उमेश चतुर्वेदी
राजनीति में एक कहावत धड़ल्ले से इस्तेमाल की
जाती है और इस बहाने राजनीतिक दल अपनी दोस्तियों और दुश्मनी को जायज ठहराते रहते
हैं। वह कहावत है – राजनीति में न तो दोस्ती स्थायी होती है और ना ही दुश्मनी।
चूंकि लोकतांत्रिक समाज में राजनीति का महत्वपूर्ण लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ
लोककल्याण ही हो सकता है, लिहाजा इन स्थायी दोस्तियों और दुश्मनियों का सिर्फ और
सिर्फ एक ही मकसद हो सकता है – राष्ट्रीय हित के परिप्रेक्ष्य में जन कल्याण।
लेकिन क्या बिहार की राजनीति में 1993 के पहले तक रंगा और बिल्ला के नाम से मशहूर
लालू और नीतीश की जोड़ी को मौजूदा परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार
पर तौला-परखा जा सकता है?
यह सवाल इसलिए ज्यादा अहम हो गया है कि कि लालू यादव ने जिस तरह अतीत में रंजन यादव, जगदानंद सिंह और रामचंद्र पूर्वे जैसे दिग्गज नेताओं को दरकिनार करके अपनी पत्नी राबड़ी देबी को मुख्यमंत्री का ताज सौंप दिया था, बिहार के नए जनादेश के बाद ठीक उसी अंदाज में उन्होंने एक बार फिर वैसा ही कदम उठाया है। अपनी पार्टी के मौजूदा दिग्गज और अरसे से राष्ट्रीय जनता दल के लिए प्रतिबद्ध अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे नेता को उन्होंने शपथ ग्रहण के दौरान अपने कम उम्र बेटों के पीछे कर दिया। इससे मोदी-अमित शाह की जोड़ी की शिकस्त देखने वाले भारत के कथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की पेशानी पर बल पड़ते नजर आने लगे हैं। चिंता यह भी जताई जाने लगी है कि लालू की अपने छोटे भाई नीतीश कुमार से कितने दिनों तक निभ पाएगी और बिहार में सुशासन की जो बयार कम से कम 2005 से नीतीश कुमार ने बहाई है, वह किस हद तक आगे बढ़ सकेगी।
सोशल मीडिया पर लालू के नौंवी फेल बेटे तेजस्वी
को उपमुख्यमंत्री बनाने और स्वास्थ्य के नजरिए से कमजोर दिखने वाले बड़े बेटे तेज
प्रताप को स्वास्थ्य मंत्री बनाए जाने को लेकर उठे सवालों का खुद तेजस्वी ने जवाब
दे दिया है। तेजस्वी ने यह जताने की कोशिश की है कि अतीत में उनके माता-पिता के राज
में जिस तरह बिहार चला था, अब वह उस राह पर नहीं लौटेगा। चूंकि जनमत अभी उनके पक्ष
में है। चुनाव नतीजे आए कुछ ही दिन हुए है, इसलिए राजनीति की रवायत के मुताबिक
उन्हें ऐसी सफाई और ऐसा बयान देना ही चाहिए। लेकिन समाजवादी धारा से निकली
राज्यस्तरीय पार्टियों का अब तक का जो अतीत रहा है, वह लोकतांत्रिक समाज के लिए
डरावना ही रहा है। समाजवाद की धारा से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व जमाने वाली
हरियाणा की इंडियन नेशनल लोकदल पार्टी और उसके मुखिया ओमप्रकाश चौटाला की सरकार
रही हो या समाजवाद की सबसे प्रखर धारा के तौर पर राज्यस्तरीय पार्टी बनी उत्तर
प्रदेश की समाजवादी पार्टी और उसके आकाओं की सरकार हो या फिर बिहार में लालू
यादव-राबड़ी देवी की सरकार या कर्नाटक में देवेगौड़ा-कुमारस्वामी की सरकार, सबके
मूल में वंशवाद का विस्तार और राज्य के संसाधनों पर सिर्फ अपने आकाओं के परिवार का
कब्जा ही रहा है। इस आधार पर बिहार में समाजवादी धारा से निकली नीतीश की पार्टी और
उनकी सरकार और उड़ीसा में नवीन पटनायक की सरकारों को वंशवाद और पारिवारिक
