Friday, February 25, 2011

रेल बजट : लेकिन आम यात्रियों की सहूलियतों की चिंता कहां हैं


उमेश चतुर्वेदी
पश्चिम बंगाल के चुनावी साल में ममता बनर्जी रेल बजट पेश करें और उनके आंचल से ममता ना बरसे, ऐसा कैसे हो सकता है। ममता बनर्जी भले ही रेल मंत्री हैं, लेकिन उनका ध्यान दिल्ली के रफी मार्ग स्थित रेलवे बोर्ड के मुख्यालय रेल भवन पर कम ही रहता है। उनकी निगाह कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग पर ही है। यह पूरा देश जानता है और राजनीतिकों की छोड़िए, आम आदमी भी यही मानकर चल रहा था कि संसद में इस बार भी पश्चिम बंगाल एक्सप्रेस ही दौड़ेगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, अलबत्ता कोलकाता पर वे ज्यादा मेहरबान रहीं। कोलकाता को अकेले पचास ट्रेनें, मेट्रो रूट को बढ़ावा और कोच फैक्टरी की सौगात देकर उन्होंने यह साबित कर दिया है कि दुनिया चाहे जो कहे, जब तक उनके हाथ में रेलवे की कमान है, अपने कोलकाता और बंगाल पर मेहरबान बनी रहेंगी। एनडीए सरकार के रेल मंत्री के तौर पर जब उन्होंने पहली बार रेलवे का बजट पेश किया था, तब भी उन पर बंगाल के लिए बजट पेश करने का आरोप लगा था। इन आरोपों के बाद उन्होंने तीखी टिप्पणी की थी – यदि भारत उनकी मातृभूमि है तो पश्चिम बंगाल उनका स्वीट होम है और ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने स्वीट होम के लिए वे कुछ नहीं करें।
लेकिन ममता ने बाकी इलाकों को उतने उपहार भले ही नहीं दिए, जितने कोलकाता को मिले हैं, उतने किसी और को नहीं। लेकिन यात्री किराए में बढ़ोत्तरी ना करना, बुकिंग फीस घटाकर एसी के लिए दस रूपए और गैर एसी के लिए पांच रूपए करना निश्चित तौर पर यात्रियों को सुखकर लगेगा। माल भाड़े में भी कोई बढ़त ना करके ममता ने साबित किया है कि उनकी निगाह भले ही पश्चिम बंगाल के चुनावों पर है, लेकिन जनता के दुख-दर्दों से उनका वास्ता है। महंगाई से जूझ रही जनता के लिए निश्चित तौर पर ममता का ये आंचल जरूर राहत लेकर आया है। वैसे भी मध्य एशिया और अरब देशों में बढ़ती अराजकता के चलते कच्चे तेल की कीमतें 105 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। जाहिर है इस महंगाई का सामना रेलवे को भी करना पड़ रहा है। ऐसे में भी अगर ममता ने रेल किराए या माल भाड़े में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की तो जाहिर है कि उन्होंने जन पक्षधरता दिखाई है। लेकिन उदारीकरण के दौर में ऐसी जनपक्षधरता ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है। करीब 16 लाख कर्मचारियों के भारी-भरकम बेड़े वाली रेलवे रोजाना करीब एक करोड़ लोगों को ढोती है। जाहिर है कि इसमें भारी भरकम रकम खर्च होती है। लेकिन यह खर्च कहां से आएगा, ममता बनर्जी के बजट में इसका जिक्र नहीं है। अलबत्ता उन्होंने रेलवे की तरफ सरकार को छह प्रतिशत का लाभांश भी दिया है। रेलवे के जानकारों को लगता है कि इसमें कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है। अगर सचमुच में भी ऐसा हुआ है तो इसकी कीमत आनेवाले दिनों में रेलवे को आर्थिक तौर पर चुकानी पड़ सकती है। ममता ने रेलवे के लिए अब तक के सबसे अधिक 57, 630 करोड़ रुपये के परिव्यय का प्रस्ताव किया है। लेकिन जहां तक रकम जुटाने का सवाल है तो इसे बांड और बाजार से उगाहने की दिशा में मोड़ दिया गया है। ममता के इस बजट से पंद्रह हजार करोड़ रूपए बाजार से उगाहने का लक्ष्य है। इससे साफ है कि कर्ज आधारित व्यवस्था पर रेल को चलाने की कोशिश है। ममता ने नई लाइनों के लिए 9583 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। इसके साथ ही 1300 किलोमीटर नई लाइनें, 867 किलोमीटर लाइनों का दोहरीकरण और 1017 किलोमीटर का आमान परिवर्तन करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन ममता के पुराने बजटों से साफ है कि ऐसे प्रस्ताव उन्होंने पहले भी रखे हैं, लेकिन उन पर काम न के बराबर भी हुआ है। जिस कोलकाता पर वे मेहरबान रही हैं, वहां के मेट्रो के विस्तार का लक्ष्य उन्होंने यूपीए सरकार के रेलमंत्री के तौर पर अपने पहले बजट में भी रखा था। लेकिन हकीकत यह है कि इस दिशा में अब तक कोई खास प्रगति नहीं हो पाई है। इसे कोलकाता वासी अच्छी तरह से जानते हैं। ममता ने अपने बजट प्रस्ताव में आठ क्षेत्रीय रेलों पर टक्कररोधी उपकरण लगाने का भी प्रस्ताव किया है। इन उपकरणों का नीतीश कुमार के रेल मंत्री रहते सफल परीक्षण किया जा चुका था। ऐसे में सवाल यह उठना लाजिमी है कि आखिर इन्हें लागू करने की कोशिश अब जाकर क्यों शुरू हुई है। ममता ने जयपुर-दिल्ली और अहमदाबाद-मुंबई रुट पर ऐसी डबल डेकर ट्रेनें चलाने का ऐलान किया है। ऐसा ऐलान पिछले बजट में धनबाद-कोलकाता रूट के लिए भी किया गया था। लेकिन हकीकत में अब तक इस रूट पर डबल डेकर ट्रेनों का सफल परीक्षण तो नहीं हो सका है। जब बंगाल के इलाके में सफल प्रयास नहीं हो पाया तो दूसरे इलाके में इसके जल्द सफल होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। भारतीय रेल की सबसे बड़ी समस्या उसकी रफ्तार है। ममता ने यात्री गाडियों की रफ्तार 160 से बढाकर 200 किलोमीटर
प्रति घंटे करने के बारे में व्यावहारिक अध्ययन कराने का ऐलान किया है। लेकिन जिस हालत में भारतीय रेलवे के ट्रैक हैं, उसमें इसे व्यवहारिक जामा पहनाया जाना आसान नहीं है। उत्तर पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा देने में रेलवे की गैरमौजूदगी को भी जानकार बड़ा कारण बताते रहे हैं। इस संदर्भ में ममता का वह प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है, जिसके तहत उन्होंने सिक्किम को छोड पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की राजधानियों को अगले सात साल में रेल संपर्क से जोड़ने का कार्यक्रम बनाया है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब रेलवे की हालत ही खराब है तो इसके लिए जरूरी रकम आएगी कहां से। रेल बजट इस बारे में साफ जानकारी नहीं देता। रेलवे के जानकार मानते हैं कि भारतीय रेलवे जिस हालत में है, उसमें उसकी हालत सुधारने के लिए परियोजना बजट बढ़ाया जाना चाहिए। रेलवे की जो हालत है, उसमें परियोजनाएं बजट प्रस्तावों में रख तो दी जाती हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनके विकास की दिशा में कोई काम नहीं हो सकता। जब ऐसे ही खुशफहमी भरा बजट लालू यादव पेश करते थे तो नीतीश कुमार कहा करते थे कि उनके इस बजट की कीमत आने वाले रेलमंत्री को चुकानी पड़ेगी। ममता बनर्जी ने रेलवे पर श्वेत पत्र लाकर लालू राज की खुशफहमियों की कलई खोलने की कोशिश की थी। लेकिन खुद ममता रेलवे के ढांचागत विकास के लिए खास योजना लेकर नहीं आ सकी हैं। भारतीय यात्रियों को भारतीय रेलों से वक्त की पाबंदी और साफ-सुथरी ट्रेनों के साथ सहूलियतों की अपेक्षा रहती है। लेकिन दुर्भाग्यवश ममता के इस पूरे बजट में इन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

