उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख गोविंदाचार्य की ओर से प्रकाशित स्मारिका गांव की ओर में प्रकाशित हुआ है)
(यह आलेख गोविंदाचार्य की ओर से प्रकाशित स्मारिका गांव की ओर में प्रकाशित हुआ है)
आजादी के आंदोलन के दौरान गांधीजी ने एक बड़ी बात कही थी; अगर अंग्रेज यहीं रह
गए, उनकी बनाई व्यवस्था खत्म हो गई और
भारतीय व्यवस्था लागू हो गई तो मैं समझूंगा कि स्वराज आ गया। अगर अंग्रेज चले गए
और अपनी बनाई व्यवस्था ज्यों का त्यों छोड़ गए और हमने उन्हें जारी रखा तो मेरे
लिए वह स्वराज नहीं होगा। विकास की मौजूदा अवधारणा में लगातार पिछड़ते गांवों, उनमें भयानक बेरोजगारी, कृषि भूमि का लगातार
घटता स्तर और शस्य संस्कृति की बढ़ती क्षीणता के बीच गांधी की यह चिंता एक बार फिर
याद आती है। आजादी के बाद गांधी को उनके सबसे प्रबल शिष्यों ने ना सिर्फ भुलाया, बल्कि उनकी सोच को भी
तिलांजलि दे दी। गांधी को सिर्फ उनके नाम से चलने वाली संस्थाओं, राजकीय कार्यालयों की
दीवारों पर टंगी तसवीरों, राजघाट और संसद जैसी जगहों के बाहर
मूर्तियों तक सीमित कर दिया। उनकी सोच को भी जैसे इन मूर्तियों की ही तरह सिर्फ
आस्था और प्रस्तर प्रतीकों तक ही बांध दिया गया। ऐसा नहीं कि आजादी के बाद
भारतीयता और भारतीय संस्कृति पर आधारित विचारों के मुताबिक देश को बनाने और चलाने
की बातें नहीं हुईं।
जयप्रकाश आंदोलन का एक मकसद गांवों को स्वायत्त बनाना और
उन्हें भारतीय परंपरा में विकसित करना भी था। खुद लोहिया भी ऐसा ही मानते थे।
दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में जिस मानव की सेवा और उसे अपना मानकर उसके
सर्वांगीण विकास की कल्पना है, वह एक तरह से हाशिए पर
स्थित आम आदमी ही है। जिसके यहां विकास की किरणें जाने से अब तक हिचकती रही हैं।
मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ उस तक विकास की किरणें पहुंचाने का छद्म ही किया जा रहा
है। गांधी के एक शिष्य जयप्रकाश भी गांधी की ही तरह भारतीयता की अवधारणा के
मुताबिक गांवों के विकास के जरिए देश के विकास का सपना देखते थे। पिछली सदी के
पचास के दशक के आखिरी दिनों गांधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी और आजाद भारत के
पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जयप्रकाश को अपने मंत्रिमंडल में
शामिल होने का निमंत्रण दिया था। 1942 के आंदोलन के प्रखर सेनानी जयप्रकाश तब तक
सक्रिय राजनीति से दूर सर्वोदय के जरिए गांवों और फिर भारत को बदलने के सपने को
साकार करने की कोशिश में जुटे हुए थे। जयप्रकाश ने तब नेहरू के प्रस्ताव को
विनम्रता से नकारते हुए लिखा था कि आपकी सोच उपर से नीचे तक विकास पहुंचाने में
विश्वास है और मैं नीचे से उपर तक विकास की धारा का पक्षधर हूं। इसलिए मेरा आपके
मंत्रिमंडल में शामिल होना ना आपके हित में होगा न ही देश के हित में। हालांकि
उनके तर्क के आखिरी वाक्य पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। क्योंकि नेहरू के विकास
