Friday, February 25, 2011
रेल बजट : लेकिन आम यात्रियों की सहूलियतों की चिंता कहां हैं
उमेश चतुर्वेदी
पश्चिम बंगाल के चुनावी साल में ममता बनर्जी रेल बजट पेश करें और उनके आंचल से ममता ना बरसे, ऐसा कैसे हो सकता है। ममता बनर्जी भले ही रेल मंत्री हैं, लेकिन उनका ध्यान दिल्ली के रफी मार्ग स्थित रेलवे बोर्ड के मुख्यालय रेल भवन पर कम ही रहता है। उनकी निगाह कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग पर ही है। यह पूरा देश जानता है और राजनीतिकों की छोड़िए, आम आदमी भी यही मानकर चल रहा था कि संसद में इस बार भी पश्चिम बंगाल एक्सप्रेस ही दौड़ेगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता कोलकाता पर वे ज्यादा मेहरबान रहीं। कोलकाता को अकेले पचास ट्रेनें, मेट्रो रूट को बढ़ावा और कोच फैक्टरी की सौगात देकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दुनिया चाहे जो कहे, जब तक उनके हाथ में रेलवे की कमान है, अपने कोलकाता और बंगाल पर मेहरबान बनी रहेंगी। एनडीए सरकार के रेल मंत्री के तौर पर जब उन्होंने पहली बार रेलवे का बजट पेश किया था, तब भी उन पर बंगाल के लिए बजट पेश करने का आरोप लगा था। इन आरोपों के बाद उन्होंने तीखी टिप्पणी की थी – यदि भारत उनकी मातृभूमि है तो पश्चिम बंगाल उनका स्वीट होम है और ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने स्वीट होम के लिए वे कुछ नहीं करें।
लेकिन ममता ने बाकी इलाकों को उतने उपहार भले ही नहीं दिए, जितने कोलकाता को मिले हैं, उतने किसी और को नहीं। लेकिन यात्री किराए में बढ़ोत्तरी ना करना, बुकिंग फीस घटाकर एसी के लिए दस रूपए और गैर एसी के लिए पांच रूपए करना निश्चित तौर पर यात्रियों को सुखकर लगेगा। माल भाड़े में भी कोई बढ़त ना करके ममता ने साबित किया है कि उनकी निगाह भले ही पश्चिम बंगाल के चुनावों पर है, लेकिन जनता के दुख-दर्दों से उनका वास्ता है। महंगाई से जूझ रही जनता के लिए निश्चित तौर पर ममता का ये आंचल जरूर राहत लेकर आया है। वैसे भी मध्य एशिया और अरब देशों में बढ़ती अराजकता के चलते कच्चे तेल की कीमतें 105 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। जाहिर है इस महंगाई का सामना रेलवे को भी करना पड़ रहा है। ऐसे में भी अगर ममता ने रेल किराए या माल भाड़े में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की तो जाहिर है कि उन्होंने जन पक्षधरता दिखाई है। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी जनपक्षधरता ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है। करीब 16 लाख कर्मचारियों के भारी-भरकम बेड़े वाली रेलवे रोजाना करीब एक करोड़ लोगों को ढोती है। जाहिर है कि इसमें भारी भरकम रकम खर्च होती है। लेकिन यह खर्च कहां से आएगा, ममता बनर्जी के बजट में इसका जिक्र नहीं है। अलबत्ता उन्होंने रेलवे की तरफ सरकार को छह प्रतिशत का लाभांश भी दिया है। रेलवे के जानकारों को लगता है कि इसमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है। अगर सचमुच में भी ऐसा हुआ है तो इसकी कीमत आनेवाले दिनों में रेलवे को आर्थिक तौर पर चुकानी पड़ सकती है। ममता ने रेलवे के लिए अब तक के सबसे अधिक 57, 630 करोड़ रुपये के परिव्यय का प्रस्ताव किया है। लेकिन जहां तक रकम जुटाने का सवाल है तो इसे बांड और बाजार से उगाहने की दिशा में मोड़ दिया गया है। ममता के इस बजट से पंद्रह हजार करोड़ रूपए बाजार से उगाहने का लक्ष्य है। इससे साफ है कि कर्ज