Saturday, February 12, 2011

अनुभवों के विस्तारित आकाश का प्रस्थान बिंदु


उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में लोक साहित्य के अध्ययन का आधार बना गीत - रेलिया ना बैरी, जहजिया ना बैरी , पइसवा बैरी भइले ना - भी दरअसल प्रवासी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति था। लेकिन आज प्रवास का मकसद वैसा नहीं रहा, जैसा उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों से लेकर आजादी के कुछ बरसों बाद तक रहा है। लिहाजा प्रवासी रचनात्मकता के स्वर भी बदले हैं। पहले का प्रवासन चूंकि अभाव और मजबूरियों का प्रवास था, लिहाजा उस वक्त की रचनात्मकता में सिर्फ और सिर्फ अभाव और मजबूरियों का ही जिक्र मिलता है। सैनिक और विशाल भारत का संपादन करते वक्त पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी प्रवास और उसकी पीड़ा के संपर्क में आ गए थे। जिसका नतीजा बाद में प्रवास और प्रवासी रचनात्मकता के उनके गहन अध्ययन में नजर आया। लेकिन आज प्रवास का मकसद बदल गया है। आज के प्रवास में मजबूरी नहीं बल्कि शौक है। बेहतर या उससे भी आगे की कहें तो सपनीली जिंदगी की तलाश आज के प्रवास का अहम मकसद बन गया है। शायद यही वजह है कि मशहूर कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव प्रवासी लेखन को खाए-अघाए लोगों का लेखन कहने से खुद को रोक नहीं पाते। यह सच है कि प्रवासी लेखन को लेकर इन दिनों हिंदी साहित्यिक समाज में खास आलोडऩ है। लेकिन इसके पीछे विशुद्ध रचनात्मक वजह नहीं है। बल्कि आज ब्रिटेन -अमेरिका या कनाडा जैसे समृद्ध देशों में रह-रहे रचनात्मक लोगों को सबसे ज्यादा अपनी रचनात्मक पहचान की मान्यता हासिल करने से जुड़ गया है। लेकिन ऐसा नहीं कि प्रवासी रचनात्मकता को पहचान पहले से हासिल नहीं रही है या फिर प्रवासी लेखक को यथेष्ट सम्मान नहीं मिलता रहा है। अगर ऐसा होता तो आज से करीब चौथाई सदी पहले गंगा में अमेरिका में रह रही लेखिका सुषम बेदी का उपन्यास गंगा जैसी पत्रिका में कमलेश्वर उत्साह से धारावाहिक तौर पर नहीं छाप रहे होते। कादंबिनी के पुराने अंकों में जब किसी ब्रिटिश या प्रवासी लेखक की रचना राजेंद्र अवस्थी प्रकाशित करते तो बाकायदा उसकी घोषणा की जाती- ब्रिटेन से आई कहानी। जाहिर है कि प्रवासी लेखन को पहले से ही इज्जत मिलती रही है। पत्रकारिता की दुनिया में भी एक दौर में जब हिंदुस्तान टाइम्स के वाशिंगटन स्थित संवाददाता एन सी मेनन रिपोर्टें लिखते तो उनकी रिपोर्ट के साथ अलग से खास बाइलाइन लगाई जाती- एन सी मेनन राइट्स फ्रॉम वाशिंगटन। जाहिर है कि वाशिंगटन, लंदन या ओस्लो के लेखन को तब भी खास महत्व मिलता था।
दरअसल प्रवासी लेखन का जोर भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए प्रवासी भारतीय सम्मेलनों के बाद जोर पकड़ रहा है। भारत सरकार का यह आयोजन अब सालाना गति हासिल कर चुका है। लेकिन ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यह आयोजन पूरी तरह आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने लिए है। सांस्कृतिक पहचान और भारतीय धरती से जुड़ाव की दिशा में भारत सरकार द्वारा पोषित और पल्लवित किए जा रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन का अब तक कोई योगदान नहीं रहा है। इन संदर्भों में डीएवी गल्र्स कॉलेज यमुनानगर और कथा(यूके) का प्रवासी भारतीय साहित्य सम्मेलन को पहला ऐसा सांस्कृतिक कार्यक्रम कहा जा सकता है, जिसमें प्रवासी भारतीय लेखन को उसकी मूल नाल से जोडऩे की कोशिश हो रही है।
मौजूदा प्रवासी लेखन का प्रमुख सुर अपनी जड़ों से जुडऩे की कोशिश तो है ही, प्रवास में गए लोगों की अगली पीढ़ी की सांस्कृतिक चिंताएं भी ज्यादा हैं। जहां प्रवासियों की पहली पीढ़ी सूरदास के कृष्ण की तरह अपने गांव- अपने पुराने परिवेश को - उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं की तर्ज पर याद करती रहती है। जबकि ब्रिटेन-अमेरिका या कनाडा में पैदा उन्हीं प्रवासियों की संतानों के लिए भारतीय संस्कार और संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। जाहिर है यह सांस्कृतिक तनाव कई बार प्रवासी परिवारों के लिए सांस्कृतिक भ्रम लेकर आता है। इस भ्रम के चलते पीढिय़ों के बीच टकराव भी होता है। जाहिर है कि प्रवासी रचनाओं में सांस्कृतिक विभ्रम की यह स्थिति खूब नजर आती है।
दुनियाभर से आए प्रवासी रचनाकारों को लेकर यमुनानगर में जितनी कहानियों पर चर्चाएं हुईं, ज्यादातर का प्रमुख सुर यही रहा। मौजूदा प्रवासी लेखन में इससे भी आगे की बात हो रही है। आज का प्रवासी लेखन विदेशी समाज के अनुभवों से भी समृद्ध कर रहा है। विदेशी संसार में देसी मन के अनुभवों का जो विस्तार हुआ है, उसे प्रवासी साहित्यकारों की पैनी निगाहों ने बारीकी से पकड़ा है। इन अर्थों में कहें तो प्रवासी लेखन ने हिंदी साहित्य के आकाश को विस्तार दिया है। नई जमीन के नए अनुभवों से ओतप्रोत इस रचना संसार में भी खामियां हो सकती हैं। जिन पर विचार होना चाहिए और होगा भी। यमुनानगर की धरती पर शुरू हुआ यह समारोह निश्चित तौर पर प्रवासी भारतीय लेखन के वैचारिक आलोडऩ के लिए नई जमीन मुहैया कराएगा। इतनी उम्मीद तो हम कर सकते ही हैं।

