विकास के जिस मॉडल के खिलाफ पूंजीवाद के ही उत्स देश अमेरिका में जब आक्युपाई वाल स्ट्रीट यानी वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो आंदोलन चल रहा है, ठीक उन्हीं दिनों भारत सरकार ने खुदरा में विदेशी निवेश को मंजूरी देकर देश में नई बहस को जन्म दे दिया है। यह संयोग ही है या सोची समझी तैयारी कि कुछ ही दिनों बाद पश्चिमी दुनिया का सबसे बड़ा त्यौहार क्रिसमस आने वाला है। , फ्रांस की काफरू, जर्मनी की मेट्रो, ब्रिटेन की टेस्को तथा फ्रांस की स्वार्ज जैसी विशाल कंपनियों के लिए मनमोहन सरकार का यह क्रिसमस तोहफा है। अपने अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह तोहफा देने में 14 साल का लंबा वक्त लग गया। यह सच है कि 1997 में पहली बार खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को मौका देने के विचार की शुरूआत हुई। कहने के लिए कहा जा सकता है कि तब मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री नहीं थे। लेकिन उस वक्त जो वित्त मंत्री थे, वे पी चिदंबरम यूपीए एक की सरकार के वित्त मंत्री थे और मौजूदा मंत्रिमंडल में वे गृह जैसा महत्वपूर्ण विभाग संभाल रहे हैं। बहरहाल संयुक्त मोर्चा सरकार के वाणिज्य मंत्री ने छह देशों के वाणिज्य मंत्रियों के साथ कैश एंड कैरी की थोक व्यापार में जो बीजारोपण किया था, वह बीज आखिरकार चौदह साल बाद फलीभूत हो ही गया है।
Thursday, December 1, 2011
Saturday, November 12, 2011
मनियर की टिकुली की खोने लगी चमक
बिरहा गायक बालेसर का एक गीत है नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के...लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि बलिया का मनियर कस्बा भी टिकुली यानी बिंदी उद्योग में जाना-माना नाम था। लेकिन यूपी सरकार की उपेक्षा और आधुनिकता के दबाव में यह उद्योग अपनी चमक खो रहा है। इस पर अमर उजाला ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसी रिपोर्ट का संपादित अंश यहां पेश किया जा रहा है।
सुहागिनों के माथे की बिंदी कभी देश के विभिन्न महानगरों में अपनी चमक से बलिया जिले का नाम रोशन करती थी लेकिन अब यह चमक धुंधली पड़ती जा रही है। मनियर नगर पंचायत में तैयार की गई बिंदी-टिकुली यूपी, बिहार ही नहीं विभिन्न प्रांतों के साथ महानगरों तक भेजी जाती थी। लेकिन यह कारोबार इन दिनों अपनी पहचान खोता जा रहा है। अब इस के अस्तित्व को बचाने के लिए किसी रहनुमा की दरकार है।
Friday, November 11, 2011
कब लगेगी ऐसे हादसों पर रोक
उमेश चतुर्वेदी
उलटबांसियों में जीने की आदत जितनी भारतीय समाज को है...उतनी दुनिया के शायद ही किसी समाज में होगी..यूरोप और अमेरिका में भयानक मंदी के दौर में भी भारतीय अर्थव्यस्था ना सिर्फ बची हुई है...बल्कि आगे बढ़ रही है। दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर चल रहे भारत में आज भी एक वर्ग ऐसा है, जिसे अंधविश्वास के हद तक धार्मिक कर्मकांड आकर्षित करते हैं। इसके लिए उन्हें जान भी चुकानी पड़े तो वह कीमत छोटी होती है। उदारीकरण के दौर में आज की शिक्षा और मौजूदा अर्थव्यवस्था आधुनिकता का नया पैमाना माने जा रहे हैं। लेकिन इसी दौर में ऐसे भी लोग रहते हैं, जिन्हें अपनी जान कौड़ियों के मोल किसी धार्मिक कर्मकांड में गंवानी पड़ती है। हरिद्वार के गायत्री परिवार का दावा नए युग निर्माण और नई समाज व्यवस्था बनाने का है।
उलटबांसियों में जीने की आदत जितनी भारतीय समाज को है...उतनी दुनिया के शायद ही किसी समाज में होगी..यूरोप और अमेरिका में भयानक मंदी के दौर में भी भारतीय अर्थव्यस्था ना सिर्फ बची हुई है...बल्कि आगे बढ़ रही है। दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की राह पर चल रहे भारत में आज भी एक वर्ग ऐसा है, जिसे अंधविश्वास के हद तक धार्मिक कर्मकांड आकर्षित करते हैं। इसके लिए उन्हें जान भी चुकानी पड़े तो वह कीमत छोटी होती है। उदारीकरण के दौर में आज की शिक्षा और मौजूदा अर्थव्यवस्था आधुनिकता का नया पैमाना माने जा रहे हैं। लेकिन इसी दौर में ऐसे भी लोग रहते हैं, जिन्हें अपनी जान कौड़ियों के मोल किसी धार्मिक कर्मकांड में गंवानी पड़ती है। हरिद्वार के गायत्री परिवार का दावा नए युग निर्माण और नई समाज व्यवस्था बनाने का है।
