उमेश
चतुर्वेदी
आंध्र में सत्ता के बदलाव को लेकर ना तो
बहुत ज्यादा शोरगुल है और ना ही आपाधापी..लेकिन कांग्रेस के अंदरूनी गलियारों में
मुख्यमंत्री एन किरण रेड्डी को हटाने की चर्चाएं जारी हैं। इन चर्चाओं के बीच
आंध्र प्रदेश की गद्दी पर समाजवाद के पुराने अलंबरदार रहे पेट्रोलियम मंत्री जयपाल
रेड्डी की ताजपोशी की खुसर-पुसर भी जारी है। कांग्रेस की राजनीति पर पैनी निगाह
रखने वालों को पता है कि इसका मतलब मुख्यमंत्री एन किरण रेड्डी की दिल्ली दरबार
में हैसियत और प्रभाव कम हो रहा है। इस बीच अगर तेलंगाना को लेकर हिंसक आंदोलन
बेशक प्रशासनिक तौर पर किरण रेड्डी के लिए परेशानी का सबब बनकर आया हो, लेकिन यह
सच है कि इस बहाने उनकी गद्दी फिलहाल बचती नजर आ रही है। ऐसे हालात में कांग्रेस
आलाकमान शायद ही राज्य नेतृत्व को बदलने की गलती कर सकता है। लेकिन सवाल यह है कि
आखिर तेलंगाना की आग को भड़काने के लिए गांधी जयंती के आसपास का ही वक्त क्यों
चुना गया।
आय से अधिक संपत्ति के मामले में पूर्व
मुख्यमंत्री वाई जगनमोहन रेड्डी भले ही सीबीआई की गिरफ्त में हों, लेकिन राज्य के
कांग्रेस सांसदों को पता है कि जमीनी स्तर पर जगन का प्रभाव कम होने की बजाय और
बढ़ा ही है। इसलिए उन्हें पता है कि कांग्रेस ने अगर जरूरी कदम नहीं उठाए तो
निश्चित तौर पर अगले आम चुनाव में उनकी वापसी बेहद मुश्किल हो जाएगी। इस बीच आंध्र
प्रदेश के कांग्रेसी आपसी बातचीत में दबी जुबान से ये बताने लगे थे कि मुकदमों और
सीबीआई का दबाव जगन मोहन रेड्डी पर भारी पड़ने लगा है। लिहाजा वे कांग्रेस में
वापसी की संभावना तलाश रहे हैं। निश्चित तौर पर संकट से जूझ रही आंध्र प्रदेश
कांग्रेस के लिए इससे बड़ी दूसरी राहत की बात नहीं हो सकती थी। लेकिन इस बीच
तेलंगाना का भूत फिर से सामने आ गया और राज्य एक बार फिर तेलंगाना की आग में
झुलसने लगा। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि तेलंगाना की आग की तासीर को आंध्र
प्रदेश सरकार ने समझने में भूल की या फिर जानबूझकर ऐसी हालत पैदा होने दी गई, ताकि
चंद लोगों के राजनीतिक हित सध सकें।
वैसे यह अफसोसजनक ही है कि राज्य पुनर्गठन
आयोग के गठन के दौरान से ही जारी अलग तेलंगाना राज्य की मांग को सिर्फ राजनीति के
ही चश्मे से देखा जाता रहा है। जबकि इतने सालों में यह आंदोलन सिर्फ राजनीतिक ही
नहीं रहा, बल्कि एक विचार बन गया है। साधारण आंदोलनों को कभी दबाया जा सकता है।
लेकिन जब आंदोलन विचार की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं तो उन्हें दबाना और खत्म कर
पाना आसान नहीं होता। अगर यह आंदोलन विचार नहीं होता तो रविवार को आयोजित होने
वाले बंद को तेलंगाना राष्ट्र समिति, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी और यहां तक की तेलगू देशम पार्टी समर्थन नहीं देती। हालांकि प्रशासन ने तेलंगाना
संयुक्त संघर्ष समिति की ओर से रविवार को बुलाए गए ‘तेलंगाना मार्च’ को हैदराबाद के हुसैन
