उमेश चतुर्वेदी
अपने
समाज को लोकतांत्रिक बताते नहीं अघाते...लेकिन हकीकत तो यह है कि अब भी सिर्फ अपनी
राजनीतिक व्यवस्था ही लोकतांत्रिक ढांचे को अख्तियार कर पाई है। कुछ मसलों में अब
भी वह लोकतांत्रिक धारा को अपनाने की प्रक्रिया में भी है। लेकिन अपना समाज और
समाज में विमर्श की आधारभूमि अब भी लोकतांत्रिक नहीं हो पाई है। इसलिए कई बार
आरक्षण जैसे मसले को लेकर जो विमर्श है, उसमें लोकतांत्रिक उदारता गायब है। इसलिए
यहां जब भी कोई आरक्षण के मौजूदा ढांचे और उससे होने वाले फायदे-नुकसान पर सवाल
उठाता है, वैसे ही उसे प्रतिगामी या रूढ़िवादी ठहरा दिया जाता है। यही वजह है कि
ऐसे मसलों पर आमतौर पर वैसी खुली वैचारिकता नहीं दिख पाती, जिसकी उम्मीद की जाती
है।
यही वजह है कि आरक्षण जैसे मसलों पर प्रतिगामिता की आशंका वाले विचार जाहिर
करना खतरनाक भी है। चूंकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर संवैधानिक संशोधन वाला
विधेयक संसद में पेश किया जा चुका है और इसे लेकर बीएसपी के सांसद अवतार सिंह और
समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल में हाथापाई तक हो चुकी है। इसलिए अब इस
मसले पर किंतु-परंतुओं के साथ विमर्श जरूरी हो भी जाता है।
आरक्षण
के समर्थकों का दावा है कि अगर पदोन्नतियों में आरक्षण दिया गया तो सदियों से
परेशान और वंचित तबके के साथ न्याय होगा। बेशक इससे न्याय होने की एक अवधारणा पूरी
होती नजर आ सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि संविधान ने आरक्षण की व्यवस्था
अनंत काल तक के लिए नहीं की है। इसका मतलब यह है कि अगर आजादी के पैंसठ सालों में
आरक्षण के बावजूद वंचित तबका अगड़े वर्ग के साथ बराबरी के स्तर पर नहीं आ पा सका है,
तो निश्चित तौर पर इसके लिए जवाबदेह पारंपरिक मनु व्यवस्था या जमींदारी प्रथा
नहीं, बल्कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था है। लेकिन पूरे विमर्श से यह सवाल गायब ही
है। अव्वल तो होना यह चाहिए था कि राजनीतिक व्यवस्था को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया
जाता तो उल्टे वंचित और अगड़े तबके के बीच दरार डालने की कोशिश हो रही है। जहां तक
दलित वर्ग की बात है तो वह तो इसी में मगन है कि उसके लिए राजनीतिक तबके ने अपने
खजाने खोल दिए हैं। बेशक सामान्य और पदोन्नतियों में आरक्षण का फायदा वंचित तबके
को ही मिल रहा है या मिलने वाला है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि 121 करोड़ की
जनसंख्या वाले देश में सरकारी नौकरियां हैं ही कितनी। केंद्र और राज्य सरकारों को
मिला दिया जाय तो पूरे देश में करीब तीन करोड़ ही सरकारी नौकरियां हैं। ऐसे में
सवाल है कि जिस देश में नौजवान तबके की संख्या करीब चालीस करोड़ हो, उसमें ये तीन
करोड़ नौकरियां कितने लोगों का भला कर पाएंगी। अव्वल तो विमर्श का एक विंदु यह भी
होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। दूसरी बात यह है कि क्या पदोन्नतियों
में आरक्षण देना वाकई तर्क संगत है। वाजपेयी सरकार ने जब से अन्य पिछड़ा वर्ग में
जाटों को आरक्षण देने का फैसला क्या लिया, आरक्षण हासिल करना राजनीतिक अस्मिता का
प्रतीक बन गया है। अगर ऐसा नहीं होता तो पिछले तीन सालों से आए दिन राजस्थान,
हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गूजर भी आरक्षण की मांग को लेकर रेल और सड़क
यातायात ठप नहीं कर रहे होते। अव्वल तो ये जातियां 1931 की जनगणना तक खुद को अगड़ा
घोषित करने की मांग करती रही हैं।। इसी तरह एक जमाने तक खत्री और खरवार जातियां भी
खुद को क्षत्रिय मानने की वकालत करती रही हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने खरवार लोगों को क्षत्रिय साबित करने वाली
किताब पढ़ी है। पिछली सदी के तीस के दशक में प्रकाशित मशहूर पत्रिका चांद के अंकों
में ऐसी जातियों ने आगे वाले समुदायों में खुद को जोड़ने की वकालत की थी। बिहार में
तो भूमिहारों के सामने बराबरी हासिल करने के लिए यादवों ने जनेऊ धारण करने तक का
ऐलान कर दिया था। जिस पर खून-खराबा तक होते-होते बचा था। चौधरी चरण सिंह ने यादव,
क्षत्रिय और जाटों के जातीय समीकरण के सहारे अपना राजनीतिक आधार तैयार किया था।
जिसे बिहार में भी विस्तार दिया गया। लेकिन नब्बे के बाद आरक्षण ऐसी मलाई बन गया कि
