Monday, March 16, 2015

चंद्रपॉल सिंह यादव एनसीयूआई के अध्यक्ष बने

उमेश चतुर्वेदी

डॉ. चंद्रपॉल सिंह यादव को सर्वसम्मति से भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआई) का एक बार फिर अध्यक्ष चुन लिया गया है।  डॉ यादव समाजवादी पार्टी से राज्यसभा के सदस्य हैं और लगातार दूसरी बार एनसीयूआई के अध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं। एनसीयूआई अध्यक्ष के तौर पर उनका कार्यकाल पांच साल का होगा।

Friday, February 27, 2015

विकास की मौजूदा अवधारणा और हमारे गांव

उमेश चतुर्वेदी
(यह आलेख गोविंदाचार्य की ओर से प्रकाशित स्मारिका गांव की ओर में प्रकाशित हुआ है)
आजादी के आंदोलन के दौरान गांधीजी ने एक बड़ी बात कही थीअगर अंग्रेज यहीं रह गएउनकी बनाई व्यवस्था खत्म हो गई और भारतीय व्यवस्था लागू हो गई तो मैं समझूंगा कि स्वराज आ गया। अगर अंग्रेज चले गए और अपनी बनाई व्यवस्था ज्यों का त्यों छोड़ गए और हमने उन्हें जारी रखा तो मेरे लिए वह स्वराज नहीं होगा। विकास की मौजूदा अवधारणा में लगातार पिछड़ते गांवों, उनमें भयानक बेरोजगारी, कृषि भूमि का लगातार घटता स्तर और शस्य संस्कृति की बढ़ती क्षीणता के बीच गांधी की यह चिंता एक बार फिर याद आती है। आजादी के बाद गांधी को उनके सबसे प्रबल शिष्यों ने ना सिर्फ भुलाया, बल्कि उनकी सोच को भी तिलांजलि दे दी। गांधी को सिर्फ उनके नाम से चलने वाली संस्थाओं, राजकीय कार्यालयों की दीवारों पर टंगी तसवीरों, राजघाट और संसद जैसी जगहों के बाहर मूर्तियों तक सीमित कर दिया। उनकी सोच को भी जैसे इन मूर्तियों की ही तरह सिर्फ आस्था और प्रस्तर प्रतीकों तक ही बांध दिया गया। ऐसा नहीं कि आजादी के बाद भारतीयता और भारतीय संस्कृति पर आधारित विचारों के मुताबिक देश को बनाने और चलाने की बातें नहीं हुईं।
जयप्रकाश आंदोलन का एक मकसद गांवों को स्वायत्त बनाना और उन्हें भारतीय परंपरा में विकसित करना भी था। खुद लोहिया भी ऐसा ही मानते थे। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में जिस मानव की सेवा और उसे अपना मानकर उसके सर्वांगीण विकास की कल्पना है, वह एक तरह से हाशिए पर स्थित आम आदमी ही है। जिसके यहां विकास की किरणें जाने से अब तक हिचकती रही हैं। मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ उस तक विकास की किरणें पहुंचाने का छद्म ही किया जा रहा है। गांधी के एक शिष्य जयप्रकाश भी गांधी की ही तरह भारतीयता की अवधारणा के मुताबिक गांवों के विकास के जरिए देश के विकास का सपना देखते थे। पिछली सदी के पचास के दशक के आखिरी दिनों गांधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जयप्रकाश को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। 1942 के आंदोलन के प्रखर सेनानी जयप्रकाश तब तक सक्रिय राजनीति से दूर सर्वोदय के जरिए गांवों और फिर भारत को बदलने के सपने को साकार करने की कोशिश में जुटे हुए थे। जयप्रकाश ने तब नेहरू के प्रस्ताव को विनम्रता से नकारते हुए लिखा था कि आपकी सोच उपर से नीचे तक विकास पहुंचाने में विश्वास है और मैं नीचे से उपर तक विकास की धारा का पक्षधर हूं। इसलिए मेरा आपके मंत्रिमंडल में शामिल होना ना आपके हित में होगा न ही देश के हित में। हालांकि उनके तर्क के आखिरी वाक्य पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। क्योंकि नेहरू के विकास मॉडल का हश्र हम देख रहे हैं। न तो गांव गांव ही रह पाए हैं और ना ही शहर बन पाए हैं। यानी अगर उस मंत्रिमंडल में जयप्रकाश शामिल हुए होते तो शायद सर्वोदय के सपने के मुताबिक देश में नया बदलाव तो आया ही होता। यानी गांव अधकचरे नहीं रह पाए होते।

