उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है)
लगता
है ठीक 1993 की तरह एक बार फिर कांग्रेस सरकार इतिहास दोहराने जा रही है। एक और
संवैधानिक संस्था को वह बहुसदस्यीय बनाने की तैयारी में है। पिछली बार वह विपक्ष
के दबाव में ऐसा करने को मजबूर हुई थी, संयोगवश उस वक्त के प्रधानमंत्री को भी
विपक्ष और मीडिया मौनी बाबा कहता था। आज के भी प्रधानमंत्री को विपक्ष इसी उपाधि
से नवाजता है। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी नारायण सामी तो यही कह
रहे हैं कि अब सरकार भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानी कैग के पद को चुनाव
आयोग की तरह बहुसदस्यीय बनाने जा रही है। जब 1993 में चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय
बनाने की जब विपक्ष ने मांग रखी थी तो उस वक्त तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन
की अति सक्रियता इसकी वजह बनी थी। तब दिलचस्प यह है कि शेषन से विपक्ष नाराज और
परेशान था और उस वक्त शेषन से उसे बचाव चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाने में ही नजर
आता था। लेकिन इस बार हालात बदले हुए हैं। मौजूदा नियंत्रक और महालेखापरीक्षक
विनोद राय से विपक्ष को नहीं, सरकार को परेशानी महसूस हो रही है। लेकिन सवाल यह है
कि क्या कैग को बहुसदस्यीय बनाने के बाद उनसे जो मौजूदा शिकायतें दूर हो जाएंगी।
मौजूदा
महालेखा परीक्षक से सरकार को शिकायत यह है कि उनकी टीम ने टूजी घोटाले का
मूल्यांकन गलत किया। सरकार को शिकायत यह भी है कि मौजूदा कैग ने कोल खदान आवंटन
में भी बेवजह ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। सरकार का तर्क यह है कि जब
कोयला खदानों में उत्पादन हुआ ही नहीं तो सरकारी खजाने को चूना कैसे लगा। यही तर्क
देकर वह कोयला खदान के आवंटन के घोटाले की जांच पर सवाल उठा रही है। 2 जी घोटाले
पर भी एक लाख 76 हजार करोड़ रूपए के सरकारी खजाने से चूना लगने की कैग की रिपोर्ट
को सरकार अब तक स्वीकार नहीं कर पाई है। यह बात और है कि टू जी घोटाले में अगर
बड़ी मछलियां जेल गईं, लाइसेंस आवंटन रद्द हुए और उन पर सवाल उठे तो कैग की
रिपोर्ट ही आधार बनी और इसका सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया। अन्यथा सरकार की
नजरों में आज भी ये घोटाले हैं ही नहीं। कैग सवाल ना उठाता तो शायद उस पर सवाल
नहीं उठते। अगर कैग सरकारी नियंत्रण में होता तो शायद वह भी सवाल नहीं उठा पाता।
लेकिन संसद के प्रति उसकी जवाबदेही के चलते ही यह संभव हो पाया है कि वह सरकारी
निधि की बंदरबांट और बिलावजह के खर्चे के साथ ही लूट-खसोट पर सवाल उठा पाता है। यह
बात और है कि जब तक राजनीतिक दल विपक्ष में रहते हैं, उसे कैग की रिपोर्टें बेहतर
लगती हैं और जैसे ही वे सत्ता तंत्र के अंग बन जाते हैं, कैग की हर रिपोर्ट सरकारी
काम और योजनाओं में दखलंदाजी लगने लगती है। अन्यथा याद कीजिए एनडीए सरकार को। करगिल
युद्ध के शहीदों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए जो ताबूत खरीदे गए थे, उन पर
सवाल तब के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने ही उठाए थे। जिसके बहाने कांग्रेस और
राष्ट्रीय जनता दल तब के रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस के खिलाफ संसद में खुलेआम
कफन चोर गद्दी छोड़ नारे लगाते नहीं थकते थे। तब कैग की रिपोर्ट ही सरकार की
बेईमानी पर सवाल खड़ा करने का वजह बनी थी। लेकिन अब वही कांग्रेस पार्टी सरकार में
है और कैग ने जब दो आवंटनों पर सवाल उठाए तो कांग्रेस को ही दिक्कत होने लगी है।
सरकार
ने तो नहीं,अलबत्ता कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह मौजूदा नियंत्रक और
महालेखा परीक्षक विनोद राय पर कई बार आरोप लगा चुके हैं कि वे भी टीएन शेषन बनने
की राह पर हैं। कांग्रेस का आरोप है कि कैग रहते टीएन चतुर्वेदी ने हिमाचल
फ्यूचरिस्टिक घोटाले का पर्दाफाश किया था और उसके बाद जब वे रिटायर हुए तो भारतीय
