Tuesday, October 13, 2015

फॉर्मा सेक्टर बनाम केमिस्ट..जंग जारी है..



उमेश चतुर्वेदी
                 (सोपान STEP पत्रिका में प्रकाशित )
फार्मा सेक्टर इन दिनों उबाल पर है..उसके बरक्स केमिस्ट भी नाराज हैं..केमिस्टों को ऑनलाइन दवा बिक्री की सरकारी नीति से एतराज तो है ही...अपनी दुकानों पर उन्हें फार्मासिस्टों की तैनाती भी मंजूर नहीं है..इसीलिए उन्होंने 14 अक्टूबर को देशव्यापी हड़ताल रखी। इसके पहले फार्मासिस्टों ने 29 सितंबर को लखनऊ, रायपुर और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सड़कों पर उतर कर प्रदर्शन किया..लखनऊ में तो शिक्षामित्रों के आंदोलन की तरह फॉर्मासिस्टों को पीटने की तैयारी थी..लेकिन फॉर्मासिस्टों ने संयम दिखाया..इसके पहले गुवाहाटी, रांची, जमशेदपुर और हैदराबाद में फार्मासिस्ट आंदोलन कर चुके हैं..लेकिन उनसे जुड़ी खबरें तक नहीं दिख रही हैं..दरअसल फार्मासिस्टों की मांग है कि जहां-जहां दवा है, वहां-वहां फॉर्मासिस्ट  तैनात होने चाहिए। पश्चिमी देशों में एक कहावत है कि डॉक्टर मरीज को जिंदा करता है और फॉर्मासिस्ट दवाई को। पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में डॉक्टर मरीज को देखकर दवा तो लिखता है, लेकिन उसकी मात्रा यानी डोज रोग और रोगी के मुताबिक फार्मासिस्ट ही तय करता है। इसी तर्क के आधार पर केमिस्ट शॉप जिन्हें दवा की दुकानें कहते हैं, वहां भी फॉर्मासिस्ट की तैनाती होने चाहिए। लेकिन जबर्दस्त कमाई वाले दवा बिक्री के धंधे की चाबी जिन केमिस्टों के हाथ है, दरअसल वे ऐसा करने के लिए तैयार ही नहीं है। इसके खिलाफ वे लामबंद हो गए हैं और 14 अक्टूबर को देशव्यापी हड़ताल करने जा रहे हैं..रही बात सरकारों की तो अब वह भी फॉर्मासिस्टों को तैनात करने को तैयार नहीं है। ऐसे में सवाल यह है कि आखिर लगातार फॉर्मेसी कॉलेजों की फेहरिस्त लंबी क्यों की जा रही है। सरकारी क्षेत्र की बजाय निजी क्षेत्र में लगातार फॉर्मेसी के कॉलेज क्यों खोले जा रहे हैं।

Sunday, October 11, 2015

लालू का पिछड़ा दांव क्या खिलाएगा गुल

उमेश चतुर्वेदी
बिहार के चुनावी रण में जब से राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने अगड़ों के खिलाफ पिछड़े वर्ग के लोगों को गोलबंद करने की मुहिम छेड़ी है, उसके बाद राजनीतिक समीकरण तेजी से बदले हैं। उपर से भले ही राज्य के चुनावी मैदान में एक तरफ जहां जनता दल यू, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का महागठबंधन है तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में लोकजनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन मुकाबले में है। लेकिन लालू यादव ठीक उसी तरह पिछड़ों की गोलबंदी करने की कोशिश में जुटे हुए हैं, जिस तरह राष्ट्रीय मोर्चा ने 1990 के चुनावों में किया था। तब इतिहास बदल गया था। कांग्रेस का 13 साल का शासन उखड़ गया था। उसके बाद पहले जनता दल और बाद में राष्ट्रीय जनता दल के तौर पर लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी का पंद्रह सालों तक लगातार शासन चला। सन 2000 के कुछ कालखंड को छोड़ दिया जाय तो लालू का पंद्रह साल तक बिहार में निर्बाध शासन चला। इस बार अंतर सिर्फ इतना आया है कि तब मुकाबले में कांग्रेस थी और जनता दल के साथ भारतीय जनता पार्टी थी। आज मुकाबले में भारतीय जनता पार्टी है और कांग्रेस छोटे भाई की भूमिका में महागठबंधन की छोटी साथी बनी हुई राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू के सहारे पाटलिपुत्र में अपनी राजनीतिक मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही है।

