Friday, June 4, 2010

पर्यावरण दिवस पर विशेष--- कब चेतेंगे हम पर्यावरण को लेकर


उमेश चतुर्वेदी
पर्यावरण को लेकर विकसित देशों की चिंताएं कितनी गंभीर है, इसे समझने के लिए उनके रवैये पर भी ध्यान देना होगा। पिछले साल दिसंबर में डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगेन में हुए सम्मेलन में भी उनका टालू रवैया साफ नजर आया। अमेरिका समेत तकरीबन सभी विकसित देश ये तो चाहते थे कि वातावरण में कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन कम हो, लेकिन वे अपने देशों में इसे कम करने को तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि विकासशील और अविकसित देश ही कार्बनिक गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाएं। हकीकत तो यह है कि विकास की दौड़ में अविकसित और विकासशील देश काफी पीछे हैं। लिहाजा उनके यहां औद्योगिक उत्पादन बढ़ाए जाने की ज्यादा जरूरत है। इसके बावजूद उनकी ऊर्जा जरूरतें विकसित देशों में ऊर्जा की खपत से काफी कम हैं। विकसित देश अपने नागरिकों और अपने आर्थिक स्तर को कोई नुकसान पहुंचने देना नहीं चाहते और दुनिया में लगातार बढ़ रही गरमी के लिए विकासशील देशों को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। यही वजह है कि वातावरण को रहने लायक बनाने की दिशा में कोपेनहेगेन सम्मेलन का नतीजा सिफर ही रहा।
यह सच है कि 2008 में शुरू हुई आर्थिक मंदी ने विकसित देशों को सबसे ज्यादा परेशान किया। अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो लगता था कि ढह ही जाएगी। इसकी वजह से औद्योगिक उत्पादन में गिरावट भी देखी गई। लेकिन अपने विशाल ग्रामीण बाजार और पारंपरिक समाज के चलते भारत में आर्थिक मंदी का उतना प्रकोप नहीं झेलना पड़ा। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि भारत जैसे देश अपना औद्योगिक उत्पादन न बढ़ाएं। विकसित देशों को तेजी से बढ़ रही चीन की अर्थव्यवस्था से भी परेशानी है। वे चीन पर भी लगाम लगाना चाहते हैं। विकास की दौड़ में लगातार विकसित देशों को चुनौती दे रहा चीन भी अपना औद्योगिक उत्पादन कम क्यों करे।
अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान नासा और भारतीय मौसम विभाग के अपने अध्ययनों में बताया है कि 1901 से लेकर 2008 के बीच बारह साल ऐसे रहे, जिसमें भयानक सूखा पड़ा। इनमें से 1999 के बीच आठ बार भयानक सूखा पड़ा। जबकि 2000 से 2008 के बीच चार बार सूखा पड़ा है। जाहिर है कि औद्योगिकरण के बाद कार्बनिक गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है। कहना न होगा कि औद्योगिकरण भी इस सूखे के लिए जिम्मेदार है। दोनों ही संस्थानों के अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक 1901 के बाद दुनिया का औसत तापमान करीब आधा डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। जाहिर है इसमें औद्योगीकरण और आधुनिक जीवन शैली का बड़ा योगदान है। कहना न होगा कि यह जीवन शैली भी विकसित देशों की ही देन है। ऐसे में रास्ता एक ही बचता है कि धरती को रहने योग्य बनाए रखने के लिए हमें पारंपरिक सोच और रहन-सहन की ओर लौटना होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि भौतिकतावादी दुनिया में क्या हम इसके लिए तैयार हैं।

