Friday, January 16, 2009
क्यों हारे गुरूजी
उमेश चतुर्वेदी
शिबू सोरेन की हार से देश भले ही हैरत में हो ..लेकिन झारखंड के लोग हैरत में नहीं हैं। हैरत में तो उनके स्टॉफ में शामिल वे लोग भी नहीं हैं ..जो हाल ही में सत्ता के खेल में उनसे जुड़े। हैरत उस कांग्रेस को भी नहीं हुई है ...जिसके सहयोग और दम के सहारे शिबू सोरेन 26 अगस्त 2007 को झारखंड की गद्दी पर बैठे थे। देश हैरत में इसलिए है कि इस नए-नवेले राज्य ने ना सिर्फ अपने मुख्यमंत्री...बल्कि सूबे की सियासत के गुरूजी को पटखनी दी है।
हालांकि ये कोई पहला मौका नहीं है – जब किसी उपचुनाव में कोई मुख्यमंत्री खेत रहा। इसके पहले उत्तर प्रदेश के नौंवें मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह भी सातवें दशक में गोरखपुर के मनीराम सीट से उपचुनाव में हारे थे। शिबू सोरेन और त्रिभुवन नारायण सिंह की हार में एक समानता है। त्रिभुवन नारायण सिंह को एक अदने से कांग्रेसी कार्यकर्ता रामकृष्ण द्विवेदी ने हराया था तो शिबू सोरेन को हार उनके ही मंत्री रहे एनोस एक्का के एक नामालूम से कार्यकर्ता राजा पीटर ने हराया है। त्रिभुवन नारायण सिंह को हराने वाले रामकृष्ण द्विवेदी चुनाव लड़ने से पहले अमर उजाला के संवाददाता थे। बाद में वे युवा कांग्रेस में शामिल हुए और उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर उस त्रिभुवन नारायण सिंह को चुनावी मैदान में पटखनी दी – जिन्हें उत्तर प्रदेश की सियासत के ताकतवर नेता चंद्रभानु गुप्त का समर्थन था। चंद्रभानु गुप्ता उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के ताकतवर गुट सिंडिकेट के मजबूत स्तंभ थे। लिहाजा त्रिभुवन नारायण सिंह की हार को हैरत की नजर से देखा गया था। उन्हें हराने का इनाम रामकृष्ण द्विवेदी को मिला भी। उन्हें कमलापति त्रिपाठी ने अपने मंत्रिमंडल में बतौर पुलिस राज्य मंत्री शामिल किया था।
इन अर्थों में शिबू सोरेन की हार हैरतनाक इसलिए नहीं है ...क्योंकि उन्हें खुद ही भरोसा नहीं था कि वे उस तमाड़ विधानसभा सीट से चुनाव जीत जाएंगे – जो कभी जनता परिवार का गढ़ रहा है। आज के दौर में शायद ही कोई मुख्यमंत्री होगा- जो इस तरह चुनाव का सामना करने से भागता रहेगा। शिबू सोरेन 26 अगस्त 2007 को मुख्यमंत्री बने और चुनाव मैदान में तब जाकर उतरे..जब संवैधानिक कायदे के मुताबिक उनके चुने जाने में महज एक महीने का ही वक्त बाकी रह गया था। उन्हें खुद की जीत पर भरोसा किस कदर था, वह इससे ही साबित है कि उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अब तक लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दिया है।
दो हजार चार के चुनाव के बाद झारखंड जैसी विधानसभा बनी है, उसमें ही सत्ता के कई नायाब खेलों की चाबी छुपी हुई है। ऐसे –ऐसे नायाब खेल हुए भी ..जिनकी कम से देश के सियासी इतिहास में कहीं और मिसाल नहीं मिलती। बीजेपी को अपने समर्थक विधायक को एंबुलेंस में लादकर राष्ट्रपति के समक्ष परेड करानी पड़ी। इसका फायदा पहले बीजेपी को मिला। लेकिन सत्ता समीकरण में सौदेबाजी की हालत में पहुंचे निर्दलीय विधायकों ने पांसा पलट दिया और कभी बीजेपी के ही सिपाही रहे मधु कोड़ा के हाथ में आ गई। जिसमें खुद शिबू सोरेन ने भी अहम भूमिका निभाई। बीजेपी के हाथ से सत्ता फिसल रही थी – लिहाजा लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने भी बीजेपी को पटखनी देने के लिए हिसाब-किताब करने में देर नहीं लगाई। लेकिन साल बीतते – बीतते शिबू सोरेन का मधु कोड़ा से मोहभंग होने लगा। फिर जिस गुरूजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया था, वही गुरूजी उन्हें हटाने की मुहिम में जुट गए। चिरूडीह केस में जेल जाने के बाद वैसे ही उन्हें केंद्र के कोयला मंत्रालय की गद्दी से दूर होना पड़ा था। लेकिन चिरूडीह और शशिनाथ झा हत्याकांड में अदालत से छूटने के बाद गुरूजी को सत्ता से दूरी खलने लगी। पहले तो केंद्र में मंत्री पद पाने के लिए दबाव बनाया और असफल रहे। इसके बाद उन्होंने अपना ध्यान उस राज्य की कमान थामने पर लगाया, जिसके गठन की लड़ाई उन्होंने खुद शुरू की थी।
शिबू सोरेन की हार में इन घटनाओं ने जहां परोक्ष भूमिका निभाई है, वहां हाल ही में घटी एक घटना का सीधा हाथ भी माना जा रहा है। माना जाता है कि गुरूजी को सत्ता के करीब लाने में उनके बेटे दुर्गा सोरेन और हेमंत सोरेन की बड़ी भूमिका रही। दोनों बेटों की चाहत झारखंड की कमान अपने हाथ में बनाए रखने पर रही है। लेकिन सत्ता की कमान हाथ में आते ही गुरूजी में जो बदलाव आया- उनकी हार की वजह जानने के लिए इस बदलाव को समझना ज्यादा जरूरी है।
आदिवासी हितों की रक्षा के लिए शुरू किए आंदोलनों ने ही शिबू सोरेन को झारखंड का गुरूजी बना दिया। लेकिन सत्ता आने के बात गुरूजी अपने साथी आदिवासियों को ही भूलने लगे। उनके ही इलाके दुमका में आरपीजी समूह एक हजार मेगावाट का थर्मल पावर प्लांट लगाने जा रहा है। इसके लिए पंद्रह गांवों की जमीन चिन्हित की गई। जिसके अधिग्रहण का पिछले साल अप्रैल से ही विरोध जारी है। गांव वालों ने इसकी मुखालफत की तो उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज होने शुरू हो गए। अब तक करीब एक हजार लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। जब गांव वालों ने इसी छह दिसंबर को इसके विरोध में प्रदर्शन किया तो पुलिस ने उन्हें सशस्त्र प्रदर्शनकारी बताया और उन पर गोली चला दी। प्रदर्शनकारियों के हाथ में उनके पारंपरिक हथियार तीर-धनुष और कुल्हाणी ही थे। ये भी सच है कि उन्होंने एक पुलिस वाले को घायल भी किया। इस पूरे मामले में हैरतनाक बात ये है कि इस प्रदर्शन से ठीक एक दिन पहले यानी पांच दिसंबर को शिबू सोरेन दुमका आए थे और उन्होंने जिला प्रशासन के अधिकारियों को साफ निर्देश दिया था कि इन प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने से पीछे मत हटिए।
ये उस शिबू सोरेन का आदेश था – जिन्होंने आदिवासियों के हितों की रक्षा को लेकर 1980 में चाईबासा में आंदोलन की अगुआई की थी। ये आंदोलन महज इस बात को लेकर था कि तब की बिहार सरकार के अधिकारी वहां सागौन के पेड़ जबर्दस्ती लगाना चाहते थे, जबकि आदिवासी इसका विरोध कर रहे थे। आदिवासियों का कहना था कि सागौन का पेड़ लगाने से उनका वातावरण प्रभावित होगा – लिहाजा वहां साल का ही पेड़ लगना चाहिए। इस आंदोलन में झारखंड मुक्ति मोर्चा के देवेंद्र मांझी मारे गए थे। तब शिबू सोरेन ने इस आंदोलन का साथ दिया था। जाहिर है आदिवासियों के लिए मरमिटने वाले शिबू जब किसी औद्योगिक ग्रुप के लिए आदिवासियों को ही मारने का आदेश देने लगे तो आदिवासियों का भरोसा उनसे टूटने लगा। और ये लहर झारखंड में फैलते देर नहीं लगी।
यहां ये ध्यान देना जरूरी है कि जिस तमाड़ इलाके ने नया इतिहास रचा है..उसका भी अपना इतिहास है। तमाड़ बंडू आदिवासी इलाके में आता है और इसी इलाके के निवासी थे बिरसा मुंडा। जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ जबर्दस्त मोर्चा लेकर नया इतिहास ही रच दिया। शायद उनका ये इतिहास ही है कि झारखंड के लोग उन्हें भगवान के तौर पर मानते हैं। बिरसा मुंडा की जमीन से झारखंड के लोगों ने एक संदेश ये भी दे दिया है कि चाहे जितना भी बड़ा नेता क्यों ना हो ..उसकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता, उनके हितों की अनदेखी करता है..वे उसकी अनदेखी करने से नहीं हिचकेगी।
