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उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में लोक साहित्य के अध्ययन का आधार बना गीत - रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी , पइसवा बैरी भइले ना - भी दरअसल प्रवासी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति था। लेकिन आज प्रवास का मकसद वैसा नहीं रहा, जैसा उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों से लेकर आजादी के कुछ बरसों बाद तक रहा है। लिहाजा प्रवासी रचनात्मकता के स्वर भी बदले हैं। पहले का प्रवासन चूंकि अभाव और मजबूरियों का प्रवास था, लिहाजा उस वक्त की रचनात्मकता में सिर्फ और सिर्फ अभाव और मजबूरियों का ही जिक्र मिलता है। सैनिक और विशाल भारत का संपादन करते वक्त पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी प्रवास और उसकी पीड़ा के संपर्क में आ गए थे। जिसका नतीजा बाद में प्रवास और प्रवासी रचनात्मकता के उनके गहन अध्ययन में नजर आया। लेकिन आज प्रवास का मकसद बदल गया है। आज के प्रवास में मजबूरी नहीं बल्कि शौक है। बेहतर या उससे भी आगे की कहें तो सपनीली जिंदगी की तलाश आज के प्रवास का अहम मकसद बन गया है। शायद यही वजह है कि मशहूर कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव प्रवासी लेखन को खाए-अघाए लोगों का लेखन कहने से खुद को रोक नहीं पाते। यह सच है कि प्रवासी लेखन को लेकर इन दिनों हिंदी साहित्यिक समाज में खास आलोडऩ है। लेकिन इसके पीछे विशुद्ध रचनात्मक वजह नहीं है। बल्कि आज ब्रिटेन -अमेरिका या कनाडा जैसे समृद्ध देशों में रह-रहे रचनात्मक लोगों को सबसे ज्यादा अपनी रचनात्मक पहचान की मान्यता हासिल करने से जुड़ गया है। लेकिन ऐसा नहीं कि प्रवासी रचनात्मकता को पहचान पहले से हासिल नहीं रही है या फिर प्रवासी लेखक को यथेष्ट सम्मान नहीं मिलता रहा है। अगर ऐसा होता तो आज से करीब चौथाई सदी पहले गंगा में अमेरिका में रह रही लेखिका सुषम बेदी का उपन्यास गंगा जैसी पत्रिका में कमलेश्वर उत्साह से धारावाहिक तौर पर नहीं छाप रहे होते। कादंबिनी के पुराने अंकों में जब किसी ब्रिटिश या प्रवासी लेखक की रचना राजेंद्र अवस्थी प्रकाशित करते तो बाकायदा उसकी घोषणा की जाती- ब्रिटेन से आई कहानी। जाहिर है कि प्रवासी लेखन को पहले से ही इज्जत मिलती रही है। पत्रकारिता की दुनिया में भी एक दौर में जब हिंदुस्तान टाइम्स के वाशिंगटन स्थित संवाददाता एन सी मेनन रिपोर्टें लिखते तो उनकी रिपोर्ट के साथ अलग से खास बाइलाइन लगाई जाती- एन सी मेनन राइट्स फ्रॉम वाशिंगटन। जाहिर है कि वाशिंगटन, लंदन या ओस्लो के लेखन को तब भी खास महत्व मिलता था।
दरअसल प्रवासी लेखन का जोर भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रवासी भारतीय सम्मेलनों के बाद जोर पकड़ रहा है। भारत सरकार का यह आयोजन अब सालाना गति हासिल कर चुका है। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह आयोजन पूरी तरह आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने लिए है। सांस्कृतिक पहचान और भारतीय धरती से जुड़ाव की दिशा में भारत सरकार द्वारा पोषित और पल्लवित किए जा रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन का अब तक कोई योगदान नहीं रहा है। इन संदर्भों में डीएवी गल्र्स कॉलेज यमुनानगर और कथा(यूके) का प्रवासी भारतीय साहित्य सम्मेलन को पहला ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जा सकता है, जिसमें प्रवासी भारतीय लेखन को उसकी मूल नाल से जोडऩे की कोशिश हो रही है।
मौजूदा प्रवासी लेखन का प्रमुख सुर अपनी जड़ों से जुडऩे की कोशिश तो है ही, प्रवास में गए लोगों की अगली पीढ़ी की सांस्कृतिक चिंताएं भी ज्यादा हैं। जहां प्रवासियों की पहली पीढ़ी सूरदास के कृष्ण की तरह अपने गांव- अपने पुराने परिवेश को - उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं की तर्ज पर याद करती रहती है। जबकि ब्रिटेन-अमेरिका या कनाडा में पैदा उन्हीं प्रवासियों की संतानों के लिए भारतीय संस्कार और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है यह सांस्कृतिक तनाव कई बार प्रवासी परिवारों के लिए सांस्कृतिक भ्रम लेकर आता है। इस भ्रम के चलते पीढिय़ों के बीच टकराव भी होता है। जाहिर है कि प्रवासी रचनाओं में सांस्कृतिक विभ्रम की यह स्थिति खूब नजर आती है।
दुनियाभर से आए प्रवासी रचनाकारों को लेकर यमुनानगर में जितनी कहानियों पर चर्चाएं हुईं, ज्यादातर का प्रमुख सुर यही रहा। मौजूदा प्रवासी लेखन में इससे भी आगे की बात हो रही है। आज का प्रवासी लेखन विदेशी समाज के अनुभवों से भी समृद्ध कर रहा है। विदेशी संसार में देसी मन के अनुभवों का जो विस्तार हुआ है, उसे प्रवासी साहित्यकारों की पैनी निगाहों ने बारीकी से पकड़ा है। इन अर्थों में कहें तो प्रवासी लेखन ने हिंदी साहित्य के आकाश को विस्तार दिया है। नई जमीन के नए अनुभवों से ओतप्रोत इस रचना संसार में भी खामियां हो सकती हैं। जिन पर विचार होना चाहिए और होगा भी। यमुनानगर की धरती पर शुरू हुआ यह समारोह निश्चित तौर पर प्रवासी भारतीय लेखन के वैचारिक आलोडऩ के लिए नई जमीन मुहैया कराएगा। इतनी उम्मीद तो हम कर सकते ही हैं।
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