Monday, May 24, 2010

इस बेतुके नाटक की जड़ में भी तो जाइए


उमेश चतुर्वेदी
अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में चौधरी देवीलाल जब अपने राजनीतिक कैरियर के उफान पर थे, तब उन्होंने एक नारा दिया था। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के अलावा तीसरे मोर्चे के तकरीबन सभी दलों का यह बरसों तक सबसे प्यारा और प्रभावशाली नारा था – लोकराज लोकलाज से चलता है। झारखंड में जारी प्रहसन को देखकर आजकल यह नारा एक बार फिर शिद्दत से याद आ रहा है। इसलिए नहीं कि झारखंड में लोकलाज का खयाल सिर्फ शिबू सोरेन ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि पार्टी विद डिफरेंस का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी भी इस प्रहसन में बराबर की भागीदार होकर अपनी भद्द पिटवाने में जुट गई है। यही वजह है कि अब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी तक को कहना पड़ रहा है कि झारखंड में बेतुका नाटक चल रहा है।
झारखंड में सत्ता का यह खेल पहली बार नहीं दिखा है। खुद शिबू सोरेन पिछली बार भी कुछ ऐसा ही कारनामा दिखा चुके हैं। जब उन्हें जामताड़ा की अदालत ने दोषी करार दिया था। यह लोकलाज का ही तकाजा था कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए था। लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। तब भारतीय जनता पार्टी भी उनके इस कदम के विरोध में खड़ी हो गई थी। अब उसी भारतीय जनता पार्टी को शिबू सोरेन बार-बार ठेंगा दिखा रहे हैं, लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही है। इस प्रहसन को देखकर कहा जा सकता है कि राजनीति सत्ता की संभावनाओं का खेल बन कर रह गई है और संभावना के इस खेल में मूल्यों को बार-बार तिलांजलि दी जा रही है। पश्चिमी लोकतांत्रिक अवधारणा में जिस तरह की राजनीति विकसित हुई है, उसमें आमतौर पर राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो गया है। यहां पर जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय का एक भाषण याद आता है। अपने इस भाषण में उन्होंने जनसंघ के बारे में कहा था – “ भारतीय जनसंघ अलग तरह का दल है। किसी भी प्रकार सत्ता में आने की लालसा वाले लोगों का झुंड नहीं है। ” लेकिन शिबू सोरेन के साथ खड़ी जनसंघ की उत्तराधिकारी भारतीय जनता पार्टी अपने पितृ पुरूष की ही अपेक्षाओं पर खरी उतरती नजर नहीं आ रही है। सत्ता की संभावनाओं की राजनीति में लगातार इस तथ्य की उपेक्षा हो रही है। इसका फायदा न तो पार्टी को मिलता नजर आ रहा है और झारखंड की जनता तो परेशान होने के लिए मजबूर है ही।
झारखंड की राजनीति में पिछली बार भी हुए खेल के बावजूद अगर पार्टियों ने शिबू सोरेन पर भरोसा किया, तो यह उनकी गलती ही मानी जाएगी। पिछली बार की घटनाओं से पार्टियों ने कोई सबक नहीं लिया। इसका ही असर है कि आज झारखंड की राजनीति चौराहे पर खड़ी नजर आ रही है और कोई स्पष्ट –मुकम्मल रास्ता नजर नहीं आ रहा है। जाहिर है कि इस पूरे खेल को कांग्रेस समेत विपक्षी राजनीतिक पार्टियां दिलचस्पी से देख रही हैं। लेकिन वे सत्ता में सीधी भागीदारी से हिचक रही हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि शिबू सोरेन पर भरोसा करने का कारण नजर नहीं आ रहा है। झारखंड की राजनीति में कांग्रेस की ओर से महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके एक केंद्रीय कांग्रेस नेता ने इन पंक्तियों के लेखक से साफ कहा है कि जो शिबू अपने साथियों के लिए भरोसेमंद नहीं हो पा रहे हैं, क्या गारंटी है कि वे उनकी पार्टी के लिए भी भरोसेमंद रहेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम में एक तथ्य पर राजनीतिक पंडितों का ध्यान नहीं जा रहा है। भारतीय संविधान इस मसले पर चुप है कि कोई लोकसभा सदस्य राज्य की सरकार में शामिल हो सकता है या नहीं। भारतीय राजनीति में लोकसभा की सदस्यता वाले मुख्यमंत्री का सवाल 1999 में भी उछल चुका है। जब उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था। तब गोमांग लोकसभा के सदस्य थे और उड़ीसा के मुख्यमंत्री भी थे। इस मतदान में वाजपेयी सरकार की एक मत से हार हो गई थी। इस हार के बाद गोमांग के मतदान पर तब के भारतीय जनता पार्टी ने सवाल उठाया था। इसके बाद तो यह सवाल राजनीतिक और संवैधानिक गलियारे में चर्चा का विषय ही बन गया था। सवाल यह था कि जब कोई व्यक्ति राज्य का मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसकी पहली जवाबदेही राज्य विधानसभा के प्रति हो जाती है। लिहाजा उसे संसद में मतदान करने का नैतिक आधार नहीं रह जाता। 27 अप्रैल 2009 को दूसरा मौका था, जब किसी राज्य के मुख्यमंत्री ने संसद की वोटिंग में हिस्सा लिया। लेकिन इस पर सवाल नहीं उठ रहा है। जबकि हकीकत तो यही है कि झारखंड की समस्या की जड़ में यह मतदान ही है। यह सच है कि भारतीय संविधान सदस्यता और सरकार बनाने को लेकर चुप है। इसकी वजह यह है कि पहले वही लोग राज्यों में सरकार बनाते रहे हैं, जो विधानसभा का चुनाव लड़ते रहे है। पहले केंद्र से मुख्यमंत्री राज्यों में नहीं भेजे जाते थे। 1970 के दशक में पहली बार हुआ कि प्रकाश चंद्र सेठी को केंद्र से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाकर भेजा गया। इसके बाद तो कम से कम कांग्रेस में यह परिपाटी ही बन गई। सही मायने में देखा जाय तो यह भी लोकलाज का उल्लंघन ही था। लेकिन सेठी ने एक काम जरूर किया था कि संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। 1999 में उड़ीसा में नवीन पटनायक जब मुख्यमंत्री बने, तब वह लोकसभा के सदस्य थे। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। पहले लोग दो-दो, तीन-तीन जगहों से चुनाव लड़ते थे। विधायक रहते लोकसभा या सांसद रहते विधानसभा का चुनाव लड़ते थे और दोनों जगह से जीतने के बाद छह महीने तक दोनों सदस्यता पर काबिज रहते थे। लेकिन चुनाव आयोग की पहल के बाद अब 14 दिनों के भीतर कहीं एक जगह की सदस्यता छोड़नी पड़ती है। अन्यथा पिछली सदस्यता खुद-ब-खुद रद्द हो जाती है।
यह सच है कि राजनीति में संविधान और कानून से इतर मर्यादाओं और राजनीतिक नैतिकता का भी अपना महत्व होता है। लेकिन जब नेताओं का ही ध्यान मर्यादा की ओर नहीं है तो कानूनी और संवैधानिक बाध्यताएं जरूरी हो जाती है। अभी इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। लेकिन कल को कोई विधायक प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ले और विधानसभा की सदस्यता न छोड़े और वक्त पड़ने पर अपनी विधानसभा में वोट डालने पहुंच जाए तो लोकतंत्र के लिए कितना बड़ा प्रहसन होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। झारखंड की राजनीति के बेतुके नाटक ने एक बार फिर इस सवाल पर विचार करने का मौका दिया है। अगर वक्त रहते इस मसले पर ध्यान नहीं दिया गया तो झारखंड जैसे प्रहसन बार-बार होते रहेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राजनीतिक बिरादरी इस तरफ ध्यान देने की कोशिश करती भी है या नहीं।