शिबू सोरेन हार चुके हैं। लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री पद से अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है। सत्ता लोलुपता का उन पर जो आरोप लगते रहे हैं ..इस्तीफा ना देने से इस आरोप को ही बल मिल रहा है। मैदान में लगी ठोकर कई बार लोगों को संभलने का मौका देती है। लेकिन शिबू सोरेन को इसकी कोई फिक्र नहीं है। वे अपने पुराने रवैये पर कायम हैं और नई परंपरा बनाने में जुटे है। अब देखना ये है कि क्या सत्ता मोह की इस परंपरा को तोड़ने में कांग्रेस कोई दिलचस्पी दिखाती है - या नहीं।
Monday, December 15, 2008
इक्कीसवीं सदी में बलिया की एक सड़क यात्रा
उमेश चतुर्वेदी
एनडीए शासन काल के ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की शुरूआत की थी तो उनका दावा था कि देश के सभी गांवों को बारहमासी सड़कों से जोड़ दिया जाएगा। अब सरकार ने घोषणा की तो उस पर अमल भी होना ही था। बलिया में इसका असल नजारा दिखा। सड़कें तो हैं – लेकिन उनसे गुजरना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। सड़कों पर गड्ढा है या गड्ढे में सड़कें हैं – सड़कों की हालत देख कर अंदाजा लगाना आसान नहीं होगा। लिहाजा सही जानकारी के लिए शोध की जरूरत पड़ेगी।
आज के विकासवादी दौर में माना जाता है कि सड़कें विकास का असल जरिया हैं। सड़कें साफ और चिकनी हों तो उन पर सिर्फ गाड़ियों के पहिए नहीं – बल्कि विकास का पहिया भी तेज दौड़ता है। लेकिन शायद बलिया के लिए ये सच नहीं है। बलिया की शायद ही कोई सड़क है – जिसकी हालत इन दिनों ठीक नहीं है। बलिया – बैरिया मार्ग हो या फिर बलिया – गोरखपुर सड़क मार्ग या फिर बारहमासी सड़कें – सबकी हालत खस्ता है। मजे की बात ये है कि ये सारी सड़कें महज छह महीने पहले ही बनीं थीं। कितनी मजबूती से बनाई गईं थीं – इसका अंदाजा इनकी हालत देखकर लगाया जा सकता है।
अभी अक्टूबर महीने में मैंने नागपुर से यवतमाल का दौरा किया था। यह विदर्भ का वह इलाका है – जहां सन दो हजार से अब तक करीब 15 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली है। माना ये जा रहा है कि वहां बदहाली और कर्ज के बोझ ने उन किसानों को मौत के मुंह में जाने के लिए मजबूर किया। जाहिर है – जहां बदहाली होगी, वहां सड़क-बिजली और पानी भी बदहाल होगा। लेकिन मेरा अनुभव कुछ और ही रहा। नागपुर से यवतमाल की करीब एक सौ पैंतीस किलोमीटर की दूरी हमने महज ढाई घंटे में कार से पूरी कर ली थी। इसके ठीक दो महीने बाद मैं बलिया पहुंचा तो वहां का हाल सुनिए। बिहार के बक्सर से बलिया की दूरी करीब पैंतालिस किलोमीटर है। वहां तक की दूरी हमने महज एक घंटे में पूरी कर ली। वजह अच्छी सड़क रही। यही वह बलिया की अकेली सड़क है – जो कुछ ठीक है। अब आगे की यात्रा का हाल सुनिए। बलिया से सहतवार की दूरी है अठारह किलोमीटर। लेकिन कार से इतनी दूरी तय करने में हमें लगे एक घंटे। मजे की बात ये है कि अधिकारी और इलाके के कथित प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि विकास का पहिया तेज दौड़ रहा है। उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि सहतवार के ही रहने वाले हैं इलाके के विधायक शिवशंकर चौहान। लेकिन उन्हें शायद इस सड़क से कुछ लेना देना नहीं है।
2004 के लोकसभा चुनावों में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर यहां से उम्मीदवार थे। लिहाजा देशी-विदेशी मीडिया के दिग्गजों ने यहां का दौरा किया था और यहां की खस्ताहाल सड़कों को देखकर बेहद निराश हुए थे। इसे लेकर दिल्ली लौटकर उन्होंने मुझसे तंज मारा था। चंद्रशेखर के एक पूर्व सहयोगी और मौजूदा विधायक से जब मैंने इसकी चर्चा की तो उन्होंने चुप्पी साध ली। कुछ देर बाद वे खुले तो उन्होंने चंद्रशेखर के बारे में बताना शुरू किया - वह मेरे लिए हैरतनाक था। विधायक जी ने कहा कि चंद्रशेखर जी साफ पूछते थे कि विकास के जरिए भी राजनीति होती है भला। विधायक जी की इस बात से युवा तुर्क के जमाने के चंद्रशेखर के सहयोगी रहे मोहन धारिया भी सहमत हैं। अब चंद्रशेखर नहीं हैं। लेकिन बलिया के मौजूदा नेताओं को बलिया के विकास के लिए उनसे अलग और साफ नजरिया नहीं दिखता।
रही बात अधिकारियों की तो उन्हें विकास से क्या लेना-देना। बस नेताओं के सहयोग से उनकी भी झोली भरती रहे और लखनऊ के गोमतीनगर में उनकी चमचमाती कोठी खड़ी रहे – यही क्या कम है। हिचकोले खा-खाकर बलिया की जनता मरती है तो मरती रहे।
एनडीए शासन काल के ग्रामीण विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की शुरूआत की थी तो उनका दावा था कि देश के सभी गांवों को बारहमासी सड़कों से जोड़ दिया जाएगा। अब सरकार ने घोषणा की तो उस पर अमल भी होना ही था। बलिया में इसका असल नजारा दिखा। सड़कें तो हैं – लेकिन उनसे गुजरना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। सड़कों पर गड्ढा है या गड्ढे में सड़कें हैं – सड़कों की हालत देख कर अंदाजा लगाना आसान नहीं होगा। लिहाजा सही जानकारी के लिए शोध की जरूरत पड़ेगी।
आज के विकासवादी दौर में माना जाता है कि सड़कें विकास का असल जरिया हैं। सड़कें साफ और चिकनी हों तो उन पर सिर्फ गाड़ियों के पहिए नहीं – बल्कि विकास का पहिया भी तेज दौड़ता है। लेकिन शायद बलिया के लिए ये सच नहीं है। बलिया की शायद ही कोई सड़क है – जिसकी हालत इन दिनों ठीक नहीं है। बलिया – बैरिया मार्ग हो या फिर बलिया – गोरखपुर सड़क मार्ग या फिर बारहमासी सड़कें – सबकी हालत खस्ता है। मजे की बात ये है कि ये सारी सड़कें महज छह महीने पहले ही बनीं थीं। कितनी मजबूती से बनाई गईं थीं – इसका अंदाजा इनकी हालत देखकर लगाया जा सकता है।
अभी अक्टूबर महीने में मैंने नागपुर से यवतमाल का दौरा किया था। यह विदर्भ का वह इलाका है – जहां सन दो हजार से अब तक करीब 15 हजार किसानों ने आत्महत्या कर ली है। माना ये जा रहा है कि वहां बदहाली और कर्ज के बोझ ने उन किसानों को मौत के मुंह में जाने के लिए मजबूर किया। जाहिर है – जहां बदहाली होगी, वहां सड़क-बिजली और पानी भी बदहाल होगा। लेकिन मेरा अनुभव कुछ और ही रहा। नागपुर से यवतमाल की करीब एक सौ पैंतीस किलोमीटर की दूरी हमने महज ढाई घंटे में कार से पूरी कर ली थी। इसके ठीक दो महीने बाद मैं बलिया पहुंचा तो वहां का हाल सुनिए। बिहार के बक्सर से बलिया की दूरी करीब पैंतालिस किलोमीटर है। वहां तक की दूरी हमने महज एक घंटे में पूरी कर ली। वजह अच्छी सड़क रही। यही वह बलिया की अकेली सड़क है – जो कुछ ठीक है। अब आगे की यात्रा का हाल सुनिए। बलिया से सहतवार की दूरी है अठारह किलोमीटर। लेकिन कार से इतनी दूरी तय करने में हमें लगे एक घंटे। मजे की बात ये है कि अधिकारी और इलाके के कथित प्रबुद्ध लोग मानते हैं कि विकास का पहिया तेज दौड़ रहा है। उससे भी ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि सहतवार के ही रहने वाले हैं इलाके के विधायक शिवशंकर चौहान। लेकिन उन्हें शायद इस सड़क से कुछ लेना देना नहीं है।
