Thursday, January 24, 2013

मानसिकता पर वार जरूरी



उमेश चतुर्वेदी
(प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित)
2002 की फरवरी की बात है..महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में अरब सागर के किनारे स्थित  मशहूर गुप्त गणेश मंदिर और कोंकण रेलवे की कारबुज सुरंग के उपरी हिस्से को देखकर जिला मुख्यालय लौटते वक्त रात के करीब दस बज रहे थे। वहां सड़कों के किनारे लड़कियां बसों और टेंपों के इंतजार में बेफिक्र खड़ी थीं। दिल्ली में रहते वक्त ऐसे दृश्य कम ही नजर आते हैं...लिहाजा इन पंक्तियों के लेखक के लिए धुर देहात के बीच लड़कियों को इस तरह बेखौफ गाड़ी के इंतजार में रात को खड़ा देखना हैरत की बात थी।
साथी से इस सुखद आश्चर्य पर चर्चा हो ही रही थी कि टाटा सूमो चला रहा कोंकणी ड्राइवर अपनी टूटी-फूटी हिंदी में बोल उठा - यहां लड़की सेफ है साहब।
दस साल हो गए, इस घटना के...तब से लगातार यह वाक्य ना सिर्फ झकझोरता रहता है, बल्कि सोचने को भी मजबूर करता है कि आखिर क्या वजह है कि कोंकण के देहात में रात को लड़की सेफ है, पश्चिम बंगाल की दुर्गा पूजा में लड़कियां रात को भी घूम सकती हैं..वहां के माता-पिता को अपनी लड़की की घर वापसी की वैसी चिंता नहीं सताती, जैसी दिल्ली और उत्तर भारत के दूसरे शहरों के माता-पिताओं को परेशान करती है। गुजरात में गरबा के दौरान लड़कियां रात-रात भर बाहर रहती हैं। उनके साथ उनकी मर्जी के खिलाफ बदतमीजी तक करने की कम ही सिरफिरे जुर्रत कर सकते हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में अपराधियों और मनचलों को लड़कियों के साथ बदतमीजी करने से कोई नहीं रोक पाता। ऐसे में यह सवाल जरूर उठेगा कि जहां से देश को नियंत्रित किया जाता है, जहां देश के शासन को संभालने वाले हाथ और दिमाग रहते हैं, वहीं महिलाओं के खिलाफ ऐसे बर्बर अपराध क्यों होते हैं। जो लोग जिले मुख्यालयों में रहते हैं, उन्हें पता है कि जिला अधिकारी और पुलिस अधीक्षक के बंगले और दफ्तर के आसपास खूंखार से खूंखार अपराधी भी अपराध करते हुए डरते हैं। उन्हें यह भी पता है कि इन इलाकों के आसपास पुलिस भी सुस्त नहीं रहती। उन्हीं लोगों को जब यह पता चलता है कि प्रधानमंत्री के घर से महज आठ किलोमीटर और राष्ट्रपति भवन से महज नौ किलोमीटर की दूरी से सरेराह लड़की की इज्जत हजारों चलती गाड़ियों के बीच दौड़ती बस के बीच में लूट ली जाती है तो उन्हें हैरत होती है। दिल्ली में रहने वाले लोग भूल गए होंगे 2000 की वह घटना। देश की सत्ता के सबसे शक्तिमान प्रधानमंत्री के निवास सात रेसकोर्स रोड के ठीक सामने स्थित पेट्रोल पंप को रात आठ-सवा आठ बजे बेखौफ अपराधियों ने लूट लिया। उसके बगल में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का ट्रेनिंग और रिहायशी इलाका भी है। रेसकोर्स का एयरफोर्स स्टेशन भी है। लेकिन अपराधी बेखौफ अपने काम को ना सिर्फ अंजाम देने में कामयाब रहे, बल्कि आज तक पकड़े भी नहीं जा सके। इन घटनाओं से साबित है कि देश की सत्ता का इकबाल देश के दूसरे इलाकों में भले ही चलता हो, देश की राजधानी में और सत्ता केंद्रों के ठीक बगल में कम ही चलता है। इसे लोकतंत्र के उदार होने के उदाहरण के तौर पर भी बताया-दिखाया जा सकता है। लेकिन यह कानून व्यवस्था के लाचार होने का बेहतर नमूना है। सत्ता का रौबदाब अपराधियों और समाज विरोधी तबकों पर दिखना ही चाहिए। उसका मानवीय चेहरा मजलूमों और कमजोरों के साथ नजर आना चाहिए। उसी में सत्ता की कामयाबी देखी और समझी जा सकती है। उदार लोकतंत्र की बात करना सिर्फ बहानेबाजी है और कुछ नहीं है।
