उमेश चतुर्वेदी
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
कामधाम के चलते देर रात तक जागना अब महानगरीय जिंदगी में आधुनिकता का पैमाना बन गया है। पहले सिर्फ मुंबई की ही रातें अपनी जवानी के लिए मशहूर थीं, लेकिन अब दिल्ली-बेंगलुरू जैसे शहर भी इस मायने में मुंबई से आगे निकलने की होड़ में लग गए हैं। खासकर मेट्रो के आने के बाद तो दिल्ली भी इतराने लगी है कि कम से कम आधी रात तक वह शहर की लाइफ लाइन बनी रहती है। लेकिन उसका यह दावा कितना खोखला है, इसका पता मुझे पिछले दिनों चला। अपनी गाड़ी दो-तीन दिनों के लिए मैकेनिक घर में सुस्ताने पहुंची थी, लेकिन मन आश्वस्त था कि मेट्रो है और उसका दावा है कि ग्यारह बजे रात को आखिरी गाड़ी मिलती है तो परेशानी काहे की।
उस दिन दफ्तर से साढ़े दस बजे काम खत्म करके नोएडा सेक्टर 15 के मेट्रो स्टेशन जा पहुंचा। चूंकि नोएडा सिटी सेंटर से आखिरी मेट्रो तो दस पचास पर खुलती है लिहाजा उम्मीद थी कि दक्षिण दिल्ली के अपने घर पहुंचने में परेशानी नहीं होगी। भागते हुए अट्टा मार्केट वाले मेट्रो स्टेशन पहुंचकर हौज खास के लिए टोकन मांगा लेकिन काउंटर पर बैठे शख्स ने हौज खास का टोकन देने से मना कर दिया। बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी, उसका कहना था कि राजीव चौक तक का टोकन लो और वहां से दूसरा ले लेना। प्लैटफॉर्म पर पहुंचते ही मेट्रो आ गई, लेकिन यह क्या, वह अक्षरधाम तक ही जा रही थी। खैर अक्षरधाम उतरकर दूसरी मेट्रो का इंतजार शुरू हुआ। तीन-तीन मेट्रो आईं लेकिन सबका गंतव्य अक्षरधाम ही रहा। करीब दस बजकर पचपन मिनट पर चौथी मेट्रो आई जो द्वारका जा रही थी। अपन उसमें लद लिए। राजीव चौक पर यह मेट्रो करीब सवा ग्यारह बजे पहुंची। वहां जाकर नया टोकन लेने के लिए काउंटर की तरफ बढ़ा तो मामला उलटा ही पाया, सारे काउंटर बंद। तब तक मेरे सामने ही हौज खास के लिए दो-दो मेट्रो गुजर गईं। पता चला एक और आने वाली है लेकिन अपने पास टोकन नहीं और जेब में इतने पैसे भी नहीं कि फाइन दिए जा सकें लिहाजा मन मसोसकर बाहर निकलना पड़ा। अगर नोएडा वाले काउंटर बॉय ने हौज खास तक का टोकन दे दिया होता तो घर जाना उतना कठिन भी नहीं होता लेकिन उसकी जिद और मेट्रो के नियम मुझ पर भारी पड़ गए।
जेब में पैसे भी नहीं थे कि टैक्सी और ऑटोरिक्शा पकड़ा जाए। तब तक रात के पौने बारह हो चुके थे। बस ढूंढ़ना भी बेकार ही था, हालांकि छात्र जीवन में जीरो नंबर की बसों से कनॉट प्लेस से जेएनयू तक देर रात को कई बार जा चुका था, लेकिन इस बार यह इंतजार भी नाकाम साबित हुआ। आखिर में काम आया एटीएम कार्ड। सौ की जगह दो सौ रुपये में ऑटो पकड़ा। उस दिन लगा कि मुंबई की लोकल ट्रेनें बेशक लोगों के लिए मददगार हों, मेट्रो और डीटीसी को उतना सफर पूरा करने में अभी काफी वक्त लगेगा।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
