उमेश चतुर्वेदी
(बिहार के 5वें दौर के मतदान के ठीक बाद यह लेख लिखा था..लेकिन अखबारों में जगह नहीं बना पाया..लेकिन अभी-भी यह प्रासंगिक है..आप पढ़ें और इस पर अपने विचार दें)
यूं तो मीठी जुबान ही आदर्श मानी जाती
है...लिहाजा वह लुभाती भी सबको है..लेकिन राजनीति में तेजाबी और तीखी जुबान भी खूब
पसंद की जाती है..तेजाबी जुबान का नतीजा मीठा नहीं होता तो शायद ही कोई राजनेता
उसका इस्तेमाल करता। चुनावी माहौल में अपने समर्थकों को गोलबंद करने में
तीखी,तेजाबी और धारदार जुबान शायद बड़ा हथियार साबित होती है..बिहार के मौजूदा
चुनाव में खासतौर पर जिस तरह लालू प्रसाद यादव ने तेजाबी जितना इस्तेमाल किया,
उतना शायद ही किसी और नेता ने किया हो...कभी लालू की खासियत उनकी हंसोड़ और एक हद
तक सड़कछाप जोकर जैसी भाषा होती थी..उनके मुखारविंद से जैसे ही वह जुबान झरने लगती
थी, माहौल में हंसी के फव्वारे छूट पड़ते थे.. संभवत: अपनी जिंदगी की सबसे अहम राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे लालू यादव के लिए मौजूदा
विधानसभा चुनाव शायद सबसे अहम रहा, इसलिए उन्होंने कुछ ज्यादा ही तीखे जुबानी
तीरों की बरसात की...इससे उनका मतदाता कितना गोलबंद हुआ, उनके समर्थकों की संख्या
में उनकी लालटेन को जलाने में कितना ज्यादा इजाफा हुआ, यह तो चुनाव नतीजे ही
बताएंगे। लेकिन उनकी जुबानी जंग और उसके खिलाफ गिरिराज सिंह जैसे नेताओं जो जवाबी
बयान दिए..उसने भारतीय राजनीति में गिरावट का जो नया इतिहास रचा, उसकी तासीर
निश्चित तौर पर नकारात्मक ही होगी..और वह देर तक महसूस की जाएगी।
बिहार चुनाव में जुबानों के तीर सबने छोड़े।
लेकिन बात का बतंगड़ खूब बनाया गया। मसलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लालू यादव
के बेटों –बेटी को लेकर हमले को लेकर संदर्भों से काटकर खूब उछाला गया। लालू यादव
ने इसे महिला अपमान से जोड़ने की कोशिश की। इतना ही नहीं, उनकी बेटी मीसा ने भी
प्रधानमंत्री के बयान में महिला अपमान का पुट ढूंढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
लालू यादव भी बिहारी महिलाओं के अपमान से प्रधानमंत्री के बयान को जोड़ने का हर
मुमकिन मौका तलाशते रहे। प्रधानमंत्री ने सिर्फ इतना ही कहा था कि लालू यादव ने
अपने बेटों और बेटी को सेट कर दिया। प्रधानमंत्री का सेट करने से मकसद बच्चों को
सेटल यानी स्थायी राह पर लगाने से था। लेकिन लालू कुनबे ने इस बयान को महिला अपमान
से जोड़ दिया। निश्चित तौर पर बयानों के तीरों के बीच मीडिया का बड़ा काम यही है
कि वह तीरों को रिपोर्ट करता रहे। लेकिन जब विश्लेषण या संपादकीय टिप्पणी करने का
मौका लाए तो उसे दोनों तरफ के बयानों की तेजाबी तासीर और उससे लोगों को होने वाले
नुकसान का आकलन अतीत की समान घटनाओं के संदर्भ में करे। लेकिन बिहार के विधानसभा
चुनावों में मीडिया ने अपनी यह भूमिका नहीं निभाई। अगर निभाई होती तो उसे 1990 में
मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव का वह बयान जरूर याद आता. जिसमें उन्होंने
बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह बनाने का वादा किया था। तब मीसा भी
कम से कम हाई स्कूल में पढ़ ही रही होंगी और उन्हें तब भी इतनी समझ हो गई होगी कि
उनके पिता का वह बयान नितांत महिला विरोधी था और वह हेमा मालिनी जैसी अदाकारा का
अपमान था।
जब बिहार जीतने का लक्ष्य हो तो पक्ष हो या
विपक्ष, दोनों तरफ से जुबानों के तीर छोड़े ही जाने थे। लेकिन उनके बीच भी मर्यादा
की रेखा होनी चाहिए थी। गिरिराज सिंह की तरफ से यह कहा जाना कि लालू यादव को
पाकिस्तान भेज दिया जाना चाहिए....अमित शाह का यह कहना कि बिहार में बीजेपी हारी
तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे – को भी उचित नहीं कहा जा सकता। एक हद तक भारतीय
जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के पाकिस्तान में पटाखे वाले बयान को माफ भी किया जा
सकता था। उसे महागठबंधन के नेताओं ने जितना तूल दिया, उसकी जरूरत नहीं थी। माना