Monday, February 16, 2015

हस्तिनापुर में बीजेपी की करारी हार के पीछे की हकीकत

उमेश चतुर्वेदी
भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी कमी यह मानी जाती रही है कि यहां की बहुदलीय व्यवस्था में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला दल या व्यक्ति ही जीता मान लिया जाता है। भले ही जमीनी स्तर पर उसे कुल वोटरों का तिहाई ही समर्थन हासिल हुआ हो। नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारी बहुमत वाली केंद्र सरकार भी महज कुछ मतदान के तीस फीसदी वोटरों के समर्थन से ही जीत हासिल कर पाई है। इन अर्थों में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की जीत दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था की सर्वोच्च मान्यताओं की जीत है। केजरीवाल की अगुआई में मिली जीत में दिल्ली के 54 फीसदी वोटरों का समर्थन हासिल है। आधे से ज्यादा वोट हासिल करने वाली केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 90 फीसदी से ज्यादा सीट हासिल की है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह बड़ी और साफ जीत है। जाहिर है कि उनकी जीत के गुण गाए जा रहे हैं और गाए जाएंगे भी। दुनियाभर की संस्कृतियों में चढ़ते सूरज को सलाम करने और उसकी पूजा करने की एकरूप परंपरा रही है। इन अर्थों में केजरीवाल की ताजपोशी की बलैया लिया जाना कोई अनहोनी नहीं है।

Saturday, January 24, 2015

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ दिल्ली कूच

एकता परिषद का रजत जयंती समारोह
2020 में दिल्ली से जेनेवा तक की होगी जय जगत यात्रा

भूमि अधिकार के लिए 30 जनवरी को पूरे देश में रखा जाएगा उपवास
22 जनवरी से 24 जनवरी तक रायपुर के तिल्दा मैदान में चले एकता परिषद के रजत जयंती समारोह में अंतिम दिन तिल्दा घोषणा-पत्र जारी किया गया, जो एकता परिषद सहित विभिन्न जन संगठनों के लिए आगामी सालों में आंदोलन की दिशा दिखाएगा। इसके साथ ही आहवान किया गया कि आगामी 30 जनवरी को गांधी जी की शहादत दिवस पर पूरे देष में जिला एवं विकास खंड स्तर पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द करवाने के लिए उपवास रखा जाएगा। इसमें एकता परिषद और ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आगरा में किए गए समझौते को लागू करने की मांग भी की जाएगी। इसके लिए अगले महीने आगरा से दिल्ली तक की यात्रा कर भारत सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश रद्द करने के लिए घेरा जाएगा। सम्मेलन में शामिल लोगों ने सहमति जाहिर की कि पूरी दुनिया से गैर बराबरी खत्म कर न्याय और शांति की स्थापना तक आंदोलन चलाया जाए। इसके 2020 में दिल्ली से जेनेवा तक की 15 महीने तक की पदयात्रा (मिलेनियम वाक) आयोजित की जाएगी।


