Friday, April 25, 2008
पुरोहित जी हुए `हाईटेक´
आपको याद होगा एक मोबाइल कंपनी का विज्ञापन – जिसमें एक पुरोहित जी काफी व्यस्त नजर आ रहे हैं। उनके पास शादियां कराने का इतना ठेका होता है कि कुछ शादियां वे एक मंडप में बैठे-बैठे मोबाइल फोन के जरिए ही करा देते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में इन दिनों विज्ञापन की तरह हूबहू नजारा तो नहीं दिख रहा है- लेकिन उसके जैसी हालत तो दिख ही रही है। इन दिनों लग्न का जोर है – सिर्फ अप्रैल महीने में ही शादी-विवाह का मुहूर्त है, लिहाजा एक ही गांव में एक ही दिन तीन-तीन, चार-चार शादियां हो रही हैं। जाहिर हैं इससे नाई और पुरोहित की मशरूफियत बढ़ गई है। लेकिन विकास की बाट जोह रहे पूर्वी इलाके में अभी – भी बिजली की जो हालत है , उसमें नेटवर्क मिल जाए तो गनीमत ही समझिए। लेकिन नाई और पुरोहित जी के हाथ में पंडोरा बाक्स ( पूर्व प्रधानमंत्री अटलविहारी वाजपेयी ने बीएसएनएल की मोबाइल सेवा का उद्घाटन करते वक्त इसे पंडोरा बॉक्स ही कहा था ) आ गया है। लिहाजा आप को दुआ करनी होगी कि आपके सात फेरे लेने से पहले तक मोबाइल का नेटवर्क दुरुस्त रहे। अगर कोई परेशानी हुई तो तय मानिए विवाह का मुहूर्त पंडित और हज्जाम को खोजने में ही गुजर जाएगा। संचार सुविधाओं के बढ़ते पांव का ही असर है कि विवाह मंडप में वैदिक मंत्रोंचार के बीच मोबाइल की घंटी घनघनाते लगती है। कोई कहीं रुककर इंतजार करने के चक्कर में नहीं रहा। सब अपने काम में मगन, जब जरूरत पड़े तो काल कीजिए। छोटे-मोटे रस्म तो मोबाइल पर ही पूरे हो रहे हैं। बदले मौसम में हर कोई बदला-बदला नजर आ रहा है। पवनी हाईटेक हो गए हैं, तो पुरोहित आनलाइन उपलब्ध है। पंडित लोगों की हालत यह है कि छोटे-मोटे रस्म मोबाइल पर ही पूरे कराए जा रहे हैं। आसानी से दो-तीन जगह का काम देख लेते हैं। यजमान भी हर छोटी-बड़ी मुश्किल पर पंडितजी की सलाह तुरंत लेते हैं। पहले पूजा-पाठ से घंटों पहले पंडित पहुंच जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। शादी-विवाह के मौके पर नाई से संपर्क बनाए रखते हैं और हमेशा तैयारी करते रहने के लिए निर्देश देते रहते हैं। सीताकुंड निवासी पंडित अक्षयवर नाथ दूबे बताते हैं कि मोबाइल के कारण काफी आसानी हो गई है। समय-समय पर सूचना मिलने के कारण ठीक वक्त पर पहुंच जाते हैं। विवाह मंडप में वे सारी तैयारी पहले से ही कराए रहते हैं और पंडितजी की `इंट्री´ बालीवुडिया फिल्मों के `मेन हीरो´ की तरह होती है। चौका पर बैठते ही इस बात की चिंता नहीं रहती कि तैयारी क्या हुई है। दनदनाते हुए मंत्रोच्चार शुरू कर देते हैं।
Thursday, April 24, 2008
बढ़ती जा रही है धड़कन ...
