उमेश चतुर्वेदी
ज्ञान और सूचना की सदी के तौर पर घोषित इक्कीसवीं सदी में भारतीय मनीषा को आगे रखने के लिए अपने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजनाओं का कोई सानी नहीं है। कपिल सिब्बल की अगुआई वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को एक और ताकत और सम्मान देने का फैसला किया है। मंत्रालय की योजना है कि देश के नामचीन संस्थान और कॉलेज अपनी खुद की डिग्री दे सकें। शिक्षा के विकास की गति और सरकारी दावे को देखते हुए सरकार की इस योजना में कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर कॉलेज या संस्थान नामचीन हैं तो उन्हें डिग्री के लिए किसी विश्वविद्यालय या डीम्ड विश्वविद्यालय पर क्यों आश्रित रहना चाहिए। कुशल और शिक्षित दिमागों और हाथों की खोज में जुटी दुनिया में इससे भारतीय छात्रों की पूछ और पहुंच ही बढ़ेगी। तभी एशिया और ज्ञान की इक्कीसवीं सदी में भारतीय डंका ठीक तरीके से बज सकेगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इन उम्मीदों और उत्साह पर रंज करना जरूरी भी नहीं है। लेकिन वैधानिक तरीकों की आड़ में अपने यहां जिस तरह से शिक्षा क्षेत्र में मनमानियां की जा रही हैं, डर उसी की वजह से है। कुछ इसी तरह भारतीय छात्रों का भला चाहते हुए स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने डीम्ड विश्वविद्यालयों की सीरिज खड़ी कर दी। शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और ज्यादा से ज्यादा छात्रों तक को डिग्रियां देने के लिए डीम्ड विश्वविद्यालयों की जो सीरीज खड़ी की गई, उनकी हालत अंदरखाने में जाकर ही पता चल पाएगी। हकीकत में ये डीम्ड विश्वविद्यालय डिग्रियां बांटने की दुकानें बन गए हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा में दो मानद विश्वविद्यालय हैं। दोनों ने अपने अध्यापकों को मौखिक आदेश दे रखे हैं कि किसी छात्र को फेल नहीं करना है। इन विश्वविद्यालयों के संचालकों की समस्या यह है कि अगर उनके यहां छात्र फेल होने लगे तो दूसरी बार उनके यहां एडमिशन कौन लेगा, फिर उनकी शैक्षिक दुकान कैसे चलेगी। दिल्ली से ही सटे हरियाणा के एक मानद विश्वविद्यालय में अध्यापकों की भर्तियों के वक्त इंटरव्यू विश्वविद्यालय संचालकों के घर की दो महिलाएं लेती हैं। अभ्यर्थियों ने भले ही इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, सोशल वर्क, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन या अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आवेदन किया होगा, ये दोनों महिलाएं ही उनका इंटरव्यू लेंगी। लियोनार्दो द विंची की तरह ये महिलाएं या तो इतनी प्रतिभाशाली हैं कि वे सब कुछ जानती हैं या फिर नई शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ हो रहा है। राजधानी दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में चल रहे एक संस्थान से लोगों ने दो साल पहले की तारीख में एमफिल में एडमिशन करा लिया और अब वे विश्वविद्यालय का अध्यापक बनने के लिए जरूरी नेट की परीक्षा से छूट पा गए हैं। सच तो यह है कि ये डीम्ड विश्वविद्यालय और संस्थान पैसे लाओ और डिग्रियां बांटने की दुकान की तरह काम कर रहे हैं। इसलिए क्या गारंटी है कि नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को डिग्री देने की सहूलियत मिलते ही उसका फायदा पैसा कमाने की दुकान बन चुके संस्थान नहीं उठाएंगे और यह अधिकार पाने के लिए खानापूर्ति करने में कामयाब नहीं होंगे। कहने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक कमेटी बना दी है, जो डिग्री देने की हैसियत चाहने वाले संस्थानों के शैक्षिक इतिहास और गरिमा की जांच करेगी। यह कमेटी उन कॉलेजों के स्तर की जांच वहां पढ़ाई-लिखाई के इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में वर्षो के उनके रिकार्ड के आधार पर जांच करेगी। इसके साथ ही उन्हें नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडिटेशन कौंसिल में कम से कम ए श्रेणी में पंजीकृत होना होगा। जिस देश में मेडिकल कौंसिल, आईसीटीईए और डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने वाली कमेटियों में पैसों का खेल चलता हो, वहां यह कैसे नहीं होगा कि डिग्री देने वाले संस्थानों को मान्यता देने वाली एजेंसी या समिति में तीन-पांच न हो और शिक्षा की दुकानें बने कॉलेज भी डिग्री बांटने की दुकान बन जाएं। पहले किसी संस्थान पर किसी विश्वविद्यालय से जुड़े होने के चलते शैक्षिक गुणवत्ता बनाए रखने का दबाव रहता था, लेकिन बदले हालात में यह दबाव संस्थानों से खत्म हो जाएगा। इसका असर यह होगा कि दुकानें चल निकलेंगी।
अभी फर्जी डिग्री से पायलटों की भर्ती का मामला चर्चा में है। फर्जी डिग्री से पायलट बनने की वजह यही है कि डीजीसीए जैसी संस्थाओं ने ऐसे संस्थानों को प्रशिक्षण की छूट दे दी, जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना था। जयपुर से गिरफ्तार एक छात्र ने मीडिया से साफ कहा भी कि उसे पायलट ट्रेनिंग के लिए अपने संस्थान को पांच लाख रूपया देना पड़ा था। लेकिन जब वह गिरफ्तार हुआ तो संस्थान बता रहा है कि उसने सिर्फ एक लाख रूपए ही बतौर फीस वसूली है। सच तो यह है कि पायलट बनाने वाले संस्थान को भी भावी विमान चालकों की गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें सिर्फ पैसे बनाना था। अगर वे कमजोर छात्रों को फेल कर देते या फिर फर्जी डिग्री पर आने वाले छात्रों के प्रवेश को रोक देते तो उनकी कमाई मारी जाती। लिहाजा उन्होंने अपनी कमाई का ध्यान रखा, भावी यात्रियों की सुरक्षा पर सोचना भी उन्होंने जरूरी नहीं समझा। वैसे भी अगर वे एडमिशन रोकते या फिर कमजोर छात्रों को फेल करते तो अगले साल उन्हें नए छात्र नहीं मिलते।
कपिल सिब्बल ने मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच कराई थी। उनकी जांच में देश के 128 डीम्ड विश्वविद्यालयों में से 44 किसी भी मानक पर खरे नहीं उतरते थे। इनमें राजधानी दिल्ली के नजदीक स्थित हरियाणा का मानव रचना इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी और लिंग्या यूनिवर्सिटी के साथ ही नोएडा का जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी भी शामिल था। जाहिर है कि जब राजधानी से सटे संस्थान मानद विश्वविद्यालय बनने के बाद नियमों का मजाक उड़ा सकते हैं तो दूर के विश्वविद्यालयों और संस्थान क्या करेंगे, इसका अंदाजा लगाना आसान है। वैसे भी जिन 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठे हैं, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले रखा है। यानी उनका फिलहाल कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है, उल्टे छात्रों को वे डिग्री बांटने की कवायद में जुटे हुए ही हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संस्थानों और कॉलेजों को डिग्री देने की छूट मिली तो गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए फुलप्रूफ इंतजाम कैसे होंगे। क्या सरकार फिर डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह इंतजार करेगी कि वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और फिर उन पर सवाल खड़े करेगी और फिर होगा ढाक के तीन पात।
सच तो यह है कि शिक्षा की दुकानों के तौर पर तब्दील हो रहे संस्थानों पर अभी तक कोई कारगर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा के विकास के लिए अपनी पीठ चाहे जितनी थपथपा लें, हकीकत तो यह है कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के साथ शैक्षिक तौर पर मजाक हो रहा है। बेहतर है कि सरकार संस्थानों को डिग्री बांटने का अधिकार देने के अपने फैसले पर विचार करके इतने कड़े प्रावधान बनाए, जिससे किसी संस्थान या डीम्ड विश्वविद्यालय को डिग्री बेचने की छूट न मिल सके।
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