Sunday, May 23, 2010

पोर्न रहा मंदी के लिए जिम्मेदार


उमेश चतुर्वेदी .
थाईलैंड और फिलीपींस को छोड़ दें तो सेक्स को लेकर एशियाई समाज आज भी पूरी तरह से पारंपरिक बना हुआ है। भारत जैसे देशों में महानगरीय खुलापन को छोड़ दें तो अब भी सार्वजनिक तौर पर सेक्स को वैसी खुली छूट नहीं मिली हुई है, जैसी अमेरिका और यूरोप के देशों में है। इस्लामिक देशों के साथ ही अपने देश के शुद्धतावादी अब भी सेक्स को बेहद गोपनीय और नितांत निजी मानते रहे हैं। सेक्स को लेकर अमेरिकी खुलेपन और एशिया की निजीपन की अवधारणा के अपने फायदे भी हैं तो नुकसान भी कम नहीं है। भारत और इस्लामिक देश खुलेपन की इस अवधारणा के चलते नितांत निजी इस प्रक्रिया को नैतिक तौर पर गलत मानते रहे हैं, जाहिर है इस आधार पर वे इसे सामाजिक तौर पर नुकसानदेह भी मानते हैं। लेकिन अब अमेरिका में भी खुलेपन वाली सेक्स संस्कृति को भी नुकसानदेह माना जाने लगा है। लेकिन फर्क इतना है कि वहां इस नुकसान का आकलन आर्थिक तौर पर माना जा रहा है।
एशियाई समाज के लिए टैबू रहे सेक्स को लेकर खुलेपन वाली संस्कृति के देश में इसे आर्थिक तौर पर हानिकारक माना जाने लगे तो हैरत होगी ही। सितंबर 2008 में लेहमैन ब्रदर्स के दिवालिया घोषित होने के बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई भयानक मंदी और उससे परेशान दुनिया ने मंदी के कारणों की तलाश शुरू की। इसी तलाश में जुटे अमेरिका के प्रमुख आर्थिक जांच आयोग सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज कमीशन अपनी जांच नतीजे में पाया है कि देश की तमाम एजेंसियों के अधिकारी और कर्मचारी अपना ज्यादातर वक्त पोर्न वेबसाइटें देखने में बिताते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि अमेरिका की आर्थिक गतिविधियों की निगरानी करने वाले खुद सिक्युरिटी और एक्सचेंज कमीशन के बड़े अधिकारी तक भी अपने दफ्तर का ज्यादातर वक्त पोर्न साइटें देखने में गुजारते हैं। कमीशन का कहना है कि इस वजह से ज्यादातर अधिकारियों की आर्थिक गतिविधियों पर निगाह नहीं रही और गैरकानूनी ढंग से काम होते रहे और अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ढहते देर नहीं लगी। जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को अब तक भुगतना पड़ रहा है।
अपने देश से अक्सर खबरें आती हैं कि किसी दफ्तर विशेष में कोई खास वेबसाइट या ब्लॉग को ब्लॉक कर दिया गया। हाल के दिनों में मीडिया से जुड़ी कई ब्लॉग और वेबसाइटों पर कई मीडिया हाउसों ने पाबंदी लगा दी। अर्थव्यवस्था के उफान के दिनों मे अपने देश की तमाम बड़ी कंपनियों ने नौकरी देने-दिलाने वाली वेबसाइटें पर भी पाबंदी लगा दी थीं। ताकि इनका इस्तेमाल करते हुए लोग किसी दूसरी कंपनी में न चलें जायं। चूंकि भारत में अब भी सेक्स एक टैबू है, इसलिए आज भी तकरीबन सभी दफ्तरों में पोर्न साइटें पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। फिर सामाजिक तौर पर भी इसे स्वीकृति नहीं मिली है। लिहाजा अगर कहीं खुदा न खास्ता कोई पोर्न वेब साइट खुलती भी है तो लोग खुलेतौर पर अपने दफ्तरों में खोलने से भी हिचकते हैं। लेकिन खुलेपन की सांस्कृतिक आंधी का उदाहरण रहा अमेरिका अब खुद इस खुलेपन के जरिए आए नुकसान को पहली पर मानने और उससे निबटने के लिए तैयार हुआ है। यही वजह है कि ओबामा प्रशासन जल्द ही पूरे अमेरिका के दफ्तरों में हर तरह की पोर्न साइटों पर प्रतिबंधित लगाने का आदेश सुनाने जा रहा है।