वाराणसी खंड निर्वाचन क्षेत्र से स्नातक विधायक के चुनाव को लेकर जिले में चहलकदमी तेज हो गई है। वक्त के साथ ही समर्थकों की धड़कने बढ़ती जा रही हैं। भाजपाई इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए कटिबद्ध है, तो कांगे्रस और सपा के लोग भी सीट हथियाने के लिए कोई कसर छोड़ने को तैयार नहीं।28 अप्रैल को होने वाले स्नातक एमएलसी चुनाव को लेकर तैयारियां तेज हो गईं हैं। सभी प्रत्याशियों के समर्थक मतदाताओं तक अपनी पहुंच बनाने में जुटे हैं। जीत-हार के दावों के साथ जोड़-तोड़ भी चल रही है। भारतीय जनता पार्टी ने निवर्तमान विधायक केदार नाथ सिंह को ही मैदान में उतारा है। पिछले चुनाव में वे द्वितीय वरीयता के मत से विजयी हुए थे। पार्टी के वोट बैंक के सहारे भाजपाई अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं। गत चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे पूर्व स्नातक एमएलसी और वाराणसी के सांसद डा. राजेश मिश्र के भाई बृजेश मिश्रा उनको इस बार भी कड़ी टक्कर दे रहे हैं। बैंक यूनियन के नेता श्री मिश्रा को बैंककर्मियों के सहयोग की भी उम्मीद है। कांगे्रस कार्यकर्ता भी लगातार जनसंपर्क में लगे हुए हैं। कांगे्रस के सूचना का अधिकार टास्क फोर्स ने बाबा हरदेव सिंह के पक्ष में हवा बनाना शुरू कर दिया है। पूर्व प्रशासनिक अधिकारी बाबा हरदेव के साथ नौकरशाहों का समर्थन भी मिल रहा है। प्रबुद्ध तबका उनके साथ लगा हुआ है। वहीं एससी कालेज छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष राम अवध शर्मा को छात्र-नौजवानों का सहयोग मिल रहा है। पूर्वांचल छात्र संघर्ष समिति के कार्यकर्ता भी राम अवध के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई जनपदों का भ्रमण कर चुके हैं। समाजवादी पार्टी ने अबकी बार मोहरा बदल कर मैदान मारने की कोशिश की है। पार्टी कार्यकर्ता सूबेदार सिंह की जीत सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं।
Wednesday, April 23, 2008
तो ये है बलिया की शिक्षा व्यवस्था !
बलिया को लोग बागी का उदाहरण देते हैं। उन्नीस सौ बयालिस की क्रांति और आजादी का ढिंढोरा पीटते -पीटते 66 साल बीत गए। लेकिन बलिया में भ्रष्टाचार इन दिनों जोरों पर है। पहले तो यहां के इंटर कालेजों के मैनेजरों और प्रिंसिपलों ने घूस लेकर लोगों को अध्यापक बनाने का वादा कर दिया। जिले के नामी-गिरामी नेता और पूर्व मंत्रियों के कब्जे वाले कॉलेजों और स्कूलों तक में ऐसा हुआ। अध्यापक तैनात भी कर दिए गए। उन्हें तनख्वाह दी भी गई- लेकिन ये तनख्वाह पहले से काम कर रहे अध्यापकों की भविष्यनिधि से गैरकानूनी तरीके से निकाल कर दी गई। जब इसका भंडाफोड़ हुआ तो गोरखधंधा रूका। अवैध तरीके से काम कर रहे सैकड़ों प्रशिक्षित बेरोजगार अध्यापक फिर से बेरोजगार हो गए और उनकी घूस दी हुई रकम भी डूब गई। लेकिन घूस लेने वाले अब भी अपनी चमकदार टाटा सूमो या बलेरो से बलिया का चक्कर लगाते नजर आ रहे हैं। अब ऩई बात ये है कि प्राइमरी स्कूलों में भी ऐसा ही कुछ गोरखधंधा चल रहा है। सूत्रों से पता चला है कि जिले भर में कम से कम पंद्रह प्राइमरी स्कूल अध्यापक बिना काम किए वेतन ले रहे हैं। कोई दिल्ली में पढ़ाई या रिसर्च कर रहा है तो कोई महिला अध्यापक अपने पति के साथ दूसरे राज्य में है। लेकिन उन लोगों का वेतन हर महीने मिल रहा है। सूत्रों का कहना है कि बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर की मिली भगत से ये सारा गोरखधंधा जारी है। कहा तो ये जा रहा है कि इसके लिए जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को हर महीने पगार की एक निश्चित रकम दी जाती है।
Sunday, April 6, 2008
जड़ समाज में बदलाव कब !