Saturday, February 5, 2011

राजा की गिरफ्तारी के निहितार्थ

उमेश चतुर्वेदी
पूर्व संचार मंत्री ए राजा की गिरफ्तारी से उस तबके के लोग बेहद आशान्वित महसूस कर रहे हैं, जिन्हें मौजूदा व्यवस्था से अब भी उम्मीद बनी हुई है। उन्हें लगता है कि प्रभावशाली नेता और उसके साथ रसूखदार अधिकारियों की गिरफ्तारी से भ्रष्टाचारियों में यह संदेश जरूर जाएगा कि मौजूदा व्यवस्था के हाथ उसकी गर्दन तक पहुंच सकते हैं। खालिस्तानी आतंकवाद की भेंट चढ़े मशहूर पंजाबी कवि पाश की कविता है- सबसे खतरनाक होता है हमारे सपने का मर जाना। भ्रष्टाचार के विरोधी में लामबंद नजर आ रही एक पीढ़ी में इस उम्मीद का बचे रहना जरूरी है। लेकिन क्या इस एक गिरफ्तारी से भ्रष्टाचार के समूल नाश की उम्मीद पाल लेना बेमानी नहीं लगता। अतीत पर भरोसा करें तो ऐसा सोचना गलत भी नहीं है। नरसिंह राव सरकार के संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की भी हिमाचल फ्यूचरिस्टिक कंपनी को बेजा फायदा पहुंचाने और घोटाले में नाम आने के बाद ठीक वैसे ही सीबीआई ने गिरफ्तार किया था, जैसे ए राजा को गिरफ्तार किया गया है। जिस तरह राजा के साथ तत्कालीन टेलीकॉम सचिव सिद्धार्थ बेहुरा को गिरफ्तार किया गया है, सुखराम के साथ उसी तरह तब की दूरसंचार विभाग की अतिरिक्त सचिव रूनू घोष को भी सीबीआई ने जेल की राह दिखाई थी। लेकिन भ्रष्टाचार को न रूकना था और न ही रूका। 1995 में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल फ्यूचरिस्टिक घोटाले के खिलाफ 16 दिन तक संसद की कार्रवाई नहीं चलने दी थी। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के खिलाफ बीजेपी समेत समूचे विपक्ष का रवैया भी कुछ वैसा ही रहा, जिसके चलते संसद के शीतकालीन सत्र में कोई विधायी कामकाज नहीं हो सका।
समूचा विपक्ष इस मसले की संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग पर अड़ा हुआ था। विपक्ष अपनी इस मांग पर अब भी कायम है। राजा की गिरफ्तारी के बाद विपक्ष का तर्क और मजबूत ही हो गया है। उसका कहना है कि राजा की गिरफ्तारी से साबित होता है कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा का हाथ है। यह बात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी तीन साल से जानते रहे हैं, लेकिन उन्होंने राजा के खिलाफ कार्रवाई करने में तीन साल की देर लगा दी। राजा की गिरफ्तारी को कांग्रेस की साख बचाने की कवायद से भी जोड़कर देखा जा सकता है। गिरफ्तारी के फौरन बाद कांग्रेस प्रवक्ताओं ने इसका श्रेय लेने की कोशिश भी की। इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान का सहारा जरूर लिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर भ्रष्टाचार हुआ है तो कानून अपना काम जरूर करेगा। यह ठीक है कि सीबीआई प्रधानमंत्री के अधीन ही काम करती है। बिना उनके इशारे पर सीबीआई राजा और बेहुरा की गिरफ्तारी का कदम नहीं उठा सकती थी। लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री कार्यालन ने सदिच्छा से राजा की गिरफ्तारी के लिए हरी झंडी नहीं दिया है। सुब्रह्ममण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए राजा पर कई सवाल सुप्रीम कोर्ट ही उठा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने ही जब सवाल पूछा कि आखिर इतने बड़े घोटाले के आरोपी राजा अब तक मंत्रिमंडल में क्यों बने हुए हैं, तब जाकर उनसे इस्तीफा मांगा गया।
सच तो यह है कि बढ़ती महंगाई और 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की ठोस जांच में हीलाहवाली से सरकार की साख पर सवाल उठ खड़े हुए हैं। राष्ट्रमंडल खेल आयोजन में घोटाला की खबर आने के बाद भी सरकार की ओर से कोई ठोस कदम उठाते हुए नहीं दिखे। अभी राष्ट्रमंडल खेल आयोजन के घोटाले से उबरने की कांग्रेस कोशिश कर ही रही थी कि मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले से सरकार और कांग्रेस की नींद उड़ गई। लिहाजा अशोक चव्हाण को हटाकर कांग्रेस ने अपने दामन को पाक-साफ दिखाने की कोशिश की। अपेक्षाकृत शालीन व्यक्तित्व के धनी पृथ्वीराज चव्हाण को दिल्ली से भेजकर महाराष्ट्र की बागडोर थमाई गई। लेकिन अब उनका भी नाम आदर्श घोटाले में सामने आ रहा है। लेकिन एक लाख 76 हजार करोड़ का 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की खबर सब पर भारी पड़ गई। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री की चेतावनी के बाद भी राजा अपने ढंग से स्पेक्ट्रम बांटते रहे। लेकिन गठबंधन धर्म की मजबूरियों ने शायद प्रधानमंत्री का हाथ बांधे रखा और राजा बचे रहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर के बाद राजा को जाना पड़ा। इसके बाद इस महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी तेजतर्रार वकील कपिल सिब्बल को थमाई गई। सिब्बल साहब के वकील दिमाग ने इसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की। लेकिन सीबीआई के हाथों राजा की गिरफ्तारी ने सिब्बल के उस तर्क को भी बेदम बनाकर रख दिया है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि राजा की गिरफ्तारी बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के ही संभव हो पाई है और क्या यह गिरफ्तारी सिर्फ कानून को अपना काम करने देने का नतीजा है। निश्चित तौर पर इसका जवाब ना में है। दरअसल सरकार के सामने विपक्ष को साधने के लिए इससे बड़ा कोई दूसरा रास्ता नजर नहीं आ रहा है। सरकार जानती है कि अगर वह 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन घोटाले में ठोस कदम नहीं उठाती तो उसके लिए शीतकालीन सत्र की तरह संसद का बजट सत्र चला पाना आसान नहीं होगा। अगर विपक्ष ने बजट सत्र भी नहीं चलने देने की ठान ली तो देश की आर्थिक देनदारियों और लेनदारियों पर संकट उठ खड़ा होगा। अपने सिद्धांतों और राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक सरकार के लिए बजट पास करा पाना भी सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। सरकार इस बहाने विपक्ष की जेपीसी की मांग के धार को भी कुंद करने की कोशिश कर रही है। हालांकि अभी विपक्ष झुकता नजर नहीं आ रहा है। उल्टे उसने जेपीसी की मांग और तेज कर दी है। विपक्षी नेताओं के एक वर्ग को लगता है कि राजा कि गिरफ्तारी से उसे राजनीतिक फायदा मिल सकता है। चाहे भारतीय जनता पार्टी के नेता हों या फिर किसी और पार्टी के, वे भी मुगालते में हैं। राजा के इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे पहले सवाल तमिलनाडु भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन ने उठाए थे। उनके बयान को एक हिंदी पाक्षिक के अलावा किसी ने स्थान नहीं दिया था। लेकिन जैसे ही यह मामला लेकर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के जरिए उठाया, भारतीय जनता पार्टी इस मसले को संसद और बाहर भुनाने के लिए कूद पड़ी। यह बात और है कि सीपी राधाकृष्णन की राय पर पहले उनकी ही पार्टी ने ध्यान नहीं दिया। इससे साफ है कि भारतीय जनता वक्त रहते इस राजनीतिक मसले का फायदा उठाने के लिए कितनी तैयार है। 1995 के संचार घोटाले के आरोपी सुखराम को कांग्रेस ने निकाल बाहर किया तो उन्होंने हिमाचल कांग्रेस बना ली। सुखराम को मुगालता था कि हिमाचल के लोग उसे हाथोंहाथ अपना लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारतीय जनता पार्टी भी हिमाचल प्रदेश में राजनीतिक रसूख हासिल करने की जुगाड़ में थी। उसे सुखराम की पार्टी में ही सहारा नजर आया और पार्टी ने उसी सुखराम को अपना लिया, जिनके भ्रष्टाचार के खिलाफ 16 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लग पाने के पीछे भारतीय राजनीति की इस अवसरवादिता का भी बड़ा हाथ रहा है।
तीस जनवरी को गांधी जी की पुण्यतिथि पर देश के छह महानगरों में स्वयंसेवी संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों की मांग पर जुटी लोगों की भीड़ ने भी सरकार की भौहों पर बल ला दिया है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलुरू में भ्रष्टाचार के खिलाफ जुटे लोगों की मांग है कि एक ऐसा लोकपाल बिल लाया जाए, जिसके दायरे में प्रधानमंत्री का पद भी हो। भ्रष्टाचार और उसे रोकने के उपायों की मांग को लेकर जुटी भीड़ ने भी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। लोगों की इस भीड़ से एक तथ्य साबित तो हुआ कि आम लोग अब सरकार को हीलाहवाली करने वाली संस्था मानने लगे हैं। राजनीतिक पंडितों के एक वर्ग का माना है कि राजा की गिरफ्तारी की एक वजह सरकार पर बढ़ता यह जनदबाव भी है।