मॉडल का हश्र हम देख रहे हैं। न तो गांव गांव ही रह पाए हैं और ना ही शहर बन पाए
हैं। यानी अगर उस मंत्रिमंडल में जयप्रकाश शामिल हुए होते तो शायद सर्वोदय के सपने
के मुताबिक देश में नया बदलाव तो आया ही होता। यानी गांव अधकचरे नहीं रह पाए होते।
भारत के बारे में पुरातन अवधारणा है कि यह गांवों का देश
है। आज भी देश में तकरीबन छह लाख गांव हैं। मौजूदा राजनीतिक और लोकतांत्रिक
अवधारणा में गांवों की भूमिका सिर्फ वोट बैंक तक सीमित हो गई है। वह भी उदारवादी
सोच के बरक्स जातियों और खेमों में कहीं ज्यादा बंटी हुई है। इसलिए आज राजनीतिक दल
सत्ता की राजनीतिक वैधता और समर्थन हासिल करने के लिए इन गांवों को वोट बैंक के
तौर पर इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन जब गांवों को
देने की बारी आती है तो वे गांवों को भूल जाते हैं। रही-सही कसर मौजूदा नौकरशाही
की सोच पूरी कर देती है। नीतियां भले ही वह गांवों के नाम पर बनाए, लेकिन उन्हें तय करते
वक्त उसका पूरी दृष्टि शहर केंद्रित ही होती है। विकास की मौजूदा नीतियों का
परीक्षण भी कुल जमा तकरीबन 25 करोड़ आबादी के हिसाब से ही होता है और देश की बाकी
सौ करोड़ आबादी पीछे रह जाती है। भारत में छह महानगर हैं और औसतन डेढ़ करोड़ की
जनसंख्या के हिसाब से कुल जनसंख्या तकरीबन 9 करोड़ है। इसके साथ ही देश में स्तर एक
के करीब 36 और स्तर दो के करीब डेढ़ सौ शहर हैं। स्तर एक यानी राज्यों की
राजधानियों की आबादी बीस से लेकर साठ लाख तक है। मोटे तौर पर यह आबादी भी करीब दस
करोड़ बैठती है और बाकी छोटे शहरों की आबादी छह करोड़ होगी। यही 25 करोड़ की
जनसंख्या के आधार पर देश की नीतियां बन रही हैं। आज भारत में जिस तेज आर्थिक विकास
की बात हो रही है, उसका स्याह पक्ष यह है कि इसका
आधार बाकी 100 करोड़ की जनसंख्या है ही नहीं। सौ करोड़ लोगों के बरक्स इसी पच्चीस
करोड़ जनसंख्या पर बुनियादी ढांचे का ज्यादा खर्च होता है। बिजली और डीजल-पेट्रोल
जैसे ऊर्जा के स्रोत का खर्च भी इन्हीं जगहों के लिए ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र
संघ ने एक अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित की है। महानगर नाम से यह रिपोर्ट अब हिंदी में
भी है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनियाभर में ऊर्जा स्रोत, विकास और बुनियादी
ढांचे पर सबसे ज्यादा खर्च महानगरों पर ही हो रहा है। लेकिन उसकी तुलना में
दुनियाभर में ग्रामीण आबादी को सहूलियतें कम हासिल होती हैं। भारतीय गांवों की भी
हालत अलग नहीं है। भारतीय गांवों को चौबीसों घंटे बिजली आज भी सपना है। जिंदगी की
बेहतर सहूलियतें भी नहीं के बराबर ही हासिल हो रही हैं। जब आधुनिकता का बोलबाला
नहीं था तो गांवों का पर्यावास पर्यावरण और मौसम के अनुकूल था। तब उसका काम
प्राकृतिक ऊर्जा से ही चल जाता था। लेकिन आज गांवों में भी सीमेंट और लोहे के सरिए
पर आधारित निर्माण हो रहे हैं। चूंकि गांवों में बिजली आज भी सपना है, इसलिए इसका असर यह हुआ
