उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र कमल संदेश के युवा विशेषांक में प्रकाशित हुआ है..जिसका विमोचन 9 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने किया..यह लेख जनवरी 2014 में लिखा गया था)
क्या
भारतीयता की सोच की अवधारणा पूरी तरह चुक गई है..देश ही क्यों..किसी भी इलाके की
सोच वहां की परिस्थिति, जलवायु और जरूरतों के मुताबिक
विकसित होती है। दो सौ सालों के अंग्रेजी शासन काल ने सबसे बड़ा काम यह किया है कि
उसने सोच के हमारे अपने आधार पर ही कब्जा कर लिया है। यही वजह है कि हमारी पूरी की
पूरी सोच पश्चिम से आयातित मानकों और जरूरतों के मुताबिक होने में देर नहीं लगाती।
युवाओं के संदर्भ में हमारी जो सोच विकसित हुई है या
हो रही है..विचार करने का वक्त आ गया है कि क्या वह सोच भी भारतीयता की अवधारणा के
आधार से दूर है..यह सवाल इसलिए उठता है..उदारीकरण के आते ही हमारे देश की
युवाशक्ति की बलैया ली जाने लगी थी।
ऐसा नहीं कि युवाशक्ति की बलैया नहीं ली जानी चाहिए..लेकिन हमें यह जरूर सोचना होगा कि आखिर युवा शक्ति पर केंद्रित करने वाला यह विचार आया कहां से...महिला अधिकारों और मानव जीवन के लिए बढ़ते मूल्यों ने यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों में पचास-साठ के दशक में जन्मदर घटनी शुरू हुई..उसका असर यह हुआ कि नब्बे के दशक के आते-आते उनके पास कार्यशील मानव हाथों की कमी होती गई तो उन्होंने युवाओं पर खुद को फोकस करना शुरू किया। भारत की विचारसरणियां चूंकि अमेरिका और यूरोप के विकसति देशों की तरफ ही खुलती हैं और वहां के गवाक्षों से जो हवा आती है, बेशक उसमें धुआं, धुंध और सीसा की मात्रा ही क्यों न हो, हमें बेहतर और ताजी लगती हैं..
ऐसा नहीं कि युवाशक्ति की बलैया नहीं ली जानी चाहिए..लेकिन हमें यह जरूर सोचना होगा कि आखिर युवा शक्ति पर केंद्रित करने वाला यह विचार आया कहां से...महिला अधिकारों और मानव जीवन के लिए बढ़ते मूल्यों ने यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों में पचास-साठ के दशक में जन्मदर घटनी शुरू हुई..उसका असर यह हुआ कि नब्बे के दशक के आते-आते उनके पास कार्यशील मानव हाथों की कमी होती गई तो उन्होंने युवाओं पर खुद को फोकस करना शुरू किया। भारत की विचारसरणियां चूंकि अमेरिका और यूरोप के विकसति देशों की तरफ ही खुलती हैं और वहां के गवाक्षों से जो हवा आती है, बेशक उसमें धुआं, धुंध और सीसा की मात्रा ही क्यों न हो, हमें बेहतर और ताजी लगती हैं..
बेशक
भारत की करीब 62 फीसदी आबादी यानी करीब 77 करोड़ लोग 18 से 35 साल के बीच के हैं।
ऐसा जाहिर करते वक्त हम यह भूल जाते हैं कि 48 करोड़ लोग ऐसे भी हैं, जो 35 साल से
ज्यादा आयु के हैं और उनमें से करोड़ों चालीस साल से कम आयु वर्ग के भी हैं..इसलिए
हमें यह सोचना कि सिर्फ 35 साल तक की उम्र वाले ही देश में बदलाव ला सकते हैं तो
एकांगी ही कहा जाएगा..क्योंकि 18 से 35 साल के युवाओं के हाथों में अगर ताकत है तो
उन्हें अनुभव की आंखों से सराहने वाले लोगों का भी साथ देने वाले भी करोड़ों दिमाग
है..क्या ये दिमाग चुप बैठे रहेंगे..क्या उन्हें किनारे लगा दिया जाएगा...पारंपरिक
भारतीय अवधारणा में आग और अनुभव के मेल पर जोर दिया जाता रहा है..निश्चित तौर पर
आग युवाओं में होती है..लेकिन इस आग का सही इस्तेमाल कैसे होगा..यह अनुभव ही बताता
रहा है..दुर्भाग्यवश हमारी सोच लगातार इस अवधारणा से दूर होती गई है..