उमेश चतुर्वेदी
सन 2000 की बात है। दीपावली के ठीक पहले मैं जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष शरद यादव के एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए मैं आज़मगढ़ गया था। उस वक्त मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता काम करता था। अपना काम खत्म करने के बाद हम पत्रकारों की टोली सड़क मार्ग के जरिए वाराणसी लौट आई। वहां से बाकी लोग आज के कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन प्रकाश के साथ दिल्ली लौट आए। लेकिन मैं बलिया जिले के अपने गांव जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वाराणसी से सुबह करीब पौने पांच बजे एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। उसमें सवार होने स्टेशन पहुंचा तो भारी भीड़ से साबका हुआ। किसी तरह खड़े होने की जगह मिली। ट्रेन में भीड़ इतनी की पैर रखने को जगह नहीं...हर स्टेशन पर रूकते –रूकाते ट्रेन करीब दो घंटे बाद गाजीपुर पहुंची। वहां भी भीड़ का एक रेला ट्रेन में चढ़ने के लिए उतावला। इसी बीच एक औरत छठ का डाली-सूपली लिए हमारे डिब्बे में चढ़ी। उसे चढ़ाने उसके दो किशोर उम्र से युवावस्था की ओर बढ़ रहे बेटे आए थे। उन्हें अपनी मां को ट्रेन में सम्मानित जगह दिलानी थी और अपनी ताकत भी दिखानी थी। इसका मौका उन्हें मिल भी गया- सामान रखने के रैक पर एक लड़का किसी तरह सिमटा-लेटा दिख गया। उसे लड़कों ने खींच कर नीचे गिरा लिया और बिना पूछे-जांचे उसकी लात-जूतों और बेल्ट से पिटाई शुरू कर दी। इस बीच जगह बन गई और अपनी मां को बिठा कर वे चलते बने। ट्रेन खुलने के बाद पता चला कि मां तो अकेले ही छपरा में अपने मायके जा रही है। अब पिट चुके लड़के और उसके साथ चल रहे बड़े भाई ने कहा कि अब मां जी अगर आपको हम ट्रेन से फेंक दें तो ...उस औरत के पास कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर पहले तक अपने बेटों की वीरता पर बागबाग होने वाली उस औरत को मानना पड़ा कि उसके बेटों ने गलती की थी।
दरअसल ऐसे नजारे पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिख जाएंगे। जहां दिखावे के लिए अपनी ठसक बनाए और बचाए रखने की कोशिश की जाती है। लोगों को परीक्षाओं में नकल कराने से लेकर लाइन से पहले टिकट लेने तक ये ठसक हर जगह दिखती है। इसके लिए मार-पिटाई भी करने से लोगों को गुरेज नहीं होता। ठसक और भदेसपन का ये नजारा इन दिनों पूर्वांचल में बैंकों के एटीएम में भी दिख रहा है। आमतौर पर एटीएम में एक आदमी के अलावा दूसरे के जाने की मनाही है। लेकिन बलिया और गाजीपुर ही क्या – जो इस नियम पर अमल कर सके। वहां लोग एटीएम के एयरकंडिशनर की हवा खा रहे होते हैं और पैसा निकालने वाला पसीने से तरबतर होते हुए पैसा निकाल रहा होता है। इस खतरे के साथ कि कभी –भी उसका पैसा कहीं छीना जा सकता है या उसका पिन चुराया जा सकता है। पूर्वांचल और बिहार के रेलवे स्टेशनों पर आपको एक और नजारा दिख सकता है। यहां महिलाओं के लिए बने वेटिंग रूमों में पुरूष बाकायदा आराम फरमाते दिख जाते हैं। रेलवे प्रशासन भी उन्हें नहीं रोकता। वहां आने वाली महिलाओं पर इन पुरूषों की नजरें कैसी रहती होंगी – इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। बलिया में जब भी मैं खुद अपनी पत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंचा हूं तो यही नजारा मिला है और हर बार रेलवे वालों को धमका कर महिला वेटिंग रूम खाली कराना पड़ा है।