आधारित व्यवस्था पर रेल को चलाने की कोशिश है। ममता ने नई लाइनों के लिए 9583 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके साथ ही 1300 किलोमीटर नई लाइनें, 867 किलोमीटर लाइनों का दोहरीकरण और 1017 किलोमीटर का आमान परिवर्तन करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन ममता के पुराने बजटों से साफ है कि ऐसे प्रस्ताव उन्होंने पहले भी रखे हैं, लेकिन उन पर काम न के बराबर भी हुआ है। जिस कोलकाता पर वे मेहरबान रही हैं, वहां के मेट्रो के विस्तार का लक्ष्य उन्होंने यूपीए सरकार के रेलमंत्री के तौर पर अपने पहले बजट में भी रखा था। लेकिन हकीकत यह है कि इस दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसे कोलकाता वासी अच्छी तरह से जानते हैं। ममता ने अपने बजट प्रस्ताव में आठ क्षेत्रीय रेलों पर टक्कररोधी उपकरण लगाने का भी प्रस्ताव किया है। इन उपकरणों का नीतीश कुमार के रेल मंत्री रहते सफल परीक्षण किया जा चुका था। ऐसे में सवाल यह उठना लाजिमी है कि आखिर इन्हें लागू करने की कोशिश अब जाकर क्यों शुरू हुई है। ममता ने जयपुर-दिल्ली और अहमदाबाद-मुंबई रुट पर ऐसी डबल डेकर ट्रेनें चलाने का ऐलान किया है। ऐसा ऐलान पिछले बजट में धनबाद-कोलकाता रूट के लिए भी किया गया था। लेकिन हकीकत में अब तक इस रूट पर डबल डेकर ट्रेनों का सफल परीक्षण तो नहीं हो सका है। जब बंगाल के इलाके में सफल प्रयास नहीं हो पाया तो दूसरे इलाके में इसके जल्द सफल होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। भारतीय रेल की सबसे बड़ी समस्या उसकी रफ्तार है। ममता ने यात्री गाडियों की रफ्तार 160 से बढाकर 200 किलोमीटर
प्रति घंटे करने के बारे में व्यावहारिक अध्ययन कराने का ऐलान किया है। लेकिन जिस हालत में भारतीय रेलवे के ट्रैक हैं, उसमें इसे व्यवहारिक जामा पहनाया जाना आसान नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा देने में रेलवे की गैरमौजूदगी को भी जानकार बड़ा कारण बताते रहे हैं। इस संदर्भ में ममता का वह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसके तहत उन्होंने सिक्किम को छोड पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की राजधानियों को अगले सात साल में रेल संपर्क से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब रेलवे की हालत ही खराब है तो इसके लिए जरूरी रकम आएगी कहां से। रेल बजट इस बारे में साफ जानकारी नहीं देता। रेलवे के जानकार मानते हैं कि भारतीय रेलवे जिस हालत में है, उसमें उसकी हालत सुधारने के लिए परियोजना बजट बढ़ाया जाना चाहिए। रेलवे की जो हालत है, उसमें परियोजनाएं बजट प्रस्तावों में रख तो दी जाती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनके विकास की दिशा में कोई काम नहीं हो सकता। जब ऐसे ही खुशफहमी भरा बजट लालू यादव पेश करते थे तो नीतीश कुमार कहा करते थे कि उनके इस बजट की कीमत आने वाले रेलमंत्री को चुकानी पड़ेगी। ममता बनर्जी ने रेलवे पर श्वेत पत्र लाकर लालू राज की खुशफहमियों की कलई खोलने की कोशिश की थी। लेकिन खुद ममता रेलवे के ढांचागत विकास के लिए खास योजना लेकर नहीं आ सकी हैं। भारतीय यात्रियों को भारतीय रेलों से वक्त की पाबंदी और साफ-सुथरी ट्रेनों के साथ सहूलियतों की अपेक्षा रहती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ममता के इस पूरे बजट में इन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
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