यह लेख अमर उजाला कॉपैक्ट में प्रकाशित हो चुका है।
उमेश चतुर्वेदी
गुजरात में विधानसभा चुनावों की आहट के बीच दिल्ली में
बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन हो और उसमें मोदी का नाम आदर्श
और मानदंड के तौर पर पार्टी आलाकमान पेश ना करे तो हैरत होनी ही चाहिए। क्योंकि अब
तक ऐसे सम्मेलनों में उन्हें ऐसा ही अटेंशन मिलता रहा है। लेकिन इस बार ना तो
बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने गुजरात को मॉडल राज्य और वहां के शासन से सीखने की
दूसरे मुख्यमंत्रियों को नसीहत दी और ना ही दूसरे नेताओं ने। आडवाणी तो वैसे भी
पहले से ही मोदी से नाराज बताए जा रहे हैं।
तो क्या मान लिया जाय कि मोदी का कम से
भारतीय जनता पार्टी के आलाकमान से उतरने लगा है या फिर कोई और बात है कि मोदी के
प्रति बीजेपी आलाकमान का रवैया बदलने लगा है। मोदी विरोधियों को इसमें भी मोदी के
विरोध की उम्मीद नजर आने लगी है। लेकिन यहां सवाल यह भी है कि क्या मोदी को नहीं
मिले इस अटेंशन से मोदी विरोधियों को खुश होना चाहिए या फिर उन्हें सधे अंदाज में
दिल्ली की गद्दी की दावेदारी की तरफ बढ़ाने के लिए बीजेपी आलाकमान ने नई रणनीति
बनाई है।
2014 के संसदीय संग्राम के लिए तकरीबन तय माना जा रहा है कि
बीजेपी की तरफ से नरेंद्र मोदी ही अगुआई करेंगे। संघ प्रमुख मोहन राव भागवत ने भले
ही बिहार के शासन मॉडल की प्रशंसा की हो, लेकिन उन्होंने गुजरात के मॉडल को कभी
नकारा भी नहीं। कई बार राजनीति में चार कदम आगे बढ़ाने के लिए रणनीतिक तौर पर दो
कदम पीछे भी खींचने पड़ते हैं। खुद संघ परिवार में भी माना जा रहा है कि मोदी की
अगुआई पर उठते सवालों की तासीर को एक हद तक ठंडा करने और बहस का फोकस दूसरी तरफ
करने के लिए मोहन राव भागवत ने जानबूझकर ऐसा बयान दिया। जिस तरह भागवत के बयान का
संघ ने खंडन करने में देर नहीं लगाई, उससे साफ है कि संघ की मंशा क्या है। दरअसल
संघ की सबसे बड़ी परेशानी मोदी की अगुआई को लेकर बीजेपी में बढ़ी अंदरूनी गुटबाजी है।
बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में ताकतवर कई बड़े नेता अब भी मोदी की अगुआई को
स्वीकार करते नजर नहीं आ रहे हैं। निश्चित तौर पर इसके लिए खुद मोदी की कार्यशैली
ही जिम्मेदार है। उनसे नाराज होकर गुजरात बीजेपी के ताकतवर नेता केशुभाई पटेल
पार्टी को अलविदा कह चुके हैं। गुजरात के दूसरे नेताओं में भी उन्हें लेकर असंतोष
कम नहीं है। संजय जोशी प्रकरण से भी मोदी की छवि को नुकसान ही हुआ। यहां यह बताना
जरूरी नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके प्रमुख मोहन राव भागवत को यह
पता नहीं है। लेकिन शायद संघ को भी लगता है कि नरेंद्र मोदी संभवत: बीजेपी के इकलौते
नेता हैं, जिनकी वजह से 2014 में वोट खींचे जा सकते हैं। शायद यही वजह है कि संघ
उनके नाम पर एक हद तक सहमत हो गया है। लेकिन यह भी सच है कि जब तक पार्टी का पूरा
सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक मोदी की कामयाबी संदिग्ध ही रहेगी। संघ भी जानता है कि
बिना गठबंधन के 2014 का संग्राम पार नहीं पाया जा सकता। लिहाजा अब उसने भी मोदी की
अगुआई को लेकर तूल देना कम कर दिया है। निश्चित तौर पर बीजेपी का आलाकमान भी इसी