Thursday, September 22, 2011
राजनीतिक संभावनाओं के बीच मोदी का सद्भाभावना मिशन
उमेश चतुर्वेदी
अपने उपवास के आखिरी दिन नरेंद्र मोदी ने यूं तो बहुत कुछ कहा...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उन्हें सूक्त वाक्यों की तरह लिया...उन्हीं में से एक बात थी कि उपवास खत्म हो गया लेकिन उनका सद्भावना मिशन जारी रहेगा....नरेंद्र मोदी जैसा नेता ऐसा कह रहा हो तो निश्चित तौर पर उनके मन में इस मिशन के लिए एक खाका होगा..उसकी रणनीति होगी और इसी रणनीति के सहारे वे अपने मिशन और खुद को आगे भी बढ़ाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय राजनीति के सर्वोच्च पद यानी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वे इसी मिशन के सहारे पहुंच पाएंगे...क्या उनके लिए सद्भावना मिशन की राह इतनी ही आसान होगी...जैसा कम से कम मीडिया के आधुनिक माध्यम दिखा रहे हैं...
अपने उपवास के आखिरी दिन नरेंद्र मोदी ने यूं तो बहुत कुछ कहा...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उन्हें सूक्त वाक्यों की तरह लिया...उन्हीं में से एक बात थी कि उपवास खत्म हो गया लेकिन उनका सद्भावना मिशन जारी रहेगा....नरेंद्र मोदी जैसा नेता ऐसा कह रहा हो तो निश्चित तौर पर उनके मन में इस मिशन के लिए एक खाका होगा..उसकी रणनीति होगी और इसी रणनीति के सहारे वे अपने मिशन और खुद को आगे भी बढ़ाएंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय राजनीति के सर्वोच्च पद यानी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वे इसी मिशन के सहारे पहुंच पाएंगे...क्या उनके लिए सद्भावना मिशन की राह इतनी ही आसान होगी...जैसा कम से कम मीडिया के आधुनिक माध्यम दिखा रहे हैं...
Monday, August 29, 2011
कहवां से आवेला सिन्होरवा-सिन्होरवा
भोजपुरी और मैथिली इलाके में शादी के वक्त सिंदूर रखने के लिए जो सिंदूरदान आता है...वह जब तक पति जिंदा रहता है...तब तक रहता है। उसे अहिवात यानी सुहाग का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए इस सिंदूरदान यानी सिन्होरा को महिलाएं अपनी जिंदगी की तरह प्यार करती है। यह सिन्होरा हर जगह नहीं बनता...कभी बलिया का हनुमानगंज इलाका पूरे देश में अपने सिन्होरा निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। लेकिन सरकारी उपेक्षा और उदारीकरण ने इस उद्योग की कमर तोड़ दी है। पेश है बलिया से सुधीर तिवारी की रिपोर्ट
'कहवां से आवेला सिन्होरवा-सिन्होरवा भरल सेनुर हो, ए ललना कहंवा से आवेला पियरिया-पियरिया लागल झालर हो'। यह मंगल गीत जब सुहागिन औरतें गाती हैं तो उन्हे शायद यह नहीं पता होता कि सुहाग का प्रतीक 'सिन्होरा' सेन्दुरौटा कहां और कैसे बनता है। जिला मुख्यालय से करीब पांच किमी दूर सिकंदरपुर मार्ग पर स्थित हनुमानगंज में 'सिन्होरा' बनाने का लघु उद्योग है। यहां किसी जमाने में मुम्बई तक के व्यापारी आते थे लेकिन अब बदलते जमाने की मार इस धंधे पर भी पड़ गयी है।
शासन स्तर से इस धंधे में जुड़े लोगों को कोई सहायता नहीं मिलती है। इस व्यवसाय में जुड़े लोगों को सबसे अधिक दिक्कत कच्चे माल की होती है। यहां पर सिन्होरा, मौर एवं दूल्हे के सिर पर सजने वाली पगड़ी का निर्माण किया जाता है।
'कहवां से आवेला सिन्होरवा-सिन्होरवा भरल सेनुर हो, ए ललना कहंवा से आवेला पियरिया-पियरिया लागल झालर हो'। यह मंगल गीत जब सुहागिन औरतें गाती हैं तो उन्हे शायद यह नहीं पता होता कि सुहाग का प्रतीक 'सिन्होरा' सेन्दुरौटा कहां और कैसे बनता है। जिला मुख्यालय से करीब पांच किमी दूर सिकंदरपुर मार्ग पर स्थित हनुमानगंज में 'सिन्होरा' बनाने का लघु उद्योग है। यहां किसी जमाने में मुम्बई तक के व्यापारी आते थे लेकिन अब बदलते जमाने की मार इस धंधे पर भी पड़ गयी है।
