उमेश चतुर्वेदी
यह आलेख यथावत पत्रिका के 01-15 सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित हो चुका है...
यह आलेख यथावत पत्रिका के 01-15 सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित हो चुका है...
क्या भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रश्न प्रदेश
रहा सुदूर दक्षिण का राज्य केरल अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों में उम्मीद
की नई किरण बनकर आएगा। यह सवाल राज्य की जनता से कहीं ज्यादा खुद सत्ताधारी
यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की अगुआ कांग्रेस पार्टी के अंदर ही गंभीरता से पूछा
जा रहा है। इसकी वजह बना है जून में संपन्न राज्य विधानसभा का इकलौता उपचुनाव।
राज्य की अरूविकारा विधानसभा सीट पर उपचुनाव विधानसभा स्पीकर जी कार्तिकेयन के
निधन के चलते हुआ। उपचुनाव में भले ही कांग्रेस के कद्दावर नेता जी कार्तिकेयन के
बेटे के ए सबरीनाथन की जीत हुई, लेकिन उनकी जीत का अंतर कम हो गया। अपने पिता की
तरह उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को ही हराया। लेकिन
उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी मतदाताओं की पसंदीदा पार्टी के तौर पर तेजी से
उभरी। यही वजह है कि कांग्रेस में भारतीय जनता पार्टी के उभार को लेकर आशंका जताई
जाने लगी है और इसकी बड़ी वजह इसी उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी का बढ़ा वोट
प्रतिशत है। 2011 के विधानसभा चुनावों की तुलना में इस उपचुनाव में भारतीय जनता
पार्टी के वोट बैंक में 17.18 प्रतिशत की जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। दिलचस्प बात यह
है कि इस उपचुनाव को केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने अपनी सरकार के कामकाज के
लिए जनमत संग्रह का नाम दिया था। कांग्रेस के उम्मीदवार की जीत को स्वाभाविक तौर
पर केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी के
समर्थन में ही माना जाएगा। इसके बावजूद अगर कांग्रेस चिंतित है तो इसकी बड़ी वजह
है मौजूदा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के वोट में आई 9.16 प्रतिशत की गिरावट।
हैरत की बात यह है कि कांग्रेस के मुकाबले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की अगुआ
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोट बैंक में सिर्फ 6.1 फीसद की ही गिरावट दर्ज
की गई।
हालांकि कांग्रेस के मुकाबले मार्क्सवादी वोट बैंक में यह गिरावट बेशक कम है, लेकिन 1957 में दूसरे विधानसभा चुनाव से ही राज्य में अपनी मजबूत पकड़ बनाने वाले वामपंथ के लिए वोट बैंक में यह कमी उसके समर्थक आधार में आई बड़ी छीजन के तौर पर ही देखा जा रहा है।
हालांकि कांग्रेस के मुकाबले मार्क्सवादी वोट बैंक में यह गिरावट बेशक कम है, लेकिन 1957 में दूसरे विधानसभा चुनाव से ही राज्य में अपनी मजबूत पकड़ बनाने वाले वामपंथ के लिए वोट बैंक में यह कमी उसके समर्थक आधार में आई बड़ी छीजन के तौर पर ही देखा जा रहा है।
अरुविकारा विधानसभा उपचुनाव ने कांग्रेस में
अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ बहुसंख्यक नायर वोट बैंक और उस समुदाय से आने वाले
नेताओं को जुबान खोलने का मौका दे दिया है। हालांकि पार्टी हलकों में यह सवाल दबे
