उमेश चतुर्वेदी
अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे की
सक्रियता के दौर में जिस तरह रोजाना घपले-घोटाले की खबरें सामने आ रही हैं,
राज्यों के लोकायुक्तों की पुलिस मामूली से समझे जाने वाले कर्मचारियों से करोड़ों
की संपत्ति बरामद कर रही हैं...ऐसे में लगता तो यही है कि हम एक ऐसे युग में जी
रहे हैं, जहां नैतिक आचरण की कोई अहमियत नहीं रह गई है। ऐसे में अगर भ्रष्टाचार पर
निगरानी रखने वाले सबसे बड़ी वैधानिक संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग के प्रमुख
प्रदीप कुमार नैतिक शिक्षा की वकालत करें तो हमें हैरत नहीं होनी चाहिए।
कुछ लोग
सवाल उठा सकते हैं कि प्रदीप कुमार और उनके निर्देशन में काम करने वाला सतर्कता
आयोग भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में नाकाम साबित हो रहा है। एक हद तक यह बात सही भी
हो सकती है। लेकिन परेशानी की बात यह है कि देश में तमाम तरह के कानूनों के होने,
उनके लपेटे में आने के बावजूद अगर भ्रष्टाचार समेत दूसरे अनैतिक आचरणों पर रोक
नहीं लग पा रही है तो हमें यह मान ही लेना चाहिए कि हमारी जिंदगी में कहीं न कहीं
आचरण के स्तर पर कमी रह ही गई है। उदारीकरण की शुरूआत के पहले भी भ्रष्टाचार था,
लेकिन व्यक्ति के सामने अपनी अंतरात्मा को जवाब देने का सवाल महत्वपूर्ण था।
उदारीकरण की शुरूआत के दौरान आशंका जताई गई थी कि उदारीकरण हमारी सोच को भी
बदलेगी। रोजाना आते भ्रष्टाचार के दैत्याकार किस्सों से साफ है कि वह आशंका सच
साबित होती नजर आ रही है। ऐसे में लिहाजा इसे रोकना सिर्फ संवैधानिक संस्थाओं की
ही नहीं, समाज और उसकी मूल इकाई परिवार की भी जिम्मेदारी बनती है। यही वजह है कि
अब पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर नैतिक शिक्षा देने की वकालत की जाने लगी है। एक
दौर में स्कूली पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा का प्रावधान था। लेकिन भौतिकता की
आंधी में हमने उस शिक्षा को खुद से दूर कर दिया। बेशक उस शिक्षा से भी भ्रष्टाचार
का खात्मा नहीं हो जाता था। मानवीय प्रवृत्ति के चलते इसका समूल नाश हो भी नहीं
सकता, लेकिन अपनी ही नजर में अगर पानी बचा रहता है तो उस पर एक हद तक रोक का काम
खुद-ब-खुद हो जाता है। नैतिक शिक्षा व्यक्ति की नजरों में उस पानी की धार को ही
बढ़ावा देती है। शायद इस तथ्य को सरकार भी समझने लगी है। तभी वह एक बार फिर स्कूल
के साथ विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में भी नैतिक शिक्षा को लागू करने की सोचने लगी
है।
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