Friday, October 2, 2015

स्वच्छता से गुजरता विकास का पथ


उमेश चतुर्वेदी
 (इस लेख को पत्रसूचना कार्यालय यानी पीआईबी ने जारी किया है.. पीआईबी की वेबसाइट से साभार)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी और महात्मा गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि देने वाले स्वच्छ भारत अभियान ने एक साल पूरा कर लिया है। इस अभियान की पहली सालगिरह ने देश को आंकलन का एक मौका दिया है कि स्वतंत्रता से जरूरी स्वच्छता के मोर्चे पर वह 365 दिनों में कहां पहुंच पाया है। यहां यह बता देना जरूरी है कि बीसवीं सदी की शुरूआत में जब गांधी के व्यक्तित्व का कायाकल्प हो रहा था, उन्हीं दिनों उन्होंने यह मशहूर विचार दिया था- स्वतंत्रता से भी कहीं ज्यादा जरूरी है स्वच्छता। गांधी के इस विचार की अपनी पृष्ठभूमि है। इस पर चर्चा से पहले प्रधानमंत्री के इस अहम अभियान की दिशा में बढ़े कदमों की मीमांसा कहीं ज्यादा जरूरी है।
स्वच्छ भारत अभियान की शुरूआत के बाद देश के तमाम बड़े-छोटे लोगों ने झाड़ू उठा लिया। लेकिन सफाई की दिशा में हकीकत में कितनी गहराई से कदम उठे, इसका नतीजा यह है कि शहरों ही नहीं, गांवों में अब भी बजबजाती गंदगी में कमी नजर आ रही है। शुरू में यह अभियान जिस तेजी के साथ उठा और जिस तरह से झाड़ू को लेकर सरकारी विभागों, जनप्रतिनिधियों ने कदम उठाए, उसे कारपोरेट घरानों और स्वयंसेवी संगठनों का भरपूर सहयोग मिला। इस पूरे अभियान की कामयाबी अगर कहीं सबसे ज्यादा दिखती है तो वह है नई पीढ़ी की सोच में। नई पीढ़ी के सामने अगर सड़क पर गंदगी फैलाई जाती है तो उसे गंदगी फैलाने वाले को टोकने में देर नहीं लगती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छ अभियान की शुरूआत का मकसद सिर्फ भारत को साफ करना ही नहीं है, बल्कि लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना है। क्योंकि बदली हुई मानसिकता की स्वच्छता की परंपरा को सतत बनाए रख सकती है।

