
उमेश चतुर्वेदी
एक साल पहले हर-हर मोदी के नारे के विरोध में
उठी आवाजों को दालों की महंगाई ने अरहर मोदी का नारा लगाने का मौका दे दिया
है...80-85 रूपए प्रतिकिलो के हिसाब से तीन महीने तक बिकने वाली अरहर की दाल अब
200 का आंकड़ा पार कर चुकी है..दाल की महंगाई का आलम यह है कि अब सदियों से चली आ
रही कहावत – घर की मुर्गी दाल बराबर- भी अपना अर्थ खोती नजर आ रही है। इन्हीं
दिनों बिहार जैसे राजनीतिक रूप से उर्वर और सक्रिय सूबे में विधानसभा का चुनाव भी
चल रहा है। ऐसे में केंद्र में सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी पर सवालों के तीर नहीं
दागे जाते तो ही हैरत होती। लेकिन क्या यह मसला सिर्फ सरकारी उदासीनता तक ही सीमित
है...भारत जैसे देश में जहां ज्यादातर लोग शाकाहारी हैं, वहां प्रोटीन और
पौष्टिकता की स्रोत दालों की अपनी अहमियत है। वहां दालों की महंगाई सिर्फ मौजूदा
सरकारी उदासीनता के ही चलते है...इस सवाल का जवाब निश्चित तौर पर परेशान जनता नहीं
ढूंढ़ेगी..उसके भोजन की कटोरी में से दाल की मात्रा लगातार घट रही है..लेकिन
जिम्मेदार लोगों को इसकी तरफ भी ध्यान देना होगा कि आखिर यह समस्या आई इतनी विकराल
कैसे बन गई कि अरहर की दाल की महंगाई का स्तर ढाई गुना बढ़ गया।