दुनिया के दूसरे इलाकों में सेक्स और पोर्न का व्यवसाय भले ही दबे-ढंके चल रहा हो, लेकिन यूरोपीय और अमेरिकी देशों में पोर्न बड़ा व्यवसाय बन गया है। इसे समझने के लिए कंप्यूटर उद्योग के ग्राहकों की लिस्ट ही देखनी समीचीन होगी। कम्प्यूटर तकनीक खरीदने वाले पांच खरीददारों में एक खरीदार सेक्स उद्योग भी है। सेक्स उद्योग ने व्यापार में पहले खर्चीली ‘टी 3 ‘ फोन लाइन खरीदी, ताकि हाई रिजोल्युशन वाली इमेजों के प्रसारण में कोई रुकावट नहीं आए। अमेरिका में सेक्स उद्योग कितना फैला हुआ है, इसे जानने के लिए वहां के सेक्स और पोर्न उद्योग के सालाना टर्न ओवर पर निगाह डालनी होगी। खुद अमेरिकी सरकार, मशहूर पोर्न मैगजीन हसलर के मालिक लैरी फ्लिंट और टीवी पर प्रसारित होने वाले मशहूर पोर्न कार्यक्रम गर्ल्स गॉन वाइल्ड के प्रोड्यूसर जो फ्रांसिस के मुताबिक अमेरिका में पोर्न उद्योग का सालाना कारोबार 13 अरब डॉलर का है। जबकि बिजनेस और आर्थिक मामलों की दुनियाभर में मशहूर पत्रिका फॉर्च्युन के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही पोर्न का कारोबार 14 अरब डॉलर का है। इसमें इंटरनेट का योगदान कितना है, इसे समझने के लिए 1998 के एक आंकड़ें पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। इसके मुताबिक 1998 में अमेरिका में सिर्फ ऑनलाइन एक बिलियन डॉलर की पोर्न सामग्री की खरीद-बिक्री हुई। उस साल के मुताबिक इंटरनेट के जरिए होने वाली कुल बिक्री का यह 69 फीसदी हिस्सा था। इन बारह सालों में इंटरनेट ने तकनीकी तौर पर काफी प्रगति कर ली है। समाज में खुलापन भी बढ़ा है। जाहिर है, पोर्न सामग्री की बिक्री के आंकड़े और बढ़ ही गए होंगे। इतना ही नहीं, अमेरिकी समाज के जरिए मोटे मुनाफा कमाने वाले इस धंधे में छोटे-मोटे खिलाड़ी नहीं हैं, बल्कि पोर्न का यह धंधा बाकायदा कारपोरेट अंदाज में चलाया जा रहा है। जिसमें सबसे ज्यादा हिस्सेदारी बड़े कारपोरेट घरानों की है। जेनेट एम लारोइ ने अपने लेख ”दि पोर्न रिंग एराउण्ड दि कारपोरेट ह्नाइट कॉलर्स: गेटिंग फिल्थी रिच” में साफ बताया है कि एटी एंड टी, एमसीआई,टाइम वारनर, कॉमकास्ट, इको स्टार कम्युनिकेशन, जनरल मोटर का डायरेक्ट टीवी, हिल्टन, मारीओत्त, शेरेटॉन, रेडीसन, वीसा, मास्टर कार्ड, अमेरिकन एक्सप्रेस जैसी कई कंपनियां पोर्न उद्योग से भारी कमाई कर रही हैं। पोर्न की बिक्री में आई इस बढ़त और बड़े खिलाड़ियों की मौजूदगी से अंदाज लगाना आसान है कि पोर्न साइटों ने अमेरिकी समाज और अर्थव्यवस्था को किस कदर जकड़ लिया है। इसमें समाज का एक बड़ा हिस्सा जुड़ा हुआ है। जाहिर है कि उनकी रोजी-रोटी भी जुड़ी हुई है।
अमेरिका और यूरोप के लिए पोर्न भले ही कुछ वैसा ही व्यापार है, जैसा कि बाकी कारोबार हैं, लेकिन दुनियाभर के मनोवैज्ञानिक कम से कम इस बात से सहमत है कि पोर्न एक बुरी लत है। जिसका इस्तेमाल करने वालों की सामान्य मानवीय संवेदनाएं मर जाती हैं। जाहिर है कि इस लत की से अक्सर भारतीय शुद्धतावादी चेताते रहे हैं। उनका कहना रहा है कि इससे समाज का काफी नुकसान होगा। लेकिन अमेरिकी तर्ज पर अपने यहां के कथित विकासवादी धारा शुद्धतावाद की इस चेतावनी को नजरंदाज करती रही है। उन्हें विकास की राह में शुद्धतावाद की ये धारा रूकावट नजर आती रही है। यह मानने वाले आर्थिक विकास को ही सबकुछ मानते रहे हैं। उनका दर्शन खाओ-पियो पर केंद्रित रहा है। लेकिन जब इस के जरिए दुनिया में सर्वशक्तिमान और प्रेरणादायी मानी जाने वाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था धाराशायी हो गई तो अब खाओ-पियो वाला दर्शन भी पोर्न को समाज के लिए हानिकारक मानने लगा है। यही वजह है कि अब अमेरिका तक को अपने यहां पोर्न साइटों पर लगाम लगाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। यानी अमेरिका ने भी मान लिया है कि दफ्तर सिर्फ काम यानी कर्तव्य वाली जगह है, काम यानी सेक्स वाली नहीं। इससे शुद्धतावादी भारतीय विचारधारा को ही बल मिला है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि 56 बिलियन डॉलर वाला दुनिया का पोर्न कारोबार अमेरिकी फैसले को बिना कुछ किए आंख मूंदकर स्वीकार कर लेगा। अगर ऐसा हो गया तो अमेरिका के 14 अरब डॉलर वाले पोर्न उद्योग का क्या होगा, जिसके साथ हजारों लोगों की रोजी जुड़ी हुई है। जाहिर है अमेरिकी प्रशासन को इस उद्योग से जुड़े लोगों की चिंताओं का भी खयाल रखना होगा। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए देखना ये है कि वह लत में डूब चुके अपने नागरिकों पर लगाम लगा पाती है या नहीं।

