उमेश चतुर्वेदी
अन्ना के आंदोलन के साथ जिस तरह का सलूक सरकार कर रही है, उससे साफ है कि कांग्रेस एक बार फिर 37 साल पुरानी रवाययत को ही दोहरा रही है। तब जयप्रकाश के आंदोलन को भी कुछ इसी अंदाज में दबाने की कोशिश हुई थी। जैसा अन्ना के आंदोलन के साथ किया जा रहा है। लेकिन तब कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत जैसे युवा तुर्क के तौर पर विख्यात समाजवादी भी थे। इनमें से एक चंद्रशेखर ने साहस दिखाकर इंदिरा गांधी को समझाने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था - ' जेपी संत हैं. संत से मत टकराइए।
संत से जो सत्ता टकराती है, वह चूर-चूर हो जाती है। ' इतिहास गवाह है, जयप्रकाश से टकराना कांग्रेस और इंदिरा गांधी के लिए महंगा साबित हुआ और 1977 के चुनावों में कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई थी। हालांकि तब भी चंद्रशेखर को इस सलाह की कीमत चुकानी पड़ी थी। कांग्रेस में होते हुए भी ऐसी सलाह देना और बाद में आपातकाल का विरोध करना उनके लिए महंगा साबित हुआ। इंदिरा सरकार ने उन्हें भी जेल में डालने में संकोच नहीं किया। बहरहाल आज कांग्रेस में आलाकमान की जो हैसियत है, वह इंदिरा दौर से कम नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि तब इंदिरा गांधी से खुले तौर पर ऐसी बात कहने वाले युवा तुर्क थे। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दमदार समाजवादी नेता नहीं है। लेकिन मौजूदा माहौल देखकर ऐसा नहीं लगता कि उनमें से कोई चंद्रशेखर कौन कहे, इंद्रकुमार गुजराल बनने का भी साहस रखता हो। यहां यह बताना जरूरी है कि आपातकाल लागू होने से ठीक पहले इंद्रकुमार गुजराल ही देश के सूचना और प्रसारण मंत्री थे। लेकिन उन्होंने आपातकाल का विरोध किया और नतीजतन उन्हें भी चंद्रशेखर और मोहन धारिया की तरह कांग्रेस से बाहर की राह तलाशनी पड़ी।
जिस जयप्रकाश आंदोलन ने कई युवा नेताओं को नई पहचान दिलाई, उसमें से कई आज कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता हैं। बालचंद्र मुंगेकर, भक्तचरण दास सिद्धारमैया, डॉक्टर चंद्रभान, हुसैन दलवई, जैसे नेता तो सीधे-सीधे जयप्रकाश के छात्र आंदोलन की पहली पंक्ति के सिपाही थे। जयपाल रेड्डी की भी पृष्ठभूमि समाजवादी है। खुद जनार्दन द्विवेदी भी समाजवाद के पुरोधा रहे हैं। वाराणसी में देवदत्त मजूमदार के साथ मोहन प्रकाश ने तो आपातकाल के खिलाफ जबर्दस्त छात्र आंदोलन किया था। कांग्रेस के सहयोगी के तौर पर लालू यादव भी है। वे खुद जयप्रकाश आंदोलन की ही उपज हैं। यानी मौजूदा कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों में भी सक्षम और प्रतिभावान नेताओं की एक पूरी फौज है, जिसे जनतांत्रिक मूल्यों में गहरे तक भरोसा रहा है। इसके बावजूद अगर अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ गैरलोकतांत्रिक राह अख्तियार की जा रही है तो इस तथ्य को समझना आसान है कि इन नेताओं की या तो सलाह नहीं सुनी जा रही या फिर वे चंद्रशेखर या मोहन धारिया की तरह खरा बोलने की हिम्मत नहीं दिखा रहे। सुदूर तमिलनाडु के एक पूर्व छात्र नेता और राज्य में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता ने तो निजी बातचीत में अन्ना के खिलाफ ही सवाल उछाल रहे हैं। उनका तर्क है कि अन्ना संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे है। लेकिन वे यह तर्क देते वक्त भूल जा रहे हैं कि जिस समय वे जयप्रकाश के आंदोलन में लाठियां खा रहे थे, उस वक्त जयप्रकाश पर भी उनकी आज की पार्टी ने अराजकता