Friday, January 28, 2011

राजनीति और अपराध के मकड़जाल का नतीजा

उमेश चतुर्वेदी
दिसंबर 1994 को मुजफ्फरपुर में गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की पत्थर मार कर नृशंस हत्या की खबर आने के बाद बिहार और वहां की कानून व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गए थे। मुजफ्फरपुर में कृष्णैया और नासिक के मालेगांव में यशवंत सोनवाणे की हत्या की घटना में एक समानता है कि दोनों जिम्मेदार अधिकारी थे। लेकिन एक की हत्या पगलाई भीड़ ने की थी, जबकि दूसरे को जिंदा जलाने वाले तेल माफिया थे। कृष्णैया की हत्या ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया था कि जिस राज्य में देश की सर्वोच्च और प्रतिष्ठित सेवा का अधिकारी सुरक्षित नहीं है, वहां आम जनता कितनी सुरक्षित होगी। लेकिन ठीक गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर हुई इस लोमहर्षक घटना के लिए महाराष्ट्र के कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठ रहा है। वहां इसे महज एक आपराधिक घटना के तौर पर देखा जा रहा है। महाराष्ट्र की इस दुस्साहसिक घटना की जांच के बाद निश्चित रूप से यह पता चलेगा कि आला प्रशासनिक अधिकारी को जिंदा जलाने वाले कोई सामान्य अपराधी नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे कोई रसूखदार राजनीतिक ताकत जरूर है। क्योंकि बिना रसूख और पैसे की ताकत के सामान्य अपराधी किसी अधिकारी की हत्या को अंजाम नहीं दे सकता।
19 नवंबर 2005 में कुछ ऐसे ही घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में इंडियन आयल कारपोरेशन के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथ की हत्या कर दी गई थी। यशवंत सोनावाणे की तरह मंजूनाथ का भी कसूर यही था कि वे तेल में मिलावटखोरों के खिलाफ अभियान चला रहे थे। उनके रहते मिलावटखोर और कालाबाजारी करने वाले बेईमान पेट्रोल पंप मालिकों की काली कमाई में रूकावट हो रही थी। लिहाजा उन्होंने अपनी काली कमाई जारी रखने के लिए अधिकारी को ही राह से हटाने का फैसला ले लिया। मंजूनाथ की हत्या की जांच में भी पता चला कि इसके पीछे रसूखदार राजनीतिक वरदहस्त वाले लोगों का भी हाथ था। पेट्रोल पंपों के कारोबार से जुड़े होने के चलते हत्यारे और उन्हें प्रश्रय देने वाले मालदार तो खैर थे ही। चाहे मंजूनाथ हों या फिर यशवंत सोनवाणे, राजनीति की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार उन्हें अपनी राह का रोड़ा मानने लगती है। पहले तो उन्हें पैसे देकर खरीदने की कोशिश की जाती है। अपने सेवाकाल के शुरूआती दौर में ज्यादातर अधिकारी समाज बदलने का ही माद्दा लेकर आते हैं। लेकिन जैसे-जैसे भ्रष्ट व्यवस्था से उनका पाला पड़ता है, शुरूआती हिचक पर वे काबू पाने की कोशिश में जुट जाते हैं। रही- सही कसर पूरी कर देती है भ्रष्ट व्यवस्था, व्यवस्था ही उन्हें बदलने की कोशिश करने लगती है। पहले ही दिन से उन्हें खरीदने की कोशिश की जाती है। इस कोशिश के सामने अधिकांश टूट जाते हैं और जो नहीं टूटते, उन्हें या तो मंजूनाथ बना दिया जाता है या फिर सत्येंद्र दुबे। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में काम कर रहे इंजीनियर सत्येंद्र दुबे को भी खरीदने की कम कोशिश नहीं की गई थी। लेकिन बिहार के सीवान जिले का रहने वाला वह युवा इंजीनियर अपनी असल जिम्मेदारी निभाने के लिए जुटा रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने ही विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा करने की भी ठान ली। ऐसे में भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और इंजीनियरों की तिकड़ी ने उन्हें रास्ते से ही हटाने की ठान ली। 27 नवंबर, 2003 को गया में तैनात यह इंजीनियर जब अपने घर लौट रहा था, तभी उसे गोली मार दी गई। सत्येंद्र दुबे की हत्याकांड का मामला इतना तूल पकड़ा कि नीतीश सरकार को उसकी सीबीआई जांच कराने का आदेश देना पड़ा। दुबे हत्याकांड के अधिकारी पकड़ तो लिए गए हैं, लेकिन हकीकत यह है कि वे महज हत्यारे हैं। उनकी हत्या की साजिश रचने वाले राजनेता और अधिकारी अब भी सींखचों से बाहर हैं। हाल के दिनों में एक और हत्या ने राजनीति और भ्रष्टाचारियों के कॉकटेल और उसके जरिए होने वाले अपराधों की कलई खोलने के लिए चर्चित रहा। 24 दिसंबर, 2008 को उत्तर प्रदेश के औरेया जिले में तैनात पीडब्ल्यूडी इंजीनियर मनोज गुप्ता की भी हत्या कर दी गई। उनका कसूर सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने सत्ताधारी बहुजन समाज पार्टी के स्थानीय विधायक शेखर तिवारी को चंदा देने से मना कर दिया था। दिलचस्प बात यह है कि यह चंदा पार्टी के ही नाम पर मांगा गया था। इस हत्याकांड से भ्रष्टाचार के मसले पर राजनेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत पर बहस-मुबाहिसों का दौर ही शुरू हो गया था।
