चिंता से परे है हिंदी का मामला
राजकिशोर 
हिंदी
 का रुतबा घट रहा है क्योंकि जो दुनिया को समझने और अपने को व्यक्त करने के
 लिए हिंदी बोलते या लिखते हैं, उनका रुतबा कम हो रहा है। पचास साल बाद 
हिंदी सिर्फ आर्थिक दृष्टि से अविकसित लोगों की भाषा रह जाएगी। वे कौन 
होंगे जो अविकसित रह जाएंगे? वही, जिनकी कीमत पर व्यवस्था एक छोटे-से वर्ग 
का श्रृंगार करती आई है
कुछ
 हैं, जो खुश हैं कि हिंदी आगे बढ़ रही है। हिंदी के अखबार बढ़ रहे हैं। कई
 ऐसे शहर हैं, जहां से हिंदी के चार-पांच अखबार निकलते हैं और वे सभी 
कमोबेश बिक जाते हैं। 
टेलीविजन पर हिंदी का दबदबा बढ़ता जा रहा है। अगर आप 
बड़े टीवी व्यवसायी बनना चाहते हैं तो आप को हिंदी में कोई न कोई चैनल 
चलाना ही होगा। रेडियो के एफएम चैनलों में हिंदी की संख्या सब से ज्यादा 
है। हिंदी फिल्में धड़ल्ले से बिजनेस कर रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी
 हिंदी का महत्त्व स्वीकार करती हैं और अपने उत्पादों का नाम हिंदी में 
रखने लगी हैं तथा हिंदी में उनके विज्ञापन भी तैयार करवाती हैं। संसद में 
हिंदी ने स्थायी रूप से अपनी जगह बना ली है। ऐसे खुशफहम लोगों से मैं बहस 
करना नहीं चाहूंगा। ये वे जंतु हैं, जिन्हें चारों ओर हरा ही हरा दिखाई पड़
 रहा है। इनकी मन:स्थिति उन लड़कों जैसी है जिन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी 
में कोई डिग्री ली और जो किसी बड़ी कंपनी द्वारा चुन लिए गए। या जिन्हें 
पहले ही प्रयास में विदेश में नौकरी मिल गई। इन्हें लगता है कि भारत तेजी 
से प्रगति कर रहा है। आजकल मंदी की र्चचा है लेकिन देश का एक बड़ा वर्ग है,
 जो जन्म से ही मंदी से जूझता रहता है। उसके लिए तेजी-मंदी का कोई मतलब 
नहीं है। हां, वह एक छोटे-से वर्ग की बढ़ती हुई ऐयाशी को जरूर दंग हो कर 
देखता रहता है। इस वर्ग की निगाहें आसमान पर हैं तथा पैर सोने की खान पर। 
इस वर्ग की आम राय है कि हिंदी का भविष्य है। लेकिन इस भविष्य में साझीदारी
 का अवसर उन्हें ही दिया जा रहा है, जो गरीबों में भी गरीब हैं। जिनके पास 
भी थोड़ा साधन है, वह अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही 
भेजता है। प्रेमचंद को हम लोग त्यागी और तपस्वी मानते हैं लेकिन उनके दोनों
 बेटे ने अंग्रेजी में पढ़ाई की थी। हिंदी में पाठकों की संख्या घट रही है 
या अपेक्षित संख्या में बढ़ नहीं रही है, इसके बहुत-से कारण होंगे। मेरी 
समझ से, एक पक्का कारण यह है कि जिन परिवारों में हिंदी की पुस्तकें पढ़ी 
जाती थीं, उनके बुजुर्ग कम होते जा रहे हैं और उनके युवा सदस्य चेतन भगत 
जैसे लेखकों के दीवाने हैं। हिंदी की कमाई खानेवाला वर्ग हिंदी की हालत पर 
रो जरूर लेता है पर अपनी संतान को अंग्रेजी माध्यम स्कूल में ही भेजता है। 
इसके पीछे कुछ और नहीं, यथार्थ का दबाव है। हिंदी पढ़ा कर अपने बच्चों का 
भविष्य कौन खराब करे? इसी शिक्षित वर्ग के कुछ सदस्य समय-समय पर हिंदी की 
दुर्दशा पर लिख कर अपना गम गलत करते रहते हैं। हिंदी दिवस और हिंदी सप्ताह 
का कटुतम मजाक उड़ानेवाला वर्ग यही है। इस वर्ग से भी बहस करने में मेरी 
