उमेश चतुर्वेदी
ज्ञान और सूचना की सदी के तौर पर घोषित इक्कीसवीं सदी में भारतीय मनीषा को आगे रखने के लिए अपने मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजनाओं का कोई सानी नहीं है। कपिल सिब्बल की अगुआई वाले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को एक और ताकत और सम्मान देने का फैसला किया है। मंत्रालय की योजना है कि देश के नामचीन संस्थान और कॉलेज अपनी खुद की डिग्री दे सकें। शिक्षा के विकास की गति और सरकारी दावे को देखते हुए सरकार की इस योजना में कोई बुराई नजर नहीं आती। अगर कॉलेज या संस्थान नामचीन हैं तो उन्हें डिग्री के लिए किसी विश्वविद्यालय या डीम्ड विश्वविद्यालय पर क्यों आश्रित रहना चाहिए। कुशल और शिक्षित दिमागों और हाथों की खोज में जुटी दुनिया में इससे भारतीय छात्रों की पूछ और पहुंच ही बढ़ेगी। तभी एशिया और ज्ञान की इक्कीसवीं सदी में भारतीय डंका ठीक तरीके से बज सकेगा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की इन उम्मीदों और उत्साह पर रंज करना जरूरी भी नहीं है। लेकिन वैधानिक तरीकों की आड़ में अपने यहां जिस तरह से शिक्षा क्षेत्र में मनमानियां की जा रही हैं, डर उसी की वजह से है। कुछ इसी तरह भारतीय छात्रों का भला चाहते हुए स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने डीम्ड विश्वविद्यालयों की सीरिज खड़ी कर दी। शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और ज्यादा से ज्यादा छात्रों तक को डिग्रियां देने के लिए डीम्ड विश्वविद्यालयों की जो सीरीज खड़ी की गई, उनकी हालत अंदरखाने में जाकर ही पता चल पाएगी। हकीकत में ये डीम्ड विश्वविद्यालय डिग्रियां बांटने की दुकानें बन गए हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा में दो मानद विश्वविद्यालय हैं। दोनों ने अपने अध्यापकों को मौखिक आदेश दे रखे हैं कि किसी छात्र को फेल नहीं करना है। इन विश्वविद्यालयों के संचालकों की समस्या यह है कि अगर उनके यहां छात्र फेल होने लगे तो दूसरी बार उनके यहां एडमिशन कौन लेगा, फिर उनकी शैक्षिक दुकान कैसे चलेगी। दिल्ली से ही सटे हरियाणा के एक मानद विश्वविद्यालय में अध्यापकों की भर्तियों के वक्त इंटरव्यू विश्वविद्यालय संचालकों के घर की दो महिलाएं लेती हैं। अभ्यर्थियों ने भले ही इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, सोशल वर्क, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन या अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आवेदन किया होगा, ये दोनों महिलाएं ही उनका इंटरव्यू लेंगी। लियोनार्दो द विंची की तरह ये महिलाएं या तो इतनी प्रतिभाशाली हैं कि वे सब कुछ जानती हैं या फिर नई शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ हो रहा है। राजधानी दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में चल रहे एक संस्थान से लोगों ने दो साल पहले की तारीख में एमफिल में एडमिशन करा लिया और अब वे विश्वविद्यालय का अध्यापक बनने के लिए जरूरी नेट की परीक्षा से छूट पा गए हैं। सच तो यह है कि ये डीम्ड विश्वविद्यालय और संस्थान पैसे लाओ और डिग्रियां बांटने की दुकान की तरह काम कर रहे हैं। इसलिए क्या गारंटी है कि नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को डिग्री देने की सहूलियत मिलते ही उसका फायदा पैसा कमाने की दुकान बन चुके संस्थान नहीं उठाएंगे और यह अधिकार पाने के लिए खानापूर्ति करने में कामयाब नहीं होंगे। कहने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक कमेटी बना दी है, जो डिग्री देने की हैसियत चाहने वाले संस्थानों के शैक्षिक इतिहास और गरिमा की जांच करेगी। यह कमेटी उन कॉलेजों के स्तर की जांच वहां पढ़ाई-लिखाई के इतिहास और शिक्षा के क्षेत्र में वर्षो के उनके रिकार्ड के आधार पर जांच करेगी। इसके साथ ही उन्हें नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडिटेशन कौंसिल में कम से कम ए श्रेणी में पंजीकृत होना होगा। जिस देश में मेडिकल कौंसिल, आईसीटीईए और डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने वाली कमेटियों में पैसों का खेल चलता हो, वहां यह कैसे नहीं होगा कि डिग्री देने वाले संस्थानों को मान्यता देने वाली एजेंसी या समिति में तीन-पांच न हो और शिक्षा की दुकानें बने कॉलेज भी डिग्री बांटने की दुकान बन जाएं। पहले किसी संस्थान पर किसी विश्वविद्यालय से जुड़े होने के चलते शैक्षिक गुणवत्ता बनाए रखने का दबाव रहता था, लेकिन बदले हालात में यह दबाव संस्थानों से खत्म हो जाएगा। इसका असर यह होगा कि दुकानें चल निकलेंगी।
अभी फर्जी डिग्री से पायलटों की भर्ती का मामला चर्चा में है। फर्जी डिग्री से पायलट बनने की वजह यही है कि डीजीसीए जैसी संस्थाओं ने ऐसे संस्थानों को प्रशिक्षण की छूट दे दी, जिनका मकसद सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाना था। जयपुर से गिरफ्तार एक छात्र ने मीडिया से साफ कहा भी कि उसे पायलट ट्रेनिंग के लिए अपने संस्थान को पांच लाख रूपया देना पड़ा था। लेकिन जब वह गिरफ्तार हुआ तो संस्थान बता रहा है कि उसने सिर्फ एक लाख रूपए ही बतौर फीस वसूली है। सच तो यह है कि पायलट बनाने वाले संस्थान को भी भावी विमान चालकों की गुणवत्ता से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें सिर्फ पैसे बनाना था। अगर वे कमजोर छात्रों को फेल कर देते या फिर फर्जी डिग्री पर आने वाले छात्रों के प्रवेश को रोक देते तो उनकी कमाई मारी जाती। लिहाजा उन्होंने अपनी कमाई का ध्यान रखा, भावी यात्रियों की सुरक्षा पर सोचना भी उन्होंने जरूरी नहीं समझा। वैसे भी अगर वे एडमिशन रोकते या फिर कमजोर छात्रों को फेल करते तो अगले साल उन्हें नए छात्र नहीं मिलते।
कपिल सिब्बल ने मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच कराई थी। उनकी जांच में देश के 128 डीम्ड विश्वविद्यालयों में से 44 किसी भी मानक पर खरे नहीं उतरते थे। इनमें राजधानी दिल्ली के नजदीक स्थित हरियाणा का मानव रचना इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी और लिंग्या यूनिवर्सिटी के साथ ही नोएडा का जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलजी भी शामिल था। जाहिर है कि जब राजधानी से सटे संस्थान मानद विश्वविद्यालय बनने के बाद नियमों का मजाक उड़ा सकते हैं तो दूर के विश्वविद्यालयों और संस्थान क्या करेंगे, इसका अंदाजा लगाना आसान है। वैसे भी जिन 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों पर सवाल उठे हैं, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले रखा है। यानी उनका फिलहाल कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है, उल्टे छात्रों को वे डिग्री बांटने की कवायद में जुटे हुए ही हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संस्थानों और कॉलेजों को डिग्री देने की छूट मिली तो गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए फुलप्रूफ इंतजाम कैसे होंगे। क्या सरकार फिर डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह इंतजार करेगी कि वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और फिर उन पर सवाल खड़े करेगी और फिर होगा ढाक के तीन पात।
सच तो यह है कि शिक्षा की दुकानों के तौर पर तब्दील हो रहे संस्थानों पर अभी तक कोई कारगर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। इसलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय उच्च शिक्षा के विकास के लिए अपनी पीठ चाहे जितनी थपथपा लें, हकीकत तो यह है कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के साथ शैक्षिक तौर पर मजाक हो रहा है। बेहतर है कि सरकार संस्थानों को डिग्री बांटने का अधिकार देने के अपने फैसले पर विचार करके इतने कड़े प्रावधान बनाए, जिससे किसी संस्थान या डीम्ड विश्वविद्यालय को डिग्री बेचने की छूट न मिल सके।
Thursday, March 31, 2011
Saturday, March 19, 2011
जाट आरक्षण के किंतु-परंतु
उमेश चतुर्वेदी
उत्तर भारत के सबसे उल्लासमय त्यौहार होली की होलिका जलाकर जाट आंदोलन फिलहाल भले ही खत्म हो गया है, लेकिन भारतीय राजनीति में आरक्षण को लेकर जो आग दोनों बड़े दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने लगाई है, उसकी कीमत देश को चुकानी पड़ती रहेगी। मौजूदा जाट आंदोलन को लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार का जो चलताऊ रवैया रहा है, उससे आरक्षण आंदोलन को लेकर भारतीय राजनीति के भावी कदमों का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट जिस तरह अपना चूल्हा-चौका और चौपाल रेलवे लाइनों पर लगाकर बैठे रहे और राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, उससे साफ है कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में ताकतवर समूह के छोटे-मोटे हितों के लिए व्यापक जनसमुदाय की बलि दी जा सकती है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली रेलगाड़ियों के यात्री चूंकि मजबूत वोट बैंक नहीं थे, लिहाजा उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। पश्चिम बंगाल में चूंकि जाट कोई वोट बैंक नहीं है, लिहाजा रेल मंत्री ममता बनर्जी रेलवे को हो रहे नुकसान को लेकर अपने उस दर्द को भी भूल गईं, जो उन्होंने इसी 25 फरवरी को रेल बजट पेश करते हुए देश के सामने रखा था।
लोकतंत्र में जब कोई समुदाय मजबूत वोट बैंक बन जाता है तो उसे लेकर राजनीति कितनी मुतमईन हो जाती है, इसे जाटों के आरक्षण आंदोलन से समझा जा सकता है। हरियाणा की कांग्रेस सरकार और उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई कोशिश नहीं की। उलटे जाटों के आरक्षण का समर्थन ही करती रहीं। आज जो जाट समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा है, उसे एक दशक पहले तक खुद को आरक्षित समुदाय में संबोधित किए जाने से भी परेशानी होती थी। वह समुदाय मारपीट तक करने के लिए उतावला हो जाता था। लेकिन राजनीति के उकसावे ने उसे आरक्षण के लिए इस कदर उतावला बना दिया है कि अब वह आरक्षण के लिए मारपीट करने के लिए उतावला होता नजर आ रहा है। मौजूदा दौर में जब भी कोई समुदाय अपने लिए आरक्षण की मांग करता है तो उसका आधार मोरार जी देसाई सरकार द्वारा गठित बीपी मंडल आयोग है। यह सच है कि आजादी के पहले तक देश का जाट समुदाय एक हद तक पिछड़ा और कमजोर था। कुछ इलाकों में उसे शूद्रों की श्रेणी में भी रखा जाता था। लेकिन आजादी के साठ – बासठ साल में जाट आबादी बहुल इलाकों में जिस तेजी से विकास हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बदल कर रख दी है। हाल के दिनों में जिस तरह राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उसके आसपास और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बेहतर बना दी है। अब जाट का छोरा अपनी दुल्हन को लेने के हेलीकॉप्टर से जाने लगा है, चमचमाती गाड़ियां और गले में मोटे –मोटे सोने की चेन उसकी जीवन शैली का अंग बन गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सचमुच अब भी जाट समुदाय को आरक्षण की जरूरत है। मंडल कमीशन ने आरक्षण देने के लिए जो 11 मानक तय किए थे, उन मानकों में जाट समुदाय कहीं भी आरक्षित श्रेणी में आने के लिए फिट नहीं बैठता था। जिनमें सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मानक शामिल किए गए थे। गौरतलब है कि मंडल आयोग ने सभी