बिहार में तो हालात भले ही बदलते नजर आ रहे हैं। नीतीश शासन में जिस तरह अधिकारियों को अभयदान मिला हुआ है, उससे सत्ताधारी जनता दल – यू और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं में असंतोष है। विधानसभा चुनावों के पहले हुई जनता दल – यू की एक बैठक में इस मसले को जनता दल-यू नेताओं ने जिस तरह तूल दिया, उससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी झुंझला गए थे। लेकिन नीतीश कुमार ने जिस तरह अधिकारियों की स्वायत्तता दी है, उससे अब बिहार में काम करने को लेकर अधिकारियों में कोई हीनताबोध या किसी भय का भाव नहीं है। लेकिन जी कृष्णैया की हत्या के बाद नब्बे के दशक के मध्य में अधिकारी बिहार में तैनाती को लेकर हिचक दिखाने लगे थे। कृष्णैया आंध्र प्रदेश के निवासी थे। उनकी हत्या के बाद उनके माता-पिता ने कहा था कि वे किसी भी व्यक्ति को यह सलाह नहीं देंगे कि वे अपने बच्चे को बिहार में काम करने के लिए जाने दे। निश्चित तौर पर यशवंत सोनावाने की हत्या के बाद किसी अधिकारी के परिजन अपने किसी जानकार के महाराष्ट्र में काम करने के लिए आगाह नहीं करेंगे। लेकिन कृष्णैया की हत्या दरअसल छोटन शुक्ला नाम के एक स्थानीय नेता की मौत से गु्स्साई जनता ने की थी। बिहार पीपुल्स पार्टी के नेता छोटन शुक्ला की हत्या को लेकर लोग मान रहे थे कि हत्यारों को सत्ता प्रतिष्ठान का समर्थन हासिल है। हत्यारों की भीड़ में लवली आनंद और आनंद मोहन जैसे नेता भी थे। आनंद मोहन पर हत्या से ज्यादा भीड़ को उकसाने का आरोप है और इसके चलते वे जेल में बंद भी हैं। यशवंत सोनवाणे की हत्या निश्चित तौर पर अपराधियों का कृत्य है। लेकिन यह तय है कि उन अपराधियों के पीछे कोई राजनीतिक ताकत जरूर है।
सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ भी अधिकारी थे। लेकिन वे प्रशासनिक अधिकारी नहीं थे। जिन पर कानून और व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है। वैसे तो हत्या, हत्या ही होती है। लेकिन यशवंत सोनावाणे की हत्या निश्चित तौर पर बाकी अधिकारियों की हत्या से अलग है। क्योंकि वे मामूली अधिकारी नहीं थे। वे प्रशासनिक अधिकारी थे। उन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी भी थी। फिर भी उनकी हत्या के लिए भ्रष्ट तंत्र और उसके अपराधियों को कोई भय या हिचक का बोध नहीं हुआ। इसके भी अपने कारण हैं। अंग्रेजी राज्य से लेकर सन 1971-72 तक प्रशासनिक अधिकारियों का अपना जलवा रहता था। लेकिन सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शुरू हुए प्रशासनिक सुधारों के बाद प्रशासनिक अधिकारियों की ताकत कम हुई है, इसके साथ ही उनका रसूख कम हुआ है। इन सुधारों ने प्रशासनिक अधिकारियों के अधिकारों में कटौती हुई और जिले में तैनात पुलिस अधीक्षकों को भी ताकत दी गई। जबकि उसके पहले तक वे जिला प्रशासनिक अधिकारियों के सहायक की भूमिका में होते थे। 1985-86 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौरान पुलिस अधिकारियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की पकड़ को कम करने की मांग रखी थी। उन्हें अपनी गोपनीयता रिपोर्ट किसी आईएएस अधिकारी के हाथों लिखे जाने पर भी एतराज था। लिहाजा सरकार ने उनकी मांगे मान ली। अधिकारों के विकेंद्रीकरण के नाम पर ये तो हुआ, लेकिन जिला और स्थानीय स्तर पर सक्रिय अपराधियों और माफियाओं ने उनकी परवाह करनी कम कर दी। उन्हें पता है कि प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में पहले जैसा चाबुक नहीं रहा। इसका ही फायदा उठाकर सत्तर और अस्सी के दशक में धनबाद में माफियाओं का उभार सामने आया था। जिसमें सूरजदेव सिंह तेजी से उभरे थे। खुलेआम हथियार लेकर चलना और प्रशासनिक अमले को हड़का देना उनके लिए बांएं हाथ का खेल था। हालांकि बाद में एक दमदार अधिकारी मदनमोहन झा ने उन पर काबू पाने की सफल कोशिश की थी। रही-सही कसर राजनेताओं ने पूरी कर दी है। उन्हें अधिकारियों पर हाथ छो़ड़ने से गुरेज नहीं रहा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के एक नेता बच्चा पाठक ने तो अपने गृह जिले बलिया के एडीएम को उनके चैंबर से ही खींच लिया था। नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में उन्होंने जब इस कृत्य को अंजाम दिया था, तब वे राज्य के मंत्री थे। उस अधिकारी का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने कांग्रेस के एक स्थानीय नेता महेंद्र शुक्ल को जमानत पर छोड़ने से मना कर दिया था। अधिकारी के साथ हुई इस बदसलूकी को बलिया में लोग बड़े चाव से बच्चा पाठक की वीरता के तौर पर सुनाते हैं। हालांकि ऑन रिकॉर्ड इस मामले को दबा दिया गया।
वैसे अधिकारियों का भी एक बड़ा तबका राजनेताओं और ठेकेदारों के भ्रष्टाचार के हाथों में खेलने में ही अपनी भलाई देखता है। ऐसे में उनकी भी वकत कम हुई है। यशवंत सोनावाणे की हत्या की घटना ने इस मकड़जाल को एक बार फिर उजागर किया है।