पढ़ाई-लिखाई से तो इस इलाके के अधिसंख्य छात्रों का साबका लगातार दूर होता जा रहा है। ऐसे में बीए और एमए करके ये लोग पिता और भाई की सहायता से नकल के सहारे पास होकर दिल्ली-मुंबई पहुंचते हैं तो उनके हाथ ज्यादातर दरवानी और सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी लगती है। लोगों को सलाम करते जिंदगी गुजर जाती है। लेकिन तुर्रा ये कि जब ये ही लोग अपनी माटी की ओर लौटते हैं तो उनकी ठसक और अकड़ वापस लौट आती है। उनकी ये ठसक देख दिल्ली-मुंबई का आईएएस भी शरमा जाए।
क्रमश:
सन 2000 की बात है। दीपावली के ठीक पहले मैं जनता दल यूनाइटेड अध्यक्ष शरद यादव के एक कार्यक्रम की कवरेज के लिए मैं आज़मगढ़ गया था। उस वक्त मैं दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर संवाददाता काम करता था। अपना काम खत्म करने के बाद हम पत्रकारों की टोली सड़क मार्ग के जरिए वाराणसी लौट आई। वहां से बाकी लोग आज के कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता मोहन प्रकाश के साथ दिल्ली लौट आए। लेकिन मैं बलिया जिले के अपने गांव जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। वाराणसी से सुबह करीब पौने पांच बजे एक पैसेंजर ट्रेन चलती है। उसमें सवार होने स्टेशन पहुंचा तो भारी भीड़ से साबका हुआ। किसी तरह खड़े होने की जगह मिली। ट्रेन में भीड़ इतनी की पैर रखने को जगह नहीं...हर स्टेशन पर रूकते –रूकाते ट्रेन करीब दो घंटे बाद गाजीपुर पहुंची। वहां भी भीड़ का एक रेला ट्रेन में चढ़ने के लिए उतावला। इसी बीच एक औरत छठ का डाली-सूपली लिए हमारे डिब्बे में चढ़ी। उसे चढ़ाने उसके दो किशोर उम्र से युवावस्था की ओर बढ़ रहे बेटे आए थे। उन्हें अपनी मां को ट्रेन में सम्मानित जगह दिलानी थी और अपनी ताकत भी दिखानी थी। इसका मौका उन्हें मिल भी गया- सामान रखने के रैक पर एक लड़का किसी तरह सिमटा-लेटा दिख गया। उसे लड़कों ने खींच कर नीचे गिरा लिया और बिना पूछे-जांचे उसकी लात-जूतों और बेल्ट से पिटाई शुरू कर दी। इस बीच जगह बन गई और अपनी मां को बिठा कर वे चलते बने। ट्रेन खुलने के बाद पता चला कि मां तो अकेले ही छपरा में अपने मायके जा रही है। अब पिट चुके लड़के और उसके साथ चल रहे बड़े भाई ने कहा कि अब मां जी अगर आपको हम ट्रेन से फेंक दें तो ...उस औरत के पास कोई जवाब नहीं था। थोड़ी देर पहले तक अपने बेटों की वीरता पर बागबाग होने वाली उस औरत को मानना पड़ा कि उसके बेटों ने गलती की थी।