शासन स्तर से इस धंधे में जुड़े लोगों को कोई सहायता नहीं मिलती है। इस व्यवसाय में जुड़े लोगों को सबसे अधिक दिक्कत कच्चे माल की होती है। यहां पर सिन्होरा, मौर एवं दूल्हे के सिर पर सजने वाली पगड़ी का निर्माण किया जाता है।
Wednesday, August 24, 2011
क्यों रंग गई नई पीढ़ी अन्ना के रंग में
उमेश चतुर्वेदी
अन्ना के आंदोलन के विविध आयाम हैं...देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को खड़ा करने के अलावा अन्ना के आंदोलन ने एक और सीख दी है। उसने बताया है कि अगर साख वाला व्यक्ति किसी को अगुआई करे तो उसके साथ आमतौर पर उच्छृंखल समझी जाने वाली पीढ़ी भी अनुशासन का पाठ पढ़ने लगती है। जिन लोगों ने 1990 में पूरे उत्तर भारत में फैले आरक्षण विरोधी आंदोलन को देखा है, उन्हें पता है कि तब क्रोध और क्षोभ से भरे नौजवानों ने राष्ट्रीय और निजी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचाया था। तब आंदोलनकारी युवाओं की एक ही कोशिश होती थी कि कब मौका मिले और अपना गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकालें।
अन्ना के आंदोलन के विविध आयाम हैं...देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को खड़ा करने के अलावा अन्ना के आंदोलन ने एक और सीख दी है। उसने बताया है कि अगर साख वाला व्यक्ति किसी को अगुआई करे तो उसके साथ आमतौर पर उच्छृंखल समझी जाने वाली पीढ़ी भी अनुशासन का पाठ पढ़ने लगती है। जिन लोगों ने 1990 में पूरे उत्तर भारत में फैले आरक्षण विरोधी आंदोलन को देखा है, उन्हें पता है कि तब क्रोध और क्षोभ से भरे नौजवानों ने राष्ट्रीय और निजी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचाया था। तब आंदोलनकारी युवाओं की एक ही कोशिश होती थी कि कब मौका मिले और अपना गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकालें।
Wednesday, August 17, 2011
क्या अब भी सुनाई देगी किसी ‘युवा तुर्क’ की आवाज
उमेश चतुर्वेदी
अन्ना के आंदोलन के साथ जिस तरह का सलूक सरकार कर रही है, उससे साफ है कि कांग्रेस एक बार फिर 37 साल पुरानी रवाययत को ही दोहरा रही है। तब जयप्रकाश के आंदोलन को भी कुछ इसी अंदाज में दबाने की कोशिश हुई थी। जैसा अन्ना के आंदोलन के साथ किया जा रहा है। लेकिन तब कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत जैसे युवा तुर्क के तौर पर विख्यात समाजवादी भी थे। इनमें से एक चंद्रशेखर ने साहस दिखाकर इंदिरा गांधी को समझाने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था - ' जेपी संत हैं. संत से मत टकराइए।
अन्ना के आंदोलन के साथ जिस तरह का सलूक सरकार कर रही है, उससे साफ है कि कांग्रेस एक बार फिर 37 साल पुरानी रवाययत को ही दोहरा रही है। तब जयप्रकाश के आंदोलन को भी कुछ इसी अंदाज में दबाने की कोशिश हुई थी। जैसा अन्ना के आंदोलन के साथ किया जा रहा है। लेकिन तब कांग्रेस में मोहन धारिया, चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत जैसे युवा तुर्क के तौर पर विख्यात समाजवादी भी थे। इनमें से एक चंद्रशेखर ने साहस दिखाकर इंदिरा गांधी को समझाने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था - ' जेपी संत हैं. संत से मत टकराइए।
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उमेश चतुर्वेदी भारतीय विश्वविद्यालयों को इन दिनों वैचारिकता की धार पर जलाने और उन्हें तप्त बनाए रखने की कोशिश जोरदार ढंग से चल रह...
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उमेश चतुर्वेदी 1984 के जुलाई महीने की उमस भरी गर्मी में राहत की उम्मीद लेकर मैं अपने एक सहपाठी मित्र की दुकान पर पहुंचा। बलिया स्टेशन पर ...