उमेश
चतुर्वेदी
भारत में इन दिनों भूमि अधिग्रहणों के
खिलाफ कम से कम 1700 आंदोलन हो रहे हैं। निश्चित तौर पर इनमें से सभी आंदोलनों के
साध्य और साधन सही नहीं है। यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि इन आंदोलनों
में सबके लक्ष्य भी सही नहीं होंगे। इसके बावजूद अगर पूरे देश में भूमि अधिग्रहण
के खिलाफ इतने आंदोलन चल रहे हैं तो यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि
उदारीकरण के दौर में लगातार आगे बढ़ रही नव आर्थिकी के लिए हो रहे भूमि अधिग्रहण
में कहीं न कहीं कोई खोट अवश्य है। इस खोट की तरफ ध्यान दिलाने के लिए गांधी शांति
प्रतिष्ठान से जुड़े रहे गांधीवादी कार्यकर्ता और भारतीय एकता परिषद के अध्यक्ष पी
वी राजगोपाल पिछले एक साल से लगातार देशव्यापी यात्रा पर हैं। दो अक्टूबर 2011 को
शुरू हुई उनकी यात्रा का समापन दिल्ली में इस साल दो अक्टूबर को होना था। इस
यात्रा में एक लाख लोगों को दिल्ली पहुंचना था। यात्रा के आखिरी दौर में ग्वालियर
से एक लाख लोगों की यात्रा का दिल्ली आना कम बड़ी बात नहीं है। वहां से दिल्ली के
लिए कूच भी कर चुके हैं। देशभर के भूमिहीन और मेहनतकश आदिवासी और दूसरे तबके के लोगों
की एक लाख की संख्या जुट जाना भी कम बड़ी बात नहीं है। पीवी राजगोपाल अपनी इन्हीं
मांगों को लेकर 2007 में 25 हजार लोगों को दिल्ली लाकर उदारीकरण के दौर के भूमि
सुधारों पर रोष जता चुके हैं।
शायद केंद्र सरकार को यह याद रहा, यही वजह है कि खुद
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आगे आना पड़ा और पीवी राजगोपाल को ग्वालियर में ही यह
मार्च खत्म करने के लिए अपील करना पड़ा।
यह सच है कि उदारीकरण के बाद लगातार देश
में कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण बढ़ता गया है। भूमि अधिग्रहण को लेकर मोटे तौर पर
देश के किसानों में दो वजहों से गुस्सा है। दूर-दराज के इलाकों में आज भी जमीन से
मां और बेटे जैसा ही रिश्ता है। फिर खेती के लिए उपजाऊ जमीन कोई एक दिन में तैयार
नहीं होती। देश के अब भी ज्यादातर लोगों की रोजी और रोटी खेती पर ही निर्भर है।
लोगों का सवाल यह है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ने जिस जमीन को सोना उपजाने वाली बनाया,
उसका ही अधिग्रहण क्यों हो। देश में अब भी बंजर और दलदली जमीन की कमी नहीं है। इन
भोले-भाले लोगों का सवाल यह है कि आखिर इस जमीन को क्यों नहीं विकसित किया जा सकता
और उसे उद्योगपति क्यों नहीं अपने उद्योगों के लिए विकसित करते। ऐसा नहीं कि देश
में इसका इतिहास नहीं है। टाटा एंड संस की पहचान टाटा स्टील की स्थापना जमशेद जी
नौशेरवां जी टाटा ने सिंहभूम के जंगलों में की थी, उन्होंने उपजाऊ जमीन का इसके
लिए चुनाव नहीं किया। बिरला ग्रुप की सबसे कमाऊ यूनिट हिंडाल्को भी सोनभद्र की
रूखी पहाड़ियों के बीच स्थित है। दुनिया में भी ऐसे उदाहरण हैं। दुबई शहर भी रेत
के बीचोंबीच ना सिर्फ बसाया गया, बल्कि वहां हरियाली भी है। इस छोटे से सवाल का
जवाब भोले और मेहनत किसानों को कम से कम सरकार की तरफ से नहीं मिल रहा है। नई
आर्थिकी ने उपजाऊ धरती को किस तरह बिल्डरों और सेज के नाम पर निगला है, इसकी बानगी
दिल्ली के नजदीक हरियाणा में भी देखा जा सकता है। कभी अपने उपजाऊपन के लिए हरियाणा
में सहजता से बाग-बगीचे लगाना भी संभव नहीं था, वहां बिल्डरों और ऐसी ही आर्थिक
गतिविधियों के लिए उपजाऊ जमीनें ली जा रही हैं और उनका बोलबाला बढ़ा है। रही-सही
कसर स्थानीय प्रशासन और अधिकारियों की मिलीभगत ऐसे उपजाऊ इलाके की जमीनों के
अधिग्रहण को लेकर नए तरह के रोष का वजह बनी है। दरअसल करोड़ों की कीमत वाली जमीनों
का प्रशासन कौड़ियों के भाव अधिग्रहण करके फिर इसे मोटी कमाई कर रहा है। नोएडा के
आसपास के किसानों का संघर्ष भी इसी संदर्भ को लेकर है। लेकिन दुर्भाग्यवश ये
आंदोलन भी सिर्फ राजनीतिक फायदे हथियाने का जरिया भर बन गए हैं। विपक्ष में रहते
वक्त तक पार्टियां इन किसानों और भूमिहीनों के वाजिब हकों की बात तो खूब करती हैं,
लेकिन सत्ता में लौटते ही उनका भी रूख वैसा ही हो जाता है, जैसा पूर्ववर्ती
सरकारों का रहता है। लिहाजा यह समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। यही वजह है कि
पीवी राजगोपाल की देशव्यापी यात्रा को भरपूर समर्थन मिला। उनकी जगह पर कोई भी