दरअसल ऐसे नजारे पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिख जाएंगे। जहां दिखावे के लिए अपनी ठसक बनाए और बचाए रखने की कोशिश की जाती है। लोगों को परीक्षाओं में नकल कराने से लेकर लाइन से पहले टिकट लेने तक ये ठसक हर जगह दिखती है। इसके लिए मार-पिटाई भी करने से लोगों को गुरेज नहीं होता। ठसक और भदेसपन का ये नजारा इन दिनों पूर्वांचल में बैंकों के एटीएम में भी दिख रहा है। आमतौर पर एटीएम में एक आदमी के अलावा दूसरे के जाने की मनाही है। लेकिन बलिया और गाजीपुर ही क्या – जो इस नियम पर अमल कर सके। वहां लोग एटीएम के एयरकंडिशनर की हवा खा रहे होते हैं और पैसा निकालने वाला पसीने से तरबतर होते हुए पैसा निकाल रहा होता है। इस खतरे के साथ कि कभी –भी उसका पैसा कहीं छीना जा सकता है या उसका पिन चुराया जा सकता है। पूर्वांचल और बिहार के रेलवे स्टेशनों पर आपको एक और नजारा दिख सकता है। यहां महिलाओं के लिए बने वेटिंग रूमों में पुरूष बाकायदा आराम फरमाते दिख जाते हैं। रेलवे प्रशासन भी उन्हें नहीं रोकता। वहां आने वाली महिलाओं पर इन पुरूषों की नजरें कैसी रहती होंगी – इसका अंदाजा लगाना आसान होगा। बलिया में जब भी मैं खुद अपनी पत्नी के साथ रेलवे स्टेशन पर पहुंचा हूं तो यही नजारा मिला है और हर बार रेलवे वालों को धमका कर महिला वेटिंग रूम खाली कराना पड़ा है।
पढ़ाई-लिखाई से तो इस इलाके के अधिसंख्य छात्रों का साबका लगातार दूर होता जा रहा है। ऐसे में बीए और एमए करके ये लोग पिता और भाई की सहायता से नकल के सहारे पास होकर दिल्ली-मुंबई पहुंचते हैं तो उनके हाथ ज्यादातर दरवानी और सिक्युरिटी गार्ड की ही नौकरी लगती है। लोगों को सलाम करते जिंदगी गुजर जाती है। लेकिन तुर्रा ये कि जब ये ही लोग अपनी माटी की ओर लौटते हैं तो उनकी ठसक और अकड़ वापस लौट आती है। उनकी ये ठसक देख दिल्ली-मुंबई का आईएएस भी शरमा जाए।
क्रमश:
Monday, March 31, 2008
मिट्टी पुकार रही है ...
उमेश चतुर्वेदी
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....
होली के मौके पर इस बार गांव जाना हुआ। बलिया जिले के बघांव गांव में जन्म लेने के बाइस साल तक लगातार जीना-मरना, शादी-विवाह, तीज-त्यौहार मनाते हुए अपने गांव, अपनी माटी और अपनी संस्कृति से जुड़ा रहा। तब लगता ही नहीं था कि कभी गांव के बिना अपनी जिंदगी गुजर भी पाएगी। कभी सोचा भी नहीं था कि गांव से बाहर रह कर नौकरी-चाकरी करूंगा। लेकिन 1993 में ये सारी सोच धरी की धरी रह गई- जब भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश मिल गया। इसके बाद गांव सिर्फ मेरी यादों में ही बसा रह गया। ऐसा नहीं कि गांव जाना नहीं होता- लेकिन अधिक से अधिक हफ्ते-दस दिनों के लिए। लेकिन हर बार जब गांव जाता हूं तो अपनी माटी और उसकी दुर्दशा देखकर गहरी निराशा भर आती है। पत्रकारिता के सिलसिले में मेरा देश के दूसरे हिस्सों से भी साबका रहता ही है। लेकिन भरपूर प्रतिभाओं, उपजाऊ मिट्टी और गंगा-घाघरा का मैदानी इलाका होने के बावजूद विकास की दौड़ में बलिया आज भी कोसों पीछे है। पच्चीस साल तक बलिया से चंद्रशेखर सांसद रहे। यहीं से चुनाव जीतकर उन्होंने देश का सर्वोच्च प्रशासनिक – प्रधानमंत्री का पद संभाला। लेकिन बलिया में आज भी ठीक सड़कें नहीं हैं। सड़क एक साल पहले ही बनीं, लेकिन अब उन पर जगह-जगह पैबंद दिखने लगा है। यानी सड़कें टूट रहीं हैं। जिला मुख्यालय गंदगी