उमेश चतुर्वेदी

दिल्ली जैसे कास्मोपोलिटन शहर में जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय सही मायने में कास्मोपोलिटन संस्कृति का प्रतीक है। इस
विश्वविद्यालय में देश के कोने-कोने के अलावा दुनिया के तमाम देशों के भी छात्र
पढ़ते हैं। जाहिर है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में मार्क्सवाद की पूछ और परख
लगातार कम होती जा रही है। उदारीकरण की आंधी ने मार्क्सवादी विचार को सबसे ज्यादा
चोट पहुंचाई है। इसके बावजूद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय मार्क्सवादी विचारधारा
का गढ़ रहा है। इसकी स्थापन से ही यहां की छात्र राजनीति पर वर्षों से लगातार
मार्क्सवादी विचारधारा के दलों के छात्र संगठनों का कब्जा रहा है। अतीत में मशहूर
समाजवादी विचारक और कार्यकर्ता आनंद कुमार और पूर्व रेल राज्य मंत्री स्वर्गीय
दिग्विजय सिंह जैसे समाजवादियों और कांग्रेस की छात्र इकाई भारतीय राष्ट्रीय छात्र
संघ यानी एनएसयूआई को छोड़ दें तो यहां की छात्र राजनीति में वामपंथी विचारधारा का
दबदबा रहा है। नब्बे के दशक में भारतीय जनता पार्टी के उभार के बाद इस
विश्वविद्यालय में भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा वाले छात्र संगठन अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद ने अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिशें तेज तो की, लेकिन उसे सिर्फ एक
बार 2000 में संदीप महापात्रा के तौर पर महज एक वोटों से अध्यक्ष पद पर जीत हासिल
हुई थी। लेकिन एबीवीपी को बाद में इस लाल दुर्ग में इतना समर्थन हासिल नहीं हुआ कि
वह संदीप महापात्रा की जीत जैसा इतिहास दुहरा सके। इन अर्थों में देखें तो 2015 के
छात्र संघ चुनावों में एबीवीपी के सौरभ कुमार शर्मा की संयुक्त सचिव पद पर 28
वोटों से जीत भगवा खेमे की धमाकेदार जीत के तौर पर ही मानी जाएगी।