2004 के लोकसभा चुनावों में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर यहां से उम्मीदवार थे। लिहाजा देशी-विदेशी मीडिया के दिग्गजों ने यहां का दौरा किया था और यहां की खस्ताहाल सड़कों को देखकर बेहद निराश हुए थे। इसे लेकर दिल्ली लौटकर उन्होंने मुझसे तंज मारा था। चंद्रशेखर के एक पूर्व सहयोगी और मौजूदा विधायक से जब मैंने इसकी चर्चा की तो उन्होंने चुप्पी साध ली। कुछ देर बाद वे खुले तो उन्होंने चंद्रशेखर के बारे में बताना शुरू किया - वह मेरे लिए हैरतनाक था। विधायक जी ने कहा कि चंद्रशेखर जी साफ पूछते थे कि विकास के जरिए भी राजनीति होती है भला। विधायक जी की इस बात से युवा तुर्क के जमाने के चंद्रशेखर के सहयोगी रहे मोहन धारिया भी सहमत हैं। अब चंद्रशेखर नहीं हैं। लेकिन बलिया के मौजूदा नेताओं को बलिया के विकास के लिए उनसे अलग और साफ नजरिया नहीं दिखता।
रही बात अधिकारियों की तो उन्हें विकास से क्या लेना-देना। बस नेताओं के सहयोग से उनकी भी झोली भरती रहे और लखनऊ के गोमतीनगर में उनकी चमचमाती कोठी खड़ी रहे – यही क्या कम है। हिचकोले खा-खाकर बलिया की जनता मरती है तो मरती रहे।
Wednesday, November 5, 2008
हिंदीभाषी इलाके की बपौती नहीं है राष्ट्रवाद
उमेश चतुर्वेदी
राज ठाकरे के विषवमन ने इन दिनों राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को लेकर नई तरह की बहस छेड़ दी है। राष्ट्रवाद वैसे ही इन दिनों संकुचित अर्थ ग्रहण कर चुका है। राष्ट्रवाद का जिक्र आते ही लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की याद आने लगती है। ( ऐसा अर्थ ग्रहण करने वाले लोग कम से कम यहां माफ करेंगे। ) राज ठाकरे की मौजूदा राजनीति के बाद मराठी राष्ट्रवाद का एक नए सिरे से उभार हुआ है। मधु लिमये ने अपनी मौत के ठीक पहले लिखे एक लेख में कांग्रेस को राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी बताया था। मधु लिमये भी मराठी ही थे। उनका राष्ट्रीयताबोध आज के मराठी वीर पुरूष राज ठाकरे से अलग था। ये विचार इसलिए भी अहम हैं कि इसे प्रतिपादित करने वाले मधु लिमये – वह शख्स थे, जिन्होंने ताजिंदगी कांग्रेस और उसकी राजनीति का विरोध किया था। साठ से लेकर सत्तर के दशक की संसद की कार्यवाही गवाह है कि मधु लिमये, पीलू मोदी, लाडली मोहन निगम और मनीराम बागड़ी की छोटी टीम ने इंदिरा गांधी जैसी करिश्माई ताकत को भी हिचकोले खाने के लिए मजबूर कर दिया था। ऐसे मधु लिमये जब कांग्रेस को राष्ट्रीय एकता के महत्वपूर्ण स्तंभ के तौर पर जरूरी मानने लगे तो जाहिर है कि कांग्रेस उनकी नजर में कितनी अहम थी। लिमये जी ने जब ये कहा था – तब वह कम से कम आज सोनिया गांधी वाली कांग्रेस नहीं थी। तब वह नरसिंहराव की कांग्रेस थी। लेकिन लगता ये है कि बारह-तेरह साल के अंतराल में ये कांग्रेस भी अब बदल गई है। इसका साफ प्रमाण ये है कि उसी मधु लिमये की जन्मभूमि पर बेकसूर उत्तर भारतीयों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जा रहा है। लेकिन राज्य और देश में सरकार चला रही कांग्रेस के सिपाही मौन हैं। उन्हें मराठी राष्ट्रीयता के उभार में अपना फायदा दिख रहा है। लिहाजा मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख इन घटनाओं को सामान्य तौर पर लेते हुए मुस्कानभरे चेहरे से मीडिया को बयान देते रहते हैं। पता नहीं – मधु लिमये आज रहते तो कांग्रेस को लेकर वे अपने विचार पर अब भी कायम रहते या नहीं – ये सवाल आज ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।
राज ठाकरे और विलासराव देशमुख को शायद मधु लिमये के उन विचारों से अब लेना-देना ना हो। लेकिन राज जिस तरह से मराठी अस्मिता के नाम पर हिदी विरोध को हवा दे रहे हैं – उनकी नजर में तिलक की अहमियत जरूर होगी। कम से कम एक मराठी के नाम पर वे इससे इनकार नहीं कर सकते। ये सच है कि उन्नीसवीं सदी तक लोकमान्य की राष्ट्रीयता का अहम बिंदु मराठी राष्ट्रवाद ही था। गणेश चतुर्थी के पूजन को सार्वजनिक तौर पर स्थापित करने के पीछे उनका यही भाव काम कर रहा था। लेकिन जैसे – जैसे गणेश पूजन को मराठी समाज में सार्वजनिक पूजन के तौर पर मान्यता बढ़ती गई- तिलक को लगने लगा कि सिर्फ मराठी राष्ट्रवाद के ही जरिए देश की आजादी के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। अगर उनकी नजर राज ठाकरे की तरह संकुचित रही होती तो कम से कम वे हिंदी के बारे में ये नहीं कहते - ''मैं समझता हूँ कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को पूरे देश के लिए एक आम भाषा की जरूरत है। एक आम भाषा का होना राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण तत्व है। वह आम भाषा ही होती है, जिसके द्वारा आप अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाते हैं। इसलिए यदि हम देश को एक साथ लाना चाहते हैं, तो सबके लिए एक आम भाषा से बढ़कर दूसरी कोई ताकत नहीं हो सकती और यही सभा (नागरीप्रचारिणी सभा) का उद्देश्य भी है।''
तिलक ने ये महत्वपूर्ण भाषण काशी नागरी प्रचारिणी सभा के 1905 के सम्मेलन में दिया था। इससे साफ होता है कि हिंदी और राष्ट्रीयता को लेकर उनकी क्या धारणा थी।
क्रांतिकारी खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के बम हमलों के समर्थन के चलते 1908 में उन्हें गिरफ्तार करके बर्मा के मांडले जेल में अंग्रेज सरकार ने नजरबंद कर दिया। यहां तिलक 1914 तक रहे। इस दौरान गीता और राष्ट्रीयता को लेकर उनके विचार नए तरह से पुष्ट हुए। वे विचार कम से कम आज महाराष्ट्र के नेताओं और राज ठाकरे की राष्ट्रीयता से अलग ही थे। हिंदी में बोलने के लिए जया बच्चन को राज ठाकरे ने जिस अपमानजनक तरीके से ये कहने से गुरेज नहीं किया कि गुड़्डी अब बुड्ढी हो गई है। कम से कम राज ठाकरे की मराठी अस्मिता के अहम पुरूष लोकमान्य तिलक की आत्मा अगर स्वर्ग में होगी तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि वह क्या सोच रही होगी।
अदालती आदेश से इन दिनों राज ठाकरे की जबान बंद है। लेकिन जिस तरह महाराष्ट्र के नेता उनके उठाए मुद्दों के समर्थन में साथ आते दिख रहे हैं – उससे साफ है कि अदालती आदेश की मियाद खत्म होने के बाद राज फिर से अपनी बयानबाजी जरूर शुरू करेंगे। बयानबाजी के दौर में केंद्रीय सरकार में शामिल लोग ये भूल गए हैं कि उन्होंने संविधान के साथ ही देश की एकता और अखंडता की रक्षा की शपथ भी ली है। प्रफुल्ल पटेल का बयान इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। उन्होंने कहा है कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों को नौकरियां देने से असंतुलन बढ़ेगा और मराठा लोग खुद ये असंतुलन दूर कर लेंगे। कैसे...इसका खुलासा उन्होंने भले ही नहीं किया है – लेकिन उनका इशारा साफ समझा जा सकता है। क्या देश की एकता और अखंडता की शपथ लेने वाले मंत्री से ऐसे बयान की उम्मीद की जा सकती है।
इस देश में जब-जब छोटे-छोटे इलाकों के नेताओं का प्रभाव अपने लोगों से कम होने लगता है – तब – तब वे क्षेत्रीयतावाद की बयार बहाने की कोशिश जरूर करते हैं। तमिलनाडु में जब – जब लगता है कि डीएमके और एआई़डीएमके की पकड़ कम होती दिखती है, तब-तब दोनों ही दल तमिल राष्ट्रवाद को हवा देने लगते हैं। उस समय उनके निशाने पर हिंदी और उत्तर भारतीय ही होते हैं। हालांकि तमिलनाडु में कभी उत्तर भारतीयों को निशाना नहीं बनाया गया। लेकिन जिस तरह राज ठाकरे ने शुरू किया है और उससे राज्य सरकार ने लापरवाही से निबटाया है – ऐसे में आने वाले दिनों में वहां भी हिंदी विरोध शुरू हो जाय तो हैरत नहीं होनी चाहिए। ये बात और है कि इन दिनों ये तमिल राष्ट्रवाद श्रीलंका के मामले में हस्तक्षेप की मांग पर ही फोकस है। यही हालत इन दिनों असम में भी है। असमिया राष्ट्रवाद के नाम पर वहां हिंदीभाषियों को ही निशाना बनाया जा रहा है। रोजाना दो-चार बेकसूरो को मौत के घाट उतारा जा रहा है। इन घटनाओं को रोक पाने में लाचार वहां की सरकार इसे उग्रवाद के माथे मढ़कर अपने कर्तव्य से इतिश्री समझ रही है। पूर्वांचल के दूसरे राज्यों में भी किसी न किसी नाम पर उप राष्ट्रीयता और अलगाववाद जारी है।