के ढेर पर बजबजा रहा है। जिला मजिस्ट्रेट और एसपी दफ्तर के सामने भी गंदगी का बोलबाला है। पुलिस वाले गमछा ओढ़े अपनी ड्यूटी वैसे ही बजा रहे हैं- जैसे बीस-पच्चीस साल पहले बजाया करते थे। कौन कितना घूस कमा रहा है और किसने कितना दांव मारा, इसकी खुलेआम चर्चा हो रही है और लोग इसे सकारात्मक ढंग से ले रहे हैं। आलू की पैदावार तो हुई है – लेकिन उसे वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। मजबूर लोग इसे कोल्ड स्टोरेज में रखना चाहते हैं – लेकिन कोल्ड स्टोरेज वालों की दादागिरी के चलते किसान परेशान हैं। लेकिन उनकी सुध लेने के लिए न तो नेता आगे आ रहे हैं ना ही अधिकारी। लेकिन बलिया में कोई खुसुर-फुसुर भी नहीं है। कभी-कभी ये देखकर लगता है कि क्या इसी बलिया ने 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ सफल बगावत की थी। आखिर क्या होगा बलिया का ...क्या ऐसे ही चलती रहेगी बलिया की गाड़ी...बीएसपी के सभी आठ विधायकों के लिए भी बलिया के विकास की कोई दृष्टि नहीं है। जब दृष्टि ही नहीं है तो वे विकास क्या खाक कराएंगे। ऐसे में मुझे लगता है कि प्रवासी बलिया वालों को ही आगे आना होगा। चाहे वे प्रशासनिक ओहदों पर हों या भी राजनीतिक या निजी सेक्टर में ..सबको एक जुट होकर आगे आना होगा, कुछ वैसे ही –जैसे पंजाब और गुजरात के प्रवासी अपनी माटी का कर्ज उतारने के लिए आगे आए। बोलिए क्या विचार है आपका....
Friday, March 14, 2008
कब थमेंगी जहरखुरानी की घटनाएं
रेल सुरक्षा तंत्र की तमाम कोशिशों के बावजूद ट्रेनों में जहरखुरानी की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। जहरखुरानी की बढ़ती घटनाओं से रेल यात्रियों में दहशत है। वहीं रेलवे की कार्य पद्धति पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं।गुरुवार को मुंबई से कमाकर घर लौट रहा यात्री जहरखुरानों के हत्थे चढ़ गया। आजमगढ़ जिले के जहानागंज निवासी राजेश कोल्हापुर में किसी कंपनी में काम करता है। राजेश कई महीने कमाने के बाद ट्रेन से अपने घर आ रहा था। वाराणसी में जहरखुरानी गिरोह की उस पर नजर पड़ गई। बकौल राजेश जहरखुरानों ने आत्मीयता जताते हुए अपने को उसी के गांव के आस पास का होना बताया। इसके बाद सभी ने चाय पी और भटनी की तरफ आने वाले 550 डाउन पैसेंजर ट्रेन में सवार हो गए। वाराणसी के एकाध स्टेशन आगे बढ़ने के बाद राजेश बेहोश हो गया। रात होने के चलते सहयात्रियों ने राजेश को निद्रामग्न होना जानकर ध्यान नहीं दिया। इस बीच जहरखुरानों ने राजेश की अटैची पर हाथ साफ कर दिया। राजेश के सोए रहने पर सहयात्रियों को शंका हुई। उन्हें माजरा समझते देर नहीं लगी और अचेतावस्था में स्थानीय रेलवे स्टेशन पर उतार दिया। जीआरपी की मदद से अद्धüमूछिüत राजेश को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद सीयर ले जाया गया। राजेश के पाकेट में मिली डायरी के आधार पर उसके परिजनों को फोन कर बुलाया गया। राजेश की अटैची में पांच हजार रुपये नकद, कपड़े व अन्य जरूरी सामान थे। कुछ ऐसी ही घटना करीब पखवारेभर पहले मनियर थाना क्षेत्र के पिलुई निवासी छोटे