है कि गांवों में गरमी बढ़ गई है और आधुनिकता के कथित पर्याय पक्के मकानों में
अत्यधिक जाड़े और गरमी में जिंदगी दुश्वार हो जाती है। विकास का मतलब है कि जिंदगी
में सहूलियतें बढ़ें। क्या इस दुश्वारताभरी जिंदगी के आधार पर इसे विकास कहेंगे।
सदियों की भारतीय समृद्धि का प्रतीक इसकी शस्य यानी कृषि
संस्कृति रही है। शस्य संस्कृति में मौजूदा अवधारणा के मुताबिक भले ही अभाव था, लेकिन उस जिंदगी में
सामाजिकता पर जोर था। इसके जरिए समाज का ढांचा बहुत मजबूत था। भारतीय सांस्कृतिक
इतिहास से गुजरें तो पता चलता है कि राज्य के मुकाबले भारतीय समाज कहीं ज्यादा
मजबूत रहा है। परिवार व्यवस्था भी कहीं ज्यादा ताकतवर रही है। इस संस्कृति में
जरूरी नहीं था कि पूरा परिवार कमाने के लिए भागता रहे। फिर भी परिवार के सभी
सदस्यों की बुनियादी जरूरतों की गारंटी रहती थी। इसके मुकाबले विकास के मौजूदा
अवधारणा को देखिए। परिवार भी छिन्न-भिन्न हुए हैं। समाज का ढांचा भी कमजोर हुआ है
और चूंकि बुनियादी सुख-दुख बांटने की पारंपरिक पारिवारिक अवधारणा टूट रही है, इसलिए अवसाद भी बढ़
रहा हैं और इसके जरिए मौतें भी बढ़ रही हैं। सामाजिक असंतोष की बुनियाद में यही
समस्या भी है।
आर्थिक विकास की जिस मौजूदा अवधारणा पर देश बढ़ रहा है, उसके स्वभाव में ही
शस्य संस्कृति का विलोपन है। पिछले चुनाव के लिए अपने घोषणा पत्र में भारतीय जनता
पार्टी ने देश में 300 स्मार्ट सिटी बनाने का वादा किया है। माना गया कि इससे देश
के विकास में गति आएगी। इससे सीमेंट और सरिया उद्योग में तेजी आएगी और रोजगार भी
बढ़ेगा। लेकिन यह रोजगार कैसा होगा। निर्माण उद्योग में ज्यादातर रोजगार दिहाड़ी
मजदूरी वाले होते हैं।
इससे जीवन स्तर कुछ लोगों का ही सुधरता है। बड़ी जनसंख्या सड़कों किनारे कपड़े के तंबुओं में निम्नस्तरीय जीवन सुविधाओं के साथ जीने के लिए मजबूर होती है। हां यह जरूर कहा जा सकता है कि इससे बड़ी जनसंख्या का सिर्फ पेट भर जाता है। अगर मौजूदा विकास की अवधारणा का उद्देश्य यही है तो फिर विकास की इस अवधारणा को मंजूर किया जाना चाहिए।
इससे जीवन स्तर कुछ लोगों का ही सुधरता है। बड़ी जनसंख्या सड़कों किनारे कपड़े के तंबुओं में निम्नस्तरीय जीवन सुविधाओं के साथ जीने के लिए मजबूर होती है। हां यह जरूर कहा जा सकता है कि इससे बड़ी जनसंख्या का सिर्फ पेट भर जाता है। अगर मौजूदा विकास की अवधारणा का उद्देश्य यही है तो फिर विकास की इस अवधारणा को मंजूर किया जाना चाहिए।
1999-2000 के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के ग्रामीण
विकास मंत्री रहते हुए वेंकैया नायडू ने आंध्र प्रदेश से एक काबिल अफसर डॉक्टर
मोहन कांडा की अगुआई में देश की बंजर और दलदली जमीन का सर्वे कराया था। उस सर्वे
के मुताबिक देश की तकरीबन 40 फीसदी जमीन या तो बंजर है या दलदली है। विकास की
मौजूदा अवधारणा में विशेष आर्थिक जोन या स्मार्ट सिटी बनाने के लिए प्रकृति की तरफ
से बेकार पड़ी इन जमीनों की तरफ ध्यान नहीं है। बल्कि कृषि योग्य जमीनों पर उद्योग