फैलाने का आरोप लगाया था। तब वे इस आरोप की मुखालफत में गला फाड़ नारा लगाते फिरते थे। लेकिन दिल्ली के गलियारों में दक्षिण भारत के ही एक पूर्व समाजवादी छात्रनेता और मौजूदा कांग्रेस पदाधिकारी को टीम अन्ना के महत्वपूर्ण सदस्य प्रशांत भूषण से मिलने से परहेज नहीं हुआ। प्रशांत भूषण का खुलकर समर्थन करने और अन्ना की गिरफ्तारी का विरोध करने की हिम्मत उन्होंने दिखाई है। यह बात दीगर है कि राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया में दक्षिण के नेताओं को तवज्जो देने की कोई परंपरा ही नहीं रही है, लिहाजा उनकी बात को अब तक किसी ने नहीं सुना है।
भले ही आज के दौर में भारतीय जनता पार्टी प्रमुख विपक्षी दल हो, लेकिन संसद और संसद से बाहर जैसी वह भूमिका निभा रही है, उससे साफ है कि वह पस्त नजर आ रही है। फिर राजनीति की दुनिया की विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि टीम अन्ना पर लोगों को जितना भरोसा है, उतना विपक्षी दलों पर भी नहीं है। इसके बावजूद अन्ना के आंदोलन के खिलाफ सरकार द्वारा गैर लोकतांत्रिक तरीका इस्तेमाल करने की हालत में विपक्ष से दमदार भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय जनता पार्टी इस मोर्चे पर कुछ खास नहीं कर पाई है। इसीलिए एक मजबूत विपक्ष के होते हुए भी किसी गैरराजनीतिक हस्ती के लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचल दिया जाता है, और विपक्ष अपना तेवर तक नहीं दिखा पाता है। बाबा रामदेव के जून के अनशन और अन्ना हजारे के ही अप्रैल की भूख हड़ताल के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बयान दिया था कि गनीमत है कि कांग्रेस के पास इस समय कोई वीपी सिंह नहीं है। ऐसा बयान देकर एक तरह से वे कांग्रेस में जयप्रकाश आंदोलन के युवा तुर्कों और 1987 के बोफोर्स दलाली के खिलाफ उभरे जनमोर्चा नेताओं की ही तलाश कर रहे थे। उनके इस बयान से साफ है कि विपक्ष को खुद पर भरोसा नहीं है और उसे किसी चंद्रशेखर, किसी मोहन धारिया, किसी वी पी सिंह, आरिफ मोहम्मद खान, रामधन या सतपाल मलिक की ही तलाश है। लेकिन सवाल यह है कि मौजूदा उपभोक्तावाद ने राजनीति के उन चेहरों को भी अपनी चपेट में ले लिया है, जो उपभोक्तावाद की जननी उदारवाद को पानी पी-पीकर कोसते रहे हैं। पैसा और पद पाने की लालसा ने राजनीति के तमाम वादों को भी जकड़ लिया है। यही वजह है कि कभी जिस राजनीति के हर दरवाजे में क्रांति की मशाल दिखती थी या दिखाना शान की बात मानी जाती थी, उसी राजनीति में आमलोगों की तरह क्रांतिकारी अक्स अपने से अलग की शख्सियतों में ढूंढ़ा जाने लगा है। यही वजह है कि अब युवा तुर्कों के उभरने और कांग्रेस को सही राह दिखाने वाली आवाज की उम्मीद कम से कम इन दिनों कम पड़ती जा रही है। लेकिन तमाम बुराइयों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति भी संभावनाओं का खेल है। संभावनाएं यहां भी पनपती हैं और हकीकत भी बन जाती हैं। इतिहास बदलने में हकीकत बनती संभावनाओं की अहम भूमिका होती है। हो सकता है कि 37 साल पहले युवा तुर्क की बात इंदिरा गांधी को समझ में नहीं आई हो, लेकिन इस बार स्थितियां बदली भी नजर आ सकती हैं। हो सकता है कि किसी युवा तुर्क की सलाह मानकर कांग्रेस लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन चला रहे अन्ना हजारे के साथ पारदर्शी रवैया अख्तियार कर ले। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि मौजूदा कांग्रेस में चंद्रशेखर जैसा साहस दिखाने वाला कोई युवा तुर्क है भी या नहीं....