एकाधिकारवाद से मुक्त माना जा सकता है। इसीलिए बिहार में लालू और नीतीश की जोड़ी
को लेकर बुद्धिजीवियों और राजनीतिक जानकारों के एक धड़े में चिंता जताई जाने लगी
है।
बेशक 2009 में राष्ट्रीय जनता दल की बुरी पराजय
के बाद से लालू यादव राजनीति के हाशिए पर ही चले गए थे। रही-सही कसर उन्हें चारा
घोटाले में सजा सुनाए जाने के बाद पूरी हो गई थी। तब यह मानने वाले लोगों की कमी नहीं
थि कि अब लालू यादव का भारतीय और बिहार की राजनीति में उभर पाना आसान नहीं होगा।
बिहार में निश्चित तौर पर कांग्रेस उनकी प्रमुख सहयोगी थी। लेकिन जब से
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार की अदावत शुरू हुई और जनता दल यू
ने नीतीश की पहल पर भारतीय जनता पार्टी से अलग राह चुन ली, उसके बाद से ही नीतीश
कुमार पर कांग्रेस की गहरी निगाह लग गई थी। वैसे याद कीजिए 2010 के बिहार विधानसभा
चुनावों को। नतीजे आने के ठीक पहले राहुल गांधी ने तब नीतीश कुमार की प्रशंसा में
कशीदे पढ़े थे। जैसा कि अक्सर होता है, हर चुनाव के पहले आकलन और इस बहाने
अटकलबाजियों का खेल चालू हो जाता है। उस बार भी हो गया था और यह भी कहा जाने लगा
था कि नीतीश और सुशील मोदी की जोड़ी बिहार विधानसभा चुनावों में बहुमत हासिल नहीं
कर पाएगी। कांग्रेस को उम्मीद थी कि वह अपेक्षा के मुताबिक ज्यादा सीटें लाएगी।
बिहार में धर्मनिरपेक्षता की उम्मीद लगाए बैठे बौद्धिक जमात के एक हिस्से और
कांग्रेस को उम्मीद थी कि अगर कांग्रेस और नीतीश को मिलाकर बिहार के लिए जादुई
नंबर लायक सीटें मिल गईं तो राजनीतिक के शिलापट्ट पर नई इबारत लिखी जा सकेगी।
हालांकि ऐसा नहीं हुआ और तब भारतीय जनता पार्टी- जनता दल यू की जोड़ी ने भारी जीत
हासिल की थी। आज की लालू नीतीश की जोड़ी से भी कहीं ज्यादा। तब लालू यादव की सीटें
बमुश्किल दहाई का आंकड़ा छू पाई थीं। यह याद दिलाने का मकसद यह है कि 2010 से ही
कांग्रेस नीतीश कुमार को भारतीय जनता पार्टी से अलग करने की तैयारी में जुटी थी।
भारतीय राजनीति में कम ही लोग जानते हैं कि नीतीश कुमार और कांग्रेस के मौजूदा
महासचिव मोहन प्रकाश के राजनीतिक रिश्ते हमेशा मधुर रहे हैं। राजनीतिक आकाश में
ऊंचाई नापने के लिए उनकी राहें भले ही अलग रहीं लेकिन दोनों के आपसी रिश्ते हमेशा
उष्मावान रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनावों से पहले नीतीश से राहुल गांधी की
मुलाकात मोहन प्रकाश ने ही कराई थी। इस मुलाकात ने ही बिहार की राजनीति बदल कर रख
दी। लालू यादव इस मुलाकात से शुरू में दुखी थे। उनका दुख इसलिए भी स्वाभाविक था,
क्योंकि बिहार में कांग्रेस का साथ उन्होंने ही अब तक दिया था। इसी वजह से तब लालू
यादव को कहना भी पड़ा था कि अगर बिहार में सांप्रदायिकता को रोकने के लिए उन्हें
जहर भी पीना पड़े तो वे पीने से परहेज नहीं करेंगे। नीतीश को कांग्रेस की नजर में
तरजीह को उन्होंने जहर ही माना था। लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी लालू ने इस जहर
को पीने के बाद उसे गले में ही रोक लिया और नई परिस्थिति को अपने लिए बेहतरीन मौका
मान लिया।
बिहार में लालू-नीतीश की जीत के पीछे एक तबका
संघ प्रमुख मोहनराव भागवत के आरक्षण की समीक्षा के बयान को भी देख रहा है। चूंकि राजनीति
को फौरी बयानों और कदमों से नापने-तौलने और उसके आधार पर नतीजे निकालने की