पैमानों के लिए समान वेटेज नहीं दिया था, सामाजिक सूचकांकों के लिए उसने जहां तीन पाइंट वेटेज तय किया था तो शैक्षिक पिछड़ापन के लिए दो पाइंट। वहीं आर्थिक के लिए एक पाइंट वेटेज था। इसी तरह सामाजिक स्थिति के आकलन के तहत पहले दो बिंदु थे- ऐसी जातिया-वर्ग, जिन्हें अन्य जातिया सामाजिक तौर पर पिछड़ा मानती हैं तो दूसरा बिंदु था, ऐसी जातियां, जो मुख्यत: अपने जीवनयापन के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर थीं। शैक्षिक पैमानों के अहम बिंदु थे, ऐसी जातियां, जहां 5 से 15 साल की उम्र के बच्चे, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा हो, उनका अनुपात राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो तथा जाति-वर्ग विशेष के ऐसे बच्चे, जो 5-15 साल की उम्र के बीच स्कूल छोड़ जाते हों, उनकी संख्या राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो। दरअसल जाटों को आरक्षण देने की वकालत 1989 में बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने भी नहीं की थी। वी पी सिंह की इस सरकार में देवीलाल जैसा कद्दावर जाट नेता बतौर उपप्रधानमंत्री शामिल था। यह पूरी दुनिया जानती है कि राष्ट्रीय मोर्चा की उस सरकार के सबसे बड़े घटक जनता दल का सबसे बड़ा वोट बैंक जाट समुदाय ही था। अगर उस वक्त जाटों ने अपने लिए आरक्षण की मांग की होती तो वी पी सरकार उसे आसानी से मान लेती। लेकिन तब आरक्षित समुदाय में शामिल होना जाट समुदाय के लिए अपमान की बात थी। जनता दल अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद खत्म हो गया और यही वह दौर था, जब उत्तर भारत की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी ने अपना आधार बढ़ाना शुरू किया था। गोविंदाचार्य की सामाजिक इंजीनियरिंग में पार्टी की निगाह जनता दल के बड़े वोट बैंक जाटों के साथ ही पिछड़े वर्ग पर निगाह थी। तब भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में जाटों के आरक्षण का मुद्दा शामिल नहीं था। हिंदुत्व की राह पर चल रही भारतीय जनता पार्टी को जाटों ने बाद के चुनावों में भरपूर समर्थन दिया। यहीं से बतौर वोट बैंक जाटों पर कांग्रेस की निगाह लगी। इसके बाद भी उसने अपने एक वरिष्ठ नेता पी शिवशंकर की अगुआई में बने पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाया, जिसे उसने नवंबर 1997 में पेश किया था। जिसने राजस्थान के जाटों को कमजोर बताया था। इसके बाद कांग्रेस ने राजस्थान में जाटों को आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ दिया। जाहिर है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिला। उसे भैरो सिंह शेखावत की सरकार को जाट वोट बैंक के जरिए हटाने का मौका मिल गया। जाटों को कांग्रेस का यह समर्थन 1998 के आम चुनावों में भी मिला। जब पूरे उत्तर भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की लहर चल रही थी, राजस्थान में ज्यादातर लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। लेकिन ठीक तेरह महीने बाद हुए चुनावों में वाजपेयी ने राजस्थान के अपने चुनाव अभियान में जाटों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का ऐलान कर दिया। जिसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला। इससे घबराई अशोक गहलौत की राज्य सरकार चुनावों के तत्काल बाद जाटों को पिछड़ा वर्ग में आरक्षित करने का ऐलान कर दिया। वोट बैंक पर पकड़ को लेकर जिस जल्दबाजी में यह कदम उठाया गया, उसका हश्र गहलौत को जहां गुर्जरों के आंदोलन के रूप में झेलना पड़ा है, वहीं उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकारें हाल तक झेलती रही हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच जाटों को आरक्षण चाहिए। इस पर मतभेद हो सकता है। जहां तक हरियाणा की बात है तो वहां का वह प्रमुख समुदाय है। राज्य की राजनीति समेत तमाम क्षेत्रों में उसकी पकड़ बरकरार है। ऐसे में उन्हें आरक्षण मिल जाय तो बाकी समुदायों का क्या होगा, जो सचमुच कमजोर हैं। यही हालत उत्तर प्रदेश की है, जिसके पश्चिमी इलाके में जाट जनसंख्या प्रभावी भूमिका में है। पश्चिमी इलाके की राजनीति और अर्थव्यवस्था को जाट समुदाय प्रभावित करता है। क्या ऐसे समुदाय को भी आरक्षण चाहिए। एक और प्रमुख तथ्य यह है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां आखिर बची ही कितनी हैं। निजीकरण के दौर में लगातार कम होती सरकारी नौकरियों में आखिर तमाम समुदायों को आरक्षण का कितना फायदा मिल सकता है। जाहिर है कि ये सवाल कड़वे हैं और उनका जवाब जब भी तलाशा जाएगा, आरक्षण समर्थकों की आंखें तो खुलेंगी ही, आरक्षण का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की पोलपट्टी भी खुलेगी। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह से सोचने की हिम्मत आज के राजनीतिक दल नहीं दिखा रहे हैं। जबकि सत्ता और विपक्ष की राजनीति करने के चलते उनकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी बनती है।
उत्तर भारत के सबसे उल्लासमय त्यौहार होली की होलिका जलाकर जाट आंदोलन फिलहाल भले ही खत्म हो गया है, लेकिन भारतीय राजनीति में आरक्षण को लेकर जो आग दोनों बड़े दलों कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने लगाई है, उसकी कीमत देश को चुकानी पड़ती रहेगी। मौजूदा जाट आंदोलन को लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार का जो चलताऊ रवैया रहा है, उससे आरक्षण आंदोलन को लेकर भारतीय राजनीति के भावी कदमों का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट जिस तरह अपना चूल्हा-चौका और चौपाल रेलवे लाइनों पर लगाकर बैठे रहे और राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रही, उससे साफ है कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था में ताकतवर समूह के छोटे-मोटे हितों के लिए व्यापक जनसमुदाय की बलि दी जा सकती है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश से गुजरने वाली रेलगाड़ियों के यात्री चूंकि मजबूत वोट बैंक नहीं थे, लिहाजा उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। पश्चिम बंगाल में चूंकि जाट कोई वोट बैंक नहीं है, लिहाजा रेल मंत्री ममता बनर्जी रेलवे को हो रहे नुकसान को लेकर अपने उस दर्द को भी भूल गईं, जो उन्होंने इसी 25 फरवरी को रेल बजट पेश करते हुए देश के सामने रखा था।
लोकतंत्र में जब कोई समुदाय मजबूत वोट बैंक बन जाता है तो उसे लेकर राजनीति कितनी मुतमईन हो जाती है, इसे जाटों के आरक्षण आंदोलन से समझा जा सकता है। हरियाणा की कांग्रेस सरकार और उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की सरकार ने इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई कोशिश नहीं की। उलटे जाटों के आरक्षण का समर्थन ही करती रहीं। आज जो जाट समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा है, उसे एक दशक पहले तक खुद को आरक्षित समुदाय में संबोधित किए जाने से भी परेशानी होती थी। वह समुदाय मारपीट तक करने के लिए उतावला हो जाता था। लेकिन राजनीति के उकसावे ने उसे आरक्षण के लिए इस कदर उतावला बना दिया है कि अब वह आरक्षण के लिए मारपीट करने के लिए उतावला होता नजर आ रहा है। मौजूदा दौर में जब भी कोई समुदाय अपने लिए आरक्षण की मांग करता है तो उसका आधार मोरार जी देसाई सरकार द्वारा गठित बीपी मंडल आयोग है। यह सच है कि आजादी के पहले तक देश का जाट समुदाय एक हद तक पिछड़ा और कमजोर था। कुछ इलाकों में उसे शूद्रों की श्रेणी में भी रखा जाता था। लेकिन आजादी के साठ – बासठ साल में जाट आबादी बहुल इलाकों में जिस तेजी से विकास हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बदल कर रख दी है। हाल के दिनों में जिस तरह राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और उसके आसपास और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिस तरह औद्योगीकरण और शहरीकरण हुआ है, उसने जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति बेहतर बना दी है। अब जाट का छोरा अपनी दुल्हन को लेने के हेलीकॉप्टर से जाने लगा है, चमचमाती गाड़ियां और गले में मोटे –मोटे सोने की चेन उसकी जीवन शैली का अंग बन गया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सचमुच अब भी जाट समुदाय को आरक्षण की जरूरत है। मंडल कमीशन ने आरक्षण देने के लिए जो 11 मानक तय किए थे, उन मानकों में जाट समुदाय कहीं भी आरक्षित श्रेणी में आने के लिए फिट नहीं बैठता था। जिनमें सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मानक शामिल किए गए थे। गौरतलब है कि मंडल आयोग ने सभी पैमानों के लिए समान वेटेज नहीं दिया था, सामाजिक सूचकांकों के लिए उसने जहां तीन पाइंट वेटेज तय किया था तो शैक्षिक पिछड़ापन के लिए दो पाइंट। वहीं आर्थिक के लिए एक पाइंट वेटेज था। इसी तरह सामाजिक स्थिति के आकलन के तहत पहले दो बिंदु थे- ऐसी जातिया-वर्ग, जिन्हें अन्य जातिया सामाजिक तौर पर पिछड़ा मानती हैं तो दूसरा बिंदु था, ऐसी जातियां, जो मुख्यत: अपने जीवनयापन के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर थीं। शैक्षिक पैमानों के अहम बिंदु थे, ऐसी जातियां, जहां 5 से 15 साल की उम्र के बच्चे, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा हो, उनका अनुपात राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो तथा जाति-वर्ग विशेष के ऐसे बच्चे, जो 5-15 साल की उम्र के बीच स्कूल छोड़ जाते हों, उनकी संख्या राज्य के औसत से 25 फीसदी अधिक हो। दरअसल जाटों को आरक्षण देने की वकालत 1989 में बनी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार ने भी नहीं की थी। वी पी सिंह की इस सरकार में देवीलाल जैसा कद्दावर जाट नेता बतौर उपप्रधानमंत्री शामिल था। यह पूरी दुनिया जानती है कि राष्ट्रीय मोर्चा की उस सरकार के सबसे बड़े घटक जनता दल का सबसे बड़ा वोट बैंक जाट समुदाय ही था। अगर उस वक्त जाटों ने अपने लिए आरक्षण की मांग की होती तो वी पी सरकार उसे आसानी से मान लेती। लेकिन तब आरक्षित समुदाय में शामिल होना जाट समुदाय के लिए अपमान की बात थी। जनता दल अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद खत्म हो गया और यही वह दौर था, जब उत्तर भारत की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी ने अपना आधार बढ़ाना शुरू किया था। गोविंदाचार्य की सामाजिक इंजीनियरिंग में पार्टी की निगाह जनता दल के बड़े वोट बैंक जाटों के साथ ही पिछड़े वर्ग पर निगाह थी। तब भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में जाटों के आरक्षण का मुद्दा शामिल नहीं था। हिंदुत्व की राह पर चल रही भारतीय जनता पार्टी को जाटों ने बाद के चुनावों में भरपूर समर्थन दिया। यहीं से बतौर वोट बैंक जाटों पर कांग्रेस की निगाह लगी। इसके बाद भी उसने अपने एक वरिष्ठ नेता पी शिवशंकर की अगुआई में बने पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाया, जिसे उसने नवंबर 1997 में पेश किया था। जिसने राजस्थान के जाटों को कमजोर बताया था। इसके बाद कांग्रेस ने राजस्थान में जाटों को आरक्षण देने का शिगूफा छोड़ दिया। जाहिर है कि इसका फायदा कांग्रेस को मिला। उसे भैरो सिंह शेखावत की सरकार को जाट वोट बैंक के जरिए हटाने का मौका मिल गया। जाटों को कांग्रेस का यह समर्थन 1998 के आम चुनावों में भी मिला। जब पूरे उत्तर भारत में