मोदी विरोध के सच और निहितार्थ
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है)
लगता है नरेंद्र
मोदी का भूत नीतीश कुमार का पीछा छोड़ता नजर नहीं आ रहा है। यही वजह है कि चाहे
राष्ट्रीय परिदृश्य हो या बिहार से जुड़े मसले, जैसे ही नरेंद्र मोदी का जिक्र आता
है, वे भड़क जाते हैं। फिर उनकी पार्टी जनता दल यू के प्रवक्ता ठीक उसी अंदाज में
उनके मनमुताबिक नरेंद्र मोदी पर हमले शुरू कर देते हैं, जैसे कभी लालू की
एकाधिकारवादी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता बीजेपी नेताओं पर लालू के
अंदाज में ही हमले शुरू कर देते थे। बहरहाल जब भी नीतीश कुमार की तरफ से नरेंद्र
मोदी का का ऐसा विरोध होने लगता है तो सामान्य धारणा यही बनती है कि गोधरा कांड के
बाद हुए दंगों में मोदी की भूमिका और उससे नाराज मुसलमान वोटरों को लेकर नीतीश
कुमार के मन में संशय रहता है।
मौजूदा दौर में जिस सेक्युलरवाद की अवधारणा को
प्रतिपादित किया गया है, उसमें सेक्युलर का सिर्फ और सिर्फ मतलब मुस्लिम समर्थन रह
गया है। भारतीय जनता पार्टी का नब्बे के दशक में जो उभार हुआ, उसके पीछे निश्चित
तौर पर सेक्युलरवाद के इस छद्म को उभारना ही रहा। जिसे बहुसंख्यक वोटरों ने समझा।
इस दौर में यह अवधारणा विकसित हुई कि भारतीय जनता पार्टी को मुसलमान पसंद नहीं
करते। शुरूआती दौर में ऐसा हुआ भी। लेकिन बाद के चुनावों से एक तथ्य साफ हो गया है
कि मुस्लिम अब रणनीतिक वोट डालते हैं। उन्हें अपने लिए अब ऐसे दलों की खोज रही है,
जो उनकी उम्मीदों को पूरा कर सकें। अगर ऐसा नहीं होता तो मुस्लिम मतदाताओं की
बहुलतावाली सीटों पर सिर्फ सेक्युलर छवि चमकाने-मांजने वालों की ही जीत होती।
लेकिन बिहार के मुस्लिम वोटर पिछली ही विधानसभा चुनावों में इसे झुठला चुके हैं। बिहार
में चुनाव अभियान शुरू होने से पहले कट्टर छवि वाले बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी और
वरूण गांधी के प्रचार में शामिल करने पर नीतीश कुमार ने एतराज जताया था। नीतीश
कुमार को डर था कि इन दोनों नेताओं के आने से बिहार के मुस्लिम वोटर उनका साथ छोड़
जाएंगे। बीजेपी ने उनका खयाल रखते हुए मोदी और वरूण को बिहार नहीं भेजा। इस आधार
पर नीतीश के ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशी जीतने चाहिए थे। लेकिन हुआ ठीक उलटा है। बीजेपी
को मिली 91 सीटों में से 30
सीटें मुस्लिम बहुल इलाकों से ही आई हैं, जबकि जेडीयू के सिर्फ 12 विधायक ही मुस्लिम बहुल इलाके से चुने गए हैं। बहरहाल इन सभी 42 सीटों में मुस्लिम वोटरों की तादाद कहीं भी 20 फीसदी से कम नहीं है। पूर्णिया के जिस अमौर से बीजेपी
के सबा जफर ने बाजी मारी है, वहां मुस्लिम मतदाताओं की
तादाद है 75
फीसदी है। पूर्णिया के ही
बसई में मुस्लिम वोटरों की तादाद करीब 69 फीसदी है। कायदे से यहां से आरजेडी या कांग्रेस
का प्रत्याशी जीतना चाहिए था, लेकिन बाजी बीजेपी के संतोष कुमार, के हाथ लगी है। इसी तरह कटिहार के प्राणपुर से बीजेपी के विनोद सिंह और कदवा से
भोला राय विधायक बने हैं, जहां मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 50 फीसदी से ज्यादा है।
बीते सितंबर में
मुस्लिम वोट बैंक को लेकर बरसों से चली आ रही मान्यता गुजरात में इसके पहली ही ढह
गई। आजादी के बाद से ही खेड़ा जिले की कठलाल विधानसभा सीट कांग्रेस का गढ़ मानी
जाती रही। करीब पचास फीसदी मुस्लिम वोटरों वाली इस विधानसभा सीट पर कांग्रेस के
अलावा दूसरे किसी दल की जीत की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी, बीजेपी के लिए यहां सफलता पाना दूर की कौड़ी ही
माना जाता था। मुस्लिम विरोधी और सांप्रदायिकता का राजनीतिक कलंक ढोती रही बीजेपी
ने जब सितंबर में इस सीट को 24 हजार के भारी अंतर से जीत
लिया तो पहली बार माना जाने लगा कि बीजेपी को लेकर मुसलमानो का नजरिया बदलने लगा है। ऐसे में अब यह
मानना कि मोदी विरोध की असली वजह सिर्फ
मुस्लिम समर्थन पाना ही है तो गलत होगा।
तो क्या नीतीश कुमार
के मोदी विरोध की वजह उनके मन में पल रही प्रधानमंत्री बनने की चाहत है। नीतीश
कुमार इससे इनकार करते रहे हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, जनता दल यू के