Wednesday, May 19, 2010

संजीदा और हाजिरजवाब राजनेता थे शेखावत


उमेश चतुर्वेदी
वह 2002 के जाड़ों की एक दोपहर थी...दिल्ली में शीतलहर अपने पूरे उफान पर थी। तब उपराष्ट्रपति भवन से इन पंक्तियों के लेखक को भी बुलावा आया था। दरअसल हमारे एक मित्र के पिता की किताब का विमोचन तब के उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के हाथों होना था। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता अब के कांग्रेस सचिव मोहन प्रकाश को करनी थी। मोहन प्रकाश तब जनता दल यू के महासचिव पद से इस्तीफा देकर आराम कर रहे थे। इन पंक्तियों के लेखक के लिए ये दूसरा मौका था, जब बतौर उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत से मिलना संभावित था। इसके पहले उपराष्ट्रपति बनते ही उनसे हैदराबाद हाउस में बतौर पत्रकार मुलाकात हो चुकी थी। लिहाजा थोड़ी असहजता भी थी। लेकिन प्रोटोकॉल की मर्यादा में बंधे शेखावत ने जब हॉल में प्रवेश किया, तब जाकर पता चला कि जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी में होते हुए भी दूसरे राजनीतिक दलों में उनकी दोस्ताना पैठ क्यों थी। हॉल में आते ही उन्होंने सारा प्रोटोकॉल दरकिनार कर दिया और मोहन प्रकाश की ओर दौड़े- भाई मोहनदास कहां हो। वहां मौजूद लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि देश का दूसरे नंबर का नागरिक इतनी उत्फुल्लता से लोगों से मिल सकता है। मोहन प्रकाश से उनकी मुलाकात बरसों बाद हो रही थी। मोहन प्रकाश भी अपने ऐसे स्वागत से भौंचक्क नजर आ रहे थे। महामहिम उपराष्ट्रपति ने उन्हें बाहों में जकड़ रखा था। संभलने के बाद मोहन प्रकाश ने उन्हें प्यारी सी चेतावनी दी- अगर आप नहीं मानेंगे तो मैं आपको भैरो बाबा फिर कहना शुरू कर दूंगा। लेकिन महामहिम पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि इसी में अपनापा दिखता है।
संघ परिवार के नेता और कार्यकर्ताओं से ये उम्मीद की जाती है कि वे मर्यादा में बंधकर संभ्रांत व्यवहार करें। लेकिन भैरो सिंह शेखावत आम लोगों के नेता थे। संभ्रांतता उनके व्यक्तित्व पर हावी न हो जाय, इसका वे खास खयाल करते थे। उसी कार्यक्रम में उन्होंने बतौर मेजबान उन लोगों को मिठाई खुद ले जाकर खिलाने में हिचक नहीं दिखाई, जो उनकी मौजूदगी के संकोच में दबे जा रहे थे। प्रोटोकॉल को दरकिनार करके मेजबानी निभाने में भी उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। उनका कहना था कि आम आदमी से प्रोटोकॉल के जरिए नहीं जुड़ा जा सकता। सार्वजनिक जिंदगी को लेकर उनका यह नजरिया ही था कि वे राजस्थान में पूर्ण बहुमत नहीं होने के बावजूद दो-दो बार सरकार सफलता पूर्वक चला सके। सार्वजनिक जीवन में रिश्तों को निभाने के उनके जज्बे को उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी नजर आया, तब उन्हें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सदस्यों की तुलना में काफी ज्यादा वोट मिले।
राज्यसभा के सभापति के रूप में उन्होंने प्रश्नकाल को बाधित नहीं होने दिया। उनका मानना था कि जनता से जुड़े सवालों को प्रश्नकाल में उठाकर ही उनका समाधान हासिल किया जा सकता है और सरकार की जवाबदेही तय की जा सकती है। कई बार तो मंत्रियों को अपनी खास कार्यशैली से जवाब देने के लिए मजबूर भी कर देते थे। उपराष्ट्रपति बनने के बाद वे पूरी तरह से पूरे देश के हो गए थे, लेकिन राजस्थान की मरूभूमि से अपना लगाव उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। 2002 के मानसून सत्र में राजस्थान में भूख से मौतों का मसला संसद में छाया हुआ था। तब उन्होंने उस दौर के मंत्री को सदन में झाड़ पिलाने में भी देर नहीं लगाई थी। जिसकी अनुगूंज संसद के गलियारे में काफी दिनों तक सुनाई देती रही थी। भले ही ये संयोग हो, लेकिन शीर्ष भारतीय राजनीति के इस दौर में शीर्ष पर बैठे दोनों लोग- राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने आम लोगों को लेकर अपने सरोकार को हर मुमकिन मौके पर जाहिर करने से नहीं झिझके।
राज्यसभा का कुशल संचालन और जनता से जुड़े सवालों के लिए सरकार को जवाबदेह बनाने का उनका जज्बा उन्हें देश के सर्वोच्च पद पर नहीं पहुंचा सका। दलीय राजनीति की सीमाओं में उनकी दोस्ती कोई सेंध नहीं लगा सकी। जिस समय राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा आया, उसके बाद शेखावत कायदे से दो महीने तक उपराष्ट्रपति रह सकते थे। क्योंकि उनका कार्यकाल खत्म होने में इतना वक्त बाकी था। लेकिन नैतिकता के तकाजे ने जोर मारा और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाद के दिनों में राजस्थान की स्थानीय राजनीति में उनकी सक्रियता पर सवाल भी उठे। लेकिन उनका कहना था कि राजस्थान की जनता के लिए वे जवाबदेह हैं, इसलिए वे सवाल उठाते रहेंगे। इस पर सवाल उनकी पुरानी भारतीय जनता पार्टी ने ही उठाए। लेकिन इसकी उन्होंने परवाह नहीं की। राज्यसभा में एक मौका ऐसा भी आया, जब वे सांसदों के सामने असहाय दिखे और उनकी बात मानने के लिए मजबूर भी हो गए और उसे निभाया भी। शेखावत जी को पान मसाला खाने की आदत थी। एक बार संसद में पान मसाले पर बहस हो रही थी। तब की स्वास्थ्य मंत्री और अब नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने उनकी इस आदत के खिलाफ प्रस्ताव रखा कि सभापति जी को अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए पान मसाला खाना छोड़ना होगा। बेहद अनौपचारिक तौर पर हुई इस चर्चा में सभी दलों के सांसद शामिल हो गए थे।
अपनी हाजिर जवाबी के लिए भी वे मशहूर रहे। इसका दर्शन राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन में दिखता था। वैसे दलीय राजनीति की सीमाएं और बाध्यताओं के चलते जनता से जुड़े मुद्दों और सवालों को लेकर आज चलताऊ रवैया अख्तियार किया जाने लगा है। लेकिन आम आदमी के उपराष्ट्रपति के तौर पर भैरोसिंह शेखावत ने हमेशा ऐसे मुद्दों को लेकर संजीदगी दिखाई। भविष्य में जब-जब दलीय राजनीति के साथ जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर चिंताएं जताई जाएंगी, संजीदा और हाजिरजवाब शेखावत याद आते रहेंगे।

