उमेश चतुर्वेदी
समाज और राज को चलाने वाली
राजनीति की भी अजब रवायत है..ज्ञान और विचार की दुनिया में सिद्धांत शाश्वत या अविच्छिन्न
मूल्यों के आधार पर तैयार होते हैं। लेकिन राजनीति अपने तात्कालिक फायदे और नुकसान
के लिए वैचारिक सरणियों से गुजरती है और नया सिद्धांत गढ़ती है। 1962 में एक हद तक
कांग्रेस विरोधी हवा के बावजूद विपक्ष की हार ने डॉक्टर राममनोहर लोहिया को गैर कांग्रेसवाद
के सिद्धांत की तरफ सोचने के लिए मजबूर किया था। जिसने 1963 में ही कमाल दिखाया और
उपचुनावों में समाजवादी धुरंधर डॉक्टर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी, पीलू मोदी देश
की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने में कामयाब रहे। इसका असर 1967 में भी नजर आया, जब
नौ राज्यों में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इसी गैरकांग्रेसवाद की समाजवादी
नींव और विचार पर आज के समाजवादियों का राजनीतिक प्रशिक्षण हुआ है। यह बात और है कि
अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते लालू यादव लगातार कांग्रेस के साथ हैं। अब इसमें नया
नाम नीतीश कुमार का भी जुट गया है। कभी लोहिया ने भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अवतार
भारतीय जनसंघ के साथ गैरकांग्रेसवाद के विचार को चरम पर पहुंचाया था। उन्हीं लोहिया
के तेजतर्रार समाजवादी शिष्य किशन पटनायक की शागिर्दी में समाजवाद का राजनीतिक पाठ
पढ़ने वाले नीतीश कुमार अब कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं। वैशाली जिले के हाजीपुर
में बीस साल बाद एक दौर के बड़े भाई और अपने प्यारे दोस्त लालू यादव के साथ मंच साझा
करते वक्त भारतीय राजनीति को नया सिद्धांत देने की कोशिश की, वह सिद्धांत है गैरभाजपावाद
का।
गैरकांग्रेसवाद से शुरू नीतीश
की राजनीतिक यात्रा गैरभाजपावाद का नया सैद्धांतिक आधार गढ़ते हुए एक नए पड़ाव पर पहुंच
चुकी है। निश्चित तौर पर यह पड़ाव उनके राजनीतिक जीवन के लिए बड़ा मोड़ साबित होने
जा रहा है। बिहार में विधानसभा की दस सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। इनमें से छह
पर तो पहले भारतीय जनता पार्टी ही काबिज रही है। जाहिर है कि अपने नए गठबंधन के जरिए
नीतीश कुमार और लालू यादव भारतीय जनता पार्टी को पटखनी देने की कोशिश में हैं। उत्तराखंड
की तीन सीटों के उपचुनाव और उसमें कांग्रेस की भारी जीत ने गैरभाजपावाद के दोनों सूरमाओं
को आधार भी मानसिक आधार भी मुहैया करा दिया है। नरेंद्र मोदी की अगुआई में सिर्फ तीन
महीने पहले तक अजेय समझी जाती रही भारतीय जनता पार्टी को उत्तराखंड में मिली शिकस्त
ने नीतीश और लालू के उत्साह को भी बढ़ा दिया है। अगर लोकसभा चुनावों में मिले जनता
दल यू, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के वोटों का ही विश्लेषण करें तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक
गठबंधन के सामने लालू-नीतीश की जोड़ी का आंकड़ा बीस पड़ता है। लोकसभा चुनावों के वक्त
राष्ट्रीय जनता दल को बीस फीसदी से कुछ ज्यादा और जनता दल यू को पंद्रह फीसदी से कुछ
ज्यादा वोट मिले थे। भले ही कांग्रेस के खाते में सिर्फ एक सीट आई, लेकिन उसे भी करीब
आठ फीसदी वोट मिले थे। कुल मिलाकर यह वोट करीब चौवालिस फीसद बैठता है। उनके बनिस्बत
एनडीए को करीब 39 फीसद ही मतदाताओं का साथ मिला। लेकिन लालू-नीतीश के गठबंधन के बीच
सबसे बड़ा पेच दोनों का आधार वोट और उनकी मानसिक बुनावट है। लालू को जो वोट मिले हैं,