कोई रु चि नहीं है। रु चि इसलिए नहीं है कि इस वर्ग की रु चि सिर्फ विधवा 
विलाप में है। यह जो बोलता है, उस पर विश्वास नहीं करता और जिस पर विश्वास 
करता है, उसे बोलता नहीं है। ऊपर-ऊपर से यह वर्ग ‘इंडिया शाइनिंग’ वाले उस 
वर्ग की आलोचना करता रहता है, जिसकी बहुत संक्षिप्त र्चचा ऊपर की गई है 
लेकिन दोनों वर्गों के लक्ष्य में कोई अंतर नहीं है। हिंदी- प्रेमियों में 
विदेश जाने की जैसी भूख मैंने देखी है, वैसी किसी अन्य वर्ग में नहीं देखी।
 पहला वर्ग प्रकारांतर से हिंदी का मजाक उड़ाता है, तो दूसरा वर्ग हिंदी के
 जनाजे में शामिल है। यह वर्ग जानता है कि इस जनाजे को रोका नहीं जा सकता। 
इसलिए फिक्र कर-करके आंखें सुजाने से क्या फायदा? यह भी बहुत साफ दिखाई 
पड़ता है कि जिस रास्ते से हिंदी का जनाजा आज निकल रहा है, उसी रास्ते पर 
कल बांग्ला, मराठी, कन्नड़ आदि भाषाओं के धूसर ताबूत दिखाई देंगे। लेकिन यह
 नहीं माना जाना चाहिए कि हिंदी की यह दुर्दशा अपने आप परिस्थितियों के 
दबाव में या प्रगति की कीमत के तौर पर हो रही है तथा इसके लिए कोई दोषी 
नहीं है। मैं इसे सहज मृत्यु मानने से इनकार करता हूं। दुनिया की एक बड़ी 
सचाई यह है कि कोई चीज हमेशा वह नहीं होती जो वह दिखाई पड़ती है। कायदे से,
 हिंदी को अभी तक केंद्र सरकार की भाषा बन जाना चाहिए था। उसे कई राज्यों 
की राजभाषा हो जाना था। इसी तरह, अन्य भारतीय भाषाओं को अपने राज्यों की 
भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाना चाहिए था। इनके बीच अंग्रेजी की वृद्धि
 के लिए कोई जगह ही नहीं थी। अंग्रेजी लोग या तो साहित्य प्रेम के कारण 
पढ़ते या फिर वे जिनका वैदेशिक मामलों से संबंध है। लेकिन अंग्रेजी का 
वर्चस्व बढ़ रहा है। हालत यह है कि जो अंग्रेजी नहीं जानता, उसे मूर्ख माना
 जाता है। सामाजिक सम्मान का संबंध ज्ञान या चरित्र से नहीं, सिर्फ भाषा से
 रह गया है। मेरे विचार से, हिंदी की हालत पर चिंता करना इसलिए बेकार है कि
 यह सिर्फ भाषा का मामला है ही नहीं। हर भाषा का एक अपना परिवेश होता है। 
अंग्रेजी अगर अंडमान-निकोबार के लोगों की भाषा होती तो आज दुनिया भर में 
उसका डंका न बज रहा होता। इसी तरह, हिंदी का रु तबा घट रहा है क्योंकि जो 
दुनिया को समझने और अपने को व्यक्त करने के लिए हिंदी बोलते या लिखते हैं, 
उनका रु तबा कम हो रहा है। 50 साल बाद हिंदी सिर्फ आर्थिक दृष्टि से 
अविकसित लोगों की भाषा रह जाएगी। वे कौन होंगे जो अविकसित रह जाएंगे? वही, 
जिनकी कीमत पर वर्तमान व्यवस्था एक छोटे-से वर्ग का श्रृंगार करती आई है और
 उसकी फिक्र में आज दुबली होती जा रही है। यानी हिंदी तथा अन्य देशी भाषाएं
 वे पेड़ हैं जिन्हें राजपथ के विस्तार के लिए कटना ही है। इसलिए बचाने की 
कोशिश करने पर सिर्फ हिंदी नहीं बचेगी, उस पूरे परिवेश को बचाना होगा जिसकी
 नसों में हिंदी प्रवाहित होती है। मामला हिंदी का है ही नहीं, मामला तो 
करोड़ों हिंदी भाषियों की जिंदगी का है। पेड़ बचेगा तो फल बहुत लगेंगे।
साभार-राष्ट्रीय सहारा (१६ सितम्बर २०१२)

No comments:
Post a Comment