Friday, April 23, 2010

फिर कैसे हो गांवों में इलाज


उमेश चतुर्वेदी
मई की तपती लू और उसके थपेड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में बीमारियों का सैलाब लेकर आते हैं। इस साल गरमी के रिकॉर्ड का भी पारा मौसमी आसमान पर तेजी से कुलांचे भर रहा है। ऐसे में इस इलाके में बुखार-दस्त और उल्टी की शिकायतें आनी शुरू हो गई है। लेकिन इस बार गांवों में ऐसे लोगों का इलाज होना मुश्किल है। कई जिलों के जिलाधिकारियों ने रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों की प्रैक्टिस पर रोक लगा दी है। बलिया के जिला अधिकारी सैंथिल पांडियन ने तो उस बीएएमएस और एमबीबीएस डॉक्टरों को ग्लूकोज चढ़ाने तक पर रोक लगा दी है, जिन्होंने नर्सिंग होम के तहत अपने दवाखाने का रजिस्ट्रेशन नहीं करा रखा है। इसके चलते गांवों के मरीज बेहाल है। इलाके में इतने सरकारी अस्पताल नहीं हैं कि लोगों को आसानी से उनके ही गांवों के आसपास इलाज मुहैया कराया जा सके।
उत्तर प्रदेश में आरएमपी यानी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनरों के रजिस्ट्रेशन पर 1975 से ही रोक लगी हुई है। हालांकि बिहार और मध्य प्रदेश में अभी भी फार्मासिस्टों को बतौर मेडिकल प्रैक्टिसनर काम करने की छूट है और उनका बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी हो रहा है। उत्तर प्रदेश में रोक की वजह है रजिस्ट्रेशन में धांधलियां, जिसके चलते मामूली झोलाछाप लोग भी आरएमपी बनकर डॉक्टर बन बैठे और उल्टे-सीधे इलाज और ऑपरेशनों के जरिए मरीजों की जान से खिलवाड़ करने लगे। हालांकि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आरएमपी की सहूलियत आजादी के बाद लोगों को अपनी रिहायश के पास ही प्रशिक्षित ऐसे चिकित्सकों की सुविधा मुहैया कराना था, जो छोटे-मोटे रोगों का इलाज कर सकें। आजादी के बाद गांवों की कौन कहे, शहरों तक में योग्य और प्रशिक्षित डॉक्टरों का टोटा था। वैसे आजादी के तिरसठ साल बीतने के बाद भी पूरे देश के गांव अब भी जरूरत के मुताबिक डॉक्टरों की पहुंच से दूर हैं। जाहिर है कि ऐसे में गांव वालों के इलाज के लिए सबसे भरोसेमंद और नजदीकी स्रोत झोलाछाप के नाम से मशहूर ये आरएमपी ही हैं। लेकिन अब उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों में इन पर रोक लगती जा रही है। लिहाजा गांव वालों का पुरसा हाल जानने वालों की कमी होती जा रही है।
वैसे प्रशासन ने झोलाछाप कहे जाने वाले इन डॉक्टरों की प्रैक्टिस को काबू करने का फैसला इलाज में जिन डॉक्टरों और नर्सिंग होम की कोताही और लापरवाही के चलते लिया है, उन्हें ज्यादातर इन इलाकों में सफेदपोश और पढ़े-लिखे डॉक्टर ही चलाते रहे है। विश्व स्वास्थ्य संगठन खुद मानता है कि बीमारू यानी उत्तर भारत के हिंदी पट्टी वाले इलाके में इन दिनों नर्सिंग होम की बाढ़ आ गई है, जिनका एक मात्र काम है सीजेरियन डिलिवरी। डब्ल्यू एच ओ के मुताबिक इसके चलते उत्तर भारत में बिला वजह ऑपरेशन के जरिए बच्चों की जन्मदर बढ़ गई है। दरअसल कोई अंदरूनी खतरा बताकर ज्यादातर ऑपरेशन के जरिए बच्चे पैदा करा रहे हैं। ऑपरेशन से बच्चा पैदा करने के चलते रोगी को तीन-चार दिनों तक अस्पताल में रखने का मौका मिल जाता है। जबकि सामान्य प्रसव में जच्चा-बच्चा अगली सुबह ही घर जाने लायक हो जाता है। इन ऑपरेशनों के दौरान मौतों का सिलसिला भी बढ़ा है। कहां तक इन पर रोक लगती, इसकी कीमत आरएमपी डॉक्टरों को अपनी रोजी-रोटी के तौर पर चुकानी पड़ रही है। इसके साथ ही सस्ते में सुलभ इलाज पर भी लाले पड़ गए हैं। इसे लेकर इलाके केमिस्ट और ड्रगिस्ट एसोसिएशन भी परेशान हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की है कि जिन लोगों का दवा के कारोबार या किसी डॉक्टर के पास कंपाउंडर के तौर पर दस साल का अनुभव है, उन्हें कम से कम गांवों में इलाज करने की सुविधा दी जाए। हालांकि प्रशासन और सरकार ने इस पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया है।
जब तक गांवों तक डॉक्टरों की पहुंच सहज-सुलभ नहीं हो जाती, वहां के लोगों के सस्ते-सुलभ इलाज के इन साधनों यानी आरएमपी डॉक्टरों के महत्व को नकारना गलत होगा। साथ ही एक ऐसा मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए, जिससे कोई अनाड़ी हाथ डॉक्टर के भेष में मरीजों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं कर सके। इसके साथ ही इन इलाकों में तेजी से कुकुरमुत्तों की तरह उग आए नर्सिंग होम पर तीखी नजर रखी जानी चाहिए। यहां यह भी ध्यान रखने की बात ये है कि ये नर्सिंग होम उन भ्रष्ट डॉक्टरों के हैं, जो बरसों तक राजनीतिक व्यवस्था के भ्रष्टाचार के चलते एक ही जगह तैनात रहे और अपनी निजी प्रैक्टिस चमकाते रहे।