और निर्माण क्षेत्र की निगाह ज्यादा है। रेगिस्तान में समुद्र के पानी को मीठा बनाकर
दुबई प्रशासन ला सकता है और दुबई को हरा-भरा बना सकता है। लेकिन भारतीय विकास की
अवधारणा में ऐसी सोच की गुंजाइश ही नहीं है। चीन जैसे देश में सिर्फ 75 विशेष
आर्थिक जोन हैं और भारत में दो सौ से ज्यादा की मंजूरी मिल चुकी है। चीन में
ज्यादातर आर्थिक जोन बंदरगाहों के नजदीक बंजर और बेकार जमीनों पर बने हैं और अपने
यहां हरियाणा और पंजाब की उपजाऊ कृषि भूमि पर स्मार्ट सिटी और विशेष आर्थिक जोन
बनाए जा रहे हैं। जाहिर है कि इस पूरी प्रक्रिया में गांव पर ही चोट पहुंचती है।
जब गांव पर चोट पहुंचती है तो इस बहाने पूरी की पूरी संस्कृति पर खतरा बढ़ता है।
जिसका असर सामाजिक विघटन के तौर पर नजर आता है।
अंग्रेजी राज के दौरान बेशक गांवों में गरीबी बढ़ी। लेकिन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक शोध -अठारहवीं सदी के जमींदार – में गांवों की दूसरी
ही तसवीर सामने आती है। इस शोध में जिक्र है कि तब जमींदार गांवों में किसी के
भूखे न सोने देने की गारंटी देता था। ऐसी कहानियां किवदंतियों में आज भी गांवों
में जिंदा हैं। अंग्रेजी राज में इस व्यवस्था को चोट पहुंची। मौजूदा विकास की
अवधारणा भी इसी सोच को आगे बढा रही है।
मौजूदा सरकारी तंत्र इस बात की खुशी जताते नहीं थकता कि सकल
घरेलू उत्पाद में आजादी के वक्त जिस खेती की हिस्सेदारी 51 फीसदी थी, वह 2012-13 में घटकर
सिर्फ 13.7 फीसदी ही रह गई है। अब सर्विस क्षेत्र की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है।
सर्विस क्षेत्र में उत्पादन तो होता नहीं। इसलिए इस अर्थव्यवस्था के सातत्य पर भी
सवाल उठते रहते हैं। भारतीयता की अवधारणा के भी विपरीत यह अर्थव्यस्था है।
आजादी के सात दशक होने को हैं।
इसके बावजूद अगर आबादी के तीन चौथाई से भी ज्यादा हिस्से को पलायन, मजबूरी और संत्रास की जिंदगी जीने को मजबूर होना पड़े, विकास की मौजूदा अवधारणा से दूर रहना पड़े, पारंपरिकता के विछोह का फायदा उसे ना मिले तो जाहिर
है कि इस अवधारणा पर सवाल उठेंगे ही। सवाल उठ भी रहे हैं। देशभर में जमीन अधिग्रहण
के खिलाफ चल रहे करीब 1700 आंदोलन इन सवालों के ही प्रतीक हैं। इनमें से ज्यादातर
लोकतांत्रिक हैं। नक्सलवादी आंदोलन की पूर्व पीठिका गांवों के सामाजिक तंत्र में
विकास की मौजूदा अवधारणा की घुसपैठ ने ही तैयार की। चूंकि इस अवधारणा का प्रतिनिधि
राजनेता, अफसर और ठेकेदार की तिकड़ी होती है, लिहाजा नक्सलवाद का मूल इस तिकड़ी पर ही ज्यादा निशाना
बनाता रहा है। इन तथ्यों के आलोक में अब बड़ा सवाल यह है कि क्या इसके बाद भी पांच
हजार साल से भी ज्यादा पुरानी जड़ें रखने वाला अपना समाज चेतेगा...वैसे निराश होने
की जरूरत भी नहीं है। वक्त आने पर अपना समाज जागता रहा है, अपनी इकाइयों को झिंझोड़ता रहा है और फिर नए आवेग और
उत्साह से पारंपरिकता के आलोक में आगे बढ़ता रहा है।
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