नेता भी ऑफ द रिकॉर्ड बातचीत में यह मानने लगे हैं कि नीतीश कुमार के सहयोगियों को
लगता है कि मोदी के नाम पर एनडीए में फूट पड़ी तो सेक्युलरवाद के बड़े अलंबरदार के
तौर पर उनका नाम ना सिर्फ आगे आ सकता है, बल्कि उसे समर्थन भी हासिल हो सकता है।
फिर उन्हें उम्मीद हैं कि नवीन पटनायक, एन चंद्रबाबू नायडू और भविष्य में जगनमोहन
रेड्डी हो सकता है कि समर्थन देने की हालत में हों तो नरेंद्र मोदी पर शायद ही
भरोसा करें, ऐसी हालत में उनके नाम पर सहमति बन सकती है। लेकिन इसके लिए वे जिस
सेक्युलरवाद का सहारा ले रहे हैं, हकीकत ये है कि उसकी भी पोल खुलने लगी है। इस
पोलखोल पर विचार से पहले योजना आयोग और दूसरे संस्थाओं से मिले आंकड़ों पर ही गौर
कर लेना चाहिए। गुजरात में जहां 73 फीसद मुस्लिम
साक्षर हैं, वहीं बाकी देश में यह सिर्फ 59 फीसद ही है। इसी तरह गुजरात
के ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम लड़कियों की साक्षरता दर 57 फीसद है, जबकि बाकी देश में महज
43 फीसद मुस्लिम लड़कियां ही
साक्षर हैं। गुजरात में 74 फीसदी मुस्लिम ऐसे हैं, जिन्होंने प्राइमरी पाठसशाला की
पढ़ाई पूरी की है, जबकि बाकी देश में यह संख्या महज 60 फीसद ही है। इसी तरह हायर
सेकेंडरी की परीक्षा पास कर चुके गुजराती मुस्लिमों की संख्या 45 फीसद है, जबकि बाकी देश में
यह आंकड़ा महज 40 फीसद ही है। दिलचस्प यह है कि मुस्लिम वोटरों के दम
पर राज करने वाले दलों के राज्यों मसलन पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश और बिहार इन
आंकड़ों के लिहाज से कोसों पीछे हैं। गुजरात शायद देश का अकेला राज्य है, जिसके
2000 की मुस्लिम आबादी वाले 89 फीसद गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं।
जबकि देश के लिए ये आंकड़ा महज 70 फीसद ही है। प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से ही गुजरात
के मुसलमान बाकी देश से आगे हैं। गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिमों की
प्रति व्यक्ति आय 668 रुपये है, जबकि पश्चिम बंगाल में 501,
आंध्रप्रदेश
में 610,
उत्तरप्रदेश
में 509,
मध्यप्रदेश
में 475
और
बिहार में 400 रुपये से भी कम है। ये कुछ आंकड़े हैं,
जो गुजरात में मुस्लिमों की स्थिति की असलियत का बखान कर देते हैं। जाहिर है कि
बिहार को इन आंकड़ों को छूने में अभी काफी वक्त लगेगा।
2010 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले बिहार का भूमिहार
समाज सत्ताधारी गठबंधन से बेहद नाराज था। कुछ ऐसी ही हालत ब्राह्णणों की भी थी।
भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लेकर फूटे इस गुस्से के बावजूद इस तबके ने अगर नीतीश
कुमार की अगुआई वाले गठबंधन का साथ दिया तो इसकी सिर्फ ये ही वजह नहीं थी कि उसे
लालू के सत्ता में वापस लौट आने का डर सता रहा था। बल्कि उसने नीतीश के सहयोगी
भारतीय जनता पार्टी का साथ दिया था। आज नीतीश कुमार की सत्ता है भी तो उसमें अगड़े
वर्ग का सहयोग भी रहा है। लेकिन मोदी विरोध के नीतीश का नियमित गान से अब अगड़े
वर्ग को एलर्जी होने लगी है। बिहार के चट्टी-चौराहों पर अब यह सवाल उठने लगा है कि
भारतीय जनता पार्टी यह विरोध क्यों पचा रही है। सवाल तो यह भी उठ रहा है कि क्या
सुशील मोदी ने बीजेपी को जनता दल यू की बी-टीम बनाने की ठान ली है। हो सकता है कि
नीतीश कुमार अपने अति पिछड़ा और अति दलित के सोशल इंजीनियरिंग के सहारे बीजेपी से
अलग राह बनाने की भी सोच रहे हों। उन्हें यह भी लगता होगा कि लालू की वापसी का डर
अगड़ों को उनके साथ सार्वकालिक तौर पर जुड़े रहने के लिए मजबूर करेगा। लेकिन
ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद जिस तरह से सहार क्षेत्र में उबाल देखा गया,
दरअसल वह महीनों से पल रहे नीतीश विरोध की ही अभिव्यक्ति थी। ब्रह्मेश्वर मुखिया
की हत्या उसका बहाना मात्र बनी। ऐसे में स्थानीय बीजेपी का एक बड़ा वर्ग भी नीतीश
से अलग राह पर चलने की सोच की तरफ आगे बढ़ने लगा है। हालांकि फिलहाल गठबंधन की
तीखी बयानबाजी थम गई है। लेकिन फिर भविष्य में ऐसा हुआ तो नीतीश के निष्कंटक राज
की वापसी आसान नहीं होगी।
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