उमेश चतुर्वेदी
जिस पाटीदार समुदाय के हाथ गुजरात के सौराष्ट्र
इलाके की खेती का बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास हीरा तराशने वाले उद्योग की चाबी हो,
जिसके हाथ कपड़ा उद्योग का बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास राज्य के कुटीर उद्योगों का
बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास गुजरात के मूंगफली और गन्ना की उपज का जिम्मा हो, जिसके
पास राज्य के शिक्षा उद्योग का बड़ा हिस्सा हो, वह पाटीदार समुदाय अगर आरक्षण की
मांग को लेकर मैदान में उतर जाता है तो इसके पीछे सिर्फ आरक्षण की मांग ही होना
हैरत में डालने के लिए काफी है। तो क्या गुजरात के बीस फीसदी आबादी वाले पाटीदार
समुदाय के 22 साल के हार्दिक पटेल के पीछे उठ खड़ा होने की वजह सिर्फ आरक्षण की
मांग ही नहीं है? देश में बड़े-बड़े आंदोलनों को नजदीक से देख
चुके या फिर उनकी अगुआई कर चुके लोगों का कम से कम तो यही मानना है। जयप्रकाश आंदोलन
के दौरान छात्र युवा संघर्ष समिति के अगुआ रहे वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को
हार्दिक पटेल की अपील पर भी शक है। उनका मानना है कि ऐसे आंदोलन स्वत: स्फूर्त नहीं होते और हार्दिक पटेल की इतनी ज्यादा अपील या त्याग-तपस्या का
उनका कोई बड़ा इतिहास भी नहीं रहा है कि उनके पीछे सूबे का ताकतवर पाटीदार समुदाय
उमड़ पड़े। राय साहब के नाम से विख्यात राम बहादुर राय का मानना है कि हार्दिक
पटेल के आंदोलन के पीछे कहीं न कहीं संगठन की शक्ति जरूर है। तो क्या हार्दिक पटेल
के आंदोलन के पीछे कोई ऐसी बड़ी राजनीतिक हस्ती भी काम कर रही है, जिसके पास
सांगठनिक काम का तपस्या जैसा अनुभव भी है। सिर्फ सवा साल पहले हुए आम चुनावों में
गुजरात की सभी 26 सीटें भारतीय जनता पार्टी की झोली में आ गई थीं। जाहिर है कि ऐसा
शत-प्रतिशत नतीजा बगौर बीस फीसदी आबादी वाले लोगों के समर्थन से हासिल नहीं किया जा
सकता था। ठीक सवा साल बाद अगर गुजरात की पांचवें हिस्से की आबादी आरक्षण की मांग
को लेकर उठाए गए झंडे के नीचे आ खड़ी हो तो निश्चित तौर पर कारण सिर्फ यही नहीं
होना चाहिए। जिस पाटीदार समुदाय के हाथ राज्य की 120 विधानसभा सीटों में से एक
तिहाई यानी चालीस पर कब्जा हो, जिसके पास करीब नौ सांसद हों, जिस समुदाय की अपनी
हस्ती आनंदी बेन पटेल राज्य की मुख्यमंत्री हो, जिस समुदाय का सदस्य नितिन पटेल
राज्य की सरकार का आधिकारिक प्रवक्ता हो, इससे साबित तो यही होता है कि इस समुदाय
के पास राजनीतिक ताकत और रसूख भी कम नहीं है। इसके बावजूद अगर पाटीदार समुदाय अपनी
ही सरकार, अपने ही नेता के खिलाफ सड़कों पर उतर आया हो इसके संकेत कुछ और ही
हैं...तो क्या पाटीदार समुदाय किसी और वजह से भारतीय जनता पार्टी से नाराज है ? इस सवाल का जवाब देने से पाटीदार समुदाय हिचक रहा है। आरक्षण को लेकर आंदोलन
कर रही समिति के लोग भी खुलकर बोलने से बच रहे हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के
अंदर से छनकर दबे-ढंके स्वर में जो खबरें बाहर आ रही हैं, वे कुछ और ही कह रही
हैं। उनके मुताबिक हार्दिक पटेल महज मोहरा हैं। असल ताकतें तो पर्दे के पीछे हैं।
तो आखिर कौन-सी वजह है, जिससे पाटीदार समुदाय अचानक से नाराज होकर लाखों की संख्या
में सड़कों पर उतरने लगा है। 25 अगस्त को वह अहमदाबाद को जाम कर चुका है और अब
गांधी की नमक यात्रा के तर्ज पर अहमदाबाद से दांडी की यात्रा करने जा रहा है।
भारतीय जनता पार्टी पर गहरी पैठ रखने वाले जानकारों
का कहना है कि गुजरात की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के लिए ऐतिहासिक बिंदु
गोधरा कांड और उसके बाद राज्य में हुई हिंसा रही है। इसमें जितने लोग फंसे हैं,
उनमें से माया कोदनानी या बाबू बजरंगी जैसे लोग पाटीदार समुदाय के हैं। पाटीदार
समुदाय को उम्मीद थी कि अगर केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी तो गुजरात
दंगों के आरोप में जेल में सजा काट रहे लोगों को सरकार की तरफ से मदद मिलेगी और वे
बाहर आ पाएंगे। लेकिन मोदी सरकार से उम्मीद पूरी नहीं हुई। लिहाजा उनके अंदर
सुगबुगाहट बढ़ी और इसका फायदा राज्य में असंतुष्ट चल रहे बीजेपी और संघ परिवार के