जाता है कि अमित शाह ने आखिरी दौर में सीमांचल इलाके के मुस्लिम बहुल इलाकों में
अपने समर्थकों को गोलबंद करने के लिए यह बयान दिया। इसके बावजूद इसे स्वीकार नहीं
किया जा सकता। लेकिन नीतीश कुमार और लालू यादव की तरफ से जिस तरह की भाषा का
इस्तेमाल किया गया, वह भी सही नहीं था। लालू यादव के साथ जुबानी जंग में अगर कोई
कंधा से कंधा मिलाते नजर आया तो वह कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी थे।
उन्होंने जगह-जगह प्रधानमंत्री मोदी पर आक्रामक और अशालीन भाषा का इस्तेमाल किया।
अररिया की रैली में तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि अगर कांग्रेस में मोदी होता तो
उसे पंद्रह मिनट में चलता कर देते। राहुल के इस बयान से जहां उनका राजनीतिक स्तर
पता चला, साथ ही यह भी सामने आया कि उनकी राजनीतिक समझ कितनी कच्ची है। इससे जाहिर
हो गया कि अगर कांग्रेस लगातार डूब रही है तो इसकी बड़ी वजह राहुल गांधी का
कच्चापन ही है। राहुल ने ऐसा कह कर जाहिर कर दिया कि उनकी पार्टी में आंतरिक
लोकतंत्र नहीं है। कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र ना होने का जो आरोप विपक्ष लगाता
रहा है. राहुल यह भूल गए कि अपने इस बयान से वे मोदी का अपमान कम, विपक्षी आरोप को
कहीं ज्यादा मजबूती से साबित कर रहे थे। इसके साथ ही राहुल ने अपने इस बयान से
जाहिर कर दिया कि उनकी नजर में मोदी की इज्जत तीन कौड़ी की है। राजनीति में जिस
मुकाम पर राहुल या मोदी हैं, उस मुकाम पर पहुंचे लोग अगर ऐसी भाषा इस्तेमाल करेंगे
तो उसे सड़कछाप ही कहा जाएगा।
अगर ये भाषाएं सही ही होतीं तो निश्चित मानिए
चुनाव आयोग को सभी नेताओं को नोटिस नहीं जारी करना पड़ता। लेकिन बिहार के चुनाव
में चुनाव आयोग की सीमा भी उजागर हुई है। चुनाव आयोग की ताकीद के बावजूद लगातार
सड़कछाप बयानबाजी होती रही। नेता अपनी मर्यादा भूलकर सत्ता की कुर्सी के लिए
एक-दूसरे पर गलीज किस्म की भाषा के तीर फेंकते रहे। चुनाव आयोग सिर्फ नोटिस देने
तक ही सीमित रहा। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आचार संहिता लागू करने और उम्मीदवारों
से हलफनामे लेने पर चुनाव आयोग ने जोर देना शुरू किया। चुनाव आयोग की कड़ाई से
कहीं ज्यादा इन्हें लागू करने में आयोग के पीछे ताकत के साथ खड़ा सुप्रीम कोर्ट का
डंडा था। लेकिन बयानबाजी पर वैसा डंडा नजर नहीं आ रहा है। इसलिए ताकतवर नेता चुनाव
आयोग की ताकीदों से बेपरवाह नजर आ रहे हैं। इसीलिए सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष की
ओर से एक-दूसरे पर घटिया से घटिया बयानों के जरिए बिहार में आरोप-प्रत्यारोप लगाए
जाते रहे। ऐसे में सवाल यह है कि क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था और उसे संचालित
करने वाले राजनेता क्या इतने गिर गए हैं कि वे अदालत के डंडे के बिना सही और आदर्श
राह पर नहीं चल सकते। बिहार में बदजुबानी की जंग ने इस अवधारणा को ही साबित किया
है। बिहार चुनाव में जुबानी गंदगी का जोर इतना रहा कि जनता भी कहती पाई गई कि लगता
है कि मुहल्ले में किसी ने किसी की बकरी को मार दिया है या किसी की गाय किसी के
खेत में घुस गई है। राजनीति से हमेशा उच्च आदर्श और आचरण की उम्मीद की जाती है।
लेकिन बिहार के मौजूदा चुनाव में दोनों ही उम्मीदें धाराशायी हुई हैं। लेकिन इसका
मतलब यह नहीं कि राजनीतिक चेतना से लैस रहने वाला बिहार बदजुबानी की जंग को भुलाकर
आगे बढ़ जाएगा..निश्चित तौर पर कुछ रणबांकुरे ऐसे जरूर सामने आएंगे, जो सबसे बड़ी
अदालत और चुनाव आयोग के सामने बदजुबानी के आगे बेबस नजर आ रहे आयोग की समस्या को
ले जाएंगे। तब देश की सबसे बड़ी अदालत इस मसले पर जरूर विचार करेगी..चूंकि चुनाव
प्रक्रिया में अदालती हस्तक्षेप की प्रक्रिया को संविधान ने रोक रखा है। लिहाजा
अदालत चाहकर भी इसका संज्ञान नहीं ले सकती। तब तक अमर, आदर्श और सदाचरण की उम्मीद
लगाए रखे लोगों को धैर्य रखना ही होगा।
लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं।
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