अस्सी के दशक में यही हालत पंजाब की भी थी। पंजाबी राष्ट्रवाद के नाम पर बिहार और उत्तर प्रदेश से गए मजदूरों को निशाना बनाया गया। इसका खामियाजा जब पंजाब की खेती और उद्योगों को भुगतना पड़ा तो इस राष्ट्रवाद के खिलाफ खुद पंजाब के लोगों को ही आगे आना पड़ा। बिहार के गांवों में जाकर उन्होंने खुद मजदूरों को उनकी सुरक्षा के लिए आश्वस्त किया – तब जाकर कहीं पंजाब की अर्थव्यवस्था और खेती-किसानी पटरी पर आ पाई। अब वहां पंजाबी राष्ट्रवाद के नाम पर किसी बिहारी और उत्तर प्रदेश के मजदूर को निशाना नहीं बनाता।
दुर्भाग्य देखिए कि गाय पट्टी के नाम पर विख्यात हिंदीभाषी इलाकों की जो राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद है, सही मायने में वही भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश, छ्त्तीसगढ़ और राजस्थान से उप राष्ट्रीयता की कोई आवाज नहीं उठती। न ही यहां का कोई व्यक्ति किसी गैर हिंदीभाषी इलाके के व्यक्ति के खिलाफ आवाज उठाता है ना ही किसी बेकसूर को सिर्फ इसलिए पीटता है कि वह मराठी, गुजराती या तमिल है। सबसे बड़ी बात ये कि यहां तुलसी और कबीर के बाद कोई बड़ा समाजसुधारक भी नहीं हुआ। राहुल सांकृत्यायन, स्वामी श्रद्धानंद को छोड़ दें तो सामाजिक तौर पर किसी ने बड़ा जनजागरण अभियान यहां नहीं चला, इसके बावजूद इन इलाकों में भारतीय राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी है। इनके लिए पहले भारत है, उसके बाद उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्यप्रदेश आता है। लेकिन उप राष्ट्रीयता वाले इलाकों में ये हालत नहीं है। वहां के लोगों के लिए सबसे पहले मराठी, बंगाली, असमिया या तमिल आता है, फिर भारत और भारतीय राष्ट्रीयता आती है। लेकिन हालत देखिए कि आज इसी राष्ट्रीयता की चर्चा करने वाले लोगों को ही इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। कभी वे असम की बराक घाटी में गोलियों से छलनी किए जाते हैं तो कभी मुंबई की सड़कों पर उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जाता है।
मधु लिमये ने अपने आखिरी लेख में देश की एकता के लिए कांग्रेस को इसलिए जरूरी बताया था – क्योंकि वही अकेली पार्टी है, जिसका अखिल भारतीय आधार है। उसकी ही दृष्टि अखिल भारतीय है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि महाराष्ट्र के मामले में उसकी इस दृष्टि का लोप हो गया है। असम में भी उसकी ही सरकार है – लेकिन वहां भी उसका ये भारतीय नजरिया नजर नहीं आ रहा है।
Friday, October 31, 2008
ये है स्पेशल मेरी जान
उमेश चतुर्वेदी
स्टेशन हो या बस स्टॉप...शादी-ब्याह का घर हो या सरकारी दफ्तर..हम लोग जब भी इन जगहों पर जाते हैं ...हमारी एक ही ख्वाहिश होती है हमें स्पेशल ट्रीटमेंट मिले..हमारे लिए स्पेशल इंतजाम हो..हवाई जहाज से आज भी आना-जाना बेहद अहम माना जाता है। इस माहौल में भी आपको हवाई अड्डे पर स्पेशल इंतजाम मिले तो क्या कहने ....सरकारी दफ्तर में पहुंचते ही वहां पुराने जमाने की धूलभरी फाइलों के अंबार के बीच मेज पर अस्त-व्यस्त कागजों के साथ बैठे बाबू महाशय से बात करने में सबको एक खटका लगा रहता है ...आपके सवाल को वे टरका न दें। हो सकता है कई बार वे आपके सवाल का जवाब दे भी दें ..लेकिन वह जवाब इतना चलताऊ या फिर इतना कर्कश होता है कि आपका सारा उत्साह काफूर हो जाए। ऐसे हालात वाले दफ्तर में जाने से पहले हर कोई किसी न किसी ऐसे जुगाड़ में जुटा रहता है – जिससे दफ्तर में पहुंचते ही स्पेशल तरीके से ना सिर्फ आवभगत मिले- बल्कि चटपट काम भी हो जाए।
स्पेशल की माया कम से कम अपने देश में इतनी महत्वपूर्ण तो है ही कि हर कोई स्पेशल खातिरदारी और स्पेशल इंतजाम कराने – पाने के ही जुगाड़ में लगा रहता है। लेकिन इसी देश में एक स्पेशल इंतजाम ऐसा भी है – जिसका फायदा उठाने से अच्छे-भले लोगों की भी रूह कांपती रहती है। आप चौंकिएगा नहीं ...स्पेशल चाहत की दुनिया रखने वाले भी इस स्पेशल से बचने में ही अपनी भलाई देखते हैं। दरअसल ये इंतजाम है अपने देश में पर्व-त्यौहारों के मौकों पर चलने वाली स्पेशल ट्रेन। दशहरा- दीवाली, छठ और होली से लेकर गर्मी की छुट्टियों तक में रेलवे हर साल सैकड़ों स्पेशल ट्रेन चलाता है। स्पेशल चाहने वाले इस देश में कायदे से तो ये होना चाहिए कि लोग स्पेशल ट्रेनों की ओर दौड़ पड़ें। लेकिन होता ठीक उलटा है। लोग नियमित ट्रेन से ही भीड़ और सांसत भरी यात्रा करना पसंद करते हैं। स्पेशल ट्रेनों की माया ऐसी है कि एक बार किसी ने इनकी सवारी कर ली तो समझो अगली बार के लिए वह कान ही पकड़ लेता है। इसकी वजह भी बिल्कुल सामान्य है। स्पेशल ट्रेनों का टाइम टेबल तो होता है – लेकिन शायद ही वे कभी अपने नियत समय पर चल पाती हैं। जहां ठहराव नहीं होता – वहां भी रेलवे के अधिकारी उन्हें ना सिर्फ रोक देते हैं – बल्कि घंटों तक रोके रखते हैं। स्पेशल हुई तो समझिए ट्रेन में पैंट्री और सुरक्षा भी ना के बराबर हुई। लिहाजा खोमचे से लेकर उठाईगिरों तक की पौ बारह हो जाती है। यूं तो रेलवे पूछताछ केंद्र से वैसे ही सही जानकारी नहीं मिल पाती, ऐसे में अगर ट्रेन स्पेशल हुई तो समझिए कि करेला और उपर से नीम चढ़ा...क्या मजाल कि पूछताछ केंद्र वाला बाबू उसके बारे में सही जानकारी दे दे। अगर आपने उससे बहस कर ली तो उल्टे वह धमका भी देता है – इतना ही शौक है तो स्पेशल का टिकट क्यों लिया ...( लालू जी गौर फरमाएंगे )
कुछ दिनों पहले मेरा भी साबका दरभंगा स्पेशल ट्रेन से पड़ा। लखनऊ जाने के लिए कन्फर्म टिकट उसमें मिला तो मैंने ले लिया। पुरानी दिल्ली स्टेशन से ट्रेन को रात के 11 बजकर 50 मिनट पर खुलना था। लेकिन उसका कोई पता-ठिकाना नहीं था। और तो और उसके बारे में कोई बताने वाला भी नहीं था। रेलवे ने यात्रियों की सहूलियत के लिए 139 पर फोन सेवा शुरू की है। वहां से एक ही जवाब मिलता रहा – ऐसी किसी ट्रेन का कोई रिकॉर्ड ही नहीं है। तीन-तीन घंटा करके ये ट्रेन सुबह छह बजे तक रवाना नहीं हो पाई तो मजबूरन यात्रियों को अपना झोला-बोरा समेट वापस लौटना पड़ा।
वैसे भी हम अपने पुराने अनुभवों से कम ही सबक लेते हैं। रेल-वेल के मामले में तो ये कुछ ज्यादा ही होता है। चार साल पहले पटना जाते वक्त भी मेरा ऐसे ही एक स्पेशल ट्रेन से पल्ला पड़ा था। पंद्रह की बजाय पच्चीस घंटे में पहुंची थी। इस अनुभव के बावजूद एक उम्मीद थी कि इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा..
ऐसे में सवाल उठता है कि इन ट्रेनों को स्पेशल ही क्यों कहा जाय ...इनकी जो हालत है उसमें इन्हें एक्ट्रा यानी फालतू कहें तो कोई हर्ज ...क्या रेल मंत्रालय इस पर गौर फरमाएगा !
Monday, October 27, 2008
तो लोकनायक हैं कायस्थों के नेता ....
