्हें यूं ही नहीं समाजवाद का ज्ञाता कहा था।
लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली की लड़ाई लड़ने उतरे जेपी के लिए जातियों के उत्थान से कहीं ज्यादा सर्वोदय यानी सबके विकास की भावना थी। उनका एक मात्र मकसद जवाबदेह लोकतंत्र को स्थापित करना था। ऐसा लोकतंत्र- जिसमें राजनीतिक दलों को अपने निजी हितों से ज्यादा राष्ट्रीय हित की चिंता करनी थी। अपने मशहूर निबंध भारतीय राज व्यवस्था का पुनर्निर्माण में उन्होंने कहा है –‘दलों की प्रतिद्वंद्विता में दिखावटी भाषणबाजी वाली और घटिया राजनीति हावी हो जाती है और जोड़तोड़, घटियापन का मेल बढ़ता जाता है। जहां समन्वय चाहिए, वहां पार्टियां फांक पैदा कर रही हैं। जिन मतभेदों को पाटना चाहिए, पार्टियां उन्हें बढ़ाती हैं। अक्सर वे पार्टी हितों को राष्ट्रीय हितों से उपर रखती हैं।’ दुर्भाग्य की बात ये कि जेपी ने इस राजनीतिक बुराई को दूर करने का जो सपना देखा था – उनके ही कार्यकर्ता रहे नेताओं में आज ये बुराई पूरी तरह से नजर आ रही है। बिहार की समस्याओं को लेकर नीतीश और लालू के रवैये से यही साबित होता है कि जेपी के चेले उनकी ही सीख पर कायम नहीं रह सके।
उनके साथ पिछड़े और दलितों को सत्ता में भागीदारी के साथ व्यवस्था में संपूर्ण परिवर्तन के लिए जो लोग आए। आज वे सत्ता में शीर्ष पदों पर काबिज हैं और हकीकत यही है कि वे अपनी-अपनी जातियों के नेता के तौर पर ज्यादा प्रतिष्ठित हैं। लालू यादव और मुलायम सिंह आज यादवों के नेता के तौर पर ज्यादा जाने जाते हैं तो रामविलास पासवान की पहचान दलितों के ही रहनुमा के ही तौर पर है। नीतीश कुमार को भी हाल के दिनों तक सिर्फ कोइरी-कुर्मी लोगों का नेता माना जाता रहा है। एक हद तक – कम से कम बलिया और उसके आसपास के इलाकों में जेपी को यह अहम चिट्ठी लिखने वाले चंद्रशेखर को भी ठाकुरों का ही नेता माना जाता रहा है।
दरअसल जेपी के नाम पर ही राजनीति और सत्ता की मलाई खाने वालों ने ही अपनी पहचान उनके विचारों से कहीं ज्यादा, अपनी बिरादरी के दम पर पुख्ता करने में ज्यादा और सफल दिलचस्पी दिखाई है। उनका खुद बिरादरीवाद रोकने में कोई प्रयास नहीं रहा। ऐसे में जेपी जिस कुल खानदान में पैदा हुए- उनके लोग उन्हें अपनी जाति के नाम पर क्यों ना प्रतिष्ठित करें। लेकिन सवाल ये है कि क्या जेपी की आत्मा इससे खुश होगी। अगर स्वर्ग है और वहां से जेपी की आत्मा इन कायस्थ कुल शिरोमणियों को अपना उत्थान करते देख रही होगी तो क्या उसे शांति मिलेगी। उनके जन्मदिन सिताबदियारा में तो इस बार उन्हें याद करने उनके सत्ताधारी चेले तक नहीं पहुंचे। जातीय और रस्मी तौर पर जेपी को याद करने की बजाय आज जरूरत इस बात की है कि जेपी को सही मायनों में याद किया जाय।
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शर्म की बात है पर इन घटिया राजनीतिबाजों से और क्या उम्मीद की जा सकती है. तमिलनाडु में अन्ना दुराई जीवन भर मूर्ति पूजा का विरोध करते रहे, पर उन के मरने के बाद उन के अनुयाइओं ने मरीना बीच पर उन की ही मूर्ती लगा दी. कबीर ने जीवन भए मन्दिर-मस्जिदों की निंदा की पर मैंने आगरा में एक मन्दिर देखा, कबीर मन्दिर. ऐसा ही होता है. महान लोगों के नाम को उन के मरने के बाद भुनाया ही जाता है.
ReplyDeleteदीवाली की शुभकामनाएं.
thode dino baad ram ko chhatri log, krishna ko yaadav, sardar patel ko patel biradari le jaayegi
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