अन्ना के आंदोलन के साथ जिस तरह का सलूक सरकार कर रही है, उससे साफ है कि कांग्रेस एक बार फिर 37 साल पुरानी रवाययत को ही दोहरा रही है। तब जयप्रकाश के आंदोलन को भी कुछ इसी अंदाज में दबाने की कोशिश हुई थी। जैसा अन्ना के आंदोलन के साथ किया जा रहा है। लेकिन तब कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत जैसे युवा तुर्क के तौर पर विख्यात समाजवादी भी थे। इनमें से एक चंद्रशेखर ने साहस दिखाकर इंदिरा गांधी को समझाने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था - ' जेपी संत हैं. संत से मत टकराइए।
संत से जो सत्ता टकराती है, वह चूर-चूर हो जाती है। ' इतिहास गवाह है, जयप्रकाश से टकराना कांग्रेस और इंदिरा गांधी के लिए महंगा साबित हुआ और 1977 के चुनावों में कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गई थी। हालांकि तब भी चंद्रशेखर को इस सलाह की कीमत चुकानी पड़ी थी। कांग्रेस में होते हुए भी ऐसी सलाह देना और बाद में आपातकाल का विरोध करना उनके लिए महंगा साबित हुआ। इंदिरा सरकार ने उन्हें भी जेल में डालने में संकोच नहीं किया। बहरहाल आज कांग्रेस में आलाकमान की जो हैसियत है, वह इंदिरा दौर से कम नहीं है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि तब इंदिरा गांधी से खुले तौर पर ऐसी बात कहने वाले युवा तुर्क थे। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में समाजवादी पृष्ठभूमि वाले दमदार समाजवादी नेता नहीं है। लेकिन मौजूदा माहौल देखकर ऐसा नहीं लगता कि उनमें से कोई चंद्रशेखर कौन कहे, इंद्रकुमार गुजराल बनने का भी साहस रखता हो। यहां यह बताना जरूरी है कि आपातकाल लागू होने से ठीक पहले इंद्रकुमार गुजराल ही देश के सूचना और प्रसारण मंत्री थे। लेकिन उन्होंने आपातकाल का विरोध किया और नतीजतन उन्हें भी चंद्रशेखर और मोहन धारिया की तरह कांग्रेस से बाहर की राह तलाशनी पड़ी।
जिस जयप्रकाश आंदोलन ने कई युवा नेताओं को नई पहचान दिलाई, उसमें से कई आज कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता हैं। बालचंद्र मुंगेकर, भक्तचरण दास सिद्धारमैया, डॉक्टर चंद्रभान, हुसैन दलवई, जैसे नेता तो सीधे-सीधे जयप्रकाश के छात्र आंदोलन की पहली पंक्ति के सिपाही थे। जयपाल रेड्डी की भी पृष्ठभूमि समाजवादी है। खुद जनार्दन द्विवेदी भी समाजवाद के पुरोधा रहे हैं। वाराणसी में देवदत्त मजूमदार के साथ मोहन प्रकाश ने तो आपातकाल के खिलाफ जबर्दस्त छात्र आंदोलन किया था। कांग्रेस के सहयोगी के तौर पर लालू यादव भी है। वे खुद जयप्रकाश आंदोलन की ही उपज हैं। यानी मौजूदा कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों में भी सक्षम और प्रतिभावान नेताओं की एक पूरी फौज है, जिसे जनतांत्रिक मूल्यों में गहरे तक भरोसा रहा है। इसके बावजूद अगर अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ गैरलोकतांत्रिक राह अख्तियार की जा रही है तो इस तथ्य को समझना आसान है कि इन नेताओं की या तो सलाह नहीं सुनी जा रही या फिर वे चंद्रशेखर या मोहन धारिया की तरह खरा बोलने की हिम्मत नहीं दिखा रहे। सुदूर तमिलनाडु के एक पूर्व छात्र नेता और राज्य में कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता ने तो निजी बातचीत में अन्ना के खिलाफ ही सवाल उछाल रहे हैं। उनका तर्क है कि अन्ना संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे है। लेकिन वे यह तर्क देते वक्त भूल जा रहे हैं कि जिस समय वे जयप्रकाश के आंदोलन में लाठियां खा रहे थे, उस वक्त जयप्रकाश पर भी उनकी आज की पार्टी ने अराजकता फैलाने का आरोप लगाया था। तब वे