Tuesday, January 25, 2011

भारतीय गणतंत्र की ताकत

उमेश चतुर्वेदी
26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान को स्वीकृति मिली, तब दुर्भाग्यवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस अद्भुत ऐतिहासिक बदलाव को देखने के लिए हमारे बीच मौजूद नहीं थे। संविधान को लेकर बापू की परिकल्पना क्या थी, इसे जानने-समझने के लिए 1922 में दिए उनके एक बयान को देखना होगा। तब गांधी जी ने कहा था कि भारतीय संविधान भारतीयों के मुताबिक होगा और इसमें हर भारतीय की इच्छा झलकेगी। दरअसल गांधी चाहते थे कि भारतीय संविधान ना सिर्फ भारतीय आत्मा से युक्त हो, बल्कि भारतीय समाज और राजनीतिक जरूरतों को ध्यान में रखने वाला हो। यही वजह है कि उनके इस ऐतिहासिक बयान के ठीक दो साल बाद पंडित मोतीलाल नेहरू ने अंग्रेज सरकार के सामने आजाद भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा के गठन की मांग रखी। गांधी के सपने को कांग्रेस और उसके आलानेता समझते थे। यही वजह है कि 1946 में जब संविधान सभा का गठन हुआ तो उसमें हर समुदाय को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गई। इसमें 30 से अधिक लोग अल्पसंख्यक वर्ग के थे। फ्रेंक एंथनी एंग्लो इंडियन समुदाय के प्रतिनिधि थे। इस सभा में अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हरेंद्र कुंवर मुखर्जी थे, जबकि गोरखा समुदाय के प्रतिनिधि अरि बहादुर गुरांग थे। अन्य अहम सदस्यों में बी.आर. अंबेडकर, कृष्णास्वामी अय्यर, के.एम. मुंशी और गणेश मावलंकर थे। इतना ही नहीं, इस सभा में महिला सदस्यों को भी शामिल किया गया, जिनमें सरोजनी नायडू, हंसाबाई मेहता, दुर्गाबाई देशमुख और राजकुमारी अमृत कौर प्रमुख थीं। इस सभा के पहले सभापति बिहार के वरिष्ठ समाजवादी नेता सच्चिदानंद सिन्हा चुने गए। बाद में इस सभा के सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बनाया गया। यह संयोग ही है कि उसी संविधान के तहत भारत के पहले राष्ट्रपति का चुनाव हुआ तो कांग्रेस की पहली पसंद यही डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ही थे। संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर 1946 को हुई थी। जबकि संविधान बनाने के लिए इस सभा ने भीम राव अंबेडकर की अध्यक्षता में बाकायदा एक प्रारूप समिति(ड्राफ्ट कमेटी) का गठन भी किया। जिसकी पहली बैठक 29 अगस्त 1947 को हुई। इस समिति में अंबेडकर के अलावा छह और सदस्य थे। इतनी मेहनत के बाद बने संविधान को बेहतर होना ही था। भारतीय संविधान में भारत को गणतांत्रिक गणराज्य कहा गया है। लेकिन हमारा गणराज्य पूर्व सोवियत संघ की तरह राज्यों का संघ नहीं है। गणतंत्र का मतलब समूह तंत्र यानी राज्यों का समूह ही होता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे यहां राज्य सोवियत संघ या स्विटजरलैंड की तरह आजाद तो नहीं हैं, लेकिन उनकी स्वायत्तता का संविधान ने खासा ध्यान रखा है। भारत में शासन तीन सूचियों के तहत होता है – संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। सबसे दिलचस्प बात यह है कि राज्य सूची के विषयों मसलन कानून और व्यवस्था को लेकर केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार में दखल नहीं दे सकती। लेकिन जब कानून – व्यवस्था की यह ढिलाई देश की सेहत पर असर डालने लगती है तो केंद्र को धारा 355 और 356 के तहत कार्रवाई करने का अधिकार संविधान ने दे रखा है। केंद्र सूची पर निश्चित तौर सिर्फ और सिर्फ केंद्र का ही अधिकार है तो समवर्ती सूची पर राज्यों और केंद्र दोनों का अधिकार है। लेकिन विवाद की स्थिति में संसद की ही बात मानी जाएगी। 356 और संसद के विशेषाधिकार का प्रावधान दरअसल देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने का अधिकार देता है। किसी राज्य सरकार को केंद्र सरकार बर्खास्त तो कर सकती है। लेकिन देश का गणतांत्रिक स्वरूप बनाए रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए जरूरी उपबंध कर दिया है। मसलन जब तक संसद के दोनों सदन अलग-अलग केंद्र सरकार के इस फैसले पर सहमति नहीं जताते तो उसका आदेश वैध नहीं रह सकेगा। बिहार में ऐसा हो चुका है। इसी तरह कर्नाटक के पूर्व मुख्य मंत्री एस आर बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि कोई राज्य सरकार बहुमत में है या अल्पमत में, इसका फैसला विधानसभा में ही होना चाहिए। इस एक उपबंध ने राज्य सरकारों की स्वायत्तता को बरकरार रखने और राज्यपालों के जरिए केंद्र सरकार की मनमानी पर पूरी तरह रोक लगा दी। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि राज्य अपनी मनमानी कर सकें। संविधान ने उन्हें रोकने के लिए भी केंद्र को भरपूर हथियार मुहैया कराए हैं।
सबसे पहले जानते हैं कि संघात्मक संविधान की प्रमुख विशेषताएँ क्या मानी जाती हैं। राजनीति शास्त्र के पंडितों के मुताबिक राजनयिक शक्तियों का संघीय एवं राज्य सरकारों के बीच संवैधानिक विभाजन संघात्मक संविधान की पहली शर्त है। संघीय संविधान के मुताबिक केंद्रीय प्रभुसत्ता से न तो संघीय और न ही राज्य सरकारें अलग हो सकती हैं। इसके साथ ही संघात्मक संविधान केंद्र और राज्य दोनों के लिए समान तौर पर सर्वोच्च होता है। चूंकि संघ एवं राज्य सरकारों के बीच अधिकारों का साफ विभाजन होता है, लिहाजा संघात्मक सविधान का लिखित होना सबसे ज्यादा जरूरी है। संघात्मक संविधान संघीय एवं राज्यों के समझौते को आखिरी तौर पर पुष्ट करता है। इस वजह से ऐसे संविधान को व्यावहारिक रूप से अपरिवर्तनीय भी होना चाहिए। कम से कम किसी एक पक्ष के के मत से ऐसा संविधान परिवर्तित नहीं किया जा सकता। संविधान में बदलाव खास हालत में विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। संवैधानिक अधिकारों, काम करने और साधनों को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में जब भी विवाद हो तो उन पर फैसला लेने के लिए न्यायपालिका के पास संविधान के संघात्मक प्रावधानों की व्य़ाख्या का पूरा और आखिरी अधिकार होना चाहिए। कहना न होगा कि 1787 में 12 स्वतंत्र राष्ट्रों की संविदा के अनुसार बने अमेरिका का संविधान इन सभी खासियतों वाला आदर्श संविधान है। हमारा संविधान भी इन विशेषताओं के नजरिए से खरा उतरता है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी एवं फ्रांस आदि में भी संघात्मक यानी गणतांत्रिक व्यवस्था है। लेकिन उनकी तुलना में भारतीय गणतंत्र को कहीं ज्यादा व्यवहारिक माना जाता है।
भारतीय गणतंत्र की ताकत भारतीयों द्वारा लिखित 395 अनुच्छेद व आठ अनुसूची से सुसज्जित दुनिया का विशालतम संविधान ही है। इस संविधान में अब तक 93 संशोधन हो चुके हैं, जिससे यह पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो गया है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि यह संविधान हर भारतीय को अपनी बात वाजिब ढंग से कहने और इंसाफ पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का अधिकार भी देता है। यही वजह है कि एटा उत्तर प्रदेश का कोई परेशान पिता अपनी बेटी के अपहरण पर पुलिस की ढिलाई बरतने से निराश होकर सुप्रीम कोर्ट को पोस्ट कार्ड लिखता है और सुप्रीम कोर्ट उसे ही याचिका मानकर प्रशासन की खटिया खड़ा कर देता है। भारतीय गणतंत्र की ताकत न्यायपालिका की न्यायिक मामलों में स्वायत्तता भी है। इसके साथ ही नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को बनाना भी है। हालांकि इतिहास में कई बार उससे खिलवाड़ हो चुके हैं। लेकिन अब न्यायपालिका जाग गई है और उसे आम भारतीय के पक्ष में और जरूरत पड़े तो अपने बीच के लोगों के खिलाफ भी फैसले सुनाने से परहेज नहीं रहा।
भारतीय गणतंत्र की सर्वोच्च शक्ति नागरिक है और उससे भी बड़ी उसकी राष्ट्र के प्रति निष्ठा है। राष्ट्र के प्रति आम भारतीय के मन में इज्जत सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि इस राष्ट्र को बनाने और उसकी परिकल्पना के पीछे स्वतंत्रता आंदोलन का बड़ा योगदान रहा है। बल्कि इस देश में नागरिकों को मिले समानता के अधिकार ने उसके प्रति निष्ठाएं बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि भाई-भतीजावाद, राजनीतिक भ्रष्टाचार और आधिकारिक लापरवाही अपने गणतंत्र के लिए अब भी चुनौती बनी हुई है। कभी-कभी सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयता का उन्माद भी भारतीय गणतंत्र की राह में बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इसी गणतंत्र में इन चुनौतियों से जूझने का माद्दा भी है। लचीलापन और वक्त पड़ने पर कठोर देशभक्ति का भाव- दोनों मिलकर भारतीय गणतंत्र को महान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