जनता पार्टी ने उन्हें कन्नौज से टिकट दिया। जिसमें उन्हें जीत हासिल हुई। बाद में
एनडीए सरकार ने उन्हें कर्नाटक का राज्यपाल भी बनाया था। पता नहीं विनोद राय भी
इसी राह पर हैं या नहीं, लेकिन यह सवाल जरूर पूछा जा सकता है कि आखिर भारतीय जनता
पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी के चेले अशोक संचेती आखिर कोयला खदान घोटाले में
कैसे फंस गए हैं। हो सकता है कि विनोद राय की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी हो। लेकिन
इसकी रोकथाम के तहत संवैधानिक पदों पर रहे व्यक्तियों के राजनीति में आने को लेकर
सरकार कानूनी प्रावधान कर सकती है। हालांकि खुद कांग्रेस भी अतीत में मुख्य चुनाव
आयुक्त रहे मनोहर सिंह गिल को ना सिर्फ राज्यसभा में भेज चुकी है, बल्कि उन्हें
खेल मंत्रालय भी सौंप चुकी है। इसलिए ऐसे आरोप लगाते वक्त उसे भी बचना चाहिए।
पहले
से ही सरकार और सरकारी पार्टियों के निशाने पर रहे विनोद राय कुछ ज्यादा निशाने पर
अपने उस बयान के बाद आ गए हैं, जिसमें उन्होंने सीबीआई और केंद्रीय सतर्कता आयोग
को संवैधानिक संस्था बनाने की मांग कर दी है। दरअसल सीबीआई की भले ही जबर्दस्त
साख हो और हर बार पेचीदा मामलों को सुलझाने के लिए इससे ही जांच कराने की मांग की
जाती हो, जांच की तह तक पहुंचने का उसका रिकॉर्ड कोई खास अच्छा नहीं रहा है। इसी
तरह भ्रष्टाचार पर लगाम के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन तो हुआ, लेकिन उसके
आदेशों का पालन उतनी मुस्तैदी नहीं हो पाता, क्योंकि उसे जरूरी अधिकार ही हासिल
नहीं है। ऐसे में अगर दोनों ही संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दे दिया जाता है तो वे
देश की संप्रभुता की गारंटी देने वाली संसद और राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह तो
होंगी, लेकिन राजनीतिक दखलंदाजी से पूरी तरह बच जाएंगी। इन्हीं तर्कों के सहारे
विनोद राय ने दोनों ही संस्थाओं को संवैधानिक बनाने की मांग की है। यह बात और है
कि विनोद राय कोई पहले शख्स नहीं हैं, जिन्होंने सीबीआई और सतर्कता आयोग को
संवैधानिक बनाने की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट तो कई मामलों की जांच के सिलसिले
में सीबीआई की टीम की मॉनिटरिंग खुद करता रहा है। सीबीआई के काम में राजनीतिक
दखलंदाजी को साबित करने के लिए इससे बड़ा तर्क और क्या हो सकता है।
बहरहाल
सरकार को लगता है कि नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के पद को बहुसदस्यीय बना देने से
विनोद राय जैसे अफसरों को काबू में किया जा सकेगा और उनकी अतिसक्रियता पर लगाम
लगाई जा सकेगी। लेकिन सरकार और उसके कर्णधारों को चुनाव आयोग से भी सबक लेना
चाहिए। शेषन पर काबू पाने के लिए चुनाव आयोग को बहुसदस्यीय बनाया गया। शुरू में
उन्होंने भी दूसरे आयुक्तों को काम देने से मना किया। लेकिन जैसे ही एक बार आयोग
का बहुसदस्यीय होना तय हो गया, आयोग के दूसरे सदस्यों ने भी अपनी संवैधानिक ताकत
पहचानी और भारत का चुनाव परिदृश्य ही बदल गया। शेषन के पहले तक के चुनाव आयुक्तों
का नाम कितने लोगों को याद है। लेकिन शेषन और उनके बाद के चुनाव आयुक्तों के नाम
ना सिर्फ भारतीय जनमानस को याद है, बल्कि चुनावों में पारदर्शिता और निष्पक्षता और
बढ़ी ही है। क्या पता सरकार का यह कदम उसी तरह से भ्रष्टाचार और बंदरबांट रोकने का
और बेहतर और कारगर हथियार ना बन जाए। क्योंकि एक बार संवैधानिक ताकत का अहसास होते
ही शायद ही शायद ही कोई कैग होगा, जो सरकार और उसे चलाने वाले राजनीतिक दलों के
इशारे पर काम करना पसंद करेगा। ऐसे में तो सरकार के इस निर्णय का तो स्वागत ही
होना चाहिए।
सी.ए.जी. को अधिसंख्यक संस्था बनाने से समस्या हल नहीं होने वाली. शायद इन लोगों को पता नहीं कि किसी रिपोर्ट पर एक बड़ी टीम काम करती है जिसमें सिविल सेवा से आए अधिकारी भी होते हैं, सी.ए.जी. का व्यक्तिगत रूप से उन रिपोर्टों में कोई रोल नहीं होता.
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