Monday, September 21, 2015

हार्दिक के पीछे कौन

उमेश चतुर्वेदी
जिस पाटीदार समुदाय के हाथ गुजरात के सौराष्ट्र इलाके की खेती का बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास हीरा तराशने वाले उद्योग की चाबी हो, जिसके हाथ कपड़ा उद्योग का बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास राज्य के कुटीर उद्योगों का बड़ा हिस्सा हो, जिसके पास गुजरात के मूंगफली और गन्ना की उपज का जिम्मा हो, जिसके पास राज्य के शिक्षा उद्योग का बड़ा हिस्सा हो, वह पाटीदार समुदाय अगर आरक्षण की मांग को लेकर मैदान में उतर जाता है तो इसके पीछे सिर्फ आरक्षण की मांग ही होना हैरत में डालने के लिए काफी है। तो क्या गुजरात के बीस फीसदी आबादी वाले पाटीदार समुदाय के 22 साल के हार्दिक पटेल के पीछे उठ खड़ा होने की वजह सिर्फ आरक्षण की मांग ही नहीं है? देश में बड़े-बड़े आंदोलनों को नजदीक से देख चुके या फिर उनकी अगुआई कर चुके लोगों का कम से कम तो यही मानना है। जयप्रकाश आंदोलन के दौरान छात्र युवा संघर्ष समिति के अगुआ रहे वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को हार्दिक पटेल की अपील पर भी शक है। उनका मानना है कि ऐसे आंदोलन स्वत: स्फूर्त नहीं होते और हार्दिक पटेल की इतनी ज्यादा अपील या त्याग-तपस्या का उनका कोई बड़ा इतिहास भी नहीं रहा है कि उनके पीछे सूबे का ताकतवर पाटीदार समुदाय उमड़ पड़े। राय साहब के नाम से विख्यात राम बहादुर राय का मानना है कि हार्दिक पटेल के आंदोलन के पीछे कहीं न कहीं संगठन की शक्ति जरूर है। तो क्या हार्दिक पटेल के आंदोलन के पीछे कोई ऐसी बड़ी राजनीतिक हस्ती भी काम कर रही है, जिसके पास सांगठनिक काम का तपस्या जैसा अनुभव भी है। सिर्फ सवा साल पहले हुए आम चुनावों में गुजरात की सभी 26 सीटें भारतीय जनता पार्टी की झोली में आ गई थीं। जाहिर है कि ऐसा शत-प्रतिशत नतीजा बगौर बीस फीसदी आबादी वाले लोगों के समर्थन से हासिल नहीं किया जा सकता था। ठीक सवा साल बाद अगर गुजरात की पांचवें हिस्से की आबादी आरक्षण की मांग को लेकर उठाए गए झंडे के नीचे आ खड़ी हो तो निश्चित तौर पर कारण सिर्फ यही नहीं होना चाहिए। जिस पाटीदार समुदाय के हाथ राज्य की 120 विधानसभा सीटों में से एक तिहाई यानी चालीस पर कब्जा हो, जिसके पास करीब नौ सांसद हों, जिस समुदाय की अपनी हस्ती आनंदी बेन पटेल राज्य की मुख्यमंत्री हो, जिस समुदाय का सदस्य नितिन पटेल राज्य की सरकार का आधिकारिक प्रवक्ता हो, इससे साबित तो यही होता है कि इस समुदाय के पास राजनीतिक ताकत और रसूख भी कम नहीं है। इसके बावजूद अगर पाटीदार समुदाय अपनी ही सरकार, अपने ही नेता के खिलाफ सड़कों पर उतर आया हो इसके संकेत कुछ और ही हैं...तो क्या पाटीदार समुदाय किसी और वजह से भारतीय जनता पार्टी से नाराज है ? इस सवाल का जवाब देने से पाटीदार समुदाय हिचक रहा है। आरक्षण को लेकर आंदोलन कर रही समिति के लोग भी खुलकर बोलने से बच रहे हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अंदर से छनकर दबे-ढंके स्वर में जो खबरें बाहर आ रही हैं, वे कुछ और ही कह रही हैं। उनके मुताबिक हार्दिक पटेल महज मोहरा हैं। असल ताकतें तो पर्दे के पीछे हैं। तो आखिर कौन-सी वजह है, जिससे पाटीदार समुदाय अचानक से नाराज होकर लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरने लगा है। 25 अगस्त को वह अहमदाबाद को जाम कर चुका है और अब गांधी की नमक यात्रा के तर्ज पर अहमदाबाद से दांडी की यात्रा करने जा रहा है।