लाल कुर्मी के साथ हुई थी। बंबई से कमाकर आ रहे छोटेलाल को जहरखुरानों ने वाराणसी रेलवे स्टेशन परिसर में ही अपना शिकार बना लिया था। उसके पास से नकदी समेत सभी सामान ले लिया गया था। बड़ी मुश्किल से छोटेलाल चार दिन बाद अपने गांव पहुंचा था। ऐसी घटनाएं रोज घट रही हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हो रहे हैं। लेकिन बिहारी रेल मंत्री होने के बावजूद इस समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वैसे ही लालू यादव गपोड़शंखी हैं और उन्हें गपोड़ करने में ही मजा आता है। चूंकि इसका कोई राजनीतिक माइलेज उन्हें मिलता नजर नहीं आ रहा है - लिहाजा उनका ध्यान इस ओर नहीं है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा- कब तक निरीह और गरीब बिहारी-पूरबिया इसका शिकार बनते रहेंगे।
Wednesday, March 5, 2008
पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा सकता है गंगा एक्सप्रेस वे
उमेश चतुर्वेदी
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे ने उत्तर प्रदेश के सियासी हलके में ही हलचल नहीं मचा रखी है। इस एक्सप्रेस वे ने पर्यावरण और खेती के जानकारों के पेशानी पर भी बल ला दिए हैं। लगातार बढ़ रही राज्य की जनसंख्या के लिए वैसे ही खाद्यान्न की कमी होती जा रही है। पूरे देश में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में लगातार हो रही गिरावट के चलते खेती की उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। वित्त मंत्री पी चिदंबरम के इस साल के बजट पेश करने के बाद ये सवाल तेजी से उभरा है। माना जा रहा है कि खेती की विकास दर चार फीसदी तक लाए बगैर देश में खाद्यान्न की कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा। इस साल के आर्थिक सर्वे के मुताबिक खेती-किसानी की मौजूदा विकास दर महज दो दशमलव चार फीसदी है। ऐसे में आप सोच सकते हैं कि देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश की क्या हालत होगी।
गंगा एक्सप्रेस वे पर काम शुरू हुआ तो पहले ही चरण में राज्य की करीब चालीस हजार एकड़ रकबा खेती से अलग हो जाएगा। आजादी के बाद ये पहला मौका होगा- जब सूबे की एक साथ इतनी ज्यादा जमीन खेती से अलग हो जाएगी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग की गंगा प्रयोगशाला का आकलन है कि अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो अगले एक दशक में सूबे की एक लाख हेक्टेयर और जमीन खेती से अलग हो जाएगी। जिसके चलते राज्य में करीब पचास लाख टन अनाज की पैदावार कम होगी। यानी सूबे को खाद्यान्न की कमी के लिए तैयार रहना होगा। वैसे भी पिछले कई सालों से राज्य में अनाज की पैदावार महज चार लाख टन पर स्थिर है। लेकिन जिस गति से सूबे की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है - उसके चलते आने वाले दिनों में ये अनाज नाकाफी होगा। खुद राज्य सरकार का ही मानना है कि दो हजार चौबीस-पच्चीस तक राज्य की जनसंख्या पच्चीस करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। और अगर एक्सप्रेस वे बन गया तो एक लाख चालीस हजार एकड़ जमीन