Tuesday, January 11, 2011

मनरेगा की बढ़ी दरों से किसे होगा फायदा

उमेश चतुर्वेदी
महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदूरी बढ़ाने के मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जिस तरह सोनिया गांधी को जवाब लिखा था, उससे लग रहा था कि मनरेगा के तहत ग्रामीण बेरोजगारों को पुरानी दरों पर ही पसीना बहाना पड़ेगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के नाते सोनिया गांधी का सुझाव था कि जब राज्यों ने अपने यहां न्यूनतम मजदूरी दरें बढ़ा दी हैं, लिहाजा मनरेगा की मेहनताना दरें भी बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन प्रधानमंत्री का मानना था कि सरकार कानूनी तौर पर मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी दरें बढ़ाने के लिए बाध्य नहीं है। बहरहाल सोनिया गांधी के सुझाव पर मनरेगा की मजदूरी की दरें से सत्रह से तीस फीसदी तक बढ़ा दी गईं हैं। इससे केंद्र सरकार पर तकरीबन 3500 करोड़ रूपए सालाना का अतिरिक्त बोझ बढ़ने का अनुमान जताया जा रहा है। प्रधानमंत्री इन दरों को बढ़ाने से हिचक रहे थे तो शायद उसके पीछे सरकारी खजाने पर बढ़ने वाला इस बोझ की चिंता ही काम कर रही थी। बहरहाल केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा है कि इससे देश के पांच करोड़ ऐसे लोगों को सीधे फायदा होगा, जिन्हें नियमित तौर पर रोजगार हासिल नहीं है। उपर से देखने में सरकार का यह दावा सही लगता है। लेकिन इसके तह में जाने के बाद इसकी हकीकत परत-दर-परत खुलकर सामने आ जाती है।
मनरेगा योजना ग्रामीण इलाके के उन लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई गई थी, जिन्हें पूरे साल रोजगार हासिल नहीं होता। इस योजना के जरिए उन लोगों को सरकार साल में कम से कम सौ दिन का रोजगार मुहैय्या कराती है, जो बेरोजगार हैं। इसका मकसद यह है कि कम से कम इसकी कमाई से मनरेगा मजदूरों के परिवार को भुखमरी का सामना नहीं करना पड़ेगा। यूपीए की पहली सरकार में इस योजना का श्रेय सरकार का बाहर से समर्थन करते रहे वामपंथी लेते रहे हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अतुल कुमार अनजान खुलेतौर पर कहते रहे हैं कि 2008 की विश्वव्यापी मंदी के दौरान मनरेगा के ही चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर खास असर नहीं पड़ा। क्योंकि इस योजना के जरिए गांवों तक पैसा प्रवाह बढ़ा और इससे अर्थव्यवस्था चलती रही। 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने भी अपनी इसे सफल योजना के तौर पर जमकर प्रचारित किया और वोट के मैदान में इसका फायदा उठाने की कामयाब कोशिश भी की। इस बीच छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं, महंगाई सुरसा की तरह मुंह बाए बढ़ती रही। ऐसे में यह वाजिब ही था कि मनरेगा के तहत काम करने वालों की मजदूरी बढ़ाने की मांग उठे। बढ़ती महंगाई के दौर में सौ या सवा सौ रूपए की रोजाना की मजदूरी पर गुजारा करना आसान कैसे हो सकता है। यहां यह ध्यान देने की बात यह है कि मजदूरी की दरें तमाम राज्यों में भी अलग-अलग है। सबसे कम 80 रूपए मजदूरी अरूणाचल प्रदेश और नगालैंड में है तो इससे कुछ ज्यादा 81.40 मजदूरी मणिपुर में है। वहीं झारखंड में यह दर 99 रूपए है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान में 100 रूपए है। जबकि हरियाणा के लोगों को रोजाना 141 रूपए की दर पर मनरेगा के तहत मजदूरी दी जाती है। इन आंकड़ों से साफ है कि राज्यों में ये दरें एक समान नहीं हैं। बहरहाल जिन राज्यों में सौ रूपए से कम मजदूरी है, वहां के मजदूरों को अब कम से कम सौ रूपए मिलेंगे। इसी तरह उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार और झारखंड में 120 रूपए दिए जाएंगे। राजस्थान में यह दर जहां 119 रूपए होगी, वहीं हरियाणा में सबसे ज्यादा 141 रूपए मिलेंगे। लेकिन सबसे बडा सवाल यह है कि जिस न्यूनतम मजदूरी दर को आधार बनाकर इसे बढा़या गया है, कुछ राज्यों में अब भी मनरेगा के तहत उतनी रकम नहीं मिलने जा रही। मसलन राजस्थान में न्यूनतम मजदूरी दर इन दिनों 135 रूपए है, लेकिन बढ़ी हुई दरों पर यहां कुल जमा 119 रूपए ही मिलेंगे। उपर से देखने में मनरेगा दर में यही एक गड़बड़ी नजर आ रही है। लेकिन ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काम कर रहे स्वयंसेवी संगठनों को इस बढ़ी हुई दर में भी राजनीति नजर आ रही है। पीस फाउंडेशन से जुडे धीरेंद्र सिंह का कहना है कि मनरेगा के तहत एक साथ 3500 करोड़ रूपए ज्यादा मिलने से बैंकों को कहीं ज्यादा फायदा होगा। क्योंकि यह रकम बैंकों के ही तहत मजदूरों के पास जाएगी। नए नियमों के तहत बैंक अपने यहां जमा रकम से नौगुना ज्यादा रकम का लोन दे सकते हैं। जाहिर है मनरेगा के तहत आवंटित हुए पैसे से बैंकों का कारोबार बढ़ेगा।
स्वयंसेवी संगठनों को लगता है कि बढ़ी हुई यह रकम भी नाकाफी है। क्योंकि 2009 में सौ रूपए की जो कीमत थी, उसके मुकाबले आज के दौर में 120 या 141 रूपए की कीमत भी बेहद कम है। स्वयंसेवी संगठनों का सवाल यह भी है कि मूलतः यह योजना ग्रामीण बेरोजगारों के लिए है। लेकिन हकीकत तो यह है कि गांवों में अब लोग रहे ही नहीं। दरअसल अब बेरोजगारी की समस्या शहरों के लिए ज्यादा है और मनरेगा की यह रकम सिर्फ ग्रामीण बेरोजगारी को ही एक हद तक रोक सकती है। उनका कहना है कि अगर छठे वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू करते वक्त ही मनरेगा की मजदूरी दरें बढ़ाई गईं होतीं तो शायद शहरी बेरोजगारी को एक हद तक रोका जा सकता था। जिसका फायदा शहरों को भी होता, तब ग्रामीण बेरोजगार मजबूरी में शहरों का रूख नहीं करते।