Friday, September 18, 2015

लाल दुर्ग में भगवा सेंध के सियासी निहितार्थ

उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली विश्वविद्यालय में चारों प्रमुख सीटों पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की जीत हाल के दिनों में विधानसभा चुनावों में बुरी तरह मात खा चुकी भारतीय जनता पार्टी के लिए राहत भरी खबर है। लेकिन उससे कहीं ज्यादा बीजेपी के लिए जेएनयू में एक ही सीट का ज्यादा प्रतीकात्मक महत्व है। जिस विश्वविद्यालय में एक दौर में मुरली मनोहर जोशी के कार्यक्रम का तब विरोध हो रहा हो, जब वे मानव संसाधन विकास मंत्री थे, संस्कृत विभाग की स्थापना के वक्त ही उसका विरोध हो रहा हो, उस विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में एबीवीपी की जीत कहीं ज्यादा बड़ी है। भगवा खेमे के लिए यह जीत क्यों बड़ी है और इसके क्या प्रतीकात्मक महत्व हैं, इस पर विचार करने से पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों की बदलती प्रवृत्तियां और विश्वविद्यालय के बाहर जाते ही विचारधारा के प्रति आ रहे बदलावों पर भी ध्यान देना जरूरी है।
दिल्ली जैसे कास्मोपोलिटन शहर में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सही मायने में कास्मोपोलिटन संस्कृति का प्रतीक है। इस विश्वविद्यालय में देश के कोने-कोने के अलावा दुनिया के तमाम देशों के भी छात्र पढ़ते हैं। जाहिर है कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में मार्क्सवाद की पूछ और परख लगातार कम होती जा रही है। उदारीकरण की आंधी ने मार्क्सवादी विचार को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई है। इसके बावजूद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय मार्क्सवादी विचारधारा का गढ़ रहा है। इसकी स्थापन से ही यहां की छात्र राजनीति पर वर्षों से लगातार मार्क्सवादी विचारधारा के दलों के छात्र संगठनों का कब्जा रहा है। अतीत में मशहूर समाजवादी विचारक और कार्यकर्ता आनंद कुमार और पूर्व रेल राज्य मंत्री स्वर्गीय दिग्विजय सिंह जैसे समाजवादियों और कांग्रेस की छात्र इकाई भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ यानी एनएसयूआई को छोड़ दें तो यहां की छात्र राजनीति में वामपंथी विचारधारा का दबदबा रहा है। नब्बे के दशक में भारतीय जनता पार्टी के उभार के बाद इस विश्वविद्यालय में भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा वाले छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिशें तेज तो की, लेकिन उसे सिर्फ एक बार 2000 में संदीप महापात्रा के तौर पर महज एक वोटों से अध्यक्ष पद पर जीत हासिल हुई थी। लेकिन एबीवीपी को बाद में इस लाल दुर्ग में इतना समर्थन हासिल नहीं हुआ कि वह संदीप महापात्रा की जीत जैसा इतिहास दुहरा सके। इन अर्थों में देखें तो 2015 के छात्र संघ चुनावों में एबीवीपी के सौरभ कुमार शर्मा की संयुक्त सचिव पद पर 28 वोटों से जीत भगवा खेमे की धमाकेदार जीत के तौर पर ही मानी जाएगी।