उमेश चतुर्वेदी
1974 में जयप्रकाश नारायण को तब के कांग्रेस के प्रभावी नेता चंद्रशेखर ने एक चिट्ठी लिखी थी। संपूर्ण क्रांति के लोकनायक की अपील के बाद नौजवान नेताओं से लेकर इंदिरा गांधी की तानाशाही से परेशान कांग्रेसियों की जमात जेपी के साथ लगातार आती जा रही थी। चंद्रशेखर की ये चिट्ठी उन्हीं लोगों पर केंद्रित थी। चंद्रशेखर ने लोकनायक को लिखा – आप सोच रहे हैं कि ये लोग आपके साथ आकर व्यवस्था परिवर्तन का काम करेंगे..दरअसल ये लोग सत्ता की चाहत में यहां आ रहे हैं और जिस रास्ते पर ये चल रहे हैं- भविष्य में ये अपनी जातियों के नेता के ही तौर पर जाने जाएंगे।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन के सिर्फ सोलह साल बाद ही ये आशंका सच साबित होती नजर आने लगी थी। चंद्रशेखर ने ये चिट्ठी लिखते वक्त शायद ही ये सोचा होगा कि खुद जेपी को भी एक दिन सिर्फ कायस्थों के नेता के तौर पर स्थापित किए जाने की कोशिश शुरू हो जाएगी। इस साल एक बार फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन बिना किसी शोरशराबे के बीत गया। देश के तकरीबन आधे राज्यों में उनके साथ काम कर चुके लोगों या उनके शिष्य होने का दावा करने वाले लोगों की सरकारें हैं। लेकिन उनके चेलों ने उनका जन्मदिन उतने धूमधाम से नहीं मनाया, संपूर्ण क्रांति की शिक्षाओं को उस तरह याद नहीं किया। लेकिन कायस्थों के एक समूह ने उन्हें अपने नेता के तौर पर मानने की कोशिश शुरू जरूर कर दी। बलिया से लेकर कुछ जगहों से ऐसी खबरें आईं – जिसमें जेपी के जन्मदिन को कायस्थों के युगपुरूष की वर्षगांठ के तौर पर मनाया गया।
ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि देश में संपूर्ण तौर पर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के सूत्रधार रहे जेपी को क्या सिर्फ कायस्थों के ही नेता के तौर पर भविष्य याद करना शुरू करेगा।
गांधीजी ने जयप्रकाश को कैसा देखा और समझा था- इसे जानने के लिए जेपी के बारे में कहे गए उनके शब्दों पर ही गौर करना होगा। गांधी ने कहा था – ‘ वे कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं। वे समाजवाद के अधिकारी ज्ञाता हैं। यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी समाजवाद के बारे में वे जो नहीं जानते हैं, भारत में दूसरा कोई भी नहीं जानता। वे एक सुंदर योद्धा हैं। उन्होंने अपने देश की मुक्ति के लिए सब कुछ त्याग दिया है। वे अथक परिश्रमी हैं। उनकी कष्ट सहन की क्षमता से अधिक किसी की क्षमता नहीं हो सकती।’
सन बयालीस के आंदोलन के दौरान गांधी, नेहरू और पटेल समेत सभी बड़े नेता जेलों के अंदर डाल दिए गए थे। तब आंदोलन की अगुआई में तीन लोग चमके थे। ये तीन नेता थे जेपी, लोहिया और अरूणा आसफ अली। कहा तो ये जाता है कि हजारीबाग जेल तोड़कर फरार होने के बाद जेपी तब के नौजवानों के रोल मॉडल हो गए थे। तब वे ना तो किसी ब्राह्मण, ना ही किसी ठाकुर या किसी कायस्थ के नेता थे। गांधीजी ने उन्हें यूं ही नहीं समाजवाद का ज्ञाता कहा था।
लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली की लड़ाई लड़ने उतरे जेपी के लिए जातियों के उत्थान से कहीं ज्यादा सर्वोदय यानी सबके विकास की भावना थी। उनका एक मात्र मकसद जवाबदेह लोकतंत्र को स्थापित करना था। ऐसा लोकतंत्र- जिसमें राजनीतिक दलों को अपने निजी हितों से ज्यादा राष्ट्रीय हित की चिंता करनी थी। अपने मशहूर निबंध भारतीय राज व्यवस्था का पुनर्निर्माण में उन्होंने कहा है –‘दलों की प्रतिद्वंद्विता में दिखावटी भाषणबाजी वाली और घटिया राजनीति हावी हो जाती है और जोड़तोड़, घटियापन का मेल बढ़ता जाता है। जहां समन्वय चाहिए, वहां पार्टियां फांक पैदा कर रही हैं। जिन मतभेदों को पाटना चाहिए, पार्टियां उन्हें बढ़ाती हैं। अक्सर वे पार्टी हितों को राष्ट्रीय हितों से उपर रखती हैं।’ दुर्भाग्य की बात ये कि जेपी ने इस राजनीतिक बुराई को दूर करने का जो सपना देखा था – उनके ही कार्यकर्ता रहे नेताओं में आज ये बुराई पूरी तरह से नजर आ रही है। बिहार की समस्याओं को लेकर नीतीश और लालू के रवैये से यही साबित होता है कि जेपी के चेले उनकी ही सीख पर कायम नहीं रह सके।
उनके साथ पिछड़े और दलितों को सत्ता में भागीदारी के साथ व्यवस्था में संपूर्ण परिवर्तन के लिए जो लोग आए। आज वे सत्ता में शीर्ष पदों पर काबिज हैं और हकीकत यही है कि वे अपनी-अपनी जातियों के नेता के तौर पर ज्यादा प्रतिष्ठित हैं। लालू यादव और मुलायम सिंह आज यादवों के नेता के तौर पर ज्यादा जाने जाते हैं तो रामविलास पासवान की पहचान दलितों के ही रहनुमा के ही तौर पर है। नीतीश कुमार को भी हाल के दिनों तक सिर्फ कोइरी-कुर्मी लोगों का नेता माना जाता रहा है। एक हद तक – कम से कम बलिया और उसके आसपास के इलाकों में जेपी को यह अहम चिट्ठी लिखने वाले चंद्रशेखर को भी ठाकुरों का ही नेता माना जाता रहा है।
दरअसल जेपी के नाम पर ही राजनीति और सत्ता की मलाई खाने वालों ने ही अपनी पहचान उनके विचारों से कहीं ज्यादा, अपनी बिरादरी के दम पर पुख्ता करने में ज्यादा और सफल दिलचस्पी दिखाई है। उनका खुद बिरादरीवाद रोकने में कोई प्रयास नहीं रहा। ऐसे में जेपी जिस कुल खानदान में पैदा हुए- उनके लोग उन्हें अपनी जाति के नाम पर क्यों ना प्रतिष्ठित करें। लेकिन सवाल ये है कि क्या जेपी की आत्मा इससे खुश होगी। अगर स्वर्ग है और वहां से जेपी की आत्मा इन कायस्थ कुल शिरोमणियों को अपना उत्थान करते देख रही होगी तो क्या उसे शांति मिलेगी। उनके जन्मदिन सिताबदियारा में तो इस बार उन्हें याद करने उनके सत्ताधारी चेले तक नहीं पहुंचे। जातीय और रस्मी तौर पर जेपी को याद करने की बजाय आज जरूरत इस बात की है कि जेपी को सही मायनों में याद किया जाय।
Monday, October 13, 2008
आप नैनो के पक्ष में हैं या खिलाफ …...
उमेश चतुर्वेदी
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और आम आदमी की कार कही जाने वाली नैनो में कोई समानता हो सकती है भला ! अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और टाटा संस के चेयरमैन रतन टाटा में भी कोई तुलना कैसे की जा सकती है ? लेकिन नैनो पर राजनीति ने जिस तरह करवट बदली है – ऐसा ही हो रहा है। बुश ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई छेड़ते वक्त कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ उनका साथ दें। जो साथ देगा, वह आतंकवाद का विरोधी है, जो साथ नहीं देगा- उसे आतंकवाद का मददगार माना जाएगा। नैनो की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
सिंगूर से उठकर रतन टाटा साणंद पहुंच गए हैं। एक एम (ममता बनर्जी ) ने उन्हें परेशान किया तो दूसरे एम ( नरेंद्र मोदी ) ने उन्हें उबार लिया और एक एस ( सिंगूर ) से उठाकर दूसरे एस ( साणंद) को पहुंचा दिया। ममता से पीछा छुड़ाकर टाटा अब दूसरे मोदी की संगत में गदगद नजर आ रहे हैं। लेकिन संबंधों के बनाव-बिगाड़ के इस दौर में औद्योगीकरण के पक्ष और विपक्ष में चर्चाएं शुरू हो गई हैं। ठीक उसी तरह – जैसे आतंकवाद को लेकर जार्ज बुश ने कहा था। यानी अगर आप नैनो के पक्ष में हैं तो आप औद्योगीकरण और उद्योगों, गरीबी उन्मूलन और रोजगार सृजन के सहयोगी है। अगर ऐसा नहीं है तो इसका मतलब साफ है कि आप उद्योगों और रोजगार की संभावनाओं के खिलाफ हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस मसले पर उद्योग संगठनों से लेकर बीजेपी और वामपंथी- सभी एक समान राय रखते हैं। भारतीय लोकतंत्र में उलटबांसियों का खेल समझने के लिए ये उदाहरण भी मौजूं होगा। परमाणु करार के खिलाफ वाम और दक्षिण साथ हैं। अब नैनो को लेकर भी वाम और दक्षिण एक ही मंच पर नजर आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने नैनो को साणंद पहुंचाकर बाजी मार ली है। जाहिर है वे विजयी भाव से सियासी मैदान पर नजर फिरा रहे हैं। जबकि सिंगूर से नैनो के बाहर होने के बाद पश्चिम बंगाल के वामपंथी दल निराशा के गर्त में गोते लगाते नजर आ रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में रतन टाटा समेत उद्योगपतियों की भूमिका किनारे बैठ लहरों का आनंद लेने वाले शख्स की तरह है। टाटा समेत कुछ उद्योग संगठनों को लगता है कि अब पश्चिम बंगाल का भला होने से रहा। कहना ना होगा – उनके बैठाए इस डर ने पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को परेशान कर रखा है। मजदूरों के हितैषी दर्शन पर खड़ी मार्क्सवादी पार्टी की अब प्रमुख चिंता ये है कि उसकी छवि कहीं उद्योग विरोधी की न बन जाए। रतन टाटा को मार्क्सवादियों की ये दुविधा और डर पता है – लिहाजा वे इसे भरपूर तरीके से भुना रहे हैं। रतन टाटा देश के एक प्रमुख उद्योगपति हैं। जाहिर है, उद्योग संगठन उनका साथ देंगे ही और वे दे रहे हैं।