सागर से सटे नेकलेस रोड के हिस्से तक सीमित रखने की अनुमति दी थी। इसके
साथ ही कार्यक्रम को केवल तीन से शाम सात बजे तक की अनुमति दी गई थी। प्रशासन ने
तेलंगाना से आए लोगों को शहर के दूसरे हिस्सों में जाने से रोकने के लिए जो
एहतियाती कदम उठाए, उसी ने आग में घी का काम किया और दिलचस्प यह है कि इस रोक का
तेलंगाना क्षेत्र से आने वाले कांग्रेस के ही आठ सांसदों ने मुख्यमंत्री आवास के
बाहर विरोध प्रदर्शन किया। इसके बाद ही यह आंदोलन हिंसक हो गया। इतना ही नहीं ये सांसद ‘जय तेलंगाना’ के नारे लगाते हुए समर्थकों के साथ सड़कों पर ना सिर्फ बैठ गए,
बल्कि उनकी पुलिस
अधिकारियों से बहस भी हुई। इसके बाद ही
आंदोलन की आंच भड़क उठी और हैदराबाद में हिंसा हुई। सवाल यह है कि आखिर अपने ही
सांसदों को राज्य सरकार मनाने में कामयाब क्यों नहीं हुई या फिर सांसदों को
तेलंगाना स्थित अपने इलाकों में अपनी राजनीतिक जमीन खोने का डर सताने लगा था,
लिहाजा वे खुद पर काबू नहीं रख पाए। बहरहाल कुछ महीनों से सोई पड़ी यह आंच अब फिर
से भड़क उठी है। सोमवार को तेलंगाना संयुक्त समिति की अपील पर तेलंगाना इलाके में
कामकाज ठप रहा और आशंका जताई जा रही है कि मंगलवार को भी हालात ऐसे ही रहेंगे।
यह सच है कि राज्य में विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनावों के साथ
ही होने हैं। बहरहाल तेलंगाना की मांग को लेकर जनसमर्थन ऐसा है कि शायद ही कोई
राजनीतिक दल अलग रहकर नुकसान उठाने का खतरा मोल सकता है। एक हद तक तेलंगाना के
कांग्रेस सांसदों के धरने और प्रदर्शन को इस नजरिए से भी देखा जा रहा है। आज
हैदराबाद की गद्दी पर अगर कांग्रेस विराजमान है तो उसकी एक वजह अलग तेलंगाना राज्य
का उसका वादा भी है। इस वादे के रथ पर सवार होकर उसने हैदराबाद की यात्रा तय की
है। हालांकि इस वायदे को भी चुनावी वायदे की तरह कांग्रेस ने भुला दिया है। वैसे
कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि अगर उसने तेलंगाना का वायदा पूरा भी करने की
कोशिश की तो उत्तर प्रदेश को बांटने की राजनीति तेज हो जाएगी। जिसे चार हिस्से में
बांटने का प्रस्ताव मायावती अपने शासनकाल में कर चुकी हैं। इसी तरह पश्चिम बंगाल
में गोरखालैंड और कामतापुर स्टेट की मांग जारी ही है। असम के हिस्से करने की मांग चल ही रही है। यानी तेलंगाना की राजनीति
जितनी कठिन है, उससे कहीं ज्यादा उसे अलग राज्य बनाने का वादा पूरा करना है। ऐसा
नहीं कि इन हालात को किरण रेड्डी और उनकी सरकार या कांग्रेस के सांसद ना जानते
होंगे। लेकिन राजनीतिक अंतर्विरोधों के चलते सभी अपनी –अपनी राजनीति कर रहे हैं।
खतरा तो यह भी है कि अगर जगन मोहन रेड्डी शिकवे-गम भुलाकर कांग्रेस में लौटते हैं
तो कई स्थानीय क्षत्रपों के विकास की राह अवरूद्ध हो सकती है। यही वजह है कि
तेलंगाना के मौजूदा आंदोलन और उसके पीछे की राजनीति पर इन सवालों के आलोक में भी
देखे-परखे जाने की जरूरत बढ़ गई है।
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