अटल बिहारी वाजपेयी की लहर चल रही थी, राजस्थान में ज्यादातर लोकसभा सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। लेकिन ठीक तेरह महीने बाद हुए चुनावों में वाजपेयी ने राजस्थान के अपने चुनाव अभियान में जाटों को पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का ऐलान कर दिया। जिसका सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला। इससे घबराई अशोक गहलौत की राज्य सरकार चुनावों के तत्काल बाद जाटों को पिछड़ा वर्ग में आरक्षित करने का ऐलान कर दिया। वोट बैंक पर पकड़ को लेकर जिस जल्दबाजी में यह कदम उठाया गया, उसका हश्र गहलौत को जहां गुर्जरों के आंदोलन के रूप में झेलना पड़ा है, वहीं उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकारें हाल तक झेलती रही हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच जाटों को आरक्षण चाहिए। इस पर मतभेद हो सकता है। जहां तक हरियाणा की बात है तो वहां का वह प्रमुख समुदाय है। राज्य की राजनीति समेत तमाम क्षेत्रों में उसकी पकड़ बरकरार है। ऐसे में उन्हें आरक्षण मिल जाय तो बाकी समुदायों का क्या होगा, जो सचमुच कमजोर हैं। यही हालत उत्तर प्रदेश की है, जिसके पश्चिमी इलाके में जाट जनसंख्या प्रभावी भूमिका में है। पश्चिमी इलाके की राजनीति और अर्थव्यवस्था को जाट समुदाय प्रभावित करता है। क्या ऐसे समुदाय को भी आरक्षण चाहिए। एक और प्रमुख तथ्य यह है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां आखिर बची ही कितनी हैं। निजीकरण के दौर में लगातार कम होती सरकारी नौकरियों में आखिर तमाम समुदायों को आरक्षण का कितना फायदा मिल सकता है। जाहिर है कि ये सवाल कड़वे हैं और उनका जवाब जब भी तलाशा जाएगा, आरक्षण समर्थकों की आंखें तो खुलेंगी ही, आरक्षण का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की पोलपट्टी भी खुलेगी। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस तरह से सोचने की हिम्मत आज के राजनीतिक दल नहीं दिखा रहे हैं। जबकि सत्ता और विपक्ष की राजनीति करने के चलते उनकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी बनती है।
Monday, February 28, 2011
महंगाई से जूझ रहे लोगों को दादा ने आखिर क्या दिया
उमेश चतुर्वेदी
महंगाई से जूझ रहे लोगों को उम्मीद थी कि प्रणब मुखर्जी जब देश का 80वां बजट पेश करेंगे तो उसमें महंगाई से राहत के उपाय होंगे, लेकिन प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में ऐसा कुछ खास नहीं निकला, जिससे महंगाई से जूझ रही जनता राहत की उम्मीद कर सके। सरकार और कांग्रेस पार्टी इसे किसानों और आम आदमी का बजट बताते थक नहीं रही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी को भी पता है कि यह बजट आम आदमी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के शब्दों पर गौर फरमाएं तो यह तथ्य साफ हो जाएगा। बजट पेश होने के बाद प्रतिक्रिया देते हुए मनीष तिवारी का कहना कि वित्तमंत्री ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने वाला बजट पेश नहीं किया है, साफ करता है कि कांग्रेस भी मानती है कि प्रणब मुखर्जी का बजट आम लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। शायद यही वजह है कि समूचा विपक्ष इस बजट को सिर्फ वायदों का पिटारा बता रहा है। यों तो वित्तमंत्री बजट को दो हिस्सों में पढ़ते हैं, लेकिन लोगों को बजट प्रावधानों से ज्यादा नजर अपनी आम जरूरत की चीजों की कीमतों पर रहती है। लोग यह भी चाहते हैं कि आयकर की छूट सीमा बढ़े। इस लिहाज से प्रणब मुखर्जी का बजट कमजोर है। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार आयकर की छूट सीमा एक लाख साठ हजार से बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी जाएगी, लेकिन यह छूट महज बीस हजार रुपये की बढ़ी। महिलाओं को पिछले कई साल से छूट देने की परंपरा ही बन गई है, लेकिन इस बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। बुजुर्ग लोगों को आयकर की छूट सीमा दो लाख चालीस हजार से बढ़ाकर ढाई लाख रुपये कर दी गई। हां, अस्सी साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गो के लिए यह छूट सीमा पांच लाख रुपये तक कर दी गई है। अभी तक पैंसठ साल के बुजुर्गो को ही वृद्धावस्था पेंशन देने का प्रावधान था। अब यह उम्र सीमा घटाकर साठ साल कर दी गई है। फिर राशि भी दो सौ से बढ़ाकर पांच सौ रुपये कर दी गई है। महंगाई के इस दौर में जैसी गति दो सौ रुपये की थी, वैसी ही गति पांच सौ की है। ऐसे में बुजुर्गो को क्या फायदा मिलेगा। बीस हजार रुपये की आयकर छूट का साढ़े आठ फीसदी महंगाई दर के दौर में लोगों को क्या फायदा मिलेगा, इसे वित्तमंत्री ही ठीक तरीके से बता सकते हैं। लेकिन यह तय है कि आम लोगों को खास फायदा नहीं मिला है। वित्तमंत्री ने एक बोल्ड कदम जरूर उठाने का ऐलान किया है कि केरोसिन और एलपीजी के लिए अब सीधे नगद ही सब्सिडी दी जाएगी। अब तक यह सब्सिडी तेल कंपनियों को ही मिलती थी। जब किसानों को 73 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई थी, तब कुछ एनजीओ और राजनीतिक दलों ने मांग रखी थी कि यह सब्सिडी सीधे नगदी तौर पर किसानों को ही दी जाए तो हर किसान को साढ़े छह हजार रुपये मिलेंगे और उसका सीधा फायदा उसे मिलेगा। सरकार ने तब किसानों को ऐसा फायदा भले ही लेने नहीं दिया, लेकिन केरोसिन और एलपीजी पर नगद सब्सिडी देने का ऐलान करके एक सराहनीय कदम उठाने की कोशिश जरूर की है। लेकिन इसके लिए क्या सरकारी प्रक्रिया होगी, किन्हें यह फायदा मिलेगा, कहीं यह फायदा सिर्फ सरकार की नजर में रहे गरीब लोगों को ही मिल पाएगा..? ये कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। लेकिन यह तय है कि अगर इस सब्सिडी को लागू करने के लिए पारदर्शी और अचूक तरीका अख्तियार नहीं किया गया तो इससे सरकारी बाबुओं के मालामाल होने और भ्रष्टाचार की नई राह खुल जाएगी। सरकार के नए ऐलानों से लोहा, ब्रांडेड रेडिमेड कपड़े, ब्रांडेड सोना, विदेशी हवाई यात्रा महंगी हो जाएगी। जबकि सौर लालटेन, साबुन, मोबाइल, एलईडी टीवी, कागज, प्रिंटर, साबुन, गाडि़यों के पुर्जे, कच्चा रेशम, सिल्क, रेफ्रिजरेटर, मोबाइल, सीमेंट, स्टील का सामान, कृषि मशीनरी, बैटरी वाली कार, बच्चों के डायपर आदि सस्ते होंगे। लेकिन सरकार ने जिस तरह सर्विस टैक्स के दायरे में बड़े अस्पतालों में इलाज समेत कई सेवाओं को लागू किया है, उससे तय है कि महंगाई और बढ़ेगी। आज के तनाव भरे दौर में जिस तरह से लोगों की जिंदगी पर खतरा बढ़ा है, उसमें बीमा पर लोगों का आसरा बढ़ा है। लेकिन बीमा पॉलिसी पर भी सेवाकर बढ़ाकर वित्तमंत्री ने एक तरह से लोगों की पॉकेट पर ही निगाह गड़ा दी है। ऐसे में महंगाई से राहत की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आयातित कार बैटरियों और सीएनजी किट पर सीमा शुल्क घटाकर सरकार ने पर्यावरणवादी कदम उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन सच तो यह है कि इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए सीमा शुल्क का आधा किया जाना ही राहत भरा बड़ा कदम नहीं हो सकता। कच्चे रेशम पर भी सीमा शुल्क घटाकर पांच प्रतिशत किया गया है, लेकिन देसी बुनकरों के लिए खास छूटों का ऐलान नहीं है। हालांकि नाबार्ड के जरिए तीन हजार करोड़ की मदद का ऐलान जरूर किया गया है। सरकार का दावा है कि इसका फायदा तीन लाख हथकरघा मजदूरों को मिलेगा। वित्तमंत्री ने किसानों को 4.75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देने का ऐलान किया है। इसके साथ ही वक्त पर कर्ज लौटाने पर उन्हें 3 फीसदी की छूट देने का ऐलान भी किया गया है। इसके साथ ही उन्हें 7 फीसदी ब्याज पर कर्ज देने की भी घोषणा है। इसके साथ ही कोल्ड स्टोरेज के लिए एसी पर कोई एक्साइज नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र को मजबूती देने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है, लेकिन इसका फायदा किसानों की बजाय छोटे उद्यमियों को आर्थिक मदद के तौर पर दिलाने का वायदा है। सच तो यह है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा किसानों को मिलना चाहिए। उन्हें कम पूंजी के जरिये अपनी खेती को उन्नत बनाने की जरूरत हर साल पड़ती है, लेकिन सरकार ने अपनी माइक्रोफाइनेंसिंग के दायरे में किसानों पर ध्यान नहीं दिया। वित्तमंत्री ने 2000 से ज्यादा आबादी वाले गांवों में बैंक की सुविधा देने और ग्रामीण बैंकों को 500 करोड़ रुपये देने का भी ऐलान किया है। जाहिर है, गांवों तक सरकारी बैंक ही पहुंचेंगे, लेकिन गांवों में सरकारी बैंकों की जो हालत है और किसानों के साथ उनका क्या सलूक है, यह छुपा नहीं है। उनकी हालत सुधारने और किसान हितैषी बनाने के संबंध में प्रणब मुखर्जी का बजट मौन है। पिछले साल बढ़ी दालों की कीमतों और दूध के आसन्न संकट से निबटने के लिए वित्तमंत्री ने अपने बजट में प्रावधान तो किए हैं। दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्होंने जहां 300 करोड़ की रकम का प्रावधान किया है, वहीं इतनी ही रकम दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी देने का ऐलान है। लेकिन वित्तमंत्री यह भूल गए हैं कि इतने बड़े देश में सिर्फ 300 करोड़ की रकम से दाल और दूध का उत्पादन उस स्तर तक नहीं पहुंचाया जा सकता, जितनी कि देश को जरूरत है। भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्षी दलों और बाबा रामदेव ने जिस तरह काले धन को देश व्यापी मुद्दा बना रखा है, उसका दबाव भी प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में दिखा। बजट भाषण पढ़ते हुए उन्होंने काले धन के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकार इससे निपटने के लिए पांच सूत्रीय कार्ययोजना चला रही है। जिसके तहत काले धन के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष में साथ, देना उपयुक्त कानूनी ढांचा तैयार करना, अनुचित तरीकों से कमाए गए धन से निपटने के लिए संस्थाएं स्थापित करना, क्रियान्वयन के लिए प्रणालियां विकसित करना और लोगों को कौशल का प्रशिक्षण देना शामिल किया गया है, लेकिन काले धन को लेकर सरकार के कड़े कदम क्या होंगे, उसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके बजट भाषण में नहीं दिखी। जाहिर है कि वित्तमंत्री ने सिर्फ चतुराई का ही परिचय दिया है। इससे साफ है कि वित्तमंत्री के मौजूदा बजट भाषण का जमीनी स्तर पर खास फायदा नहीं होने जा रहा। किसान पहले की तरह हलकान रहेंगे, मध्यवर्ग अपनी कमाई में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर रहेगा।