Monday, March 29, 2010

ये आग कब रूकेगी


उमेश चतुर्वेदी

गरमी के मौसम ने जैसे ही दस्तक देनी शुरू की है, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नजदीकी बिहार के गांवों से आग के तांडव की खबरें आने लगीं हैं। इन इलाकों में प्रकाशित होने वाले अखबारों के जिलों के पृष्ठ रोजाना इस तांडव के चलते बेघर हुए लोगों और मासूमों की मौत की खबरों से भरे पड़े हैं। कोलकाता के स्टीफन कोर्ट में लगी आग और उसमें मारे गए 27 लोगों की खबर ने देशभर के मीडिया की सुर्खियां बटोरी हैं। पश्चिम बंगाल सरकार से लेकर कोलकाता नगर निगम की लानत-मलामत का दौर अब भी देशभर के मीडिया में प्रमुख जगह बनाए हुए है, लेकिन इन इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों की जिंदगी की दुश्वारियां सिर्फ जिले के पन्नों में सिमट गई हैं। अकेले बलिया से ही पिछले एक हफ्ते में आग के हादसे की पांच खबरें आईं हैं, जिनमें से कई मासूमों को भी अपनी जिंदगी की कीमत चुकानी पड़ी है।
आगलगी के इन हादसों की असल वजह समझने के लिए हमें इस इलाके के लोगों के जीवन स्तर और उनकी जिंदगी की दुश्वारियों को समझना जरूरी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ -गाजीपुर-बलिया से पूरब, बिहार के मोतीहारी, आरा और छपरा की और जैसे – जैसे हम आगे बढ़ते हैं, छपरा नाम राशि वाले गांवों की पूरी की पूरी सीरीज ही शुरू हो जाती है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने - मेरी जन्मभूमि - शीर्षक निबंध में छपरा नाम राशि वाले इन गांवों के नामकरण की चर्चा की है। उनके मुताबिक इन गांवों में ज्यादातर घर फूस और सरकंडे के छप्पर से बने होते हैं। छप्पर ही इनकी पहचान रहा है, इसीलिए इन गांवों के नाम के साथ छपरा यानी दलनछपरा, दूबे छपरा आदि पड़ गया है। नाम चाहे जितना भी सुंदर हो, गर्मियां आते ही इन गांवों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। बरसात आने तक छप्पर वाले इन गांवों की सुबह और शाम अंदेशे में ही गुजरती है। लेकिन बरसात ही इन्हें कहां मुक्त रहने देती है। बारिश आते ही गंगा और घाघरा का पानी अपने तटबंधों को पार कर उफान मारने लगता है और जैसे ही बस्तियों की ओर रूख करता है, उसका पहला शिकार कमजोर नींव वाले ये घर ही होते हैं।
लेकिन गर्मियां इन इलाकों के छप्पर वाले लोगों के लिए कहर बन कर आती हैं। बासंती नवरात्र के खत्म होते ही गेहूं और चने की फसल पकने लगती है। इसके साथ ही पछुआ हवा के तेज झोंके दिनभर चलने शुरू हो जाते हैं। चूंकि फसलें पकी होती हैं, लिहाजा इन्हीं दिनों कटाई का मौसम जोर पकड़ चुका होता है, लिहाजा छप्पर वाले घरों में सिर्फ बच्चे और बूढ़े ही रह जाते हैं। पुरूष और महिलाएं दिन भर खेतों में काम करने के लिए निकल जाते हैं। इसी दौरान कभी चूल्हे में शांत पड़ी चिन्गारी कभी छिटक कर छप्पर पर चली जाती है तो कई बार बच्चों की असावधानी और बचपने के चलते चिन्गारी छप्पर वाले घरों की छत या दीवार छू लेती है। ऐसी घटनाएं गंगा और घाघरा के किनारे छप्परों के समूहों वाले गांवों में रोजाना होती है। इन्हीं में से कई बार ये चिन्गारियां शोलों का रूप धारण कर लेती हैं। इसे तेजी से फैलाने में दिन में चलने वाली पछुआ हवा के तेज झोंके मदद करते हैं। और देखते ही देखते पूरी बस्ती की गृहस्थियां स्वाहा हो जाती हैं। अच्छे – खासे हंसते-खेलते परिवार सड़क पर आ जाते हैं।
कहना ना होगा कि सालों से चली आ रहा बदकिस्मती का कहर इस साल भी जारी है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मेरी जन्मभूमि निबंध जब लिखा था, तब भारत को आजाद हुए सिर्फ बीस-बाइस साल ही हुए थे। तब तक इन छप्परों में सांस्कृतिक रसगंध महसूस होती थी। तब आगलगी की घटनाओं को बदकिस्मती मान कर किस्मत पर आंसू बहाया जा सकता था। लेकिन आज जमाना बाजार का है। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक का दावा है कि पूरे देश में विकास हुआ है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के गंगा, घाघरा, राप्ती और गंडक के किनारे वाले गांवों में विकास की ज्योति जिस तेजी से पहुंचनी चाहिए थी, अब तक नहीं पहुंच पाई है। पचास के दशक में संसद में गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ गहमरी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की गरीबी का जो चित्र पेश किया था, उससे कहा जाता है कि नेहरू की आंखों में भी पानी भर आया था। लेकिन आजादी के बासठ साल बाद भी इस इलाके में विकास की वह धारा नहीं पहुंच पाई है, जिसका वह हकदार रहा है। लिहाजा आज भी यहां लोग छप्परों के घर में रहने को मजबूर हैं। बाढ़ में डूबने और गरमी में आग में जलने के लिए अभिशप्त हैं। साल-दर-साल यह विभीषिका दोहराई जाती है। लेकिन सरकारों के कानों पर जूं नहीं रेंग रही। चाहे उत्तर प्रदेश की सरकार हो या फिर बिहार की, फायरब्रिगेड की गाड़ियों का माकूल इंतजाम आज तक नहीं कर पाई है। इसके चलते लोग वे जानें भी सस्ते में चली जाती हैं, जिन्हें महज फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी की सहायता से बचाया जा सकता था। बलिया में पिछले हफ्ते दो मासूमों को सिर्फ इसलिए नहीं बचाया जा सका, क्योंकि जिला मुख्यालय में महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर होने वाले गांव में भी फायर ब्रिगेड का दस्ता घंटों बाद पहुंच पाया।
अव्वल तो होना यह चाहिए कि लोगों को फूस और सरकंडे के छप्पर वाले मकानों से इन इलाकों के लोगों को मुक्ति दिलाई जाती। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो कम से कम गरमियों फायर ब्रिगेड का ऐसा इंतजाम तो किया जाता, ताकि लोगों की गाढ़ी मेहनत के साथ मासूम जिंदगियों के बेवक्त ही मौत के मुंह में जाने से रोका जा सके। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के साथ ही कांशीराम के नाम पर आम लोगों की भलाई का दावा करने वाले लोगों के कानों तक इन मासूमों की आह पहुंच पाती है या नहीं।

Wednesday, March 24, 2010

इसी दम पर आगे बढ़ेगा उत्तर प्रदेश



उमेश चतुर्वेदी

उत्तर प्रदेश में एक बार फिर बोर्ड परीक्षाओं का पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है। राज्य के खासकर पूर्वी जिलों में प्रशासन के तमाम दावों के बावजूद नकलची छात्रों पर पूरी तरह नकेल नहीं लगाई जा सकी है। नकल माफिया के लिए मशहूर रहे बलिया, गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों के अधिकारियों ने नकल रोकने के लिए कोर-कसर नहीं रखी है। इसके बावजूद नकल माफिया की पौ बारह है। राज्य के पश्चिमी जिलों के विद्यार्थियों का इस बार भी बड़ा रेला इन जिलों में महज एक अदद सर्टिफिकेट के लिए इम्तहान की औपचारिकताओं में जुट गया है। जाहिर है इससे नकल माफियाओं के चेहरी मुस्कान चौड़ी हुई है तो वहीं अपने सुनहरे भविष्य का ख्वाब बुनने में जुटे छात्रों की आंखों में सपने पूरी शिद्दत से तैर रहे हैं। ये दोहराना ना होगा कि इसकी वजह नकल ही बना है। सपनों और मुस्कान के कोलायडीस्कोप में स्थानीय लोगों की भी खुशियां शामिल हैं। लेकिन जो शिक्षा की अहमियत जानते हैं, उनके लिए शिक्षा का ये नाटक दर्द का सबब बन गया है।