तिल्दा स्थित प्रयोग आश्रम में आगामी रणनीति की घोषणा करते हुए पी.व्ही. राजगोपाल ने एकता परिषद की 19 सदस्यीय नर्इ राष्ट्रीय समिति की भी घोषणा की। श्री रनसिंह परमार, श्री प्रदीप एवं सुश्री जानकी जी वरिष्ठ साथी के रूप में काम करेंगे, जबकि राष्ट्रीय संयोजक के रूप में श्री रमेश शर्मा, श्री अनीश कुमार एवं सुश्री श्रद्धा कश्यप दायित्वों को निभाएंगे।
श्री राजगोपाल ने कहा कि आगामी सालों में एकता परिषद को बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना है। हमें अपने-अपने क्षेत्रों में वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन अधिकार के लिए व्यापक स्तर पर कार्य करना है। आवासीय अधिकार कानून के तैयार मसौदे को कानून के रूप में लागू करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है। आंदोलन के माध्यम से जहां भूमिहीनों को जमीनें मिली हैं, वहां आंदोलन के रूप में जैविक खेती को बढ़ावा देना है। अगले कुछ सालों में देश के सभी जिलों में 500-500 युवाओं को प्रशिक्षित कर न्याय एवं समानता के आंदोलन का सक्रिय साथी बनाया जाएगा। एकता परिषद द्वारा 2016 में अंतराष्ट्रीय महिला सम्मेलन, 2017 में गांधीजी के चंपारण आगमन के सौ साल पूरे होने पर चंपारण वर्ष और 2018 में मार्टिन लूथर किंग की शहादत के 50वें साल में जाति, धर्म, नस्ल और लिंग भेद के खिलाफ अहिंसात्मक अर्थव्यवस्था पर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। ये सभी आयोजन 2020 की जय जगत यात्रा की तैयारियों के तारतम्य में किये जाएंगे। आगामी आंदोलन के लिए हम सब रोजाना एक रुपया और एक मुट्ठी अनाज संग्रह करेंगे, इसके लिए हर गांव में एक अनाज बैंक बनाया जाएगा।


कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए रनसिंह परमार ने कहा कि एकता परिषद को स्थानीय से विश्वव्यापी मुकाम तक पहुंचाने में राजगोपाल जी का नेतृत्व और हजारों साथियों के परिश्रम एवं संघर्ष का योगदान रहा है। इस अवसर पर एकता परिषद के पुराने साथियों को सम्मानित भी किया गया। मध्यप्रदेष के पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार ने कहा कि समिति के नए साथियों को दायित्व दिया गया है, पर यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम आदिवासी, दलित, भूमिहीन एवं गरीबों को उनके अधिकार दिलाने के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लें। आज देश के विभिन्न राज्यों से आए साथी संगठनों एवं एकता परिषद के कार्यकर्ताओं ने चल रहे आंदोलन के बारे में अनुभवों को साझा किया। समारोह में देष भर से 2000 से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया। अंतराष्ट्रीय स्तर पर नेपाल, थाइलैंड, जर्मनी, फ्रांस और बेलिजयम से आए प्रतिनिधियों ने संगठन के आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया।

Thursday, January 1, 2015

जम्मू-कश्मीर पर अस्फुट चिंतन

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी का साथ हो या फिर नेशनल कांफ्रेंस का सहयोग, लंबी राजनीति के लिए बीजेपी को भारी पड़ना तय है। पीडीपी को घाटी में मिले वोटों के पीछे अलगाववादियों की अपील ने बड़ी भूमिका निभाई है, वहीं नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख नेता फारूख अब्दुल्ला मोदी को वोट देने की बजाय अपना वोट समुद्र में फेंकने की अपील करते रहे हैं। जाहिर है कि दोनों बीजेपी और उसकी नीतियों के धुर विरोधी रुख के साथ सियासी ज़मीन पर खड़े हैं। इसलिए तय है कि दोनों दलों के साथ बीजेपी के रिश्ते असहज ही रहेंगे..अगर पीडीपी के साथ पार्टी जाती है तो उस पर अलगाववादियों को नैतिक शह देने का भी आरोप लगेगा। ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि बीजेपी विपक्ष में बैठे और अपनी नीतियों पर कायम रहते हुए राज्य में अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश करे। सरकार में शामिल होने के बाद या खुद सरकार बना कर वह राज्य की विकास नीतियों को सीधे प्रभावित तो कर सकेगी..लेकिन ठीक विपरीत विचारधारा की सवारी कर रहे दलों के साथ उसके लिए सियासी कदमताल आसान नहीं होगी..जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ सकता है ।

Monday, December 8, 2014

पर्रिकर बन पाएंगे वाई बी चव्हाण?