Monday, September 7, 2015

अल्पसंख्यकवाद से डूब रही केरल में कांग्रेस

उमेश चतुर्वेदी
यह आलेख यथावत पत्रिका के 01-15 सितंबर 2015 अंक में प्रकाशित हो चुका है...
क्या भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रश्न प्रदेश रहा सुदूर दक्षिण का राज्य केरल अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों में उम्मीद की नई किरण बनकर आएगा। यह सवाल राज्य की जनता से कहीं ज्यादा खुद सत्ताधारी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की अगुआ कांग्रेस पार्टी के अंदर ही गंभीरता से पूछा जा रहा है। इसकी वजह बना है जून में संपन्न राज्य विधानसभा का इकलौता उपचुनाव। राज्य की अरूविकारा विधानसभा सीट पर उपचुनाव विधानसभा स्पीकर जी कार्तिकेयन के निधन के चलते हुआ। उपचुनाव में भले ही कांग्रेस के कद्दावर नेता जी कार्तिकेयन के बेटे के ए सबरीनाथन की जीत हुई, लेकिन उनकी जीत का अंतर कम हो गया। अपने पिता की तरह उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को ही हराया। लेकिन उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी मतदाताओं की पसंदीदा पार्टी के तौर पर तेजी से उभरी। यही वजह है कि कांग्रेस में भारतीय जनता पार्टी के उभार को लेकर आशंका जताई जाने लगी है और इसकी बड़ी वजह इसी उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी का बढ़ा वोट प्रतिशत है। 2011 के विधानसभा चुनावों की तुलना में इस उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वोट बैंक में 17.18 प्रतिशत की जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई। दिलचस्प बात यह है कि इस उपचुनाव को केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने अपनी सरकार के कामकाज के लिए जनमत संग्रह का नाम दिया था। कांग्रेस के उम्मीदवार की जीत को स्वाभाविक तौर पर  केरल के मुख्यमंत्री ओमान चांडी के समर्थन में ही माना जाएगा। इसके बावजूद अगर कांग्रेस चिंतित है तो इसकी बड़ी वजह है मौजूदा विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस के वोट में आई 9.16 प्रतिशत की गिरावट। हैरत की बात यह है कि कांग्रेस के मुकाबले लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की अगुआ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोट बैंक में सिर्फ 6.1 फीसद की ही गिरावट दर्ज की गई।
हालांकि कांग्रेस के मुकाबले मार्क्सवादी वोट बैंक में यह गिरावट बेशक कम है, लेकिन 1957 में दूसरे विधानसभा चुनाव से ही राज्य में अपनी मजबूत पकड़ बनाने वाले वामपंथ के लिए वोट बैंक में यह कमी उसके समर्थक आधार में आई बड़ी छीजन के तौर पर ही देखा जा रहा है।
अरुविकारा विधानसभा उपचुनाव ने कांग्रेस में अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ बहुसंख्यक नायर वोट बैंक और उस समुदाय से आने वाले नेताओं को जुबान खोलने का मौका दे दिया है। हालांकि पार्टी हलकों में यह सवाल दबे सुर से ही उठ रहा है। अगर कांग्रेस आलाकमान ने वक्त रहते इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो यह सवाल खुले तौर पऱ भी उठने लगेगा। पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि जम्मू-कश्मीर के बाद केरल दूसरा राज्य है, जहां अल्पसंख्यक तबके के हाथ में शासन- सत्ता के प्रमुख सूत्र हैं। राज्य के मुख्यमंत्री ओमान चांडी तो अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के तो हैं ही, भ्रष्टाचार और शराब लॉबी से रिश्वतखोरी के आरोपों का सामना कर रहे राज्य के वित्त मंत्री के एम मणि भी उसी समुदाय से आते हैं। राज्य कांग्रेस में एक तबका अब यह मानने लगा है कि क्रिश्चियन और मुस्लिम वोट बैंक का अब और ज्यादा तुष्टिकरण राज्य में कांग्रेस के लिए वैसे ही दिन देखने को मजबूर कर देगा, जैसा अस्सी के दशक तक उसके गढ़ रहे उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में उसे देखना पड़ रहा है, जहां कांग्रेस का नामलेवा भी नहीं बचा है।
केरल की सत्ता में कांग्रेस की वापसी के बड़े रणनीतिकार राज्य में पार्टी के नौ साल तक अध्यक्ष रहे रमेश चेनिथला रहे। चेनिथला इन दिनों राज्य के गृहमंत्री हैं और राज्य की उस नायर जाति से ताल्लुक रखते हैं, जिसे समाज और सरकारी नीतियों में आजादी के बाद से ही उपेक्षित कर दिया गया है। बेशक इस उपेक्षा के अपने ऐतिहासिक कारण हैं। आजादी के पहले तक नायरों का केरल के समाज और सत्ता तंत्र में दबदबा था। लेकिन राज्य की करीब 14 फीसद आबादी रखने वाले इस तबके को आजादी के तत्काल बाद जो उपेक्षित किया गया, उसकी टीस अब तक इस तबके को अखर रही है। चूंकि कांग्रेस के समर्थक रहे इस तबके को लगने लगा है कि पार्टी उसका सिर्फ वोट बैंक में पूरक हैसियत के लिए इस्तेमाल करती रही है, इसलिए इस तबके का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा है। इसी वजह से अब वह तबका भारतीय जनता पार्टी की तरफ झुकता नजर रहा है। इसलिए राज्य कांग्रेस का एक धड़ा अब मानने लगा है कि वक्त आ गया है कि अल्पसंख्यक राजनीति से किनारा करके पार्टी को नायर जैसी अगुआ बहुसंख्यक समुदाय की जातियों के साथ अपना जुड़ाव साबित करना होगा।