इस आरोप की मुखालफत में गला फाड़ नारा लगाते फिरते थे। लेकिन दिल्ली के गलियारों में दक्षिण भारत के ही एक पूर्व समाजवादी छात्रनेता और मौजूदा कांग्रेस पदाधिकारी को टीम अन्ना के महत्वपूर्ण सदस्य प्रशांत भूषण से मिलने से परहेज नहीं हुआ। प्रशांत भूषण का खुलकर समर्थन करने और अन्ना की गिरफ्तारी का विरोध करने की हिम्मत उन्होंने दिखाई है। यह बात दीगर है कि राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया में दक्षिण के नेताओं को तवज्जो देने की कोई परंपरा ही नहीं रही है, लिहाजा उनकी बात को अब तक किसी ने नहीं सुना है।
भले ही आज के दौर में भारतीय जनता पार्टी प्रमुख विपक्षी दल हो, लेकिन संसद और संसद से बाहर जैसी वह भूमिका निभा रही है, उससे साफ है कि वह पस्त नजर आ रही है। फिर राजनीति की दुनिया की विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि टीम अन्ना पर लोगों को जितना भरोसा है, उतना विपक्षी दलों पर भी नहीं है। इसके बावजूद अन्ना के आंदोलन के खिलाफ सरकार द्वारा गैर लोकतांत्रिक तरीका इस्तेमाल करने की हालत में विपक्ष से दमदार भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश भारतीय जनता पार्टी इस मोर्चे पर कुछ खास नहीं कर पाई है। इसीलिए एक मजबूत विपक्ष के होते हुए भी किसी गैरराजनीतिक हस्ती के लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचल दिया जाता है, और विपक्ष अपना तेवर तक नहीं दिखा पाता है। बाबा रामदेव के जून के अनशन और अन्ना हजारे के ही अप्रैल की भूख हड़ताल के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बयान दिया था कि गनीमत है कि कांग्रेस के पास इस समय कोई वीपी सिंह नहीं है। ऐसा बयान देकर एक तरह से वे कांग्रेस में जयप्रकाश आंदोलन के युवा तुर्कों और 1987 के बोफोर्स दलाली के खिलाफ उभरे जनमोर्चा नेताओं की ही तलाश कर रहे थे। उनके इस बयान से साफ है कि विपक्ष को खुद पर भरोसा नहीं है और उसे किसी चंद्रशेखर, किसी मोहन धारिया, किसी वी पी सिंह, आरिफ मोहम्मद खान, रामधन या सतपाल मलिक की ही तलाश है। लेकिन सवाल यह है कि मौजूदा उपभोक्तावाद ने राजनीति के उन चेहरों को भी अपनी चपेट में ले लिया है, जो उपभोक्तावाद की जननी उदारवाद को पानी पी-पीकर कोसते रहे हैं। पैसा और पद पाने की लालसा ने राजनीति के तमाम वादों को भी जकड़ लिया है। यही वजह है कि कभी जिस राजनीति के हर दरवाजे में क्रांति की मशाल दिखती थी या दिखाना शान की बात मानी जाती थी, उसी राजनीति में आमलोगों की तरह क्रांतिकारी अक्स अपने से अलग की शख्सियतों में ढूंढ़ा जाने लगा है। यही वजह है कि अब युवा तुर्कों के उभरने और कांग्रेस को सही राह दिखाने वाली आवाज की उम्मीद कम से कम इन दिनों कम पड़ती जा रही है। लेकिन तमाम बुराइयों के बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति भी संभावनाओं का खेल है। संभावनाएं यहां भी पनपती हैं और हकीकत भी बन जाती हैं। इतिहास बदलने में हकीकत बनती संभावनाओं की अहम भूमिका होती है। हो सकता है कि 37 साल पहले युवा तुर्क की बात इंदिरा गांधी को समझ में नहीं आई हो, लेकिन इस बार स्थितियां बदली भी नजर आ सकती हैं। हो सकता है कि किसी युवा तुर्क की सलाह मानकर कांग्रेस लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन चला रहे अन्ना हजारे के साथ पारदर्शी रवैया अख्तियार कर ले। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि मौजूदा कांग्रेस में चंद्रशेखर जैसा साहस दिखाने वाला कोई युवा तुर्क है भी या नहीं....
समय बतायेगा कि क्या होगा?
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