महंगाई से जूझ रहे लोगों को उम्मीद थी कि प्रणब मुखर्जी जब देश का 80वां बजट पेश करेंगे तो उसमें महंगाई से राहत के उपाय होंगे, लेकिन प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में ऐसा कुछ खास नहीं निकला, जिससे महंगाई से जूझ रही जनता राहत की उम्मीद कर सके। सरकार और कांग्रेस पार्टी इसे किसानों और आम आदमी का बजट बताते थक नहीं रही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी को भी पता है कि यह बजट आम आदमी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाएगा। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी के शब्दों पर गौर फरमाएं तो यह तथ्य साफ हो जाएगा। बजट पेश होने के बाद प्रतिक्रिया देते हुए मनीष तिवारी का कहना कि वित्तमंत्री ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने वाला बजट पेश नहीं किया है, साफ करता है कि कांग्रेस भी मानती है कि प्रणब मुखर्जी का बजट आम लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। शायद यही वजह है कि समूचा विपक्ष इस बजट को सिर्फ वायदों का पिटारा बता रहा है। यों तो वित्तमंत्री बजट को दो हिस्सों में पढ़ते हैं, लेकिन लोगों को बजट प्रावधानों से ज्यादा नजर अपनी आम जरूरत की चीजों की कीमतों पर रहती है। लोग यह भी चाहते हैं कि आयकर की छूट सीमा बढ़े। इस लिहाज से प्रणब मुखर्जी का बजट कमजोर है। लोगों को उम्मीद थी कि इस बार आयकर की छूट सीमा एक लाख साठ हजार से बढ़ाकर तीन लाख रुपये कर दी जाएगी, लेकिन यह छूट महज बीस हजार रुपये की बढ़ी। महिलाओं को पिछले कई साल से छूट देने की परंपरा ही बन गई है, लेकिन इस बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। बुजुर्ग लोगों को आयकर की छूट सीमा दो लाख चालीस हजार से बढ़ाकर ढाई लाख रुपये कर दी गई। हां, अस्सी साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गो के लिए यह छूट सीमा पांच लाख रुपये तक कर दी गई है। अभी तक पैंसठ साल के बुजुर्गो को ही वृद्धावस्था पेंशन देने का प्रावधान था। अब यह उम्र सीमा घटाकर साठ साल कर दी गई है। फिर राशि भी दो सौ से बढ़ाकर पांच सौ रुपये कर दी गई है। महंगाई के इस दौर में जैसी गति दो सौ रुपये की थी, वैसी ही गति पांच सौ की है। ऐसे में बुजुर्गो को क्या फायदा मिलेगा। बीस हजार रुपये की आयकर छूट का साढ़े आठ फीसदी महंगाई दर के दौर में लोगों को क्या फायदा मिलेगा, इसे वित्तमंत्री ही ठीक तरीके से बता सकते हैं। लेकिन यह तय है कि आम लोगों को खास फायदा नहीं मिला है। वित्तमंत्री ने एक बोल्ड कदम जरूर उठाने का ऐलान किया है कि केरोसिन और एलपीजी के लिए अब सीधे नगद ही सब्सिडी दी जाएगी। अब तक यह सब्सिडी तेल कंपनियों को ही मिलती थी। जब किसानों को 73 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दी गई थी, तब कुछ एनजीओ और राजनीतिक दलों ने मांग रखी थी कि यह सब्सिडी सीधे नगदी तौर पर किसानों को ही दी जाए तो हर किसान को साढ़े छह हजार रुपये मिलेंगे और उसका सीधा फायदा उसे मिलेगा। सरकार ने तब किसानों को ऐसा फायदा भले ही लेने नहीं दिया, लेकिन केरोसिन और एलपीजी पर नगद सब्सिडी देने का ऐलान करके एक सराहनीय कदम उठाने की कोशिश जरूर की है। लेकिन इसके लिए क्या सरकारी प्रक्रिया होगी, किन्हें यह फायदा मिलेगा, कहीं यह फायदा सिर्फ सरकार की नजर में रहे गरीब लोगों को ही मिल पाएगा..? ये कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार को देना होगा। लेकिन यह तय है कि अगर इस सब्सिडी को लागू करने के लिए पारदर्शी और अचूक तरीका अख्तियार नहीं किया गया तो इससे सरकारी बाबुओं के मालामाल होने और भ्रष्टाचार की नई राह खुल जाएगी। सरकार के नए ऐलानों से लोहा, ब्रांडेड रेडिमेड कपड़े, ब्रांडेड सोना, विदेशी हवाई यात्रा महंगी हो जाएगी। जबकि सौर लालटेन, साबुन, मोबाइल, एलईडी टीवी, कागज, प्रिंटर, साबुन, गाडि़यों के पुर्जे, कच्चा रेशम, सिल्क, रेफ्रिजरेटर, मोबाइल, सीमेंट, स्टील का सामान, कृषि मशीनरी, बैटरी वाली कार, बच्चों के डायपर आदि सस्ते होंगे। लेकिन सरकार ने जिस तरह सर्विस टैक्स के दायरे में बड़े अस्पतालों में इलाज समेत कई सेवाओं को लागू किया है, उससे तय है कि महंगाई और बढ़ेगी। आज के तनाव भरे दौर में जिस तरह से लोगों की जिंदगी पर खतरा बढ़ा है, उसमें बीमा पर लोगों का आसरा बढ़ा है। लेकिन बीमा पॉलिसी पर भी सेवाकर बढ़ाकर वित्तमंत्री ने एक तरह से लोगों की पॉकेट पर ही निगाह गड़ा दी है। ऐसे में महंगाई से राहत की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आयातित कार बैटरियों और सीएनजी किट पर सीमा शुल्क घटाकर सरकार ने पर्यावरणवादी कदम उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन सच तो यह है कि इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए सीमा शुल्क का आधा किया जाना ही राहत भरा बड़ा कदम नहीं हो सकता। कच्चे रेशम पर भी सीमा शुल्क घटाकर पांच प्रतिशत किया गया है, लेकिन देसी बुनकरों के लिए खास छूटों का ऐलान नहीं है। हालांकि नाबार्ड के जरिए तीन हजार करोड़ की मदद का ऐलान जरूर किया गया है। सरकार का दावा है कि इसका फायदा तीन लाख हथकरघा मजदूरों को मिलेगा। वित्तमंत्री ने किसानों को 4.75 लाख करोड़ रुपये का कर्ज देने का ऐलान किया है। इसके साथ ही वक्त पर कर्ज लौटाने पर उन्हें 3 फीसदी की छूट देने का ऐलान भी किया गया है। इसके साथ ही उन्हें 7 फीसदी ब्याज पर कर्ज देने की भी घोषणा है। इसके साथ ही कोल्ड स्टोरेज के लिए एसी पर कोई एक्साइज नहीं लगाया गया है। इसके साथ ही माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र को मजबूती देने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है, लेकिन इसका फायदा किसानों की बजाय छोटे उद्यमियों को आर्थिक मदद के तौर पर दिलाने का वायदा है। सच तो यह है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा किसानों को मिलना चाहिए। उन्हें कम पूंजी के जरिये अपनी खेती को उन्नत बनाने की जरूरत हर साल पड़ती है, लेकिन सरकार ने अपनी माइक्रोफाइनेंसिंग के दायरे में किसानों पर ध्यान नहीं दिया। वित्तमंत्री ने 2000 से ज्यादा आबादी वाले गांवों में बैंक की सुविधा देने और ग्रामीण बैंकों को 500 करोड़ रुपये देने का भी ऐलान किया है। जाहिर है, गांवों तक सरकारी बैंक ही पहुंचेंगे, लेकिन गांवों में सरकारी बैंकों की जो हालत है और किसानों के साथ उनका क्या सलूक है, यह छुपा नहीं है। उनकी हालत सुधारने और किसान हितैषी बनाने के संबंध में प्रणब मुखर्जी का बजट मौन है। पिछले साल बढ़ी दालों की कीमतों और दूध के आसन्न संकट से निबटने के लिए वित्तमंत्री ने अपने बजट में प्रावधान तो किए हैं। दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्होंने जहां 300 करोड़ की रकम का प्रावधान किया है, वहीं इतनी ही रकम दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए भी देने का ऐलान है। लेकिन वित्तमंत्री यह भूल गए हैं कि इतने बड़े देश में सिर्फ 300 करोड़ की रकम से दाल और दूध का उत्पादन उस स्तर तक नहीं पहुंचाया जा सकता, जितनी कि देश को जरूरत है। भारतीय जनता पार्टी समेत विपक्षी दलों और बाबा रामदेव ने जिस तरह काले धन को देश व्यापी मुद्दा बना रखा है, उसका दबाव भी प्रणब मुखर्जी के बजट प्रस्तावों में दिखा। बजट भाषण पढ़ते हुए उन्होंने काले धन के दुष्प्रभावों को लेकर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकार इससे निपटने के लिए पांच सूत्रीय कार्ययोजना चला रही है। जिसके तहत काले धन के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष में साथ, देना उपयुक्त कानूनी ढांचा तैयार करना, अनुचित तरीकों से कमाए गए धन से निपटने के लिए संस्थाएं स्थापित करना, क्रियान्वयन के लिए प्रणालियां विकसित करना और लोगों को कौशल का प्रशिक्षण देना शामिल किया गया है, लेकिन काले धन को लेकर सरकार के कड़े कदम क्या होंगे, उसकी कोई स्पष्ट रूपरेखा उनके बजट भाषण में नहीं दिखी। जाहिर है कि वित्तमंत्री ने सिर्फ चतुराई का ही परिचय दिया है। इससे साफ है कि वित्तमंत्री के मौजूदा बजट भाषण का जमीनी स्तर पर खास फायदा नहीं होने जा रहा। किसान पहले की तरह हलकान रहेंगे, मध्यवर्ग अपनी कमाई में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर रहेगा।
Friday, February 25, 2011
रेल बजट : लेकिन आम यात्रियों की सहूलियतों की चिंता कहां हैं
उमेश चतुर्वेदी
पश्चिम बंगाल के चुनावी साल में ममता बनर्जी रेल बजट पेश करें और उनके आंचल से ममता ना बरसे, ऐसा कैसे हो सकता है। ममता बनर्जी भले ही रेल मंत्री हैं, लेकिन उनका ध्यान दिल्ली के रफी मार्ग स्थित रेलवे बोर्ड के मुख्यालय रेल भवन पर कम ही रहता है। उनकी निगाह कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग पर ही है। यह पूरा देश जानता है और राजनीतिकों की छोड़िए, आम आदमी भी यही मानकर चल रहा था कि संसद में इस बार भी पश्चिम बंगाल एक्सप्रेस ही दौड़ेगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता कोलकाता पर वे ज्यादा मेहरबान रहीं। कोलकाता को अकेले पचास ट्रेनें, मेट्रो रूट को बढ़ावा और कोच फैक्टरी की सौगात देकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दुनिया चाहे जो कहे, जब तक उनके हाथ में रेलवे की कमान है, अपने कोलकाता और बंगाल पर मेहरबान बनी रहेंगी। एनडीए सरकार के रेल मंत्री के तौर पर जब उन्होंने पहली बार रेलवे का बजट पेश किया था, तब भी उन पर बंगाल के लिए बजट पेश करने का आरोप लगा था। इन आरोपों के बाद उन्होंने तीखी टिप्पणी की थी – यदि भारत उनकी मातृभूमि है तो पश्चिम बंगाल उनका स्वीट होम है और ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने स्वीट होम के लिए वे कुछ नहीं करें।
लेकिन ममता ने बाकी इलाकों को उतने उपहार भले ही नहीं दिए, जितने कोलकाता को मिले हैं, उतने किसी और को नहीं। लेकिन यात्री किराए में बढ़ोत्तरी ना करना, बुकिंग फीस घटाकर एसी के लिए दस रूपए और गैर एसी के लिए पांच रूपए करना निश्चित तौर पर यात्रियों को सुखकर लगेगा। माल भाड़े में भी कोई बढ़त ना करके ममता ने साबित किया है कि उनकी निगाह भले ही पश्चिम बंगाल के चुनावों पर है, लेकिन जनता के दुख-दर्दों से उनका वास्ता है। महंगाई से जूझ रही जनता के लिए निश्चित तौर पर ममता का ये आंचल जरूर राहत लेकर आया है। वैसे भी मध्य एशिया और अरब देशों में बढ़ती अराजकता के चलते कच्चे तेल की कीमतें 105 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। जाहिर है इस महंगाई का सामना रेलवे को भी करना पड़ रहा है। ऐसे में भी अगर ममता ने रेल किराए या माल भाड़े में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की तो जाहिर है कि उन्होंने जन पक्षधरता दिखाई है। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी जनपक्षधरता ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है। करीब 16 लाख कर्मचारियों के भारी-भरकम बेड़े वाली रेलवे रोजाना करीब एक करोड़ लोगों को ढोती है। जाहिर है कि इसमें भारी भरकम रकम खर्च होती है। लेकिन यह खर्च कहां से आएगा, ममता बनर्जी के बजट में इसका जिक्र नहीं है। अलबत्ता उन्होंने रेलवे की तरफ सरकार को छह प्रतिशत का लाभांश भी दिया है। रेलवे के जानकारों को लगता है कि इसमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है। अगर सचमुच में भी ऐसा हुआ है तो इसकी कीमत आनेवाले दिनों में रेलवे को आर्थिक तौर पर चुकानी पड़ सकती है। ममता ने रेलवे के लिए अब तक के सबसे अधिक 57, 630 करोड़ रुपये के परिव्यय का प्रस्ताव किया है। लेकिन जहां तक रकम जुटाने का सवाल है तो इसे बांड और बाजार से उगाहने की दिशा में मोड़ दिया गया है। ममता के इस बजट से पंद्रह हजार करोड़ रूपए बाजार से उगाहने का लक्ष्य है। इससे साफ है कि कर्ज आधारित व्यवस्था पर रेल को चलाने की कोशिश है। ममता ने नई लाइनों के लिए 9583 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके साथ ही 1300 किलोमीटर नई लाइनें, 867 किलोमीटर लाइनों का दोहरीकरण और 1017 किलोमीटर का आमान परिवर्तन करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन ममता के पुराने बजटों से साफ है कि ऐसे प्रस्ताव उन्होंने पहले भी रखे हैं, लेकिन उन पर काम न के बराबर भी हुआ है। जिस कोलकाता पर वे मेहरबान रही हैं, वहां के मेट्रो के विस्तार का लक्ष्य उन्होंने यूपीए सरकार के रेलमंत्री के तौर पर अपने पहले बजट में भी रखा था। लेकिन हकीकत यह है कि इस दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसे कोलकाता वासी अच्छी तरह से जानते हैं। ममता ने अपने बजट प्रस्ताव में आठ क्षेत्रीय रेलों पर टक्कररोधी उपकरण लगाने का भी प्रस्ताव किया है। इन उपकरणों का नीतीश कुमार के रेल मंत्री रहते सफल परीक्षण किया जा चुका था। ऐसे में सवाल यह उठना लाजिमी है कि आखिर इन्हें लागू करने की कोशिश अब जाकर क्यों शुरू हुई है। ममता ने जयपुर-दिल्ली और अहमदाबाद-मुंबई रुट पर ऐसी डबल डेकर ट्रेनें चलाने का ऐलान किया है। ऐसा ऐलान पिछले बजट में धनबाद-कोलकाता रूट के लिए भी किया गया था। लेकिन हकीकत में अब तक इस रूट पर डबल डेकर ट्रेनों का सफल परीक्षण तो नहीं हो सका है। जब बंगाल के इलाके में सफल प्रयास नहीं हो पाया तो दूसरे इलाके में इसके जल्द सफल होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। भारतीय रेल की सबसे बड़ी समस्या उसकी रफ्तार है। ममता ने यात्री गाडियों की रफ्तार 160 से बढाकर 200 किलोमीटर
