Friday, June 4, 2010
पर्यावरण दिवस पर विशेष--- कब चेतेंगे हम पर्यावरण को लेकर
उमेश चतुर्वेदी
पर्यावरण को लेकर विकसित देशों की चिंताएं कितनी गंभीर है, इसे समझने के लिए उनके रवैये पर भी ध्यान देना होगा। पिछले साल दिसंबर में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में हुए सम्मेलन में भी उनका टालू रवैया साफ नजर आया। अमेरिका समेत तकरीबन सभी विकसित देश ये तो चाहते थे कि वातावरण में कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन कम हो, लेकिन वे अपने देशों में इसे कम करने को तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि विकासशील और अविकसित देश ही कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाएं। हकीकत तो यह है कि विकास की दौड़ में अविकसित और विकासशील देश काफी पीछे हैं। लिहाजा उनके यहां औद्योगिक उत्पादन बढ़ाए जाने की ज्यादा जरूरत है। इसके बावजूद उनकी ऊर्जा जरूरतें विकसित देशों में ऊर्जा की खपत से काफी कम हैं। विकसित देश अपने नागरिकों और अपने आर्थिक स्तर को कोई नुकसान पहुंचने देना नहीं चाहते और दुनिया में लगातार बढ़ रही गरमी के लिए विकासशील देशों को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। यही वजह है कि वातावरण को रहने लायक बनाने की दिशा में कोपेनहेगेन सम्मेलन का नतीजा सिफर ही रहा।
यह सच है कि 2008 में शुरू हुई आर्थिक मंदी ने विकसित देशों को सबसे ज्यादा परेशान किया। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो लगता था कि ढह ही जाएगी। इसकी वजह से औद्योगिक उत्पादन में गिरावट भी देखी गई। लेकिन अपने विशाल ग्रामीण बाजार और पारंपरिक समाज के चलते भारत में आर्थिक मंदी का उतना प्रकोप नहीं झेलना पड़ा। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि भारत जैसे देश अपना औद्योगिक उत्पादन न बढ़ाएं। विकसित देशों को तेजी से बढ़ रही चीन की अर्थव्यवस्था से भी परेशानी है। वे चीन पर भी लगाम लगाना चाहते हैं। विकास की दौड़ में लगातार विकसित देशों को चुनौती दे रहा चीन भी अपना औद्योगिक उत्पादन कम क्यों करे।
अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान नासा और भारतीय मौसम विभाग के अपने अध्ययनों में बताया है कि 1901 से लेकर 2008 के बीच बारह साल ऐसे रहे, जिसमें भयानक सूखा पड़ा। इनमें से 1999 के बीच आठ बार भयानक सूखा पड़ा। जबकि 2000 से 2008 के बीच चार बार सूखा पड़ा है। जाहिर है कि औद्योगिकरण के बाद कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है। कहना न होगा कि औद्योगिकरण भी इस सूखे के लिए जिम्मेदार है। दोनों ही संस्थानों के अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 1901 के बाद दुनिया का औसत तापमान करीब आधा डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जाहिर है इसमें औद्योगीकरण और आधुनिक जीवन शैली का बड़ा योगदान है। कहना न होगा कि यह जीवन शैली भी विकसित देशों की ही देन है। ऐसे में रास्ता एक ही बचता है कि धरती को रहने योग्य बनाए रखने के लिए हमें पारंपरिक सोच और रहन-सहन की ओर लौटना होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भौतिकतावादी दुनिया में क्या हम इसके लिए तैयार हैं।
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