दरअसल हमारा सत्ता तंत्र जिस राजनीतिक व्यवस्था की बुनियाद पर विकसित हुआ है, उसमें लोकसेवक की गांधीवादी अवधारणा लुप्त होकर ब्रिटिश राजशाही से भी आगे देसी रजवाड़ों के रौबदाब से जुड़ गई है। इसका ही असर है कि अब सत्ता तंत्र को उसी जनता से डर लगता है, जिसकी नुमाइंदगी करने का वह दावा करती है। उसे गांधी और नेहरू के वे मंत्र याद नहीं हैं, जिसके तहत उन्हें जनता के बीच जाने से ताकत मिलती थी। इसीलिए दिल्ली पुलिस के बारह हजार में से छह हजार जवान सिर्फ राजनीतिक तंत्र की हिफाजत करने में जुटे रहते हैं और बाकी छह हजार जवान सवा करोड़ की आबादी की सुरक्षा की मशक्कत करते हैं। इस व्यस्था में उन्हें लगता है कि उनका असल काम सत्ता तंत्र और उसे चलाने वाले राजनीतिक व्यस्था को बचाए और संभाले रखना है। जनता तो वैसे ही मजबूर है। लिहाजा वह जनता की कम ही परवाह करता है। अगर ऐसा नहीं होता तो हादसे यानी 19 दिसंबर की रात वीभत्स बस के कर्मचारियों से लूटे गए शख्स की शिकायत पर फौरी कार्रवाई हुई होती और देश को झकझोर देने वाली बलात्कार की घटना नहीं हुई होती। लेकिन आज की जनता को पता चल गया है कि जो सत्ता उस पर शासन करने का दावा करती है, दरअसल उसकी असल ताकत उसके ही हाथों में है। उसके राजसी ठाटबाट उसके ही दिए टैक्स से चलता है। इसीलिए वह अब गुस्सा करने लगी है,खुद-ब-खुद सड़कों पर उतर रही है और जरूरत पड़ने पर तीखे सवाल भी पूछ रही है। यह बात है कि इन सवालों से जितनी ईमानदारी से सत्ता तंत्र को जूझना चाहिए, इसे लेकर जनता से बात करनी चाहिए, वैसी संवेदनशीलता सत्ता तंत्र नहीं दिखा रहा है। इसीलिए हालात बिगड़ रहे हैं और सत्ता तंत्र से भरोसा भी टूट रहा है।
उत्तर भारत में बलात्कार की घटनाएं बेशक कानून-व्यवस्था की खामियों का नतीजा हैं। लेकिन यह भी सच है कि यहां की सामाजिक मानसिकता में भी स्त्री को पौरूष द्वारा दमित करने और उसे मसलने का ही भाव है। दूसरे शब्दों में कहें तो उसे सिर्फ सामान ही समझा जाता रहा है। इसीलिए उसके लिए बाजारू भाषा में कई बार बाजारू शब्दों से भी अभिनिहित किया जाता है। यही वजह है कि उसे बड़े परिवार बराबरी की बजाय अपनी इज्जत का प्रतीक बना रखे हैं। सही मायने में उत्तर भारत में स्त्रियों की हालत को लेकर खास सुधार नहीं हुआ। मशहूर लेखक राजेंद्र यादव कहते हैं कि चूंकि उत्तर भारत में स्त्रियों को लेकर कोई सामाजिक सुधार कार्यक्रम नहीं चले, इसलिए उन्हें सामाजिक तौर पर बराबरी का दर्जा नहीं मिला। रही-सही कसर इस इलाके की ऐतिहासिक हालत ने पूरी कर दी। विदेशी आक्रांताओं के निशाने पर उत्तर और पश्चिमोत्तर भारत ही ज्यादा रहा। जब भी आक्रांता आए, उन्होंने यहां का धन ही नहीं लूटा, यहां की स्त्रियों के स्त्रीत्व पर भी हमला किया। मध्य काल का हिंदी साहित्य का भक्ति आंदोलन भी मूलत: चोटी-बेटी और रोटी पर हमले के खिलाफ ही पैदा हुआ था। तब निरीह भारतीय जनता को ईश्वर से ही उम्मीद थी। यही वजह रही कि उत्तर भारत में महिलाओं को पारिवारिक और कौटुंबिक तौर पर हिफाजत से रखा जाने लगा। इसे गैर कुटुंबी और गैर परिवारी सदस्यों के बीच महिलाओं को लेकर भावनाएं बदलीं। इसका यह मतलब नहीं कि परिवार के बीच महिलाएं महफूज ही रहीं। दरअसल महिलाओं को बाहरी दबावों की वजह से दोयम मानने की जो मानसिकता विकसित हुई, उससे परिवार भी अछूते नहीं रहे। इसी मानसिकता का विस्तार अब तक उत्तर भारत में नजर आता है। इसीलिए मौका पाते ही महिलाओं को रौंदने और उन्हें भोगने की पुरूष मानसिकता प्रबल हो उठती है। चूंकि यह मानसिकता मध्यकालीन है और भारत को आजाद हुए पैंसठ साल से ज्यादा हो चुके हैं। इसलिए महिलाओं को लेकर बराबरी का भाव और मानसिकता पैदा करने की जिम्मेदारी भी एक तरह से हमारे व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र पर ही आती है। लेकिन दुर्भाग्यवश जितनी गति से उसे करना चाहिए था, उसने नहीं किया। यही वजह है कि मौका लगा तो इस निरपेक्षता से उपजा लोगों का गुस्सा बाहर निकल आया। जिसका सामना कम से कम सबसे ज्यादा इस समय व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र ही कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि मौजूदा राजनीतिक तंत्र महिलाओं को लेकर कानून-व्यवस्था की हालत तो चुस्त-दुरूस्त करे ही, उनके लिए मौजूद सामाजिक मानसिकता में बदलाव के लिए तेज प्रयास करे। अन्यथा अब लोग चुप बैठने वाले नहीं हैं। उनका गुस्सा आखिरकार राजनीतिक तंत्र पर ही भारी पड़ेगा।

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