प्रति घंटे करने के बारे में व्यावहारिक अध्ययन कराने का ऐलान किया है। लेकिन जिस हालत में भारतीय रेलवे के ट्रैक हैं, उसमें इसे व्यवहारिक जामा पहनाया जाना आसान नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा देने में रेलवे की गैरमौजूदगी को भी जानकार बड़ा कारण बताते रहे हैं। इस संदर्भ में ममता का वह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसके तहत उन्होंने सिक्किम को छोड पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की राजधानियों को अगले सात साल में रेल संपर्क से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब रेलवे की हालत ही खराब है तो इसके लिए जरूरी रकम आएगी कहां से। रेल बजट इस बारे में साफ जानकारी नहीं देता। रेलवे के जानकार मानते हैं कि भारतीय रेलवे जिस हालत में है, उसमें उसकी हालत सुधारने के लिए परियोजना बजट बढ़ाया जाना चाहिए। रेलवे की जो हालत है, उसमें परियोजनाएं बजट प्रस्तावों में रख तो दी जाती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनके विकास की दिशा में कोई काम नहीं हो सकता। जब ऐसे ही खुशफहमी भरा बजट लालू यादव पेश करते थे तो नीतीश कुमार कहा करते थे कि उनके इस बजट की कीमत आने वाले रेलमंत्री को चुकानी पड़ेगी। ममता बनर्जी ने रेलवे पर श्वेत पत्र लाकर लालू राज की खुशफहमियों की कलई खोलने की कोशिश की थी। लेकिन खुद ममता रेलवे के ढांचागत विकास के लिए खास योजना लेकर नहीं आ सकी हैं। भारतीय यात्रियों को भारतीय रेलों से वक्त की पाबंदी और साफ-सुथरी ट्रेनों के साथ सहूलियतों की अपेक्षा रहती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ममता के इस पूरे बजट में इन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।
Saturday, February 12, 2011
अनुभवों के विस्तारित आकाश का प्रस्थान बिंदु
उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में लोक साहित्य के अध्ययन का आधार बना गीत - रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी , पइसवा बैरी भइले ना - भी दरअसल प्रवासी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति था। लेकिन आज प्रवास का मकसद वैसा नहीं रहा, जैसा उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों से लेकर आजादी के कुछ बरसों बाद तक रहा है। लिहाजा प्रवासी रचनात्मकता के स्वर भी बदले हैं। पहले का प्रवासन चूंकि अभाव और मजबूरियों का प्रवास था, लिहाजा उस वक्त की रचनात्मकता में सिर्फ और सिर्फ अभाव और मजबूरियों का ही जिक्र मिलता है। सैनिक और विशाल भारत का संपादन करते वक्त पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी प्रवास और उसकी पीड़ा के संपर्क में आ गए थे। जिसका नतीजा बाद में प्रवास और प्रवासी रचनात्मकता के उनके गहन अध्ययन में नजर आया। लेकिन आज प्रवास का मकसद बदल गया है। आज के प्रवास में मजबूरी नहीं बल्कि शौक है। बेहतर या उससे भी आगे की कहें तो सपनीली जिंदगी की तलाश आज के प्रवास का अहम मकसद बन गया है। शायद यही वजह है कि मशहूर कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव प्रवासी लेखन को खाए-अघाए लोगों का लेखन कहने से खुद को रोक नहीं पाते। यह सच है कि प्रवासी लेखन को लेकर इन दिनों हिंदी साहित्यिक समाज में खास आलोडऩ है। लेकिन इसके पीछे विशुद्ध रचनात्मक वजह नहीं है। बल्कि आज ब्रिटेन -अमेरिका या कनाडा जैसे समृद्ध देशों में रह-रहे रचनात्मक लोगों को सबसे ज्यादा अपनी रचनात्मक पहचान की मान्यता हासिल करने से जुड़ गया है। लेकिन ऐसा नहीं कि प्रवासी रचनात्मकता को पहचान पहले से हासिल नहीं रही है या फिर प्रवासी लेखक को यथेष्ट सम्मान नहीं मिलता रहा है। अगर ऐसा होता तो आज से करीब चौथाई सदी पहले गंगा में अमेरिका में रह रही लेखिका सुषम बेदी का उपन्यास गंगा जैसी पत्रिका में कमलेश्वर उत्साह से धारावाहिक तौर पर नहीं छाप रहे होते। कादंबिनी के पुराने अंकों में जब किसी ब्रिटिश या प्रवासी लेखक की रचना राजेंद्र अवस्थी प्रकाशित करते तो बाकायदा उसकी घोषणा की जाती- ब्रिटेन से आई कहानी। जाहिर है कि प्रवासी लेखन को पहले से ही इज्जत मिलती रही है। पत्रकारिता की दुनिया में भी एक दौर में जब हिंदुस्तान टाइम्स के वाशिंगटन स्थित संवाददाता एन सी मेनन रिपोर्टें लिखते तो उनकी रिपोर्ट के साथ अलग से खास बाइलाइन लगाई जाती- एन सी मेनन राइट्स फ्रॉम वाशिंगटन। जाहिर है कि वाशिंगटन, लंदन या ओस्लो के लेखन को तब भी खास महत्व मिलता था।
दरअसल प्रवासी लेखन का जोर भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रवासी भारतीय सम्मेलनों के बाद जोर पकड़ रहा है। भारत सरकार का यह आयोजन अब सालाना गति हासिल कर चुका है। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह आयोजन पूरी तरह आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने लिए है। सांस्कृतिक पहचान और भारतीय धरती से जुड़ाव की दिशा में भारत सरकार द्वारा पोषित और पल्लवित किए जा रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन का अब तक कोई योगदान नहीं रहा है। इन संदर्भों में डीएवी गल्र्स कॉलेज यमुनानगर और कथा(यूके) का प्रवासी भारतीय साहित्य सम्मेलन को पहला ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जा सकता है, जिसमें प्रवासी भारतीय लेखन को उसकी मूल नाल से जोडऩे की कोशिश हो रही है।
मौजूदा प्रवासी लेखन का प्रमुख सुर अपनी जड़ों से जुडऩे की कोशिश तो है ही, प्रवास में गए लोगों की अगली पीढ़ी की सांस्कृतिक चिंताएं भी ज्यादा हैं। जहां प्रवासियों की पहली पीढ़ी सूरदास के कृष्ण की तरह अपने गांव- अपने पुराने परिवेश को - उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं की तर्ज पर याद करती रहती है। जबकि ब्रिटेन-अमेरिका या कनाडा में पैदा उन्हीं प्रवासियों की संतानों के लिए भारतीय संस्कार और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है यह सांस्कृतिक तनाव कई बार प्रवासी परिवारों के लिए सांस्कृतिक भ्रम लेकर आता है। इस भ्रम के चलते पीढिय़ों के बीच टकराव भी होता है। जाहिर है कि प्रवासी रचनाओं में सांस्कृतिक विभ्रम की यह स्थिति खूब नजर आती है।
दुनियाभर से आए प्रवासी रचनाकारों को लेकर यमुनानगर में जितनी कहानियों पर चर्चाएं हुईं, ज्यादातर का प्रमुख सुर यही रहा। मौजूदा प्रवासी लेखन में इससे भी आगे की बात हो रही है। आज का प्रवासी लेखन विदेशी समाज के अनुभवों से भी समृद्ध कर रहा है। विदेशी संसार में देसी मन के अनुभवों का जो विस्तार हुआ है, उसे प्रवासी साहित्यकारों की पैनी निगाहों ने बारीकी से पकड़ा है। इन अर्थों में कहें तो प्रवासी लेखन ने हिंदी साहित्य के आकाश को विस्तार दिया है। नई जमीन के नए अनुभवों से ओतप्रोत इस रचना संसार में भी खामियां हो सकती हैं। जिन पर विचार होना चाहिए और होगा भी। यमुनानगर की धरती पर शुरू हुआ यह समारोह निश्चित तौर पर प्रवासी भारतीय लेखन के वैचारिक आलोडऩ के लिए नई जमीन मुहैया कराएगा। इतनी उम्मीद तो हम कर सकते ही हैं।
Saturday, February 5, 2011
राजा की गिरफ्तारी के निहितार्थ
उमेश चतुर्वेदी
पूर्व संचार मंत्री ए राजा की गिरफ्तारी से उस तबके के लोग बेहद आशान्वित महसूस कर रहे हैं, जिन्हें मौजूदा व्यवस्था से अब भी उम्मीद बनी हुई है। उन्हें लगता है कि प्रभावशाली नेता और उसके साथ रसूखदार अधिकारियों की गिरफ्तारी से भ्रष्टाचारियों में यह संदेश जरूर जाएगा कि मौजूदा व्यवस्था के हाथ उसकी गर्दन तक पहुंच सकते हैं। खालिस्तानी आतंकवाद की भेंट चढ़े मशहूर पंजाबी कवि पाश की कविता है- सबसे खतरनाक होता है हमारे सपने का मर जाना। भ्रष्टाचार के विरोधी में लामबंद नजर आ रही एक पीढ़ी में इस उम्मीद का बचे रहना जरूरी है। लेकिन क्या इस एक गिरफ्तारी से भ्रष्टाचार के समूल नाश की उम्मीद पाल लेना बेमानी नहीं लगता। अतीत पर भरोसा करें तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है। नरसिंह राव सरकार के संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की भी हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कंपनी को बेजा फायदा पहुंचाने और घोटाले में नाम आने के बाद ठीक वैसे ही सीबीआई ने गिरफ्तार किया था, जैसे ए राजा को गिरफ्तार किया गया है। जिस तरह राजा के साथ तत्कालीन टेलीकॉम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा को गिरफ्तार किया गया है, सुखराम के साथ उसी तरह तब की दूरसंचार विभाग की अतिरिक्त सचिव रूनू घोष को भी सीबीआई ने जेल की राह दिखाई थी। लेकिन भ्रष्टाचार को न रूकना था और न ही रूका। 1995 में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाले के खिलाफ 16 दिन तक संसद की कार्रवाई नहीं चलने दी थी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ बीजेपी समेत समूचे विपक्ष का रवैया भी कुछ वैसा ही रहा, जिसके चलते संसद के शीतकालीन सत्र में कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका।
समूचा विपक्ष इस मसले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग पर अड़ा हुआ था। विपक्ष अपनी इस मांग पर अब भी कायम है। राजा की गिरफ्तारी के बाद विपक्ष का तर्क और मजबूत ही हो गया है। उसका कहना है कि राजा की गिरफ्तारी से साबित होता है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा का हाथ है। यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तीन साल से जानते रहे हैं, लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ कार्रवाई करने में तीन साल की देर लगा दी। राजा की गिरफ्तारी को कांग्रेस की साख बचाने की कवायद से भी जोड़कर देखा जा सकता है। गिरफ्तारी के फौरन बाद कांग्रेस प्रवक्ताओं ने इसका श्रेय लेने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान का सहारा जरूर लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भ्रष्टाचार हुआ है तो कानून अपना काम जरूर करेगा। यह ठीक है कि सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन ही काम करती है। बिना उनके इशारे पर सीबीआई राजा और बेहुरा की गिरफ्तारी का कदम नहीं उठा सकती थी। लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालन ने सदिच्छा से राजा की गिरफ्तारी के लिए हरी झंडी नहीं दिया है। सुब्रह्ममण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए राजा पर कई सवाल सुप्रीम कोर्ट ही उठा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने ही जब सवाल पूछा कि आखिर इतने बड़े घोटाले के आरोपी राजा अब तक मंत्रिमंडल में क्यों बने हुए हैं, तब जाकर उनसे इस्तीफा मांगा गया।
