- संशोधन पास कराने की चुनौतीऔर उसे चलाने वाले प्रमुख दलों के 2014 का महासमर बेहद चुनौतीपूर्ण लग रहा है। नई आर्थिकी के दबाव में आए उदारीकरण में वैसे भी सरकारी नौकरियां बेहद कम हैं। इसके बावजूद चाहे जिस भी विचारधारा की सरकारें रही हों, उन्हें अपने वोटरों को रिझाने के लिए नौकरियों में आरक्षण का लालीपॉप दिखाना आसान काम लगता रहा है। प्रोमोशन में आरक्षण देने का विचार सबसे पहले उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते मायावती ने दिया। जिसे सुप्रीम कोर्ट नकार चुका है। मायावती संसद के पिछले सत्र में इसे लेकर हंगामा भी खड़ा कर चुकी हैं। बहरहाल इस मसले को बढ़ते देख कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार पर दबाव बढ़ा और उसने संविधान में संशोधन को ही मंजूरी दे दी। लेकिन इस संशोधन प्रस्ताव के बाद यह तय है कि प्रोमोशन में पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण देने की वकालत की जाएगी। समाजवादी पार्टी का विरोध ना सिर्फ पिछड़े वर्ग को ध्यान में रखकर है, बल्कि उसे उत्तर प्रदेश के अगड़े वोटरों के हाथ से निकलने का डर सताने लगा है। बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी की मजबूरी यह है कि उसके वोटर कहीं पिछडे वर्ग के हैं तो कहीं अनुसूचित वर्ग के। फिर उसके पास अगड़े वर्ग का व्यापक वोट बैंक भी है। लिहाजा उसकी हालत सांप-छछूंदर जैसी हो गई है। लेकिन एक बात तय है कि प्रस्तावित संविधान संशोधन का साथ देना उसकी राजनीतिक मजबूरी है। हालांकि अपने अगड़े आधार को बचाए रखना उसके लिए चुनौती होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट मंजूरी दे देगा। इस सवाल की वजह यह है कि प्रस्तावित संशोधन में संविधान के अनुच्छेद 16(4) से ‘पर्याप्त प्रतिनिधित्व’ और अनुच्छेद 355 से ‘प्रशासन की कार्यक्षमता बनाए रखने’ जैसे शब्द हटाने हैं। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट दोनों ही अनुच्छेदों में फेरबदल को संवैधानिक ढांचे में बदलाव बता चुका है। दूसरा सवाल यह है कि नौकरियों में आरक्षण तक को मंजूर कर चुके अगड़े तबके के लोग क्या प्रशासन में इस नई व्यवस्था को आसानी से करने देंगे। क्या इस फैसले से देश के मौजूदा सामाजिक ढांचा और प्रशासनिक व्यवस्था पर असर नहीं पड़ेगा। जाहिर है कि ये खतरे बड़े हैं और इन सबके जवाब ढूंढ़े बिना अगर इस संवैधानिक संशोधन को पारित कराया गया तो चुनौतियों से निबट पाना बेहद मुश्किल होगा।
Wednesday, September 5, 2012
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