पत्रकारीय परंपरा रही है, लिहाजा संघ प्रमुख के बयान को जीत का बड़ा जरिया उसी
नजरिए से बता दिया गया। लेकिन ऐसा नतीजा निकालने वाले भूल गए कि संघ का भी 90 साल
का इतिहास है। उसने झंझावात भी खूब झेले हैं। लिहाजा यह भी सोचना चाहिए था कि संघ
प्रमुख ने बिना विचार किए यह बयान नहीं दिया होगा। संघ प्रमुख को अंदाजा जरूर था
कि बिहार में इसका उलटा असर हो सकता है। लेकिन आरक्षण के बहाने वंशवाद की जो
विषबेलि आरक्षित वर्ग में भी फैल रही है, उसके खिलाफ कभी न कभी, किसी न किसी को
कदम उठाना ही था। संघ ने चूंकि यह कदम उठाया और इसे लेकर समाज में बहस की नई धारा
शुरू हुई। बेशक भारतीय जनता पार्टी और उसका गठबंधन बिहार में चुनाव हार गया है।
लेकिन यह भी सच है कि अब आरक्षण को लेकर शुरू हुई बहस थमेगी नहीं और सामाजिक बदलाव
में इसका दूरगामी असर जरूर नजर आएगा। साथ ही यह भी सच है कि लालू यादव ने इस बयान
को लपक लिया और पिछड़े और दलित वर्ग के जो फ्लोटिंग मतदाता थे, उन्हें रिझाने का
उन्हें बहाना मिल गया। लेकिन यह भी सत्य का एकांश ही है। अव्वल तो बिहार में जातीय
गणित ही ज्यादा हावी रहा। मुस्लिम, यादव, कुर्मी और कई जगह पर कुशवाहा वोटरों ने
जमकर लालू-नीतीश गठबंधन का साथ दिया। गैरपासवान दलित भी लालू-नीतीश की जोड़ी के
पक्ष में वोट डालने के लिए आगे आए। रही-सही कसर दाल और प्याज की महंगाई ने पूरी कर
दी। प्याज की महंगाई को बिहार में उतनी तवज्जो नहीं मिल सकती थी, लेकिन दाल की
महंगाई ने जरूर केंद्र सरकार को हलकान कर दिया। हालांकि दाल जैसी जिंस की आपूर्ति
का उतना ही दायित्व नीतीश सरकार का भी था। लेकिन नीतीश इस मसले को अपने सिर से
उतारने और केंद्र की मोदी सरकार पर थोपने में कामयाब रहे। निश्चित तौर पर उपभोक्ता
मामलों का मंत्री रहने के चलते दालों की कीमतों पर नियंत्रण की ज्यादा जिम्मेदारी
रामबिलास पासवान की रही। लेकिन रामबिलास का ध्यान इस पर नहीं रहा। गठबंधन में जिस
तरह चिराग पासवान ने अपनी हेकड़ी दिखाई, उससे भी भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले
गठबंधन का बंटाधार हुआ। भारतीय जनता पार्टी की तरफ से भी अपने कार्यकर्ताओं को
तवज्जो ना देने जैसी गलतियां हुईं और बिहार के स्वाभिमानी कार्यकर्ताओं में मायूसी
भी रही। लिहाजा बिहार जीतते-जीतते भारतीय जनता पार्टी रह गई।
भारतीय जनता पार्टी की हार से बिहार और बिहार के
बाहर के एक वर्ग के लोगों ने अगर निराशा का भाव है तो इसलिए नहीं कि भारतीय जनता
पार्टी हार गई। बल्कि उन्हें अतीत की लालू की गलतियां डराती हैं। उन्हें लगता है
कि लालू बाद में अपनी वाली करेंगे। चूंकि गठबंधन में उनकी पार्टी नंबर वन है।
लिहाजा देर-सबेर वे ऐसा कदम जरूर उठाएंगे, जिससे नीतीश की बेचारगी जाहिर होगी।
वैसे मंत्रिमंडल के गठन में नीतीश की बेचारगी झलकी भी। सार्वजनिक निर्माण,
स्वास्थ्य, सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग विभाग और उप मुख्यमंत्री का पद उन्हें
कमतर समझ और अनुभवहीन शख्सियतों को सौंपना पड़ा है। बेशक उनके पास गृह मंत्रालय
है। इस नाते वह भ्रष्टाचार पर लगाम लगाए रखने का संदेश देते रहेंगे। लेकिन यह भी
सच है कि दूसरे नंबर की पार्टी का नेता होने के नाते नीतीश एक हद से ज्यादा इस