नैनो के समर्थन और नैनो विरोध की कसौटी पर किसी को कैसे कसा जा सकता है कि वह उद्योग का विरोधी या है या नहीं। मौजूदा माहौल में ममता बनर्जी कठगरे में खड़ी नजर आ रही हैं। उद्योग जगत उनकी ओर उंगली उठाए खड़ा है। अपनी उग्र राजनीति के लिए ममता वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर सवालों के केंद्र में रही हैं। लेकिन वे इतनी भी नौसिखुआ नहीं हैं कि उन्हें इस आंदोलन के इस हश्र का अंदाजा नहीं होगा। नैनो की सियासत के इस नतीजे का उन्हें अंदाजा हो गया था – तभी वे सोनिया गांधी और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से मिलकर इस मसले के हल में मध्यस्थता करने की अपील की। गांधी ने भूमिका निभाई भी। दुर्गापुर हाइवे जाम करके कोलकाता की सब्जी-दूध सप्लाई लाइन को सफलतापूर्वक बाधित करने वाली ममता बनर्जी का खुद को बचाव वाले इस कदम पर टाटा की नजर थी। जो टाटा हर हाल में सिंगूर न छोड़ने का दावा करते रहे थे , उन्होंने पश्चिम बंगाल को टा-टा करने का मन बना लिया। फिर उद्योग समर्थकों के पलक-पांवड़े बिछाने की होड़ लग गई। उत्तरांचल, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात की इस होड़ में गुजरात ने बाजी मारी। अब ममता बनर्जी कठगरे में हैं और चुप हैं।
यहीं भारत के किसान आंदोलन की बिडंबना खुलकर सामने आ जाती है। इस देश में किसानों के हकों की बात करना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि आप उद्योग और रोजगार के विरोधी ठहरा दिए जाते हैं। सिंगूर के किसान भी उद्योगों के खिलाफ नहीं हैं। ममता बनर्जी ने किसानों की इसी आवाज को ताकत देने की कामयाब कोशिश की थी। किसानों की लड़ाई में साथ उतरीं महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उद्योगों की विरोधी नहीं रहीं। उनका सिर्फ इतना ही कहना था कि जिस जमीन के मालिक सदियों से किसान हैं – उनकी मर्जी के खिलाफ उनकी ही जमीन से बेदखल किया जाना गलत है। महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उसी दर्शन में भरोसा करती हैं – जिसमें पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही सीपीएम का विश्वास है। इस आंदोलन में वामपंथी कार्यकर्ताओं के कोप का निशाना बन चुकीं मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी ने सुझाव भी दिया था कि अगर उद्योगों के लिए जमीन चाहिए ही तो पश्चिम बंगाल में भी काफी बंजर भूमि है, उन्हें ही क्यों न लिया जाए। उस जमीन को लेने से किसानों के रोजी-रोजगार पर भी असर नहीं पड़ेगा और बंजर भूमि को उद्योगों के लिए उद्योगपति और सरकार मिलकर विकसित कर सकते हैं। लेकिन उद्योग और उदारीकरण के पक्ष में उठी लहर ने ये सोचने की ताकत उस वामपंथ से भी छीन ली है – जिसे कम से कम ऐसे मसलों पर सोचने वाला माना जाता रहा है।
महाराष्ट्र और दादरा नगर हवेली में अपनी संस्था वनराई के जरिए क्रांति लाने वाले पूर्व युवा तुर्क मोहन धारिया ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार देश में बेतहाशा तरीके से खुल रहे स्पेशल इकोनॉमिक जोन को लेकर चिंता जताई थी। उनका कहना था कि हमसे करीब ढाई गुना ज्यादा बड़े देश चीन में कुल पचहत्तर सेज हैं, जबकि अपने देश में चार सौ उन्नीस प्रस्ताव या तो मंजूर हो चुके हैं या वहां काम शुरू हो चुका है। इनमें से ज्यादातर सेज हरी-भरी उपजाऊ जमीनों पर ही बने हैं या बन रहे हैं। जिस तरह पिछले कुछ महीनों से खाद्यान्नों की महंगाई का सामना पूरी दुनिया कर रही है, उसमें उपजाऊ जगहों पर सेज विकसित किए जाने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठ रहे हैं। इस सिलसिले में एक जबर्दस्त चुटकी पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने ली। उनका कहना था कि एक तरफ सरकार बंजर भूमि के विकास के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर रही है और दूसरी तरफ उपजाऊ जमीन पर सेज बनाने के प्रस्तावों को मंजूरी दे रही है। अफसोस की बात ये है कि सिंगूर के बहाने किसानों ने जो सवाल उठाए थे, उसके जरिए किसानों के आंदोलन को एक नई दिशा दी जा सकती थी, उनके अधिकारों के बहाने देश में खाद्यान्न संकट को हल करने की दिशा में नई बहस हो सकती थी। जिसके मंथन से निकला वैचारिक मक्खन देश को नई दिशा देता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश का औद्योगीकरण किस कीमत पर हो, खाद्यान्न की कीमत पर..किसानों के हक की कीमत पर या फिर उद्योगपतियों की इच्छाओं की कीमत पर ...सिंगूर ने यही सवाल उठाने की कोशिश की थी। सिंगूर के किसानों की भी इच्छा रही होगी कि वे नैनो कार में सवारी करें। उनका भी सपना फ्लैट स्क्रीन टीवी और फोर जी तकनीक वाले फोन के उपयोग का रहा है। लेकिन क्या रोटी या भात की कीमत पर ये सपने ..ये इच्छाएं पूरी की जा सकती हैं। क्या पेट में रोटी के बिना इन फोन और कार की कोई वकत है..। सिंगूर ने विस्थापन पर भी सवाल उठाए हैं। विस्थापन के एवज में किसानों को कुछ मिले – इसका समर्थन कम से कम वह नहीं कर सकता , जिसने विस्थापन की पीड़ा झेली होगी। वैसे भी बंजर और रेतीली माटी वाले इलाके से विस्थापन का उतना दर्द नहीं होता – जितना रोटी और रोजी देने वाली जमीन को छोड़ते वक्त होता है। सिंगूर ने इन समस्याओं पर भी ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन दुर्भाग्य ये कि देश नैनो के पक्ष और विपक्ष की राजनीति में ही अपना भविष्य देख रहा है।
आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और आम आदमी की कार कही जाने वाली नैनो में कोई समानता हो सकती है भला ! अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और टाटा संस के चेयरमैन रतन टाटा में भी कोई तुलना कैसे की जा सकती है ? लेकिन नैनो पर राजनीति ने जिस तरह करवट बदली है – ऐसा ही हो रहा है। बुश ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई छेड़ते वक्त कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ उनका साथ दें। जो साथ देगा, वह आतंकवाद का विरोधी है, जो साथ नहीं देगा- उसे आतंकवाद का मददगार माना जाएगा। नैनो की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
सिंगूर से उठकर रतन टाटा साणंद पहुंच गए हैं। एक एम (ममता बनर्जी ) ने उन्हें परेशान किया तो दूसरे एम ( नरेंद्र मोदी ) ने उन्हें उबार लिया और एक एस ( सिंगूर ) से उठाकर दूसरे एस ( साणंद) को पहुंचा दिया। ममता से पीछा छुड़ाकर टाटा अब दूसरे मोदी की संगत में गदगद नजर आ रहे हैं। लेकिन संबंधों के बनाव-बिगाड़ के इस दौर में औद्योगीकरण के पक्ष और विपक्ष में चर्चाएं शुरू हो गई हैं। ठीक उसी तरह – जैसे आतंकवाद को लेकर जार्ज बुश ने कहा था। यानी अगर आप नैनो के पक्ष में हैं तो आप औद्योगीकरण और उद्योगों, गरीबी उन्मूलन और रोजगार सृजन के सहयोगी है। अगर ऐसा नहीं है तो इसका मतलब साफ है कि आप उद्योगों और रोजगार की संभावनाओं के खिलाफ हैं। दिलचस्प बात ये है कि इस मसले पर उद्योग संगठनों से लेकर बीजेपी और वामपंथी- सभी एक समान राय रखते हैं। भारतीय लोकतंत्र में उलटबांसियों का खेल समझने के लिए ये उदाहरण भी मौजूं होगा। परमाणु करार के खिलाफ वाम और दक्षिण साथ हैं। अब नैनो को लेकर भी वाम और दक्षिण एक ही मंच पर नजर आ रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने नैनो को साणंद पहुंचाकर बाजी मार ली है। जाहिर है वे विजयी भाव से सियासी मैदान पर नजर फिरा रहे हैं। जबकि सिंगूर से नैनो के बाहर होने के बाद पश्चिम बंगाल के वामपंथी दल निराशा के गर्त में गोते लगाते नजर आ रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में रतन टाटा समेत उद्योगपतियों की भूमिका किनारे बैठ लहरों का आनंद लेने वाले शख्स की तरह है। टाटा समेत कुछ उद्योग संगठनों को लगता है कि अब पश्चिम बंगाल का भला होने से रहा। कहना ना होगा – उनके बैठाए इस डर ने पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को परेशान कर रखा है। मजदूरों के हितैषी दर्शन पर खड़ी मार्क्सवादी पार्टी की अब प्रमुख चिंता ये है कि उसकी छवि कहीं उद्योग विरोधी की न बन जाए। रतन टाटा को मार्क्सवादियों की ये दुविधा और डर पता है – लिहाजा वे इसे भरपूर तरीके से भुना रहे हैं। रतन टाटा देश के एक प्रमुख उद्योगपति हैं। जाहिर है, उद्योग संगठन उनका साथ देंगे ही और वे दे रहे हैं।