कामधाम के चलते देर रात तक जागना अब महानगरीय जिंदगी में आधुनिकता का पैमाना बन गया है। पहले सिर्फ मुंबई की ही रातें अपनी जवानी के लिए मशहूर थीं, लेकिन अब दिल्ली-बेंगलुरू जैसे शहर भी इस मायने में मुंबई से आगे निकलने की होड़ में लग गए हैं। खासकर मेट्रो के आने के बाद तो दिल्ली भी इतराने लगी है कि कम से कम आधी रात तक वह शहर की लाइफ लाइन बनी रहती है। लेकिन उसका यह दावा कितना खोखला है, इसका पता मुझे पिछले दिनों चला। अपनी गाड़ी दो-तीन दिनों के लिए मैकेनिक घर में सुस्ताने पहुंची थी, लेकिन मन आश्वस्त था कि मेट्रो है और उसका दावा है कि ग्यारह बजे रात को आखिरी गाड़ी मिलती है तो परेशानी काहे की।
उस दिन दफ्तर से साढ़े दस बजे काम खत्म करके नोएडा सेक्टर 15 के मेट्रो स्टेशन जा पहुंचा। चूंकि नोएडा सिटी सेंटर से आखिरी मेट्रो तो दस पचास पर खुलती है लिहाजा उम्मीद थी कि दक्षिण दिल्ली के अपने घर पहुंचने में परेशानी नहीं होगी। भागते हुए अट्टा मार्केट वाले मेट्रो स्टेशन पहुंचकर हौज खास के लिए टोकन मांगा लेकिन काउंटर पर बैठे शख्स ने हौज खास का टोकन देने से मना कर दिया। बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी, उसका कहना था कि राजीव चौक तक का टोकन लो और वहां से दूसरा ले लेना। प्लैटफॉर्म पर पहुंचते ही मेट्रो आ गई, लेकिन यह क्या, वह अक्षरधाम तक ही जा रही थी। खैर अक्षरधाम उतरकर दूसरी मेट्रो का इंतजार शुरू हुआ। तीन-तीन मेट्रो आईं लेकिन सबका गंतव्य अक्षरधाम ही रहा। करीब दस बजकर पचपन मिनट पर चौथी मेट्रो आई जो द्वारका जा रही थी। अपन उसमें लद लिए। राजीव चौक पर यह मेट्रो करीब सवा ग्यारह बजे पहुंची। वहां जाकर नया टोकन लेने के लिए काउंटर की तरफ बढ़ा तो मामला उलटा ही पाया, सारे काउंटर बंद। तब तक मेरे सामने ही हौज खास के लिए दो-दो मेट्रो गुजर गईं। पता चला एक और आने वाली है लेकिन अपने पास टोकन नहीं और जेब में इतने पैसे भी नहीं कि फाइन दिए जा सकें लिहाजा मन मसोसकर बाहर निकलना पड़ा। अगर नोएडा वाले काउंटर बॉय ने हौज खास तक का टोकन दे दिया होता तो घर जाना उतना कठिन भी नहीं होता लेकिन उसकी जिद और मेट्रो के नियम मुझ पर भारी पड़ गए।
जेब में पैसे भी नहीं थे कि टैक्सी और ऑटोरिक्शा पकड़ा जाए। तब तक रात के पौने बारह हो चुके थे। बस ढूंढ़ना भी बेकार ही था, हालांकि छात्र जीवन में जीरो नंबर की बसों से कनॉट प्लेस से जेएनयू तक देर रात को कई बार जा चुका था, लेकिन इस बार यह इंतजार भी नाकाम साबित हुआ। आखिर में काम आया एटीएम कार्ड। सौ की जगह दो सौ रुपये में ऑटो पकड़ा। उस दिन लगा कि मुंबई की लोकल ट्रेनें बेशक लोगों के लिए मददगार हों, मेट्रो और डीटीसी को उतना सफर पूरा करने में अभी काफी वक्त लगेगा।
No comments:
Post a Comment