आंदोलनकारी समूह होता तो उसे भी ऐसा ही समर्थन मिलता।
बहरहाल राजगोपाल और उनकी संस्था ने जिन
मांगों को लेकर मार्च की तैयारी की है, उन पर भी गौर फरमाया जाना चाहिए। पहली मांग
तो यह है कि सबसे पहले राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति बनाई जानी चाहिए। स्पष्ट भूमि
सुधार नीति के अभाव में प्रशासन भी मनमानी करता है और उसकी कीमत लोगों को चुकानी
पड़ती है। दूसरी मांग बड़ी मार्के की है। संविधान ने कुछ मूल अधिकार तो भारतीय
नागरिक को दिए हैं, लेकिन उसमें सिर पर छत का अधिकार शामिल नहीं है। राजगोपाल की
टीम का तर्क है कि अगर लोगों को सिर पर छत का मूल अधिकार मिल गया तो उन्हें आसानी
से उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जा सकेगा। फिर मूल अधिकारों के रक्षक के तौर पर
सुप्रीम कोर्ट भी इसमें आधिकारिक हस्तक्षेप कर सकेगा। चूंकि अब तक आवास की सहूलियत
उपलब्ध कराना राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में ही शामिल है। लिहाजा इसके लिए
राज्य जवाबदेह भी नहीं है। एकता परिषद की तीसरी मांग खेती की जमीन के लिए लैंड पूल
बनाया जाना चाहिए। ताकि भूमिहीनों को कम से कम रोटी के लिए खेती के लिए जमीन दी जा
सके। राजगोपाल के मुताबिक बेरोजगारी भत्ता जैसे लोकलुभावन वायदे करने की बजाय यह
ठोस नीति होगी। चौथी और आखिरी मांग यह है कि राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद को
प्रभावी और ताकतवर बनाया जाय। इसके साथ ही भूमि संबंधी कानूनों और इन मांगों को
लागू करने के लिए ताकतवर नियामक संस्था और फास्ट ट्रैक अदालतें स्थापित की जानी
चाहिए। हालांकि अब तक भूमि सुधारों को लेकर जो सरकारी रवैया रहा है, उसमें इन
मांगों को मान लेना आसान नहीं है। वैसे भी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जिस
भूमि सुधार कानून का प्रस्ताव किया है, उसे ही नई आर्थिकी के पैरोकार पचा नहीं पा
रहे हैं। इस पर विचार करने के लिए जो मंत्री समूह बनाया गया है, वह भी कोई ठोस
फैसला नहीं ले पाया है। इस प्रस्तावित कानून में अधिग्रहण के लिए पंचायतों के
बहुमत का साथ पाने का प्रावधान सब पर भारी पड़ रहा है। वैसे भी नई आर्थिकी से
उद्गम स्रोत अमेरिका को अब एशिया में भूमि सुधार कानून लागू करने की जरूरत नजर आ
रही है। अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अपने हालिया बयान में कहा है
कि एशिया के भूमि और पट्टेदारी कानून अब प्रसंगहीन और पुराने हो चुके हैं। लिहाजा
उनमें बदलाव होना चाहिए। दरअसल उनका इशारा नई आर्थिकी के दौर में तेजी से आगे बढ़
रही अर्थव्यवस्थाओं चीन और भारत के भूमि कानूनों की तरफ है। हमारे यहां जब भी भूमि
सुधारों की बात की जाती है और भूमि अधिग्रहणों का विरोध होता है तो चीन की नीतियों
का जोरदार तरीके से हवाला दिया जाता है। लेकिन यह भी सच है कि चीन में भूमि
अधिग्रहणों के खिलाफ करीब एक लाख आंदोलन होते रहते हैं। अमेरिकी अखबार क्रिश्चियन
साइंस मानीटर के मुताबिक 2003 से 2008 के बीच चीन सरकार ने कोई दस लाख एकड़ जमीन
हथिया ली। इनके खिलाफ वहां भी आंदोलन चल रहे हैं। इसलिए चीन का हवाला देकर
भूमिहीनों या छोटे भूमिदारों और किसानों के हक मांगने की वकालत नहीं की जा सकेगी।
बहरहाल सरकार के साथ पीवी राजगोपाल की
बातचीत टूट गई। सरकार उनकी मांगों पर विचार करने का भरोसा दे रही है। इसके पहले योजना
आयोग भी राजगोपाल से कई दौर की बातचीत कर
चुका है। लेकिन भूमिहीनों की असल मांग ज्यों की त्यों बनी हुई है। सरकार सिर्फ
वायदे ही कर रही है, भरोसा नहीं दिला पा रही है। पांच साल पहले तत्कालीन ग्रामीण
विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी भूमि सुधार और उसे लेकर जारी आंदोलनों की
मांगों पर विचार करने का भरोसा दिया था। लेकिन कुछ नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि
राजगोपाल की अगुआई में यह जत्था अब दिल्ली की तरफ शांतिपूर्वक तरीके से कूच कर
चुका है। अपने अधिकारों की मांग को लेकर शुरू हुई ये यात्रा अपने वाजिब अंजाम तक
पहुंच पाएगी या नहीं...यह बता पाना तो मुश्किल जरूर है। लेकिन इतना तय है कि एक
लाख लोगों का अनुशासित कारवां दिल्ली के सत्ता तंत्र को परेशानी में जरूर
डालेगा।
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