नैनो के समर्थन और नैनो विरोध की कसौटी पर किसी को कैसे कसा जा सकता है कि वह उद्योग का विरोधी या है या नहीं। मौजूदा माहौल में ममता बनर्जी कठगरे में खड़ी नजर आ रही हैं। उद्योग जगत उनकी ओर उंगली उठाए खड़ा है। अपनी उग्र राजनीति के लिए ममता वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर सवालों के केंद्र में रही हैं। लेकिन वे इतनी भी नौसिखुआ नहीं हैं कि उन्हें इस आंदोलन के इस हश्र का अंदाजा नहीं होगा। नैनो की सियासत के इस नतीजे का उन्हें अंदाजा हो गया था – तभी वे सोनिया गांधी और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी से मिलकर इस मसले के हल में मध्यस्थता करने की अपील की। गांधी ने भूमिका निभाई भी। दुर्गापुर हाइवे जाम करके कोलकाता की सब्जी-दूध सप्लाई लाइन को सफलतापूर्वक बाधित करने वाली ममता बनर्जी का खुद को बचाव वाले इस कदम पर टाटा की नजर थी। जो टाटा हर हाल में सिंगूर न छोड़ने का दावा करते रहे थे , उन्होंने पश्चिम बंगाल को टा-टा करने का मन बना लिया। फिर उद्योग समर्थकों के पलक-पांवड़े बिछाने की होड़ लग गई। उत्तरांचल, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र और गुजरात की इस होड़ में गुजरात ने बाजी मारी। अब ममता बनर्जी कठगरे में हैं और चुप हैं।
यहीं भारत के किसान आंदोलन की बिडंबना खुलकर सामने आ जाती है। इस देश में किसानों के हकों की बात करना इतना बड़ा गुनाह हो गया है कि आप उद्योग और रोजगार के विरोधी ठहरा दिए जाते हैं। सिंगूर के किसान भी उद्योगों के खिलाफ नहीं हैं। ममता बनर्जी ने किसानों की इसी आवाज को ताकत देने की कामयाब कोशिश की थी। किसानों की लड़ाई में साथ उतरीं महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उद्योगों की विरोधी नहीं रहीं। उनका सिर्फ इतना ही कहना था कि जिस जमीन के मालिक सदियों से किसान हैं – उनकी मर्जी के खिलाफ उनकी ही जमीन से बेदखल किया जाना गलत है। महाश्वेता देवी और मेधा पाटकर भी उसी दर्शन में भरोसा करती हैं – जिसमें पश्चिम बंगाल में सरकार चला रही सीपीएम का विश्वास है। इस आंदोलन में वामपंथी कार्यकर्ताओं के कोप का निशाना बन चुकीं मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी ने सुझाव भी दिया था कि अगर उद्योगों के लिए जमीन चाहिए ही तो पश्चिम बंगाल में भी काफी बंजर भूमि है, उन्हें ही क्यों न लिया जाए। उस जमीन को लेने से किसानों के रोजी-रोजगार पर भी असर नहीं पड़ेगा और बंजर भूमि को उद्योगों के लिए उद्योगपति और सरकार मिलकर विकसित कर सकते हैं। लेकिन उद्योग और उदारीकरण के पक्ष में उठी लहर ने ये सोचने की ताकत उस वामपंथ से भी छीन ली है – जिसे कम से कम ऐसे मसलों पर सोचने वाला माना जाता रहा है।
महाराष्ट्र और दादरा नगर हवेली में अपनी संस्था वनराई के जरिए क्रांति लाने वाले पूर्व युवा तुर्क मोहन धारिया ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार देश में बेतहाशा तरीके से खुल रहे स्पेशल इकोनॉमिक जोन को लेकर चिंता जताई थी। उनका कहना था कि हमसे करीब ढाई गुना ज्यादा बड़े देश चीन में कुल पचहत्तर सेज हैं, जबकि अपने देश में चार सौ उन्नीस प्रस्ताव या तो मंजूर हो चुके हैं या वहां काम शुरू हो चुका है। इनमें से ज्यादातर सेज हरी-भरी उपजाऊ जमीनों पर ही बने हैं या बन रहे हैं। जिस तरह पिछले कुछ महीनों से खाद्यान्नों की महंगाई का सामना पूरी दुनिया कर रही है, उसमें उपजाऊ जगहों पर सेज विकसित किए जाने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठ रहे हैं। इस सिलसिले में एक जबर्दस्त चुटकी पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने ली। उनका कहना था कि एक तरफ सरकार बंजर भूमि के विकास के लिए करोड़ों रूपए खर्च कर रही है और दूसरी तरफ उपजाऊ जमीन पर सेज बनाने के प्रस्तावों को मंजूरी दे रही है। अफसोस की बात ये है कि सिंगूर के बहाने किसानों ने जो सवाल उठाए थे, उसके जरिए किसानों के आंदोलन को एक नई दिशा दी जा सकती थी, उनके अधिकारों के बहाने देश में खाद्यान्न संकट को हल करने की दिशा में नई बहस हो सकती थी। जिसके मंथन से निकला वैचारिक मक्खन देश को नई दिशा देता। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश का औद्योगीकरण किस कीमत पर हो, खाद्यान्न की कीमत पर..किसानों के हक की कीमत पर या फिर उद्योगपतियों की इच्छाओं की कीमत पर ...सिंगूर ने यही सवाल उठाने की कोशिश की थी। सिंगूर के किसानों की भी इच्छा रही होगी कि वे नैनो कार में सवारी करें। उनका भी सपना फ्लैट स्क्रीन टीवी और फोर जी तकनीक वाले फोन के उपयोग का रहा है। लेकिन क्या रोटी या भात की कीमत पर ये सपने ..ये इच्छाएं पूरी की जा सकती हैं। क्या पेट में रोटी के बिना इन फोन और कार की कोई वकत है..। सिंगूर ने विस्थापन पर भी सवाल उठाए हैं। विस्थापन के एवज में किसानों को कुछ मिले – इसका समर्थन कम से कम वह नहीं कर सकता , जिसने विस्थापन की पीड़ा झेली होगी। वैसे भी बंजर और रेतीली माटी वाले इलाके से विस्थापन का उतना दर्द नहीं होता – जितना रोटी और रोजी देने वाली जमीन को छोड़ते वक्त होता है। सिंगूर ने इन समस्याओं पर भी ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन दुर्भाग्य ये कि देश नैनो के पक्ष और विपक्ष की राजनीति में ही अपना भविष्य देख रहा है।
Friday, October 3, 2008
नहीं बदली विदर्भ की तसवीर
यवतमाल से लौटकर उमेश चतुर्वेदी
विदर्भ में किसानों की हत्याओं के आंकड़ों ने 2004 के लोकसभा चुनावों की तसवीर बदलने में जबर्दस्त भूमिका निभाई थी। गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल कुल जमा 441 किसानों की मौत हुई थी। इसके ठीक पहले यानी साल 2003 में किशोर तिवारी और प्रकाश पोहरे जैसे सक्रिय कार्यकर्ताओं के मुताबिक 144 लोगों ने अपनी जान खेती के नाम कुरबान की थी। जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी की सभाएं याद हैं – खासतौर पर विदर्भ और आंध्रप्रदेश के तेलंगाना की – वे एनडीए सरकार की किसान विरोधी नीतियों को कोसती रहीं। उनकी पूरी कोशिश वाजपेयी सरकार के फील गुड और इंडिया शाइनिंग के नारे की धज्जियां उड़ाने पर रहती थीं। विदर्भ और तेलंगाना के किसानों की आत्महत्याओं का मसला जोरदार तरीके से उठाकर अपनी कोशिश में वे कामयाब भी रहीं। वाजपेयी सरकार वापस नहीं लौट पाई और सोनिया गांधी की कांग्रेस की अगुआई वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के हाथों में केद्रीय सत्ता आ गई। सोनिया के इस सफल अभियान से ही उन्हें संसद के ऐतिहासिक सेंट्रल हॉल में त्यागमयी राजमाता की भूमिका निभाने का मौका मिला।
