Tuesday, July 24, 2012


मरांडी का महाधरना : छात्रों के जरिए झारखंड में विस्तार की कोशिश
उमेश चतुर्वेदी
(यह रिपोर्ट प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुकी है)
झारखंड की राजनीति में अहम भूमिका निभाने की तैयारियों में झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी कूद पड़े हैं। बेशक अभी राज्य विधानसभा के चुनावों में दो साल की देर है। राज्य में स्पष्ट बहुमत नहीं होने के चलते जिस तरह राज्य सरकार चल रही है, उसका खामियाजा ना सिर्फ यहां साफ-सुथरी राजनीति के हिमायतियों को भुगतना पड़ रहा है, बल्कि राज्य का विकास का ढांचा भी चरमरा गया है। इतना ही नहीं, झारखंड की पहचान अब देश में एक ऐसे राज्य के तौर पर पुख्ता होती जा रही है, जहां के विधायकों को आसानी से खरीदा जा सकता है और पैसे के दम पर यहां से संसद के उपरी सदन में दाखिला हासिल किया जा सकता है। कभी झारखंड के लिए कुर्बानी देने वाले शिबू सोरेन हों, या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वनवासी कल्याण आश्रमों के जरिए यहां की राजनीति में दखल देने वाली भारतीय जनता पार्टी रही हो, दोनों उन आदिवासियों का विकास करने में कामयाब नहीं रहे, जिनकी भलाई के नाम पर 2000 में यह राज्य बना। 
बाबूलाल मरांडी भी हालांकि उसी भारतीय जनता पार्टी से निकले हैं। लेकिन राज्य की राजनीति में अलग राह अख्तियार कर चुके मरांडी को लगने लगा है कि अगर राज्य के मसलों को सही तरीके से उठाया गया तो जनता उन पर भरोसा कर सकती है। विधायकों के खरीद-फरोख्त के इस दौर में उनकी पार्टी के 11 विधायकों ने राज्यसभा चुनावों के मतदान से अलग रहकर जता दिया है कि इस खरीद-फरोख्त में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। ऐसे में अगर बाबूलाल मरांडी राज्य की जनता के सवालों को उठाएं और उन्हें सहयोग ना मिलता तो माना यही जाता कि झारखंड की जनता भी राजनीतिक यथास्थितिवाद को स्वीकार कर चुकी है। लेकिन दो जुलाई को दुमका में आदिवासी छात्रों के लिए बने छात्रावासों की बदहाली के खिलाफ जब मरांडी धरने पर बैठे तो सूबे के छात्रों का हुजूम उमड़ पड़ा। इस हुजूम ने राज्य की राजनीति को एक संदेश जरूर दिया है कि यहां छात्र आंदोलन मरा नहीं है और अगर आदिवासी हितों के लिए आवाज उठी तो उसे छात्र आंदोलन का समर्थन जरूर मिलेगा। धरने को मिले इस समर्थन से बाबूलाल मरांडी भी उत्साहित हैं। वे कहते हैं – मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि दो दिनों के धरने में जिस तरह छात्रों की भीड़ जुटी, क्या उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि हमारा आयोजन पूरी तरह सफल रहा। छात्रों का विशाल समूह पैसे देकर या भाड़े की भीड़ नहीं थी, बल्कि यह स्वतः स्फूर्त भीड़ थी। छात्र मौजूदा सरकार से आजिज हो चुके हैं।
दरअसल आदिवासी बहुल राज्य में आदिवासी छात्रों के लिए हर जिला मुख्यालय में छात्रावास बनाए गए हैं। राज्य में कल्याण विभाग के 468 छात्रावास हैं. सभी में समस्याओं का अंबार है. सरकार को चेतना चाहिए और प्राथमिकता से समाधान करना चाहिए. छात्रावासों में पीने का पानी नहीं है। एक चापानल पर पूरा छात्रावास निर्भर है.