लोगों ने भी उठा लिया। संघ परिवार के ही लोग हार्दिक पटेल के आंदोलन के पीछ संघ
परिवार के ही एक अनुसंगी संगठन में ऊंचे ओहदे पर रही शख्सियत का नाम लेते
हैं...कुछ लोग तो हार्दिक के पीछे भारतीय जनता पार्टी के ही दो पूर्व ताकतवर
नेताओं का हाथ बता रहे हैं। हार्दिक की उन नेताओं और उन नेताओं की हार्दिक तक
पहुंच इसलिए आसान रही, क्योंकि हार्दिक भी कड़ी तालुका के बीजेपी के नेता भरत भाई
पटेल के बेटे हैं। करीब बीस साल से राज्य की सत्ता से दूर कांग्रेस पार्टी का दर्द
भी इस संदर्भ में समझा जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी के खिलाफ उसने लगातार आरोपों की
झड़ी लगाए रखी। उसने मोदी पर चौतरफा वार किए, इसके बावजूद वह मोदी का बाल बांका भी
नहीं कर पाई। उल्टे मोदी पहले की तुलना में और ज्यादा ताकतवर होकर उभरते रहे।
इसलिए हार्दिक के तौर पर उसे किरण नजर न आई हो, ऐसा मानना बेवकूफी ही होगी। और अगर
हार्दिक पर उसकी निगाह प़ड़ी होगी तो उसका अंदरखाने से इस आंदोलन में सहयोग करने
की बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता। हार्दिक कोई जहीन विद्यार्थी भी नहीं रहे
हैं। उन्होंने 2010 में अहमदाबाद के सहजानंद महाविद्यालय से बीकॉम की पढ़ाई की है।
अगर उनके राजनीतिक नेतृत्व का कोई चमकदार इतिहास है भी तो वह इस महाविद्यालय के
छात्रसंघ चुनाव का है, जहां वे निर्विरोध महासचिव चुने गए थे।
संविधान में आरक्षण की व्यवस्था उस समुदाय को
सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक मदद की मकसद से की गई थी, जो इन मोर्चों पर पिछड़े
हों। बेशक भारतीय आरक्षण व्यवस्था जातियों पर आधारित है। हालांकि इन जातियों के
पिछड़ेपन का पैमाना सामाजिक से कहीं ज्यादा आर्थिक रहा है। 1977 में मोरारजी देसाई
की अगुआई वाली जनता पार्टी की सरकार ने पिछड़े तबकों को आरक्षण देने के लिए मंडल
आयोग का गठन किया था। मंडल आयोग ने जातियों के पिछड़ेपन को जांचने के पैमाने तो तय
किए ही थे, जातियों के प्रमुख लोगों से उनकी राय भी मांगी थी। तब पटेल यानी
पाटीदार समुदाय ने खुद को पिछड़े वर्ग में रखे जाने का विरोध किया था। कुछ ऐसी ही
स्थिति जाटों की भी थी। लेकिन हैरत देखिए कि चालीस साल बीतते ना बीतते समय का चक्र
बदल गया और ये दोनों ही जातियां पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण हासिल करने के लिए
लामबंद तो हुई ही हैं, धरना-प्रदर्शन करने से भी नहीं चूक रहीं। यानी चालीस साल
पहले आरक्षण उनकी तौहीनी का पहचान पत्र बन सकता था, वही आरक्षण अब उन्हें अपनी
भावी पीढ़ियों की उम्मीद की किरण बनकर सामने आ चुका है। बहरहाल पाटीदार समुदाय को
पिछड़े वर्ग में शामिल करने की मांग ने आरक्षण व्यवस्था को लेकर एक नई बहस ही छेड़
दी है। कांग्रेस के प्रवक्ता और पूर्व मंत्री मनीष तिवारी ने तो ट्वीटर के जरिए यह
कहने में देर ही नहीं लगाई कि अगर पाटीदारों को आरक्षण चाहिए तो भूमिहारों,
राजपूतों और ब्राह्मणों को क्यों नहीं। वैसे भी जाति आधारित इस आरक्षण व्यवस्था का
अब फायदा सचमुच में उन जातियों के कमजोर लोग कम ही उठा पा रहे हैं। पिछड़ी और
अनुसूचित जातियों में भी करोड़पति ही नहीं, अरबपति भी सामने आ चुके हैं। जबकि
आरक्षण के दायरे से बाहर वाली जातियों में भी काफी लोग गरीब हैं। दोनों ही
स्थितियों को देखते हुए आरक्षण व्यवस्था ही बेमानी होती नजर आ रही है। वैसे भी
समाज में जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं। हार्दिक पटेल
अपने समुदाय को पिछड़े वर्ग के कोटे में आरक्षण दिला पाते हैं या नहीं, यह तो समय
चक्र बताएगा, लेकिन इतना तय है कि अगर जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ
पुरजोर आवाज उठी तो उसकी बड़ी वजह हार्दिक पटेल जरूर माने जाएंगे। हार्दिक अगर
अपने आंदोलन में कामयाब होते हैं तो उनका इतिहास रचना तय है। लेकिन अगर वे नाकाम
भी साबित होते हैं तो भारतीय जनता पार्टी के लिए नया इतिहास जरूर रचेंगे। जो
करीब-करीब 1995 से राज्य की सत्ता पर काबिज है। निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी
को लेकर राज्य की आबादी के एक बड़े वर्ग में उबाल फैलेगा..जिसका सियासी नुकसान
पार्टी को उठाना पड़ सकता है।
No comments:
Post a Comment