Sunday, November 1, 2015

ऐसे भरेगा दाल का कटोरा



उमेश चतुर्वेदी
एक साल पहले हर-हर मोदी के नारे के विरोध में उठी आवाजों को दालों की महंगाई ने अरहर मोदी का नारा लगाने का मौका दे दिया है...80-85 रूपए प्रतिकिलो के हिसाब से तीन महीने तक बिकने वाली अरहर की दाल अब 200 का आंकड़ा पार कर चुकी है..दाल की महंगाई का आलम यह है कि अब सदियों से चली आ रही कहावत – घर की मुर्गी दाल बराबर- भी अपना अर्थ खोती नजर आ रही है। इन्हीं दिनों बिहार जैसे राजनीतिक रूप से उर्वर और सक्रिय सूबे में विधानसभा का चुनाव भी चल रहा है। ऐसे में केंद्र में सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी पर सवालों के तीर नहीं दागे जाते तो ही हैरत होती। लेकिन क्या यह मसला सिर्फ सरकारी उदासीनता तक ही सीमित है...भारत जैसे देश में जहां ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं, वहां प्रोटीन और पौष्टिकता की स्रोत दालों की अपनी अहमियत है। वहां दालों की महंगाई सिर्फ मौजूदा सरकारी उदासीनता के ही चलते है...इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर परेशान जनता नहीं ढूंढ़ेगी..उसके भोजन की कटोरी में से दाल की मात्रा लगातार घट रही है..लेकिन जिम्मेदार लोगों को इसकी तरफ भी ध्यान देना होगा कि आखिर यह समस्या आई इतनी विकराल कैसे बन गई कि अरहर की दाल की महंगाई का स्तर ढाई गुना बढ़ गया।
वैसे तो अरहर का उत्पादन अब तक ज्यादातर मौसम की मर्जी पर ही संभव रहा है। ऊंची जगहों पर ही इसका उत्पादन तब संभव है, जब बारिश कम हो। करीब दो दशक पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार, जहां दाल का मतलब ही अरहर होता है, वहां हर खेतिहर परिवार कम से कम हर साल अपनी खेती में से दलहन और तिलहन के लिए इतना रकबा सुरक्षित रखता था, ताकि उससे हुई पैदावार से उसके परिवार के पूरे सालभर तक के लिए दाल और तेल मिल सके। लेकिन उदारीकरण में कैश क्रॉप यानी नगदी खेती को जैसे – जैसे बढ़ावा दिया जाने लगा, दलहन और मोटे अनाजों के उत्पादन को लेकर किसान निरुत्साहित होने लगे। धान और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की सरकारी प्रोत्साहन पद्धति ने दलहन और तिलहन के उत्पादन से किसानों का ध्यान मोड़ दिया। मोटे अनाजों के साथ ही दलहन और तिलहन की सरकारी खरीद के अभी तक कोई नीति ही नहीं है। इसलिए देश में लगातार तिलहन और दलहन का उत्पादन घटता जा रहा है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि दालों और तेल के खाने के प्रचलन में कमी आई है। अपने देश में सालाना 220 से लेकर 230 लाख टन दाल की खपत का अनुमान है। इस साल सरकार ही मान चुकी थी कि दाल का उत्पादन महज 184.3 लाख टन ही होगा है। इसके ठीक पहले साल यह उत्पादन करीब 197.8 लाख टन था। इसलिए सरकार की भी जिम्मेदारी बनती थी कि वह पहले से ही करीब 45 लाख टन होने वाली दाल की कमी से निबटने के लिए कमर कस लेती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार और उसके विभाग तब जागे, जब जमाखोरों और दाल की कमी के चलते कीमतों का ग्राफ लगातार ऊंचा उठने लगा। 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में करीब 706 लाख हेक्टेयर में दालों की खेती की जाती हैं। जहां से करीब 615 लाख टन उत्पादन होता है। दलहन की उपज का वैश्विक आंकड़ा करीब 871 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। जबकि भारत में यह 580 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़ नहीं रहा है। जाहिर है कि बढ़ती जनसंख्या के मुताबिक दालों की पैदावार को लेकर जरूरी शोध और सरकारी प्रोत्साहन का अभाव है। साल 2005-06 के दौरान देश में दलहनों का कुल उत्पादन 134 लाख टन था जो 2006-07 में बढ़ कर 142 लाख टन और 2007-08 में बढ़कर 148 लाख टन हो गया।यह उत्पादन बढ़ने की बजाय वर्ष 2008-09 में यह 145.7 लाख टन तथा साल 2009-10 में 147 लाख टन ही रह गया। 2013-14 में यह बढ़ा जरूर..लेकिन फिर अगले ही साल गिर गया। जबकि इसकी तुलना में गेहूं और चावल की पैदावार लगाता बढ़ रही है। कृषि अनुसंधान परिषद के आंकड़े के मुताबिक 1965-66 के 99.4 लाख टन के मुकाबले 2006-07 में दलहन की पैदावार 145.2 लाख टन ही हुई। जबकि इसी दौरान गेहूं की पैदावार 104 लाख टन के मुकाबले 725 लाख टन और चावल की पैदावार 305.9 लाख टन के मुकाबले 901.3 लाख टन हो गई। यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि इस दौरान आबादी में करीब तीन गुना की बढ़ोत्तरी हुई। इस हिसाब से देखें तो मौजूदा सरकार की तुलना में ज्यादा सवाल से ज्यादा पूर्ववर्ती सरकारों पर उठते हैं। अभी तो कीमतों पर काबू पाने के लिए तत्काल आयात ही रास्ता है। लेकिन बढ़ती शाकाहारी आबादी की जरूरतों को देखते हुए सरकार को दलहन उत्पादन के लिए दीर्घकालीन उपाय करने होंगे। किसानों को गेहूं और धान के साथ ही दलहन और तिलहन की खेती के लिए भी प्रोत्साहित करना होगा। दलहन के लिए भी समर्थन मूल्य घोषित करने होगे और प्रति हेक्टेयर पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक शोध को भी बढ़ावा देना होगा।


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