सुर से ही उठ रहा है। अगर कांग्रेस आलाकमान ने वक्त रहते इस पर गंभीरता से ध्यान
नहीं दिया तो यह सवाल खुले तौर पऱ भी उठने लगेगा। पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी
कि जम्मू-कश्मीर के बाद केरल दूसरा राज्य है, जहां अल्पसंख्यक तबके के हाथ में
शासन- सत्ता के प्रमुख सूत्र हैं। राज्य के मुख्यमंत्री ओमान चांडी तो अल्पसंख्यक
ईसाई समुदाय के तो हैं ही, भ्रष्टाचार और शराब लॉबी से रिश्वतखोरी के आरोपों का
सामना कर रहे राज्य के वित्त मंत्री के एम मणि भी उसी समुदाय से आते हैं। राज्य
कांग्रेस में एक तबका अब यह मानने लगा है कि क्रिश्चियन और मुस्लिम वोट बैंक का अब
और ज्यादा तुष्टिकरण राज्य में कांग्रेस के लिए वैसे ही दिन देखने को मजबूर कर
देगा, जैसा अस्सी के दशक तक उसके गढ़ रहे उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में
उसे देखना पड़ रहा है, जहां कांग्रेस का नामलेवा भी नहीं बचा है।
केरल की सत्ता में कांग्रेस की वापसी के बड़े
रणनीतिकार राज्य में पार्टी के नौ साल तक अध्यक्ष रहे रमेश चेनिथला रहे। चेनिथला
इन दिनों राज्य के गृहमंत्री हैं और राज्य की उस नायर जाति से ताल्लुक रखते हैं,
जिसे समाज और सरकारी नीतियों में आजादी के बाद से ही उपेक्षित कर दिया गया है।
बेशक इस उपेक्षा के अपने ऐतिहासिक कारण हैं। आजादी के पहले तक नायरों का केरल के
समाज और सत्ता तंत्र में दबदबा था। लेकिन राज्य की करीब 14 फीसद आबादी रखने वाले
इस तबके को आजादी के तत्काल बाद जो उपेक्षित किया गया, उसकी टीस अब तक इस तबके को
अखर रही है। चूंकि कांग्रेस के समर्थक रहे इस तबके को लगने लगा है कि पार्टी उसका
सिर्फ वोट बैंक में पूरक हैसियत के लिए इस्तेमाल करती रही है, इसलिए इस तबके का
कांग्रेस से मोहभंग होने लगा है। इसी वजह से अब वह तबका भारतीय जनता पार्टी की तरफ
झुकता नजर रहा है। इसलिए राज्य कांग्रेस का एक धड़ा अब मानने लगा है कि वक्त आ गया
है कि अल्पसंख्यक राजनीति से किनारा करके पार्टी को नायर जैसी अगुआ बहुसंख्यक
समुदाय की जातियों के साथ अपना जुड़ाव साबित करना होगा।
केरल की राजनीति को समझने के लिए एक बार यहां के
धार्मिक और जातीय समीकरण पर गौर करना जरूरी है। उत्तर भारत में ऐसी धारणा है कि
केरल में सबसे बड़ी आबादी ईसाई समुदाय की है। लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है। 2011
की जनगणना के मुताबिक राज्य की 54 फीसद आबादी हिंदू है। उसमें सबसे ज्यादा संख्या
इजवा समुदाय की है। राज्य की कुल आबादी में इस समुदाय की हिस्सेदारी करीब 22 फीसद
है। हिंदू आबादी में दूसरे नंबर पर नायर तबका आता है। हालांकि उत्तर में केरल के
संपूर्ण हिंदू समाज को नायर के तौर पर ही देखा-माना जाता है। हिंदू समुदाय के बाद
राज्य में दूसरी बड़ी आबादी 27 फीसद हिस्सेदारी के साथ मुसलमान है। तीसरे नंबर पर
सिर्फ 14 फीसद हिस्सेदारी वाला ईसाई समुदाय है। बाकी 5 फीसदी लोग या तो अनुसूचित
जातियों से हैं या अनुसूचित जनजातियों से। कांग्रेस का आधार वोट बैंक यहां इजवा,
नायर और क्रिश्चियन समुदाय रहा है। उसे मुसलमानों के एक हिस्से भी समर्थन हासिल
रहा है। लेकिन कांग्रेस का यह आधारवोट बैंक अब दरक रहा है। राज्य में एक दौर तक के