चाहे लाख दावे किए जाएं, लेकिन ये सच है कि जब से परीक्षाओं की शुरूआत हुई है, कमोबेश नकल का चलन तब से ही है। लेकिन उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षाओं में नकल का जोर सत्तर के दशक बढ़ा और देखते ही देखते पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक रसूख की वजह तक बन गया। जो जितने लोगों को नकल करा सके या कमजोर छात्रों की कापियां अपने दम पर नकल के सहारे लिखवा सके, उसका सामाजिक रूतबा उतना ही बढ़ने लगा। देखते ही देखते ये रोग राज्य के विश्वविद्यालयों तक में फैल गया। कभी पूरब का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय भी इस रोग की गिरफ्त में आ गया। हालात इतने बिगड़े कि यहां पीएसी के संगीनों के साये के बीच परीक्षाएं होने लगीं। राज्य में कभी पॉलिटेक्निक शिक्षा के लिए मशहूर रहे इलाहाबाद के ही हंडिया पॉलिटेक्निक और चंदौली पॉलिटेक्निक में संगीनों के साये के बिना परीक्षाएं कराने का साहस प्रिंसिपल नहीं कर पाते थे। राज्यों के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रसंघों में वही छात्रनेता जीत हासिल करने के काबिल माने जाने लगे। किसी – किसी साल तो नकल के लिए पूर्वी जिलों में अराजकता का माहौल तक बन जाता था। और फिर तो यह परंपरा ही बन गई। इस परंपरा पर ब्रेक पहली बार 1991 में तब लगा, जब कल्याण सिंह की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब राजनाथ सिंह जब भी किसी कार्यक्रम में जाते और वहां अपने स्वागत में जुटे छात्रों को हिदायत देने से नहीं चूकते थे कि पढ़ाई करो, हम लोग नकल नहीं करने देंगे। पहली बार कायदे से राज्य की सत्ता में आई बीजेपी के सामने शायद तब आदर्श स्थिति लागू करने का मिशन था, लिहाजा उत्तर प्रदेश में बरसों बाद नकल विहीन परीक्षा हुई। इस दौरान पुलिस को भी परीक्षार्थियों पर कार्रवाई करने के अधिकार दे दिए गए थे। नकलची छात्रों को जेल भेजा गया। यहीं सरकार से चूक हो गई। और एक अच्छा प्रयास प्रशासनिक चूकों की बलि चढ़ गया। बाद में 1993 के विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह ने अपने घोषणा पत्र में ही छात्रों को परीक्षाओं के दौरान छूट देने का ऐलान किया। जिसका फायदा उन्हें मिला और सत्ता में आते ही उन्होंने राज्य बोर्ड की परीक्षाओं में खुली छूट दे दी। इससे युवा वर्ग खुश तो हुआ, नकल के आधार पर परीक्षाएं कराने को एक तरह से सामाजिक वैधानिकता भी मिली। इससे एक बार फिर अभिभावकों और छात्रों के चेहरे पर मुस्कान लौट आई। लेकिन इस मुस्कान के साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ज्ञान आधारित सामाजिक ढांचा बनाने के विचार को तिलांजलि दे दी गई। उसी का असर है कि अब नकल विहीन परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए हर साल दावे तो किए जाते हैं, लेकिन वे महज कागजी बन कर रह जाते हैं। इसी का असर हुआ है कि पूर्वी जिलों में नकल माफिया ने पैर फैला लिए हैं। इसके चलते नकल माफियाओं की बन आयी है। ये माफिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य उत्तर प्रदेश के छात्रों को सर्टिफिकेट दिलाने का सौदा करते हैं। उनके गलत पतों के आधार पर फॉर्म भरे जाते हैं। इसके सहारे पूर्वी जिलों में परीक्षाओं के दिनों में बाकायदा अर्थव्यवस्था तक चलने लगती है। इसी बार इन पंक्तियों के लेखक को सीतापुर के ऐसे छात्र मिले, जिन्होंने बलिया से फॉर्म भरा था। उन्हें प्रवेश पत्र हासिल करने के एवज में नकल माफियाओं को पचास हजार रूपए तक देने पड़े हैं।

कहा जा रहा है कि इक्कीसवीं सदी ज्ञान और सूचना की सदी है। यानी आज के दौर में जिसके पास ज्ञान और सूचनाएं हैं, वही ताकतवर है। मानव विकास सूचकांक में उत्तर प्रदेश से उड़ीसा नीचे है। सूचना के दम पर वहां के युवाओं ने सिलिकॉन वैली से लेकर साइबराबाद और बेंगलुरू में परचम फहरा रखा है। लेकिन उत्तर प्रदेश ऐसी उपस्थिति दर्ज कराने में अब तक नाकाम रहा है। इसके अहम कारणों में एक वजह राज्य में नकल का संस्थागत होना भी है। दरअसल इन इलाकों में नकल सिर्फ प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि सामाजिक समस्या भी है। यहां के समाज में नकल करना और कराना नाक नीची होने की वजह नहीं है। अब तक नकल रोकने के जितनी भी कोशिशें हुईं हैं, वह सिर्फ प्रशासनिक ही रही हैं। सामाजिक स्तर पर इस बुराई को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की गई। यही वजह है कि प्रशासनिक धमकी और डर के आगे कुछ वक्त तक नकल भले ही रूक जाती है, लेकिन यह चलन नहीं बन पाती। इसके ही चलते नकल माफियाओं की भी बन आती है।

एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदी भाषी समाज पर व्यंग्य करते हुए लिखा था कि इन इलाकों से सबसे ज्यादा लोगों को कोलकाता, मुंबई और दिल्ली में चौकीदार, चपरासी और रसोइए का ही काम मिल पाता है, क्योंकि शिक्षा से उनका कोई गहरा रिश्ता नहीं होता। दरअसल खुशवंत सिंह इस लेख के जरिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाज में शिक्षा को लेकर जो दृष्टि है, उस पर व्यंग्य कर रहे थे। कमोबेश यही स्थिति इन इलाकों से पढ़कर निकले ज्यादातर छात्रों की आज भी है। नकल के सहारे परीक्षाएं पास करके जब वे नौकरियों के बाजार में दूसरे इलाकों के छात्रों से प्रतियोगिता करने निकलते हैं तो पिछड़ना उनकी मजबूरी होती है। ऐसा नहीं कि उनमें प्रतिभाएं नहीं हैं। जब भी मौका मिलता है, वे अपनी प्रतिभा को साबित भी कर देते हैं। लेकिन शिक्षा का कमजोर आधार उन्हें पीछे कर देता है।

ऐसे में जरूरी ये है कि इन इलाकों में नकल का निदान सामाजिक बुराई के तौर पर किया जाय। नकल के खिलाफ इस इलाके के समाज को ही जगाना होगा। इसके जरिए सामाजिक नजरिए को भी बदला जाना होगा। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए, पूर्वी उत्तर प्रदेश के छात्र और नौजवान भी अपनी प्रतिभा के दम पर जिंदगी के तमाम क्षेत्रों में अपना परचम लहरा सकेंगे। लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि सामाजिक बुराई के खिलाफ खड़ा होने की शुरूआत करने के लिए कोई तैयार है भी या नहीं.....।

सुबह सवेरे में