मोर्चे पर कामयाब नहीं हो पाएंगे। छह महीने बाद जब नियुक्तियों और स्थानांतरण की
मांगे राष्ट्रीय जनता दल की तरफ से होंगी तो नीतीश के लिए उससे पार पाना आसान नहीं
होगा। वैसे भी राज्य की नौकरशाही डरी हुई है। उसे लालू राज याद है। जब नौकरशाहों
के साथ तकरीबन दुर्व्यवहार किया जाता था। ऐसी डरी हुई नौकरशाही से विकास का काम
करा पाना भी नीतीश के लिए आसान नहीं होगा। तीसरा संकट यह है कि जैसे ही उत्तर
प्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की सत्ता में वापसी होती है,
एक खास जातिवर्ग में अलग तरह का राजनीतिक और प्रशासनिक बोध बढ़ जाता है। उत्तर
प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार इस बोध से उपजी निराशा और सत्ताविरोधी माहौल
से जूझ रही है। बिहार में जीत का उफान थमने के बाद इस जातीय बोध के उभरने के पूरे
आसार हैं। नीतीश ने पहले दिन के कामकाज में पूरे राज्य के जिलों के डीएम और एसपी
को जिस तरह चेतावनी दी है, दरअसल उसका संकेत यही है कि बिहार में उभरने वाले खास
जातीयबोध के आशंकित संकट से कड़ाई से निबटा जाए। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा लालू
यादव और उनके लोग कितने दिन तक चलने देंगे।
नीतीश कुमार को निश्चित तौर पर इस बार अपने साथी
विजय चौधरी, बिजेंद्र यादव जैसे अनुभवी नेताओं को मंत्रिमंडल से बाहर रखने के लिए
मजबूर होना पड़ा है। पहले लालू के सिपहसालार और बाद में नीतीश की नाक के बाल रहे
श्याम रजक भी मंत्रिमंडल से बाहर हैं। जबकि लालू यादव की तरफ से कई अनुभवहीन लोग
मंत्रिमंडल में अहम विभाग संभाल रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक नीतीश को यह कीमत
विधानसभा स्पीकर का पद अपने पास रखने के लिए चुकानी पड़ी है। नीतीश कुमार हर हाल
में स्पीकर का पद अपने पास रखना चाहते थे। जबकि लालू की निगाह भी स्पीकर पद पर थी
और वे अपने वरिष्ठ साथी अब्दुल बारी सिद्दीकी को इस पद पर देखना चाहते थे। यानी
नीतीश को कुछ महीनों या कुछ साल बाद होने वाले संकट का आभास है। और हो भी क्यों
ना, आखिर इसी लालू के कुराज और अराजक व्यवहार से आजिज आकर नीतीश ने 1993 में अपनी
अलग राह चुनी थी। नीतीश को पता है कि बिहार में जब राजनीतिक संकट उनके साथियों की
तरफ से होगा तो स्पीकर पद उनका सहयोग करने में मदद करेगा। पिछली विधानसभा में
उन्होंने अपने हित में स्पीकर का इस्तेमाल किया भी और तत्कालीन स्पीकर उदय नारायण
चौधरी स्पीकर के विवेक की बजाय नीतीश के इशारे पर ज्यादातर फैसले लेते रहे। स्पीकर
पद पर जनता दल यू का कब्जा शायद लालू यादव के लिए चेतावनी और चाबुक का काम करेगा।
लालू-नीतीश के अपने अतीत से महागठबंधन को लेकर आशंका बनी रहेगी। फिलहाल उम्मीद की
जा सकती है कि बिहार की जनता का लालू यादव को ध्यान है। राघोपुर में उन्होंने कहा
भी है कि जिसने वोट दिया और जिसने नहीं दिया, सबका काम वे करेंगे। ऐसा करके दरअसल
वे यह संदेश ही देना चाहते हैं कि अतीत जैसे कदम उनकी तरफ से नहीं उठाए जाएंगे।
अगर वे अपनी इस टेक पर बने रहते हैं तो निश्चित तौर पर महागठबंधन बिहार में नीतीश
कुमार के विकासवाद को ही आगे बढ़ाएगा। चूंकि अभी शुरूआत है, इसलिए तमाम आशंकाओं को
दरकिनार करके उम्मीद पालना बेमानी भी नहीं है।
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