मौजूदा हालात में यह भी सच है कि भारतीय युवाओं के सामने
चुनौतियों और अवसरों के ढेर सारे दरवाजे भी खुले हैं..लेकिन इस पर विचार करने से
पहले हमें यह भी देखना होगा कि ये दरवाजे किन युवाओं के लिए मुफीद बैठ रहे
हैं..क्या सचमुच मौजूदा हालात का फायदा देश के सभी युवाओं को मिल रहा है। इस पर
विचार करने से पहले हमें दो दशक पहले दिखाए गए सपनों को याद कर लेना चाहिए। दो दशक पहले देश में अपनी पहली
दस्तक देते वक्त उदारीकरण ने उस वक्त के युवाओं के सामने एक ऐसे भविष्य का सपना
दिखाया था, जिसके सामने सपने पूरे करने की
भरी-पूरी संभावनाएं थीं, समृद्धि के अनगिनत रास्ते खुलने
वाले थे.बेशक तब भी समाज में विभाजन था। एक तरफ संभावनाओं और समृद्धि की दुनिया
वाले परिवारों के युवा थे तो दूसरी तरफ अभावों के बीच जिंदा रहने की जद्दोजहद के
साथ आगे बढ़ते नौजवान थे। उदारीकरण के पहले भी अमेरिका जाना बड़ा सपना हुआ करता था, लेकिन उस सपने को पूरा कर पाना सबके बूते का नहीं था। उदारीकरण ने
ऐसा सपना देखने की गुंजाइश उन लोगों के बीच भी बढ़ाई, जो उदारीकरण के पहले सोच भी नहीं सकते थे। उदारीकरण के पहले तक
दुनिया दो ध्रुवों और उनकी दो मुद्राओं के जरिए संचालित विश्वव्यवस्था में जीने के
लिए मजबूर थी। निश्चित तौर पर ज्यादा दबदबा अमेरिका और उसके डॉलर का ही था। सोवियत
संघ और उसके रूबल की ताकत सामरिक मोर्चों पर भले ही रही हो, आर्थिक मोर्चे पर वैसी नहीं थी। ऐसे दौर में जब दुनिया एक ध्रुवीय
हुई और एक ही मुद्रा का विस्तार बढ़ा और नई संभावनाओं और सपनों की दुनिया का
विस्तार हुआ। उस दौर की युवा पीढ़ी अब प्रौढ़ हो चुकी है या बुढ़ा रही है। लेकिन
पीछे मुड़कर जब भी वह पीढ़ी देखती है तो उसे पता चलता है कि संभावनाओं की दुनिया
की जो शुरूआत हुई थी, उसने उससे क्या छीना है। जिस
देश में रिश्तों की अहमियत पैसे पर भारी पड़ती रही हो, वहां अब पैसा ही सबसे बड़ी और जरूरी चीज हो गया है।
यह
सच है कि भारतीय युवाओं का एक बड़ा वर्ग अब भी सहूलियतों, मौकों और सुविधाओं से
महरूम है। उनकी नींव जिस मजबूत शिक्षा आधार पर बननी चाहिए, वह या तो बदहाल है या
अधकचरी है..बेहतर शिक्षा तक देश के चुनिंदा शहरी इलाकों के युवाओं की ही पहुंच है।
अगर किसी के पास शिक्षा की पहुंच है भी तो उसके पास पैस भी नहीं है कि उस बेहतर
शिक्षा का फायदा उठा सके...इसलिए मौजूदा व्यवस्था में जिन्हें हम प्रगति का पैमाना
मान बैठे हैं मसलन सूचना तकनीक, कॉल सेंटर, उद्योग, रिटेल बाजार और सर्विस
सेक्टर...उसके लिए जरूरी शिक्षा और तकनीकी ज्ञान क्या पूरे देश के युवाओं के पास
है..मार्क्स ने एक जगह लिखा है कि पूंजीवाद की एक बड़ी कमजोरी यह है कि व्यक्ति की
जिस काम में दिलचस्पी होती है..वह काम उसे शायद ही मिल पाता है..कहना न होगा कि आज
के ज्यादातर भारतीय युवाओं के सामने यह भी बड़ा संकट है..उन्हें जैसा काम चाहिए और
जहां चाहिए..वहां और वैसा काम है ही नहीं..जब इस पर सवाल उठते हैं तो कांग्रेस और
उसकी सत्ता में सक्रिय अर्थशास्त्रियों का एक ही जवाब होता है कि विकासशील
अर्थव्यवस्थाओं की यही मजबूरी है और इस मजबूरी से दो-चार होना ही पड़ेगा। अगर
जिनके हाथों को काम हासिल है तो विकासशील अर्थव्यस्था में उनमें ज्यादातर के लिए
एक और संकट मुंह बाए खड़ा है। नियमित और संगठित श्रम की गुंजाइश लगातार कम होती गई
है। औद्योगिक विवाद अधिनियम और ठेका श्रम कानूनों में संशोधन करते वक्त भी यही
तर्क दिया गया था कि विकासशील अर्थव्यवस्था को तेज गति देने के लिए ये सुधार जरूरी
हैं। माना तो यह गया कि यह सब विदेशी निवेश लाने के चक्कर में उन देशों के
उद्योगपतियों की सलाह पर किया गया, जहां सामाजिक सुरक्षा कानून कड़े हैं और किसी