करूणाकरण कांग्रेस के बड़े नेता थे। लेकिन उन्होंने नाराज होकर पार्टी क्या छोड़ी,
ईसाई समुदाय के ए के एंटनी और ओमान चांडी बड़े नेता के तौर पर स्थापित हो गए और तब
से अल्पसंख्यक समुदाय के हाथ ही राज्य कांग्रेस की बागडोर रही है। जिसके प्रमुख
नेता पूर्व रक्षा मंत्री ए के एंटनी और मुख्यमंत्री ओमान चांडी हैं।
केरल में माना जाता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ का नेटवर्क बड़ा है। वैसे भी संघ परिवार की सक्रियता से यहां की वामपंथी
सियासी ताकतें घबराती रही हैं। उत्तर भारत तक आने वाली खबरें तो कम से कम ऐसे ही
संकेत देती हैं। लेकिन कांग्रेसी सरकार के एक रसूखदार मंत्री का नाम ना छापने की
शर्त पर कहना है कि संघ से वामपंथियों की तरह कांग्रेस का नेतृत्व भी घबराता है।
हाल के दिनों में संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं पर बढ़े जानलेवा
हमले इसी घबराहट के नतीजे हैं। लेकिन अब यहां का बहुसंख्यक समाज भी मानने लगा है
कि उसे सिर्फ ठगा जा रहा है। मुख्यमंत्री ओमान चांडी की कुर्सी बेशक अभी सलामत है,
लेकिन उन्हें यह डर सताने लगा है कि उनका आधारवोट बैंक कहीं खिसक न जाए। राज्य
कांग्रेस से जुड़े एक सूत्र का कहना है कि इसीलिए शराब लॉबी से रिश्वतखोरी के
आरोपी वित्त मंत्री के एम मणि को बचाने में चांडी जुट गए हैं। हालांकि केरल
हाईकोर्ट के आदेश पर राज्य का सतर्कता विभाग जांच कर रहा है। राज्य के पुलिस
महानिदेशक ने अदालत में इस मामले की जांच रिपोर्ट रखे जाने के आदेश दे चुके हैं।
लेकिन ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। दरअसल राज्य कांग्रेस के बहुसंख्यक नेतृत्व को
लगने लगा है कि अगर सही तरीके से जांच नहीं हुई और के एम मणि को विजिलेंस ने
क्लीनचिट दे दी तो विपक्षी निशाने पर गृहमंत्री के नाते रमेश चेनिथला ही रहेंगे।
तब मार्क्सवादी अगुआई वाला विपक्ष उन्हें निशाने पर लेने से पीछे नहीं हटेगा और
अगर सही जांच होती है तो निश्चित तौर पर 85 साल के केएम मणि फंसेंगे और फिर इसके
चलते राज्य का ईसाई और मुस्लिम जैसी अल्पसंख्यक वोट बैंक नाराज होगा। जिसके चलते
कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में चेनिथला को निशाना बनाया जा सकेगा और इसका
खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ेगा। चेनिथला इसे समझ रहे हैं और इस मामले पर चुप्पी
साधे हुए हैं। हालांकि उनके खेमे ने भी कांग्रेस आलाकमान को संदेश दे दिया है कि
अगर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का खेल जारी रहा तो 2016 में भारतीय जनता पार्टी भले ही
विधानसभा का चुनाव ना जीत पाए, लेकिन वह कांग्रेस का सूपड़ा साफ कराने की दिशा में
तेजी से आगे बढ़ेगी और अरुविकारा विधानसभा उपचुनाव की तरह उसका वोट बैंक तेजी से
बढ़ेगा। जाहिर है कि तब सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही उठाना होगा। वैसे एक
दौर में इजवा जाति पर कांग्रेस का बड़ा असर था। लेकिन राज्य के आंकड़े बताते हैं
कि उनका रूझान इन दिनों तेजी से भारतीय जनता पार्टी की तरफ बढ़ा है। इसमें बड़ा
योगदान येल्लापल्ली नरेशन और विश्वहिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय महासचिव प्रवीण
तोगड़िया का है।
2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के