संघ के इसी संदेश पर आगे बढ़ता दिखना चाह रहा है। शायद यही वजह है कि मोदी को रोल
मॉडल बनाने की इस बार कोशिश नहीं हुई। इससे निश्चित तौर पर दूसरे मुख्यमंत्रियों
में कम से निराशा तो नहीं जाएगी।
वैसे पार्टी के अंदरूनी हलकों में यह मानने वाले भी कम नहीं
हैं कि दोबारा अध्यक्ष पद हासिल करने की तैयारियों में जुटे नितिन गडकरी की दोबारा
ताजपोशी की राह में उनकी मोदी के प्रति पक्षधरता ना सिर्फ बाधा बन सकती है, बल्कि
पार्टी के अंदरूनी विवाद को हवा भी दे सकती है। वैसे यह जगजाहिर है कि मोदी भी गडकरी
की सत्ता की खुलेआम अवहेलना करते रहे हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के चुनावों
से दूर रहकर मोदी ने गडकरी की अवहेलना ही की थी। इन सबके बावजूद मोदी के राष्ट्रीय
कद के चलते गडकरी चाह करके भी कुछ कर पाने से खुद को लाचार पाते रहे हैं। माना तो
यह भी जा रहा है कि मोदी को लेकर एनडीए और बीजेपी में उठते सवालों ने गडकरी को मौका
दे दिया। जिसकी वजह से इस बार बीजेपी शासित राज्यों को मोदी मॉडल का सुशासन
स्थापित करने की सलाह ना उन्होंने दी और ना ही किसी दूसरे नेता ने ऐसा करने की
जरूरत समझी।
दरअसल बीजेपी आलाकमान के सामने दोहरी चुनौती है। उसे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना के मुताबिक मोदी की स्वीकार्यता पार्टी और
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में बढ़ाना है। ऐसे में आलाकमान फिलहाल ऐसे मुद्दों
को उछालने से बचने की कोशिश कर रहा है, जिससे अंदरूनी विवादों और खींचतान को हवा
मिले। फिर कुछ ही महीने बाद गुजरात में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। बीजेपी की
बड़ी चुनौती गुजरात बीजेपी से बड़े नेताओं के बाहर जाने के बावजूद गुजरात में लगातार
तीसरी बार अपनी सरकार बनाना भी है। बीजेपी को पता है कि अगर गुजरात का गढ़ ढहा तो
वह 2014 में चुनौती देने की हालत में भी नहीं रहेगी। गुजरात की वापसी ही 2014 की
लड़ाई के मनोबल को तय करेगी। शायद यही वजह है कि कांग्रेस ने गुजरात में मोदी को
चुनौती देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। कांग्रेस को भी पता है कि अगर
उसने गुजरात में सेंध लगा दी तो बीजेपी का उबर पाना संभव नहीं होगा। इसलिए उसने
कांशीराम राणा, केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता, गोरधन झड़फिया जैसे बीजेपी के पूर्व
नेताओं से पींगे बढ़ानी शुरू कर दी है। अगर इन नेताओं की साझी कोशिश से गुजरात
बीजेपी का थोड़ा-थोड़ा आधार भी छिटका तो तय मानिए कि बीजेपी का गढ़ ढहते देर नहीं
लगेगी। शायद यही वजह है कि पार्टी आलाकमान अब अपने किसी नेता को नाराज नहीं करना
चाहता। वह पूरा जोर गुजरात में वापसी पर लगाना चाहता है। उसे पता है कि गुजरात में
जीत का लक्ष्य बिना अंदरूनी एकता के हासिल नहीं किया जा सकता। इन दिनों पार्टी का
अंदरूनी माहौल जैसा है, उसमें कम से कम एकता का दिखावा भी गैरविवादित मुद्दों के
जरिए ही किया जा सकता है। मोदी का गुणगान ना होना एक हद तक इस दिखावे के लिए भी
जरूरी है।
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
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