की नौकरी जाने के बाद उसके सामने कम से कम भूखे मरने का संकट खड़ा नहीं होता। अपने
यहां सामाजिक सुरक्षा का दायरा न तो बढ़ाया गया न ही कानूनी तौर पर उन्हें कड़ा
किया गया, लेकिन ये सुधार कानून लागू कर दिए गए..जिसका हश्र यह हो रहा है कि
अमेरिकी हायर एंड फायर नीति हमारे यहां अपना ली गई है..और संगठित रोजगार लगातार कम
होता गया है। कॉल सेंटरों में आज जो पीढ़ी काम कर रही है..चालीस का होते ही वह
बेरोजगार हो रही है। फिर बिल्कुल गैरभारतीय और अप्राकृतिक अवधारणा के जरिए रात में
जागने और दिन में सोने वाली एक पीढ़ी अपनी जिंदगी के सुनहले साल खपा रही है। उसके
लिए भी संकट यह है कि चालीस साल का होते ही उसके सामने रोजगार ही नहीं होता और हम
अपनी आर्थिक उपलब्धि पर गर्व करने का बहाना ढूंढने की खुशफहमिया पाले रहते हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि श्रम कानूनों में सुधारों के विरोध में दत्तोपंत ठेंगड़ी
और भारतीय मजदूर संघ ने पूरी शिद्दत से आवाज उठाई..लेकिन उन आवाजों को अनसुनी कर
दिया गया।
अंग्रेजों
पर आरोप है कि उन्होंने भारतीय पारंपरिक कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया, ताकि
उनके कारखानों से बनी चीजें भारत में आएं और बिक सकें..लेकिन सवाल यह है कि गांधी
के दर्शन पर चलती रही कांग्रेस और उसके शासन काल में दस्तकारी और शिल्पकारी के
विकास में कितना योगदान दिया..आज भारतीय शिल्प और दस्तकारी की परंपरा कहीं पर
जिंदा है तो वह सांस्कृतिक रस-गंध के चलते जिंदा है। राज्य का सहयोग उसे न के
बराबर है। रोजगार का तो खैर वह साधन रही ही नहीं। इसलिए आज का ज्यादा ग्रामीण युवा
बेरोजगार है, उसके पास कुशल की कौन कहे, अकुशल काम ही नहीं है। उसे स्थानीय स्तर
पर रोजगार चाहिए..लेकिन वह भी उपलब्ध नहीं है। उसे जो काम चाहिए, वह तो खैर सपना
ही है। कहा जा रहा है कि मौजूदा व्यवस्था ने प्रतियोगितावाद को बढ़ावा दिया है।
निश्चित तौर पर इससे विकास हुआ है। लेकिन यह वाद डार्विन के उस सिद्धांत के मुताबिक
ही मनुष्यता को बढ़ावा दे रहा है, जो सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट यानी ताकतवर के बचे रहने
का हिमायती है। क्या भारतीय अवधारणा ताकतवर के ही आगे बढ़ने पर भरोसा करती रही
है..भारतीयता की अवधारणा में समग्र मानवता के विकास समाहित है। इन अर्थों में
देखें तो भारतीयता की अवधारणा से आज का प्रतियोगितावाद कोसों दूर है। यही वजह है
कि जब प्रतियोगितावाद में पिछड़े युवाओं की ताकत एक साथ समाहित होती तो वह हथियार
उठाती है..कई बार ये हथियार सामान्य हथियार होते हैं तो कई बार आम आदमी पार्टी की
तरह के वैचारिक हथियार भी हो सकते हैं। जिसके सामने कई बार व्यवस्थाएं बौनी नजर
आने लगती हैं।
हकीकत
तो यह है कि भारतीय युवाओं की समस्याओं को सामाजिक स्थितियों से काटकर समग्रता में
देखने की कभी कोशिश नहीं हुई। उनमें बुजुर्गों को अलग रख दिया गया और अनुभव को
अपने दम पर किनारे कांखते-खांसते बैठने के लिए छोड़ दिया जाता रहा है। इसका हश्र
यह हुआ है कि आज का युवा अगर आगे बढ़ने की सोचता भी है तो मनुष्यता को अनजाने में
वह किनारे और पीछे छोड़ते जाता है। ऐसे में आप समग्र सामाजिक विकास की कल्पना कैसे
कर सकते हैं। वक्त आ गया है कि इन सारे इंगित विंदुओं पर हमारे नीति नियंता
सोचें..अन्यथा कॉल सेंटर जैसी अभारतीय अवधारणा के जरिए विकसित होती पीढ़ी के आगामी
कष्टों जैसे कई सारे दुख हमारे सामने उठ खड़े होंगे और तब हमें लगेगा कि हमने क्या
खोया है।
लेखक स्तंभकार और टेलीविजन पत्रकार हैं।
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