उभार के संकेत तो काफी पहले ही मिलने लगे थे, लेकिन राष्ट्रवादी राजनीति के
पैरोकारों और समर्थकों की निगाह केरल पर कहीं ज्यादा गहराई से टिकी थीं । चुनावी
अभियान के बीच एक साक्षात्कार में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष और
मौजूदा सरकार के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने केरल में कम से कम तिरूअनंतपुरम की सीट
जीतने की उम्मीद जताई थी। केरल के लोगों से पहली बार राजनीतिक रूप से नरेंद्र मोदी
24 अप्रैल 2013 को मुखातिब हुए थे, जब उन्होंने यहां के शिवगिरि के नारायण मठ में रैली
की थी। इस रैली को लेकर राज्य में तब जैसा उत्साह नजर आया, उससे यहां भगवा फहरने
की उम्मीद बढ़ गई थी। तब नरेंद्र मोदी के बारे में माना जा रहा था कि वे भारतीय
जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। हालांकि पार्टी ने
उन्हें 13 जुलाई 2013 को ही आधिकारिक तौर पर अपना उम्मीदवार घोषित किया। जाहिर है
कि तब भगवा खेमे के भावी प्रधानमंत्री को सुनने के लिए केरल उमड़ पड़ा था। लेकिन
ठीक एक साल बाद हुए आम चुनावों के केरल से आए नतीजे निराशाजनक ही रहे। लेकिन यहां
राजनीतिक हालात तेजी से बदल रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी की तरफ बहुसंख्यक
मतदाताओं के बढ़ते रूझान की वजह यहां की बदलती जनसांख्यिकी भी है। 1961 की जनगणना
के मुताबिक राज्य में हिंदू जनसंख्या करीब 61 फीसद थी, जो 2001 में घटकर 56.1 फीसद
और 2011 में 54 फीसद हो गई। 1961 में राज्य की जनसंख्या में मुस्लिम आबादी की
हिस्सेदारी सिर्फ 17 फीसद थी, जो 2001 में आते-आते 24.6 प्रतिशत और 2011 में 27
फीसद हो गई। तिरूअनंतपुरम के सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज के केसी जकारिया के एक
अध्ययन के मुताबिक अगर राज्य में जनसांख्यिकी का ऐसा ही रूख रहा तो 2030 तक राज्य
में मुस्लिम आबादी 33 फीसद और 2035 तक 35 फीसद हो जाएगी। राज्य की राजनीति को जो
जानते और समझते हैं, उन्हें पता है कि इसका सीधा फायदा वामपंथी दलों को होगा।
सेंटर फॉर डेवलपिंग स्टडीज कोई कथित दक्षिणपंथी संस्था नहीं है। लेकिन राज्य में
चर्चा तो यह भी है कि इसके नतीजों और जातिगत आधार पर बदलती केरल की राजनीति के
विश्लेषण को अखबारों में छपने से सत्ता की तरफ से रूकवाया जा रहा है। इससे साफ है
कि कांग्रेस का मौजूदा अल्पसंख्यक प्रधान राजनीतिक नेतृत्व इन आंकड़ों के
सार्वजनिक विमर्श में शामिल होने से घबरा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन
तथ्यों को संघ परिवार के संगठन सामने लाते रहे हैं । तब उन आंकड़ों को सांप्रदायिक
कहकर खारिज किया जाता रहा है। लेकिन अब ये आंकड़े कांग्रेस के अंदरूनी हलके सामने
ला रहे हैं। इसलिए इन्हें आसानी से खारिज भी नहीं किया जा सकता। तो क्या यह मान लिया जाय कि 2016 के केरल
विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकाऊ होंगे...इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर हां में
दिया जा सकता है, बशर्तें कांग्रेस आलाकमान राज्य में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खेल
से बाहर न निकले और बहुसंख्यक नेतृत्व को न उभारे।
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