दरअसल वे नीतीश विरोधी वोट हैं और इसी तरह जनता दल यू के खाते में गए वोट लालू विरोध
के चलते आए। यानी लालू और नीतीश के सामने चुनौती अपने आधार वोट को बनाए रखने और एक-दूसरे
का विरोध भुलाना है। अगर वे इसमें कामयाब रहे तो निश्चित तौर पर बिहार में भी राजनीतिक
इतिहास लोकसभा चुनाव के वक्त से अलग होगा। लेकिन वे ऐसा करने में नाकाम रहे और एनडीए
इसगठबंधन के वोटरों के मानसिक अंतर्विरोध को उभारने में कामयाब रहा तो इतिहास फिर दोहराया
ही जाएगा यानी बिहार में एक बार फिर एनडीए का ही डंका बजेगा।
यहां यह बता देना भी जरूरी
है कि लालू-नीतीश गठबंधन की कामयाबी और नाकामी दोनों ही भारतीय राजनीति के एक बड़े
फलक को प्रभावित करेगी। सबसे बड़ा असर तो बिहार के ही सहोदर झारखंड में नजर आएगा। अगर
लालू-नीतीश की जोड़ी कामयाब रहती है तो झारखंड में भी महागठबंधन का फार्मूला नमक-तेल
के साथ तैयार होगा। इस गठबंधन का सबसे बड़ा घटक झारखंड मुक्ति मोर्चा होगा और दूसरा
बड़ा घटक भारतीय जनता पार्टी के दस साल पहले तक नेता रहे बाबूलाल मरांडी का झारखंड
विकास मोर्चा होगा। लालू का राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश का जनता दल यू भी इसके अहम
सहयोगी होंगे। बिहार की जीत इस गठबंधन का मनोबल बढ़ाने में मददगार साबित होगी। जाहिर
है कि इसका फायदा गठबंधन उठाने की कोशिश करेगा। ऐसे में झारखंड की राजनीति बदल सकती
है। हालांकि भारतीय जनता पार्टी बाबूलाल मरांडी की पार्टी को खुद में समाहित करने की
कोशिश में है। उनके सात विधायक भारतीय जनता पार्टी के संपर्क में हैं। अंदरखाने से
छनकर आनेवाली खबरें तो यह भी हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को भी वापस
आने और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव दिया है। लेकिन मरांडी खेमा
मानता है कि पार्टी उनके साथ बातचीत के संकेत देने के साथ ही उन पर दबाव बना रही है।
सात विधायकों को तोड़ना बीजेपी की तरफ से मरांडी को दबाव में लाने की राजनीति है। इसलिए
मरांडी चिढ़े हुए भी हैं और एक बार फिर वे भारतीय जनता पार्टी को लेकर सशंकित हैं।
इसलिए मौजूदा माहौल में तो लगता ही नहीं कि वे भारतीय जनता पार्टी की तरफ दोबारा रूख
करेंगे। लेकिन अगर बिहार में लालू-नीतीश की जोड़ी उपचुनावों में नाकाम रही तो मरांडी
पर भी दबाव बढ़ सकता है और उन्हें भारतीय जनता पार्टी की तरफ लौटने का फैसला लेने के
लिए मजबूर होना पड़ सकता है।
लालू-नीतीश की जोड़ी की कामयाबी
पर पश्चिम बंगाल की राजनीति पर भी असर पड़ सकता है। जिस सीपीएम के खिलाफ ममता बनर्जी
की राजनीति परवान चढ़ी है,वह ममता बनर्जी भी अब भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए
सीपीएम का साथ मांग रही है। सीपीएम निश्चित तौर पर लालू या नीतीश की तरह की सोच वाला
राजनीतिक दल नहीं है। वहां वैचारिक मंथन के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचने की परंपरा
रही है। बेशक पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी सिर्फ दो ही सीटें जीत पाई। लेकिन
सर्वाधिक मुस्लिम वोटरों वाले इस राज्य में उसने पिछले चुनाव में करीब 17 फीसदी वोट
हासिल किए हैं। इससे जितनी घबराहट ममता बनर्जी को है, उतनी ही परेशानी में सीपीएम भी
है। ऐसे में अगर लालू-नीतीश की जोड़ी कामयाब होती है तो यहां का भी राजनीतिक परिदृश्य
बदला नजर आ सकता है।
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