खेती से वंचित हो जाएगी। जिसके चलते करीब सिर्फ एक सौ अठारह लाख टन अनाज ही पैदा होगा। यानी जनसंख्या तो बढ़ जाएगी - लेकिन उसके भोजन के लिए अनाज की पैदावार कम हो जाएगी। लेकिन राज्य सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि इतनी बड़ी जनसंख्या को वह क्या खिलाएगी। क्योंकि राज्य में बंजर जमीनों की तादाद भी वैसी नहीं है कि उनका खेती के लिए विकास करके पैदावार की कमी को पूरा किया जा सके।
इतिहास गवाह है - अपने उपजाऊपन के चलते ही गंगा के बेसिन में सभ्यताएं पलीं और बढ़ीं। चाहे मौर्य वंश का शासन रहा हो या फिर गुप्त वंश का स्वर्णकाल ...अपनी जलोढ़ मिट्टी और उपजाऊपन के चलते सभ्ययताओं का विकास यहां हुआ। लेकिन इस एक्सप्रेस वे ने अब इतिहास की इस धारा पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद तक गंगा में बाढ़ भले ही नहीं आती हो - लेकिन इस इलाके में होने वाली पैदावार गवाह है कि इलाके की मिट्टी कितनी उपजाऊ है। लेकिन वहीं वाराणसी से जब गंगा में बाढ़ आने लगती है तो लोग भले ही परेशान होते हैं - लेकिन वे राहतबोध से भी भरे रहते हैं। क्योंकि बाढ़ के साथ गंगा नई मिट्टी लाती है। जिसमें गेहूं-चना-मसूर जैसे खाद्यान्न के साथ ही परवल, करेला, तरबूज और खरबूजा भरपूर पैदा होते हैं - वह भी बिना खाद-माटी के।
सुजलाम-सुफलाम की भारतीय संस्कृति का आधार वैसे भी खेती ही रही है। आज के दौर में भले ही औद्योगीकरण का बोलबाला बढ़ रहा है। लेकिन गंगा किनारे का व्यक्ति अब भी अपनी खेती के सांस्कृतिक पहचान से दूर नहीं हो पाया है। शायद यही वजह है कि गंगा प्रयोगशाला के संस्थापक प्रोफेसर यू के चौधरी और उनकी टीम गंगा को लेकर भावुक हो उठे हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक अपनी रिपोर्ट के बाद सत्ता और सरकार को सौंप कर अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ लेते हैं। लेकिन प्रोफेसर चौधरी सोनिया गांधी , अटल बिहारी वाजपेयी और मायावती समेत तमाम नेताओं से इस एक्सप्रेस वे को रोकने की मांग कर रहे हैं।
गंगा एक्सप्रेस वे से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। गर्मियों में जब पूरा देश पानी के लिए हाहाकार कर रहा होता है। भूमिगत जल का स्तर नीचे चला जाता है। इस पूरे इलाके में साफ भूमिगत जल मौजूद रहता है। लेकिन गंगा एक्सप्रेस वे के बाद इस पर भी खतरा बढ़ सकता है। एक्सप्रेस वे के दक्षिणी किनारे में कटाव बढ़ेगा - जाहिर है इसके चलते जमीन में दलदल बढ़ने की भी आशंका है। इसके चलते भी खेती की जमीन में कमी आएगी। वैसे जाड़ों के दिनों में यहां देश-विदेश से सारस, टीका औल लालसर जैसे सुंदर पक्षी आते रहे हैं। भीड़भाड़ से वे भी परहेज करेंगे। यानी एक्सप्रेस वे के बाद जीवनदायिनी गंगा अपनी पुरानी भूमिका में नहीं रह जाएगी। यही वजह है कि इलाके के बुजुर्गों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन बुजुर्गों की चिंताएं सियासी दांवपेोंचों में उलझ कर रह गई हैं।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
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