लोग इसके लिए जान देने के लिए तैयार होने लगे। सामाजिक वर्चस्व बनाए रखने वाली
जातियां भी राजनीतिक अस्मिता की पहचान बनाने के चक्कर में आरक्षण मांगने लगीं। इन
अर्थों में देखें तो मंडल कमीशन की रिपोर्ट से वीपी सिंह ने 1990 में धूल क्या
झाड़ी, रसूखदार जातियां भी अपने रसूख के पारंपरिक दायरे को छोड़कर राजनीतिक अस्तित्व
के नए दायरे में शामिल होने की मांग करने लगीं। विवाद इसके बाद ही बढ़ा है। इसकी
वजह यह है कि ये जातियां भले ही अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं, लेकिन उनके पास
शैक्षिक, राजनीतिक और आर्थिक तीनों ही तरह की ताकत है। अगर आरक्षण की परिधि से
बाहर वाला अगड़ा वर्ग इन्हें आरक्षण देने का विरोध करता है तो उसका वैचारिक आधार
यही होता है। यह बात और है कि दलित जातियों और आदिवासियों की हालत अब भी पस्त है।
लेकिन सवाल यह है कि उनके रहनुमाओं ने आखिर पैंसठ साल तक क्या किया। इस सवाल पर भी
विमर्श होना चाहिए और उसका जवाब तलाशा जाना चाहिए।
रही
बात पदोन्नति में आरक्षण की तो सुप्रीम कोर्ट नागमणि के मामले में कह चुका है कि
क्या सरकारों के पास कोई ऐसा आंकड़ा है,जिससे यह साबित हो सके कि पदोन्नति में
आरक्षण की व्यवस्था ना होने से दलित तबके को कितना नुकसान हुआ। यहां यह भी सवाल है
कि क्या आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था का कहीं उलटा असर तो नहीं हो रहा है। यह सवाल
यह भी मौजूं है कि दलितों और आदिवासियों में से आगे निकले लोग खुद भी सवर्णों जैसा
आचरण करके दूसरे अर्थों में खुद को सवर्ण साबित करने की कोशिश में जुट गए हैं।
वैसे भी यह सामाजिक प्रक्रिया है, जिसमें विकास करने वाला तबका अपनी सामाजिक कक्षा
से दूसरी कक्षा में प्रवेश करने की कोशिश करता है। दलित और आदिवासी जातियों के
मलाईदार तबके भी ऐसा ही कर रहे हैं। ऐसे में आरक्षण की मूल भावना कहीं न कहीं
कमजोर हो रही है। फिर भी अब नौकरियों में आरक्षण को लेकर कहीं कोई विवाद नहीं है।
कहीं कोई सवाल भी नहीं है। लेकिन पदोन्नति में आरक्षण पर अगर विवाद है तो वह यह कि
इससे साथ ही भर्ती सवर्ण तबके के कर्मचारी पीछे रह जाएंगे, जबकि दलित और कमजोर
तबके के कर्मचारी उसकी तुलना में आगे निकलकर उसके बॉस बन जाएंगे। यह नया सिस्टम
कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच कुंठा की बड़ी वजह बनेगा। इससे सामाजिक ढांचा भी
चरमराएगा। जिसका सीधा असर संविधान प्रदत्त समानता के सिद्धांत की रक्षा पर भी
पड़ेगा। लेकिन वोटों के लालच में कोई भी पार्टी इस प्रस्ताव का विरोध नहीं कर रही
है।
समाजवादी
पार्टी अगर इसका विरोध कर भी रही है तो उसकी निगाह 2014 में उत्तर प्रदेश के सवर्ण
और पिछड़े तबके के वोटरों का समर्थन हासिल करना है। वहीं घोटाले और महंगाई के
लगातार फटते बमों से जूझ रही कांग्रेस को लगता है कि इससे उसके खेमे में दलितों का
बड़ा तबका आ जाएगा। वहीं बीजेपी की परेशानी यह है कि अगर वह इस संविधान संशोधन का
विरोध करती है तो दलित तबके के विरोध का उसे सामना करना पड़ सकता है और नहीं करती
है तो उसका अगड़ा वोट बैंक नाराज हो सकता है। इसलिए पदोन्नति में आरक्षण का
राजनीतिक सवाल उलझता प्रतीत हो रहा है। राज्यसभा में विधेयक का आनन-फानन में पेश
होना और उस पर अमर्यादित ढंग से दो नेताओं की प्रतिक्रिया से संदेह होता है कि
राजनीतिक स्वांग के तहत जानबूझकर ऐसा किया गया। ऐसा मानने की वजह है अतीत में
महिलाओं संसद और विधानमंडलों में तैंतीस फीसदी आरक्षण देने वाले संविधान संशोधन
विधेयक का हश्र। उसे भी दो बार लोकसभा में फाड़ा गया और आखिरकार राज्यसभा से पास
हुआ भी तो अनंतकाल के लिए ठंडे बस्ते के हवाले हो गया। ऐसे में लगता तो यही है कि
विधेयक पेश करके राजनीतिक दल अपने दलित और आदिवासी वोटरों की सहानुभूति और उसे
फिलहाल पास ना कराकर अगड़े वर्ग के मतदाताओं का राहतभरा समर्थन हासिल करना चाहते
हैं। इसकी भी वजह है कि संविधान के जिस अनुच्छेद 16(4) और 355 में यह संशोधन किया
जाना है, डर यह है कि सुप्रीम कोर्ट इसे संविधान के मूल ढांचे में बदलाव घोषित कर
सकता है।
लेखक टेलीविजन पत्रकार हैं।
उमेश चतुर्वेदी
द्वारा जयप्रकाश, दूसरा तल, एफ-23 ए, निकट
शिवमंदिर
कटवारिया सराय, नई दिल्ली -110016
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