सच तो यह है कि बढ़ती महंगाई और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ठोस जांच में हीलाहवाली से सरकार की साख पर सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में घोटाला की खबर आने के बाद भी सरकार की ओर से कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिखे। अभी राष्ट्रमंडल खेल आयोजन के घोटाले से उबरने की कांग्रेस कोशिश कर ही रही थी कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले से सरकार और कांग्रेस की नींद उड़ गई। लिहाजा अशोक चव्हाण को हटाकर कांग्रेस ने अपने दामन को पाक-साफ दिखाने की कोशिश की। अपेक्षाकृत शालीन व्यक्तित्व के धनी पृथ्वीराज चव्हाण को दिल्ली से भेजकर महाराष्ट्र की बागडोर थमाई गई। लेकिन अब उनका भी नाम आदर्श घोटाले में सामने आ रहा है। लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर सब पर भारी पड़ गई। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री की चेतावनी के बाद भी राजा अपने ढंग से स्पेक्ट्रम बांटते रहे। लेकिन गठबंधन धर्म की मजबूरियों ने शायद प्रधानमंत्री का हाथ बांधे रखा और राजा बचे रहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर के बाद राजा को जाना पड़ा। इसके बाद इस महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी तेजतर्रार वकील कपिल सिब्बल को थमाई गई। सिब्बल साहब के वकील दिमाग ने इसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की। लेकिन सीबीआई के हाथों राजा की गिरफ्तारी ने सिब्बल के उस तर्क को भी बेदम बनाकर रख दिया है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि राजा की गिरफ्तारी बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के ही संभव हो पाई है और क्या यह गिरफ्तारी सिर्फ कानून को अपना काम करने देने का नतीजा है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। दरअसल सरकार के सामने विपक्ष को साधने के लिए इससे बड़ा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है। सरकार जानती है कि अगर वह 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन घोटाले में ठोस कदम नहीं उठाती तो उसके लिए शीतकालीन सत्र की तरह संसद का बजट सत्र चला पाना आसान नहीं होगा। अगर विपक्ष ने बजट सत्र भी नहीं चलने देने की ठान ली तो देश की आर्थिक देनदारियों और लेनदारियों पर संकट उठ खड़ा होगा। अपने सिद्धांतों और राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक सरकार के लिए बजट पास करा पाना भी सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। सरकार इस बहाने विपक्ष की जेपीसी की मांग के धार को भी कुंद करने की कोशिश कर रही है। हालांकि अभी विपक्ष झुकता नजर नहीं आ रहा है। उल्टे उसने जेपीसी की मांग और तेज कर दी है। विपक्षी नेताओं के एक वर्ग को लगता है कि राजा कि गिरफ्तारी से उसे राजनीतिक फायदा मिल सकता है। चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता हों या फिर किसी और पार्टी के, वे भी मुगालते में हैं। राजा के इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले सवाल तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन ने उठाए थे। उनके बयान को एक हिंदी पाक्षिक के अलावा किसी ने स्थान नहीं दिया था। लेकिन जैसे ही यह मामला लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के जरिए उठाया, भारतीय जनता पार्टी इस मसले को संसद और बाहर भुनाने के लिए कूद पड़ी। यह बात और है कि सीपी राधाकृष्णन की राय पर पहले उनकी ही पार्टी ने ध्यान नहीं दिया। इससे साफ है कि भारतीय जनता वक्त रहते इस राजनीतिक मसले का फायदा उठाने के लिए कितनी तैयार है। 1995 के संचार घोटाले के आरोपी सुखराम को कांग्रेस ने निकाल बाहर किया तो उन्होंने हिमाचल कांग्रेस बना ली। सुखराम को मुगालता था कि हिमाचल के लोग उसे हाथोंहाथ अपना लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारतीय जनता पार्टी भी हिमाचल प्रदेश में राजनीतिक रसूख हासिल करने की जुगाड़ में थी। उसे सुखराम की पार्टी में ही सहारा नजर आया और पार्टी ने उसी सुखराम को अपना लिया, जिनके भ्रष्टाचार के खिलाफ 16 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लग पाने के पीछे भारतीय राजनीति की इस अवसरवादिता का भी बड़ा हाथ रहा है।
तीस जनवरी को गांधी जी की पुण्यतिथि पर देश के छह महानगरों में स्वयंसेवी संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों की मांग पर जुटी लोगों की भीड़ ने भी सरकार की भौहों पर बल ला दिया है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरू में भ्रष्टाचार के खिलाफ जुटे लोगों की मांग है कि एक ऐसा लोकपाल बिल लाया जाए, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री का पद भी हो। भ्रष्टाचार और उसे रोकने के उपायों की मांग को लेकर जुटी भीड़ ने भी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। लोगों की इस भीड़ से एक तथ्य साबित तो हुआ कि आम लोग अब सरकार को हीलाहवाली करने वाली संस्था मानने लगे हैं। राजनीतिक पंडितों के एक वर्ग का माना है कि राजा की गिरफ्तारी की एक वजह सरकार पर बढ़ता यह जनदबाव भी है।
पूर्व संचार मंत्री ए राजा की गिरफ्तारी से उस तबके के लोग बेहद आशान्वित महसूस कर रहे हैं, जिन्हें मौजूदा व्यवस्था से अब भी उम्मीद बनी हुई है। उन्हें लगता है कि प्रभावशाली नेता और उसके साथ रसूखदार अधिकारियों की गिरफ्तारी से भ्रष्टाचारियों में यह संदेश जरूर जाएगा कि मौजूदा व्यवस्था के हाथ उसकी गर्दन तक पहुंच सकते हैं। खालिस्तानी आतंकवाद की भेंट चढ़े मशहूर पंजाबी कवि पाश की कविता है- सबसे खतरनाक होता है हमारे सपने का मर जाना। भ्रष्टाचार के विरोधी में लामबंद नजर आ रही एक पीढ़ी में इस उम्मीद का बचे रहना जरूरी है। लेकिन क्या इस एक गिरफ्तारी से भ्रष्टाचार के समूल नाश की उम्मीद पाल लेना बेमानी नहीं लगता। अतीत पर भरोसा करें तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है। नरसिंह राव सरकार के संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की भी हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कंपनी को बेजा फायदा पहुंचाने और घोटाले में नाम आने के बाद ठीक वैसे ही सीबीआई ने गिरफ्तार किया था, जैसे ए राजा को गिरफ्तार किया गया है। जिस तरह राजा के साथ तत्कालीन टेलीकॉम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा को गिरफ्तार किया गया है, सुखराम के साथ उसी तरह तब की दूरसंचार विभाग की अतिरिक्त सचिव रूनू घोष को भी सीबीआई ने जेल की राह दिखाई थी। लेकिन भ्रष्टाचार को न रूकना था और न ही रूका। 1995 में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाले के खिलाफ 16 दिन तक संसद की कार्रवाई नहीं चलने दी थी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ बीजेपी समेत समूचे विपक्ष का रवैया भी कुछ वैसा ही रहा, जिसके चलते संसद के शीतकालीन सत्र में कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका।
समूचा विपक्ष इस मसले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग पर अड़ा हुआ था। विपक्ष अपनी इस मांग पर अब भी कायम है। राजा की गिरफ्तारी के बाद विपक्ष का तर्क और मजबूत ही हो गया है। उसका कहना है कि राजा की गिरफ्तारी से साबित होता है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा का हाथ है। यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तीन साल से जानते रहे हैं, लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ कार्रवाई करने में तीन साल की देर लगा दी। राजा की गिरफ्तारी को कांग्रेस की साख बचाने की कवायद से भी जोड़कर देखा जा सकता है। गिरफ्तारी के फौरन बाद कांग्रेस प्रवक्ताओं ने इसका श्रेय लेने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान का सहारा जरूर लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भ्रष्टाचार हुआ है तो कानून अपना काम जरूर करेगा। यह ठीक है कि सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन ही काम करती है। बिना उनके इशारे पर सीबीआई राजा और बेहुरा की गिरफ्तारी का कदम नहीं उठा सकती थी। लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालन ने सदिच्छा से राजा की गिरफ्तारी के लिए हरी झंडी नहीं दिया है। सुब्रह्ममण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए राजा पर कई सवाल सुप्रीम कोर्ट ही उठा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने ही जब सवाल पूछा कि आखिर इतने बड़े घोटाले के आरोपी राजा अब तक मंत्रिमंडल में क्यों बने हुए हैं, तब जाकर उनसे इस्तीफा मांगा गया।
सच तो यह है कि बढ़ती महंगाई और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ठोस जांच में हीलाहवाली से सरकार की साख पर सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में घोटाला की खबर आने के बाद भी सरकार की ओर से कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिखे। अभी राष्ट्रमंडल खेल आयोजन के घोटाले से उबरने की कांग्रेस कोशिश कर ही रही थी कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले से सरकार और कांग्रेस की नींद उड़ गई। लिहाजा अशोक चव्हाण को हटाकर कांग्रेस ने अपने दामन को पाक-साफ दिखाने की कोशिश की। अपेक्षाकृत शालीन व्यक्तित्व के धनी पृथ्वीराज चव्हाण को दिल्ली से भेजकर महाराष्ट्र की बागडोर थमाई गई। लेकिन अब उनका भी नाम आदर्श घोटाले में सामने आ रहा है। लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर सब पर भारी पड़ गई। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री की चेतावनी के बाद भी राजा अपने ढंग से स्पेक्ट्रम बांटते रहे। लेकिन गठबंधन धर्म की मजबूरियों ने शायद प्रधानमंत्री का हाथ बांधे रखा और राजा बचे रहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर के बाद राजा को जाना पड़ा। इसके बाद इस महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी तेजतर्रार वकील कपिल सिब्बल को थमाई गई। सिब्बल साहब के वकील दिमाग ने इसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की। लेकिन सीबीआई के हाथों राजा की गिरफ्तारी ने सिब्बल के उस तर्क को भी बेदम बनाकर रख दिया है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि राजा की गिरफ्तारी बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के ही संभव हो पाई है और क्या यह गिरफ्तारी सिर्फ कानून को अपना काम करने देने का नतीजा है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। दरअसल सरकार के सामने विपक्ष को साधने के लिए इससे बड़ा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है। सरकार जानती है कि अगर वह 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन घोटाले में ठोस कदम नहीं उठाती तो उसके लिए शीतकालीन सत्र की तरह संसद का बजट सत्र चला पाना आसान नहीं होगा। अगर विपक्ष ने बजट सत्र भी नहीं चलने देने की ठान ली तो देश की आर्थिक देनदारियों और लेनदारियों पर संकट उठ खड़ा होगा। अपने सिद्धांतों और राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक सरकार के लिए बजट पास करा पाना भी सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। सरकार इस बहाने विपक्ष की जेपीसी की मांग के धार को भी कुंद करने की कोशिश कर रही है। हालांकि अभी विपक्ष झुकता नजर नहीं आ रहा है। उल्टे उसने जेपीसी की मांग और तेज कर दी है। विपक्षी नेताओं के एक वर्ग को लगता है कि राजा कि गिरफ्तारी से उसे राजनीतिक फायदा मिल सकता है। चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता हों या फिर किसी और पार्टी के, वे भी मुगालते में हैं। राजा के इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले सवाल तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन ने उठाए थे। उनके बयान को एक हिंदी पाक्षिक के अलावा किसी ने स्थान नहीं दिया था। लेकिन जैसे ही यह मामला लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के जरिए उठाया, भारतीय जनता पार्टी इस मसले को संसद और बाहर भुनाने के लिए कूद पड़ी। यह बात और है कि सीपी राधाकृष्णन की राय पर पहले उनकी ही पार्टी ने ध्यान नहीं दिया। इससे साफ है कि भारतीय जनता वक्त रहते इस राजनीतिक मसले का फायदा उठाने के लिए कितनी तैयार है। 1995 के संचार घोटाले के आरोपी सुखराम को कांग्रेस ने निकाल बाहर किया तो उन्होंने हिमाचल कांग्रेस बना ली। सुखराम को मुगालता था कि हिमाचल के लोग उसे हाथोंहाथ अपना लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारतीय जनता पार्टी भी हिमाचल प्रदेश में राजनीतिक रसूख हासिल करने की जुगाड़ में थी। उसे सुखराम की पार्टी में ही सहारा नजर आया और पार्टी ने उसी सुखराम को अपना लिया, जिनके भ्रष्टाचार के खिलाफ 16 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लग पाने के पीछे भारतीय राजनीति की इस अवसरवादिता का भी बड़ा हाथ रहा है।
तीस जनवरी को गांधी जी की पुण्यतिथि पर देश के छह महानगरों में स्वयंसेवी संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों की मांग पर जुटी लोगों की भीड़ ने भी सरकार की भौहों पर बल ला दिया है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरू में भ्रष्टाचार के खिलाफ जुटे लोगों की मांग है कि एक ऐसा लोकपाल बिल लाया जाए, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री का पद भी हो। भ्रष्टाचार और उसे रोकने के उपायों की मांग को लेकर जुटी भीड़ ने भी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। लोगों की इस भीड़ से एक तथ्य साबित तो हुआ कि आम लोग अब सरकार को हीलाहवाली करने वाली संस्था मानने लगे हैं। राजनीतिक पंडितों के एक वर्ग का माना है कि राजा की गिरफ्तारी की एक वजह सरकार पर बढ़ता यह जनदबाव भी है।
Friday, January 28, 2011
राजनीति और अपराध के मकड़जाल का नतीजा
उमेश चतुर्वेदी
दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की पत्थर मार कर नृशंस हत्या की खबर आने के बाद बिहार और वहां की कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गए थे। मुजफ्फरपुर में कृष्णैया और नासिक के मालेगांव में यशवंत सोनवाणे की हत्या की घटना में एक समानता है कि दोनों जिम्मेदार अधिकारी थे। लेकिन एक की हत्या पगलाई भीड़ ने की थी, जबकि दूसरे को जिंदा जलाने वाले तेल माफिया थे। कृष्णैया की हत्या ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया था कि जिस राज्य में देश की सर्वोच्च और प्रतिष्ठित सेवा का अधिकारी सुरक्षित नहीं है, वहां आम जनता कितनी सुरक्षित होगी। लेकिन ठीक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई इस लोमहर्षक घटना के लिए महाराष्ट्र के कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठ रहा है। वहां इसे महज एक आपराधिक घटना के तौर पर देखा जा रहा है। महाराष्ट्र की इस दुस्साहसिक घटना की जांच के बाद निश्चित रूप से यह पता चलेगा कि आला प्रशासनिक अधिकारी को जिंदा जलाने वाले कोई सामान्य अपराधी नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे कोई रसूखदार राजनीतिक ताकत जरूर है। क्योंकि बिना रसूख और पैसे की ताकत के सामान्य अपराधी किसी अधिकारी की हत्या को अंजाम नहीं दे सकता।
19 नवंबर 2005 में कुछ ऐसे ही घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में इंडियन आयल कारपोरेशन के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथ की हत्या कर दी गई थी। यशवंत सोनावाणे की तरह मंजूनाथ का भी कसूर यही था कि वे तेल में मिलावटखोरों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उनके रहते मिलावटखोर और कालाबाजारी करने वाले बेईमान पेट्रोल पंप मालिकों की काली कमाई में रूकावट हो रही थी। लिहाजा उन्होंने अपनी काली कमाई जारी रखने के लिए अधिकारी को ही राह से हटाने का फैसला ले लिया। मंजूनाथ की हत्या की जांच में भी पता चला कि इसके पीछे रसूखदार राजनीतिक वरदहस्त वाले लोगों का भी हाथ था। पेट्रोल पंपों के कारोबार से जुड़े होने के चलते हत्यारे और उन्हें प्रश्रय देने वाले मालदार तो खैर थे ही। चाहे मंजूनाथ हों या फिर यशवंत सोनवाणे, राजनीति की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्हें अपनी राह का रोड़ा मानने लगती है। पहले तो उन्हें पैसे देकर खरीदने की कोशिश की जाती है। अपने सेवाकाल के शुरूआती दौर में ज्यादातर अधिकारी समाज बदलने का ही माद्दा लेकर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे भ्रष्ट व्यवस्था से उनका पाला पड़ता है, शुरूआती हिचक पर वे काबू पाने की कोशिश में जुट जाते हैं। रही- सही कसर पूरी कर देती है भ्रष्ट व्यवस्था, व्यवस्था ही उन्हें बदलने की कोशिश करने लगती है। पहले ही दिन से उन्हें खरीदने की कोशिश की जाती है। इस कोशिश के सामने अधिकांश टूट जाते हैं और जो नहीं टूटते, उन्हें या तो मंजूनाथ बना दिया जाता है या फिर सत्येंद्र दुबे। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में काम कर रहे इंजीनियर सत्येंद्र दुबे को भी खरीदने की कम कोशिश नहीं की गई थी। लेकिन बिहार के सीवान जिले का रहने वाला वह युवा इंजीनियर अपनी असल जिम्मेदारी निभाने के लिए जुटा रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने ही विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करने की भी ठान ली। ऐसे में भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और इंजीनियरों की तिकड़ी ने उन्हें रास्ते से ही हटाने की ठान ली। 27 नवंबर, 2003 को गया में तैनात यह इंजीनियर जब अपने घर लौट रहा था, तभी उसे गोली मार दी गई। सत्येंद्र दुबे की हत्याकांड का मामला इतना तूल पकड़ा कि नीतीश सरकार को उसकी सीबीआई जांच कराने का आदेश देना पड़ा। दुबे हत्याकांड के अधिकारी पकड़ तो लिए गए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि वे महज हत्यारे हैं। उनकी हत्या की साजिश रचने वाले राजनेता और अधिकारी अब भी सींखचों से बाहर हैं। हाल के दिनों में एक और हत्या ने राजनीति और भ्रष्टाचारियों के कॉकटेल और उसके जरिए होने वाले अपराधों की कलई खोलने के लिए चर्चित रहा। 24 दिसंबर, 2008 को उत्तर प्रदेश के औरेया जिले में तैनात पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मनोज गुप्ता की भी हत्या कर दी गई। उनका कसूर सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय विधायक शेखर तिवारी को चंदा देने से मना कर दिया था। दिलचस्प बात यह है कि यह चंदा पार्टी के ही नाम पर मांगा गया था। इस हत्याकांड से भ्रष्टाचार के मसले पर राजनेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत पर बहस-मुबाहिसों का दौर ही शुरू हो गया था।
बिहार में तो हालात भले ही बदलते नजर आ रहे हैं। नीतीश शासन में जिस तरह अधिकारियों को अभयदान मिला हुआ है, उससे सत्ताधारी जनता दल – यू और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में असंतोष है। विधानसभा चुनावों के पहले हुई जनता दल – यू की एक बैठक में इस मसले को जनता दल-यू नेताओं ने जिस तरह तूल दिया, उससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी झुंझला गए थे। लेकिन नीतीश कुमार ने जिस तरह अधिकारियों की स्वायत्तता दी है, उससे अब बिहार में काम करने को लेकर अधिकारियों में कोई हीनताबोध या किसी भय का भाव नहीं है। लेकिन जी कृष्णैया की हत्या के बाद नब्बे के दशक के मध्य में अधिकारी बिहार में तैनाती को लेकर हिचक दिखाने लगे थे। कृष्णैया आंध्र प्रदेश के निवासी थे। उनकी हत्या के बाद उनके माता-पिता ने कहा था कि वे किसी भी व्यक्ति को यह सलाह नहीं देंगे कि वे अपने बच्चे को बिहार में काम करने के लिए जाने दे। निश्चित तौर पर यशवंत सोनावाने की हत्या के बाद किसी अधिकारी के परिजन अपने किसी जानकार के महाराष्ट्र में काम करने के लिए आगाह नहीं करेंगे। लेकिन कृष्णैया की हत्या दरअसल छोटन शुक्ला नाम के एक स्थानीय नेता की मौत से गु्स्साई जनता ने की थी। बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता छोटन शुक्ला की हत्या को लेकर लोग मान रहे थे कि हत्यारों को सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन हासिल है। हत्यारों की भीड़ में लवली आनंद और आनंद मोहन जैसे नेता भी थे। आनंद मोहन पर हत्या से ज्यादा भीड़ को उकसाने का आरोप है और इसके चलते वे जेल में बंद भी हैं। यशवंत सोनवाणे की हत्या निश्चित तौर पर अपराधियों का कृत्य है। लेकिन यह तय है कि उन अपराधियों के पीछे कोई राजनीतिक ताकत जरूर है।
सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ भी अधिकारी थे। लेकिन वे प्रशासनिक अधिकारी नहीं थे। जिन पर कानून और व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है। वैसे तो हत्या, हत्या ही होती है। लेकिन यशवंत सोनावाणे की हत्या निश्चित तौर पर बाकी अधिकारियों की हत्या से अलग है। क्योंकि वे मामूली अधिकारी नहीं थे। वे प्रशासनिक अधिकारी थे। उन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी भी थी। फिर भी उनकी हत्या के लिए भ्रष्ट तंत्र और उसके अपराधियों को कोई भय या हिचक का बोध नहीं हुआ। इसके भी अपने कारण हैं। अंग्रेजी राज्य से लेकर सन 1971-72 तक प्रशासनिक अधिकारियों का अपना जलवा रहता था। लेकिन सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शुरू हुए प्रशासनिक सुधारों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों की ताकत कम हुई है, इसके साथ ही उनका रसूख कम हुआ है। इन सुधारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के अधिकारों में कटौती हुई और जिले में तैनात पुलिस अधीक्षकों को भी ताकत दी गई। जबकि उसके पहले तक वे जिला प्रशासनिक अधिकारियों के सहायक की भूमिका में होते थे। 1985-86 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान पुलिस अधिकारियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की पकड़ को कम करने की मांग रखी थी। उन्हें अपनी गोपनीयता रिपोर्ट किसी आईएएस अधिकारी के हाथों लिखे जाने पर भी एतराज था। लिहाजा सरकार ने उनकी मांगे मान ली। अधिकारों के विकेंद्रीकरण के नाम पर ये तो हुआ, लेकिन जिला और स्थानीय स्तर पर सक्रिय अपराधियों और माफियाओं ने उनकी परवाह करनी कम कर दी। उन्हें पता है कि प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में पहले जैसा चाबुक नहीं रहा। इसका ही फायदा उठाकर सत्तर और अस्सी के दशक में धनबाद में माफियाओं का उभार सामने आया था। जिसमें सूरजदेव सिंह तेजी से उभरे थे। खुलेआम हथियार लेकर चलना और प्रशासनिक अमले को हड़का देना उनके लिए बांएं हाथ का खेल था। हालांकि बाद में एक दमदार अधिकारी मदनमोहन झा ने उन पर काबू पाने की सफल कोशिश की थी। रही-सही कसर राजनेताओं ने पूरी कर दी है। उन्हें अधिकारियों पर हाथ छो़ड़ने से गुरेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक नेता बच्चा पाठक ने तो अपने गृह जिले बलिया के एडीएम को उनके चैंबर से ही खींच लिया था। नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में उन्होंने जब इस कृत्य को अंजाम दिया था, तब वे राज्य के मंत्री थे। उस अधिकारी का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने कांग्रेस के एक स्थानीय नेता महेंद्र शुक्ल को जमानत पर छोड़ने से मना कर दिया था। अधिकारी के साथ हुई इस बदसलूकी को बलिया में लोग बड़े चाव से बच्चा पाठक की वीरता के तौर पर सुनाते हैं। हालांकि ऑन रिकॉर्ड इस मामले को दबा दिया गया।