इस ऐतिहासिक दौर के बीते पांच साल होने को आ रहे हैं। वर्धा नदी में इन पांच साल में काफी पानी बह चुका है। लेकिन विदर्भ की हालत वैसी की वैसी ही है। बल्कि इन पांच सालों में आत्महत्याओं का आंकड़ा आशंका से भी कहीं ज्यादा बढ़ गया है। जब यूपीए सरकार ने सत्ता संभाली – विदर्भ में आत्महत्याओं में थोड़ी कमी जरूर आई। उस साल 431 लोगों ने अपनी जान देकर अपनी आर्थिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का भयावह रास्ता अख्तियार किया। ये आंकड़ा विदर्भ जनअधिकार समिति के किशोर तिवारी का है। 2006 में ये आंकड़ा तीन गुना से भी ज्यादा 1500 हो गया। इस बीच प्रधानमंत्री के दौरे हुए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने राहत के मद में 1730 करोड़ की सहायता योजना का ऐलान किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी विदर्भ की वादियों में घूमे और 630 करोड़ दे गए। इससे आत्महत्याओं की दर में कुछ कमी तो आई – लेकिन वह कमी भी भयावह हालात को दिखाने के लिए काफी रही। 2007 में 1243 लोगों ने आत्महत्याएं कीं। मौजूदा साल के बजट में वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने 72 हजार करोड़ के किसान कर्जे की माफी का ऐलान किया। लेकिन हालत ये है कि अब तक करबी 4100 लोग अपनी जान गवां चुके हैं।
विदर्भ का मामला परमाणु करार पर विश्वासमत पाने की कोशिश में जुटी केंद्र सरकार की बहस के दौरान फिर उछला। जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यवतमाल जिले की दो महिलाओं कलावती और शशिकला की बदहाली की चर्चा की। जाखना गांव की कलावती के बहाने उन्होंने विदर्भ के किसानों की बदहाली का जिक्र किया तो पूरे देश का ध्यान उसकी ओर चला गया। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक विंदेश्वर पाठक 2 अगस्त को उसे पच्चीस लाख रूपए की सहायता दे आए। दो सितंबर को यवतमाल जिले के सोनखास गांव की शशिकला भी उनसे फायदा पाने में कामयाब रही। इस सहायता ने विदर्भ में खानाबदोश जातियों के कमजोर और बदहाल लोगों की उम्मीदें बढ़ा दीं। 400 की जनसंख्या वाले सोनखास गांव के पचास झोपड़ों में से एक को फायदा मिला तो बाकी लोगों के आंखों में एक ही सवाल तैरने लगे। उन्हें सहायता क्यों नहीं ! बदहाली में वे भी जिंदगी गुजार रहे हैं। लेकिन इसका फायदा उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए। आधे-अधूरे कपड़ों में बूढ़े-बूढ़ियों के साथ ही जवान – बच्चों का हुजूम वहां जुट गया। सबका विंदेश्वर पाठक से एक ही सवाल था- सहायता हमें भी चाहिए। दिल्ली से गए संवाददाताओं के पास लोगों की अर्जियां जुटने लगीं। किसी के बच्चे का एक्सीडेंट में हाथ काटना पड़ा तो किसी को आंख से दिखाई नहीं देता और सबको सहायता चाहिए। विंदेश्वर पाठक को ऐसी परिस्थितियों में हाथ तो खड़ा करना ही था। उन्होंने खड़ा कर दिया कि वे कितने लोगों को सहायता दे सकते हैं। लगे हाथों उन्होंने सुझाव भी दे डाला कि नागपुर बढ़ते हुए करोड़पतियों का शहर है। मुंबई में 110 खरबपति रहते हैं। सभी एक-एक दो परिवारों को गोद ले लें- समस्या का समाधान हो जाएगा। पता नहीं यवतमाल से उठी ये आवाज मुंबई और 115 किलोमीटर दूर नागपुर में कितने कानों तक पहुंची।
कलावती और शशिकला को फायदा तो मिल गया, क्योंकि उनकी झोपड़ी में रोड शो करते हुए राहुल गांधी पहुंच गए थे। लेकिन विदर्भ में हजारों लोग परेशान हैं। कर्जे में डूबे हुए हैं। ये संभव नहीं है कि सभी बदहाल झोपड़ियों में राहुल गांधी पहुंचे और उनकी बदहाली दूर करने के लिए कोई सुलभ इंटरनेशनल पहुंच जाए। अगर राहुल गांधी सभी झोपड़ियों में पहुंचने भी लगें तो बाजार अर्थव्यवस्था का कोई नुमाइंदा उन झोपड़ियों में दो या तीन लाख का चेक देने के लिए आने से रहा। (विंदेश्वर पाठक ने इतनी ही रकम शशिकला और कलावती को दी है।)
झोपड़ियों में जाकर चुनावी तैयारियों के लिए जनसमर्थन तो जुटाया जा सकता है। लेकिन हजारों-लाखों लोगों की समस्या का समाधान मुकम्मल रणनीति के तहत नीतियों में बदलाव लाकर - फिर उसे सही तरीके तक गांवों के स्तर तक पहुंचा कर ही किया जा सकता है। लेकिन विदर्भ में जो हालात हैं – उसे देखकर ऐसा नहीं लगता कि हालात बदले हैं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि 1923 में अंग्रेजों ने जिस रेलवे लाइन का दोहरीकरण किया था – वह मुंबई – नागपुर रेलवे लाइन ही थी। इसकी वजह ये थी कि विदर्भ में उन दिनों दुनिया का बेहतरीन कपास पैदा होता था और उसे मुंबई बंदरगाह तक पहुंचने में देर न हो, इसलिए दो ट्रैक बनाए गए। मुंबई से ये कपास मानचेस्टर की सूती मिलों तक पहुंचाया जाता था। डंकेल प्रस्तावों के लागू होने के बाद तक यहां का कपास किसान उगाते थे और खुद बेचते थे। तब खेती की लागत कम होती थी। किसान अपना बीज खुद संरक्षित करते थे, उन बीजों से पैदा फसल में ज्यादा रासायनिक खाद और कीटनाशक का उपयोग नहीं होता था। लेकिन जब से बीटी कॉटन का दौर शुरू हुआ है – हर साल किसान को हजारों रूपए बीज में खर्च करने पड़ रहे हैं। इस बीज से उगी फसल को बचाने के लिए कीटनाशकों और रासायनिक खादों का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ता है। किसानों के लिए संघर्षरत वरिष्ठ कार्यकर्ता विजय जावंधिया और किशोर तिवारी के मुताबिक इससे प्रति हेक्टेयर किसान की लागत करीब सात हजार रूपए पड़ रही है। इस फसल से सूंडी कीड़े भारी संख्या में पैदा होते हैं और उन्हें बचाने के लिए कीटनाशकों पर काफी खर्च करना पड़ रहा है। इसके लिए वे साल दर साल बैंकों से कहीं ज्यादा सूदखोरों से कर्ज लेने को मजबूर हैं। किशोर तिवारी के मुताबिक अकेले विदर्भ में बीजों का कारोबार 12 हजार करोड़ को पार कर गया है। यानी ये सारा पैसा मोनसेंटो जैसी अमेरिकी कंपनियों के खाते में जा रहा है। यहां ये ध्यान देने की जरूरत है कि विदर्भ की पूरी खेती वर्षा के पानी पर निर्भर है। अगर बारिश ना हुई तो सारी लागत गई सूखे में।
सूदखोर के यहां पैसा लगातार बढ़ते ही जाना है। ये हालत उन किसानों की है – जो रसूखदार और अच्छी-खासी जमीन के मालिक हैं। जिस कलावती का दलित महिला के तौर पर राहुल गांधी ने संसद में जिक्र करके कांग्रेस जनों की वाहवाही पाई- वह कोई दलित नहीं, बल्कि स्थानीय नंदुबार जैसी दबंग और रसूखदार जाति की महिला है।
कोसी की बाढ़ ने इन दिनों देश का ध्यान बंटा रखा है। नागपुर में किसानों की समस्याओं पर 3 सितंबर को हुए एक सम्मेलन में ये सवाल उठा कि इस बदहाली के बाद भी कोसी इलाके से शायद ही कोई आत्महत्या की खबर सामने आए। आखिर क्या वजह है कि कोसी या पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाली के बीच से भी आत्महत्या की शायद ही कोई खबर आती है- जबकि विदर्भ ऐसी अशुभ खबरों से भरा हुआ है। इसकी वजह है – विदर्भ में नगदी फसल की खेती। वहां अनाज उत्पादन की बजाय लोग कपास जैसी कमाई वाली फसल पर ज्यादा निर्भर हैं। अब लोग कपास से मुड़े भी हैं तो उनका ध्यान सूरजमुखी की खेती पर आ टिका है। विदर्भ में सिंचाई की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। लिहाजा पूरी की पूरी खेती आसमानी कृपा पर है। आसमान की कृपा हुई तो समझो वारा-न्यारा। नहीं हुई तो भुखमरी की हालत। ऐसी हालत में मजदूरी पर जिंदगी गुजारने वाले लोगों को काम नहीं मिल पाता। अन्न उत्पादन वाले इलाके में मजदूरों को नगदी और ज्यादा मजदूरी नहीं मिलती – लेकिन मजदूरी के तौर पर खाने के लिए अनाज जरूर मिल जाता है। जिससे समाज के कमजोर तबके को भी भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ता है।
आज राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना यानी नरेगा की बड़ी चर्चा है। कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार और जुलाई के पहले तक उसे समर्थन दे रहे वामपंथी दल इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनाते रहे हैं। साल के कम से कम एक सौ दिनों तक मजदूर परिवारों को 100 रूपए रोजाना की दर से काम देने का वायदा इसी योजना में शामिल है। केंद्र सरकार के अपनाए जाने के पहले महाराष्ट्र ही पहला राज्य था, जिसने इस नीति की शुरूआत की थी। लेकिन हकीकत ये है कि नरेगा के तहत महाराष्ट्र में भी काम नहीं मिल रहा है। लगातार तीन साल से विदर्भ सूखे का सामना कर रहा है। लेकिन वहां नरेगा के तहत काम कम हो रहा है। शशिकला के गांव यवतमाल जिले के सोनखास में लोगों ने इन पंक्तियों के लेखक को बताया कि एक तो काम हो नहीं रहा है। अगर हो रहा है तो उन्हें मजदूरी के तौर पर सिर्फ तीस रूपए दिए जा रहे हैं। ऐसे में उनका काम कैसे चलेगा। अगर लोगों के इस आरोप में दम है तो विलासराव देशमुख सरकार को इसका जवाब भारी पड़ेगा।
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