उमेश चतुर्वेदी
मनोहर पर्रिकर की रक्षा मंत्री पद नियुक्ति ने एक बार इतिहास को दोहराया है. लोकतांत्रिक भारतीय इतिहास में ये दूसरा मौका जब किसी मुख्यमंत्री को इस्तीफा दिलाकर केंद्र में रक्षा मंत्री बनाया गया है. तकनीकी रूप से मनोहर पर्रिकर भले ही मराठी व्यक्ति ना हो, लेकिन मूलतः वे भी मराठी ही हैं. यानी पहली बार किसी मराठी व्यक्ति को ही अपने राज्य से इस्तीफा दिलाकर केंद्र में लाया गया था, दूसरी बार भी मराठी अस्मिता को ही नायक पर देश की रक्षा जिम्मेदारी सौंपी गई है. 1962 में चीनी हमले से पस्त भारतीय मानस को संभालने और उत्साहित करने की जिम्मेदारी महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंत राव चव्हाण को दी गई. वीके कृष्णमेनन के रक्षा मंत्री पद से इस्तीफे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को यशवंत राव चव्हाण पर ही भरोसा जमा. इस बार बेशक वैसे हालात नहीं हैं. सीमा पर आक्रमण को अगर छिटपुट घटनाओं को छोड़ दे तो भारतीय जनमानस अब 1962 जैसी हालत में हताश नहीं है. लेकिन यह संयोग जरुर है कि भारत को रक्षा क्षेत्रा में आज भी चीन से ही कड़ी और मुश्किल चुनौती ना सिर्फ मिल रही है बल्कि भारतीय राजनय इससे जूझ रहा है. 52 साल पहले यशवंत राव चव्हाण की मुश्किलें जरुर बड़ी थीं. लेकिन गोवा जैसे अपेक्षाकृत शांत राज्य के मुख्यमंत्री रहे और अब दिल्ली लाए गए मनोहर पर्रिकर की चुनौतियां भी कम नहीं हैं.

विरासत की राजनीति की विदाई का दौर

उमेश चतुर्वेदी
पहले आम चुनावों और अब हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में क्या समानता है..वक्त आ गया है कि तीनों चुनावों के नतीजों और उससे निकले राजनीतिक संकेतों को अब समझने-बूझने की कोशिश की जाय। नब्बे के दशक में खासतौर पर उत्तर भारत में क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार के बाद राजनीतिक पंडित यह मानने लगे थे कि अब उत्पीड़ितों का समाजशास्त्र विचारधारा के स्तर पर एक ऐसी राजनीति में तबदील होने जा रहा है, जहां क्षेत्रीय आंकाक्षाओं के प्रतिनिधि दल मुख्यधारा की भारतीय राजनीति के ऐसे तत्व होंगे, जिनके बिना भारतीय राजनीति की अग्रगामी धारा की कल्पना नहीं की जा सकती। क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उभार और छोटी जातियों-समूहों के राजनीतिक ताकत के तौर पर बदलाव के इसी दौर में महसूस किया गया कि दरअसल भारतीय लोकतंत्र करीब पांच सौ ऐसे परिवारों के छोटे-छोटे राजतंत्रीय व्यवस्था का ही समुच्चय है, जिनके इशारे पर राजनीति चलती है। ऐसे परिवार हर राजनीतिक दल में रहे हैं और क्षेत्रीय अस्तित्ववादी सोच के प्रबल होने और उसके जरिए विकसित हुई स्थानीय राजनीति से उम्मीद की गई थी कि कम से कम वह इस परिपाटी से बचेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो स्थानीय अस्मिताओं की सोच में भी बदलाव आने लगा है। तो क्या यह मान लिया जाय कि भारतीय लोकतंत्र परिपक्वता की ओर बढ़ रहा है।

सुबह सवेरे में