लेकिन इनकी हालत बेहद दयनीय है। सिर्फ राज्य के संथाल परगना के कॉलेजों के छात्रावासों की हालत देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनसे कहीं बेहतर हालत में जेल की कोठरियां हैं। दुमका के एसपी कॉलेज के छात्रावास में 300 छात्राएं रहती हैं। लेकिन इतनी छात्राओं के लिए सिर्फ एक ही शौचालय सही हालत में है, बाकी सभी ऐसे हैं, जिनका शायद ही इस्तेमाल किया जा सके। और तो और छात्रावासों में रहने वाली छात्राओं को खुद ही खाना पकाना पड़ता है। छात्रावास में रसोइये की कोई व्यवस्था नहीं है। सबसे तकलीफदेह बात यह कि छात्राओं को बाजार से लकड़ी और कोयला भी खुद ही लाना पड़ता है, वह भी अपने सिर पर रखकर। संथाल परगना के तमाम छात्रावासों में हजारों छात्र-छात्राएं हैं, लेकिन उनमें सुरक्षा के कोई उपाय नहीं हैं। छात्रावास परिसरों की सुरक्षा बदहाली का आलम यह है कि स्थानीय मनचले युवक शराब पीकर देर रात होहल्ला और हंगामा करते हुए परिसर में घुस जाते हैं। ऐसी घटनाओं से यहां की छात्राएं हमेशा दहशत में रहती हैं। झारखंड के आदिवासी कल्याण छात्रावासों की हालत तो और भी बदतर है। तकरीबन सभी हॉस्टल जर्जर हो चुके हैं, यहां कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता है। छात्रावासों के फर्श तक धंस चुके हैं। छात्रों को दी जाने वाली चारपाई और फॉल्डिंग टूट चुकी हैं, जिसे ईंटों के सहारे उपयोग में लाया जा रहा है। छात्रावासों के भीतर महज कुछ बल्बों के सहारे रोशनी का कामचलाऊ इंतजाम चल रहा है। रात के समय बिच्छू और सांप छात्रों के कमरे में घुस जाते हैं। इस बाबत एसपी कॉलेज की छात्रावास अधीक्षक डॉ. जनक किशोरी अमबष्ट का कहना है – ये लोग आदिवासी हैं, और सांप-बिच्छू देखकर ही बड़े हुए हैं, इसलिए यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। हॉस्टल में जिस तरह छात्र रह रहे हैं, उनके लिए यह कहीं बेहतर सुविधा है, क्योंकि उनके घरों में इससे भी खराब व्यवस्था है। एसपी कॉलेज की दलनायक मीना हेम्ब्रम और छात्र मीना सोरेन ने इस बाबत कॉलेज प्रशासन का कहना है कि उनकी लापरवाही और उदासीनता की वजह से आदिसासी छात्र जानवरों से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर है। उनके मुताबिक अगर सरकार जल्द ही इस समस्या के प्रति गंभीर नहीं होती तो हम लोग कलम की जगह तीर धनुष लेकर सड़कों पर उतरेंगे। छात्रावासों में डॉक्टरों की कोई व्यवस्था नहीं है, लिहाजा बीमार पड़ने वाले छात्रों को काफी परेशानियों  का सामना करना पड़ता है। छात्रावासों में रहने वाली ज्यादातर छात्राएं एनीमिया से पीड़ित हैं। जाहिर है कि राज्य के छात्रों में इसे लेकर खासा गुस्सा है। निश्चित तौर पर मरांडी इस गुस्से के सहारे झारखंड की राजनीति में कहीं गहरी पैठ बढ़ाने की कोशिश में हैं। हालांकि इसका राजनीतिक फायदा उठाने से वे इनकार करते हैं। मरांडी का कहना है –यह हमारे लिए गौरव की बात है कि छात्र शक्ति हमारे साथ जुड़ रहीं है। हम छात्रों के साथ हैं, उनकी जरूरतें और उनकी भागीदारी का हम सम्मान करते हैं। यही वजह है कि हमारी पार्टी प्रदेश के विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में छात्रसंघ के नियमित चुनाव की वकालत करती है। मेरा मानना है कि छात्रसंघ लोकतंत्र की नर्सरी है, अगर देश में लोकतांत्रिक जड़ें मजबूत करनी हैं, तो हमें छात्र राजनीति को बढ़ावा देना होगा।
बहरहाल मरांडी का दो जुलाई से दो दिनों तक चला धरना खत्म हो चुका है। मरांडी इस मसले का राजनीतिक इस्तेमाल करने से लाख इंतजार करें। लेकिन इस महाधरना को मिले समर्थन से वे गदगद हैं। उन्हें उम्मीद है कि छात्रों की मांग के साथ जुड़ी उनकी राजनीति पूरे राज्य के नौजवानों को गोलबंद करने में मददगार होगी। निश्चित तौर पर इसका फायदा भी उन्हें ही मिलेगा। धरने में जो भीड़ जुटी है, उसे लेकर राज्य के राजनीतिक दल परेशान हैं। झारखंड की राजनीति पर नजर रखने वाले धनबाद के नेता अनिल कुमार सिंह कहते हैं कि मरांडी ने इस गोलबंदी के जरिए नया संदेश दिया है। अगर यह संदेश छात्रों में जोर पकड़ लिया तो झारखंड की राजनीति में मरांडी नया अध्याय लिख सकेंगे।


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