Monday, December 20, 2010

वैचारिकता और सादगी की राजनीति के आखिरी प्रतीक

उमेश चतुर्वेदी
सन 2001 के गर्मियों की एक दोपहर दिल्ली के एक अखबारी दफ्तर में सादगी से भरी एक शख्सियत नमूदार हुई। उस अखबार ने उस शख्सियत से तब के दौर की राजनीति पर एक लेख की फरमाइश की थी। किसी व्यस्तता के चलते तय वक्त पर लेख न दे पाने की बात उन्हें याद आई तो वे सीधा अखबार के दफ्तर चले आए। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से कागज की मांग रखी और एक कोने में तल्लीनता से लेख लिखने बैठ गए। अभी वे लेख लिख ही रहे थे कि भोपाल से आए एक दफ्तरी मित्र ने उनके बारे कुछ इस अंदाज में पूछताछ की- पंडित जी, कौन है यह शख्स, जिसके ऐसे दिन आ गए हैं कि अखबारी दफ्तर के कोने में बैठ कर लिखना पड़ रहा है। जब उस मित्र को बताया गया कि ये सज्जन जनता पार्टी के पूर्व महासचिव तथा खादी और ग्रामोद्योग आयोग के पूर्व अध्यक्ष सुरेंद्र मोहन हैं तो उनका मुंह हैरत से खुला का खुला ही रह गया।
सुरेंद्र मोहन का नाम आज की पीढ़ी हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में छपते रहे उनके राजनीतिक लेखों के लिए ही जानती होगी। लेकिन समाजवादी आंदोलन की धारा से ताजिंदगी जुड़े रहे इस शख्स की एक दौर में देश के राजनीतिक गलियारों में तूती बोलती थी। डॉक्टर लोहिया और किशन पटनायक के नजदीकी रहे सुरेंद्र मोहन का जनता पार्टी के गठन में खास योगदान था। इंदिरा सरकार ने देश पर जब आपातकाल थोप दिया तो उसका जोरदार विरोध करने वाले लोगों में सुरेंद्र मोहन आगे थे। जिसकी कीमत उन्हें जेल यात्रा के तौर पर चुकानी पड़ी। आपातकाल खत्म होने के बाद समूचे विपक्ष की एकता के तौर पर जनता पार्टी बनी और सुरेंद्र मोहन उसके महासचिव बने। महासचिव रहते नौजवानों को राजनीति में आगे लगे और उन्हें समाजवादी नैतिकता में प्रशिक्षित करने में सुरेंद्र मोहन की भूमिका को आज भी लोग याद करते हैं। आज की राजनीति का साहित्य-लेखन और संस्कृतिकर्म से लगभग रिश्ता टूटता जा रहा है। लेकिन सुरेंद्र मोहन ऐसे राजनेता थे, जिनका लेखन और संस्कृतिकर्म से बराबर रिश्ता बना रहा। अरविंद मोहन, कुरबान अली, विनोद अग्निहोत्री से लेकर नई पीढ़ी तक के पत्रकारों से उनका रिश्ता बना रहा। रिश्तों के बीच अपनी राजनीतिक ऊंचाई को कभी आड़े नहीं आने देते थे। इन पंक्तियों के लेखक को याद है कि 1996 के लोकसभा चुनावों में किस तरह लोग उनके सामने जनता दल का टिकट पाने के लिए लाइन लगाए खड़े रहते थे। 1996 के लोकसभा चुनावों के बाद जब किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तो संयुक्त मोर्चा की सरकार बनवाने में हरिकिशन सिंह सुरजीत के साथ जिन नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उनमें सुरेंद्र मोहन का नाम भी आगे था। बदले में उन्हें राज्यपाल का पद वीपी सिंह सरकार ने प्रस्तावित किया। लेकिन उन्होंने विनम्रता पूर्वक इसे ठुकरा दिया। जब उन्हें खादी और ग्रामोद्योग आयोग का अध्यक्ष पद प्रस्तावित हुआ तो गांधी जी के कार्यों को आगे बढ़ाने के नाम पर उन्होंने यह भूमिका स्वीकार कर ली।
1989 में राष्ट्रीय मोर्चा के गठन में भी सुरेंद्र मोहन की भूमिका रही। लेकिन बदले में उन्होंने कोई प्रतिदान लेना स्वीकार नहीं किया। 1977 और 1989 में भी उन्हें राज्यपाल और कैबिनेट मंत्री पद का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन गांधीवादी सादगी में भरोसा करने वाले सुरेंद्र मोहन को पदों का मोह लुभा नहीं पाया। समाजवादी मूल्यों से उनका ताजिंदगी रिश्ता बना रहा। समाजवादी आंदोलन पर जब भी आंच आती दिखी या समाजवादी कार्यकर्ता पर हमला हुआ, आगे आने से वे कभी पीछे नहीं हटे। 2009 की गर्मियों पर जब डॉक्टर सुनीलम पर हमला हुआ तो दिल्ली के मध्यप्रदेश भवन के सामने चिलचिलाती धूप में प्रदर्शन करने से भी वे पीछे नहीं हटे। खादी के पैंट-शर्ट में लंबी-पतली क्षीण काया को संभालते कंधे पर खादी का झोला टांगे उनकी शख्सियत हर उस मौके पर नमूदार हो जाती, जहां उनकी जरूरत होती। अस्सी पार की वय और दमे का रोग उनकी राह में कभी बाधा नहीं बना। दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल हाउस के ठीक सामने अखबारों का गढ़ आईएनएस बिल्डिंग स्थापित हैं। वहां संजय की चाय की दुकान पर पत्रकारों के साथ चाय पीने और सामयिक राजनीति की चर्चा करते उन्हें देखा जा सकता था। हालांकि पिछले कुछ सालों से उम्र के तकाजे ने इस आदत पर विराम लगा दिया था।
शुक्रवार की सुबह जब सामयिक वार्ता से जुड़े एक मित्र का फोन उनके न रहने की खबर के साथ आया तो सहसा भरोसा नहीं हुआ। गुरूवार की देर शाम वे मुंबई से लौटे थे और लिखाई-पढ़ाई के बाद सो गए थे। शुक्रवार की सुबह उठकर उन्होंने पानी पिया और बेचैनी की शिकायत की। पत्नी मंजू मोहन जब तक उन्हें अस्पताल ले जाने की तैयारी करतीं, समाजवाद का सादगीभरा सितारा उस राह पर कूच कर गया, जहां से सिर्फ स्मृतियां ही लौट पाती हैं। जब-जब समाजवाद की चर्चा छिड़ेगी, दिल्ली के नौजवान पत्रकारों को समाजवादी दुरभिसंधियों को समझने की जरूरत पड़ेगी, सुरेंद्र मोहन की याद आती रहेगी।

सुबह सवेरे में