वैसे अधिकारियों का भी एक बड़ा तबका राजनेताओं और ठेकेदारों के भ्रष्टाचार के हाथों में खेलने में ही अपनी भलाई देखता है। ऐसे में उनकी भी वकत कम हुई है। यशवंत सोनावाणे की हत्या की घटना ने इस मकड़जाल को एक बार फिर उजागर किया है।
दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की पत्थर मार कर नृशंस हत्या की खबर आने के बाद बिहार और वहां की कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गए थे। मुजफ्फरपुर में कृष्णैया और नासिक के मालेगांव में यशवंत सोनवाणे की हत्या की घटना में एक समानता है कि दोनों जिम्मेदार अधिकारी थे। लेकिन एक की हत्या पगलाई भीड़ ने की थी, जबकि दूसरे को जिंदा जलाने वाले तेल माफिया थे। कृष्णैया की हत्या ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया था कि जिस राज्य में देश की सर्वोच्च और प्रतिष्ठित सेवा का अधिकारी सुरक्षित नहीं है, वहां आम जनता कितनी सुरक्षित होगी। लेकिन ठीक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई इस लोमहर्षक घटना के लिए महाराष्ट्र के कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठ रहा है। वहां इसे महज एक आपराधिक घटना के तौर पर देखा जा रहा है। महाराष्ट्र की इस दुस्साहसिक घटना की जांच के बाद निश्चित रूप से यह पता चलेगा कि आला प्रशासनिक अधिकारी को जिंदा जलाने वाले कोई सामान्य अपराधी नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे कोई रसूखदार राजनीतिक ताकत जरूर है। क्योंकि बिना रसूख और पैसे की ताकत के सामान्य अपराधी किसी अधिकारी की हत्या को अंजाम नहीं दे सकता।
19 नवंबर 2005 में कुछ ऐसे ही घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में इंडियन आयल कारपोरेशन के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथ की हत्या कर दी गई थी। यशवंत सोनावाणे की तरह मंजूनाथ का भी कसूर यही था कि वे तेल में मिलावटखोरों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उनके रहते मिलावटखोर और कालाबाजारी करने वाले बेईमान पेट्रोल पंप मालिकों की काली कमाई में रूकावट हो रही थी। लिहाजा उन्होंने अपनी काली कमाई जारी रखने के लिए अधिकारी को ही राह से हटाने का फैसला ले लिया। मंजूनाथ की हत्या की जांच में भी पता चला कि इसके पीछे रसूखदार राजनीतिक वरदहस्त वाले लोगों का भी हाथ था। पेट्रोल पंपों के कारोबार से जुड़े होने के चलते हत्यारे और उन्हें प्रश्रय देने वाले मालदार तो खैर थे ही। चाहे मंजूनाथ हों या फिर यशवंत सोनवाणे, राजनीति की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्हें अपनी राह का रोड़ा मानने लगती है। पहले तो उन्हें पैसे देकर खरीदने की कोशिश की जाती है। अपने सेवाकाल के शुरूआती दौर में ज्यादातर अधिकारी समाज बदलने का ही माद्दा लेकर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे भ्रष्ट व्यवस्था से उनका पाला पड़ता है, शुरूआती हिचक पर वे काबू पाने की कोशिश में जुट जाते हैं। रही- सही कसर पूरी कर देती है भ्रष्ट व्यवस्था, व्यवस्था ही उन्हें बदलने की कोशिश करने लगती है। पहले ही दिन से उन्हें खरीदने की कोशिश की जाती है। इस कोशिश के सामने अधिकांश टूट जाते हैं और जो नहीं टूटते, उन्हें या तो मंजूनाथ बना दिया जाता है या फिर सत्येंद्र दुबे। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में काम कर रहे इंजीनियर सत्येंद्र दुबे को भी खरीदने की कम कोशिश नहीं की गई थी। लेकिन बिहार के सीवान जिले का रहने वाला वह युवा इंजीनियर अपनी असल जिम्मेदारी निभाने के लिए जुटा रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने ही विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करने की भी ठान ली। ऐसे में भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और इंजीनियरों की तिकड़ी ने उन्हें रास्ते से ही हटाने की ठान ली। 27 नवंबर, 2003 को गया में तैनात यह इंजीनियर जब अपने घर लौट रहा था, तभी उसे गोली मार दी गई। सत्येंद्र दुबे की हत्याकांड का मामला इतना तूल पकड़ा कि नीतीश सरकार को उसकी सीबीआई जांच कराने का आदेश देना पड़ा। दुबे हत्याकांड के अधिकारी पकड़ तो लिए गए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि वे महज हत्यारे हैं। उनकी हत्या की साजिश रचने वाले राजनेता और अधिकारी अब भी सींखचों से बाहर हैं। हाल के दिनों में एक और हत्या ने राजनीति और भ्रष्टाचारियों के कॉकटेल और उसके जरिए होने वाले अपराधों की कलई खोलने के लिए चर्चित रहा। 24 दिसंबर, 2008 को उत्तर प्रदेश के औरेया जिले में तैनात पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मनोज गुप्ता की भी हत्या कर दी गई। उनका कसूर सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय विधायक शेखर तिवारी को चंदा देने से मना कर दिया था। दिलचस्प बात यह है कि यह चंदा पार्टी के ही नाम पर मांगा गया था। इस हत्याकांड से भ्रष्टाचार के मसले पर राजनेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत पर बहस-मुबाहिसों का दौर ही शुरू हो गया था।
बिहार में तो हालात भले ही बदलते नजर आ रहे हैं। नीतीश शासन में जिस तरह अधिकारियों को अभयदान मिला हुआ है, उससे सत्ताधारी जनता दल – यू और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में असंतोष है। विधानसभा चुनावों के पहले हुई जनता दल – यू की एक बैठक में इस मसले को जनता दल-यू नेताओं ने जिस तरह तूल दिया, उससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी झुंझला गए थे। लेकिन नीतीश कुमार ने जिस तरह अधिकारियों की स्वायत्तता दी है, उससे अब बिहार में काम करने को लेकर अधिकारियों में कोई हीनताबोध या किसी भय का भाव नहीं है। लेकिन जी कृष्णैया की हत्या के बाद नब्बे के दशक के मध्य में अधिकारी बिहार में तैनाती को लेकर हिचक दिखाने लगे थे। कृष्णैया आंध्र प्रदेश के निवासी थे। उनकी हत्या के बाद उनके माता-पिता ने कहा था कि वे किसी भी व्यक्ति को यह सलाह नहीं देंगे कि वे अपने बच्चे को बिहार में काम करने के लिए जाने दे। निश्चित तौर पर यशवंत सोनावाने की हत्या के बाद किसी अधिकारी के परिजन अपने किसी जानकार के महाराष्ट्र में काम करने के लिए आगाह नहीं करेंगे। लेकिन कृष्णैया की हत्या दरअसल छोटन शुक्ला नाम के एक स्थानीय नेता की मौत से गु्स्साई जनता ने की थी। बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता छोटन शुक्ला की हत्या को लेकर लोग मान रहे थे कि हत्यारों को सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन हासिल है। हत्यारों की भीड़ में लवली आनंद और आनंद मोहन जैसे नेता भी थे। आनंद मोहन पर हत्या से ज्यादा भीड़ को उकसाने का आरोप है और इसके चलते वे जेल में बंद भी हैं। यशवंत सोनवाणे की हत्या निश्चित तौर पर अपराधियों का कृत्य है। लेकिन यह तय है कि उन अपराधियों के पीछे कोई राजनीतिक ताकत जरूर है।
सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ भी अधिकारी थे। लेकिन वे प्रशासनिक अधिकारी नहीं थे। जिन पर कानून और व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है। वैसे तो हत्या, हत्या ही होती है। लेकिन यशवंत सोनावाणे की हत्या निश्चित तौर पर बाकी अधिकारियों की हत्या से अलग है। क्योंकि वे मामूली अधिकारी नहीं थे। वे प्रशासनिक अधिकारी थे। उन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी भी थी। फिर भी उनकी हत्या के लिए भ्रष्ट तंत्र और उसके अपराधियों को कोई भय या हिचक का बोध नहीं हुआ। इसके भी अपने कारण हैं। अंग्रेजी राज्य से लेकर सन 1971-72 तक प्रशासनिक अधिकारियों का अपना जलवा रहता था। लेकिन सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शुरू हुए प्रशासनिक सुधारों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों की ताकत कम हुई है, इसके साथ ही उनका रसूख कम हुआ है। इन सुधारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के अधिकारों में कटौती हुई और जिले में तैनात पुलिस अधीक्षकों को भी ताकत दी गई। जबकि उसके पहले तक वे जिला प्रशासनिक अधिकारियों के सहायक की भूमिका में होते थे। 1985-86 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान पुलिस अधिकारियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की पकड़ को कम करने की मांग रखी थी। उन्हें अपनी गोपनीयता रिपोर्ट किसी आईएएस अधिकारी के हाथों लिखे जाने पर भी एतराज था। लिहाजा सरकार ने उनकी मांगे मान ली। अधिकारों के विकेंद्रीकरण के नाम पर ये तो हुआ, लेकिन जिला और स्थानीय स्तर पर सक्रिय अपराधियों और माफियाओं ने उनकी परवाह करनी कम कर दी। उन्हें पता है कि प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में पहले जैसा चाबुक नहीं रहा। इसका ही फायदा उठाकर सत्तर और अस्सी के दशक में धनबाद में माफियाओं का उभार सामने आया था। जिसमें सूरजदेव सिंह तेजी से उभरे थे। खुलेआम हथियार लेकर चलना और प्रशासनिक अमले को हड़का देना उनके लिए बांएं हाथ का खेल था। हालांकि बाद में एक दमदार अधिकारी मदनमोहन झा ने उन पर काबू पाने की सफल कोशिश की थी। रही-सही कसर राजनेताओं ने पूरी कर दी है। उन्हें अधिकारियों पर हाथ छो़ड़ने से गुरेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक नेता बच्चा पाठक ने तो अपने गृह जिले बलिया के एडीएम को उनके चैंबर से ही खींच लिया था। नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में उन्होंने जब इस कृत्य को अंजाम दिया था, तब वे राज्य के मंत्री थे। उस अधिकारी का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने कांग्रेस के एक स्थानीय नेता महेंद्र शुक्ल को जमानत पर छोड़ने से मना कर दिया था। अधिकारी के साथ हुई इस बदसलूकी को बलिया में लोग बड़े चाव से बच्चा पाठक की वीरता के तौर पर सुनाते हैं। हालांकि ऑन रिकॉर्ड इस मामले को दबा दिया गया।
वैसे अधिकारियों का भी एक बड़ा तबका राजनेताओं और ठेकेदारों के भ्रष्टाचार के हाथों में खेलने में ही अपनी भलाई देखता है। ऐसे में उनकी भी वकत कम हुई है। यशवंत सोनावाणे की हत्या की घटना ने इस मकड़जाल को एक बार फिर उजागर किया है।
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