Sunday, August 23, 2015

लय में लौट आए पीएम



उमेश चतुर्वेदी
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री से उम्मीद लगा रखे लोगों को उनके भाषण में वैसी ताजगी और नई दिशा नजर नहीं आई, जैसा चुनाव अभियान से लेकर पिछले पंद्रह अगस्त तक उनके शब्दों में नजर आती रही। प्रचंड जनमत की आकांक्षाओं के रथ पर सवार होकर जिस तरह सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी पहुंचे हैं, उसमें जनता की कसौटियों पर कसे जाने की चुनौतियां कुछ ज्यादा होनी ही थी और वह प्रधानमंत्री के सामने है भी। ऐसे में पंद्रह अगस्त के भाषण को लेकर उन पर टीका-टिप्पणी होनी ही थी। दस-पंद्रह साल पहले की बात होती तो इस टीका-टिप्पणी को देखने के लिए कुछ वक्त की दरकार होती। लेकिन फटाफट खबरों वाले खबरिया चैनलों की अनवरत कथित बहस यात्रा और प्रतिपल सक्रिय सोशल मीडिया के दौर में इससे बचाव कहां। अब तत्काल फैसले भी होने लगते हैं और उन पर टिप्पणियों की बौछार भी होने लगती है। जाहिर है कि पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को लेकर ऐसी टिप्पणियां शुरू भी हो गईं। तब सवाल यह उठने लगा कि प्रधानमंत्री अब चूकने लगे हैं। सवाल यह भी उठा कि अब तक अभियान के मूड में रही उनकी शैली से जनता का मोहभंग होने लगा है।
प्रधानमंत्री मोदी को हर कदम पर नाकाम देखने की उम्मीद लगाए बैठे उनके विरोधियों को लगने लगा कि वह घड़ी आ ही गई। दिलचस्प यह है कि ऐसी उम्मीदें उनके विपरीत वैचारिक ध्रुव पर बैठे लोगों के साथ ही उनके अपने ही दल में समय की धार के सामने निरूपाय चुपचाप रह रही शख्सियतें भी लगा रखी थीं। बेशक पंद्रह अगस्त के दिन राजनीति ना करने की नसीहतनुमा जानकारी देने के बाद मोदी के खिलाफ लगातार आक्रामक रूख रखे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने आजादी की सालगिरह पर दिए प्रधानमंत्री के रस्मी भाषण पर टिप्पणी करने से मना कर दिया। लेकिन अगले ही दिन उनके प्रवक्ताओं की टीम ने यह कहना शुरू कर दिया कि प्रधानमंत्री अब चूकने लगे हैं। सवाल तो जनता दल यू के उस प्रवक्ता ने भी उठाने शुरू कर दिए, जो हाल के दिनों तक भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ गलबहियां डाले दिखते रहते थे। जी हां, यहां बात केसी त्यागी की हो रही है। लेकिन दो दिन बीते नहीं कि प्रधानमंत्री ने अपने विरोधियों की खुशी बने रहने नहीं दी। दुबई के क्रिकेट स्टेडियम में चालीस हजार लोगों के सामने अपने 75 मिनट के भाषण में उन्होंने जिस तरह लोगों का दिल जीता, उससे एक बार फिर अमेरिका में न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर पर हुए भाषण की याद ताजा कर दी। बुत परस्ती के विरोधी देश की सरजमीन पर भारत माता की जय बोलकर जिस तरह प्रधानमंत्री ने हर उस मुद्दे को छुआ, जो भारतीय गौरव गाथा की बखान करता है, उससे अमीरात में बैठे हजारों भारतीय तो खुश हुए ही, भारत में भी उनके चहेतों को लगा कि उन्होंने अपनी लय नहीं खोई है। उनकी लय बरकरार है। हालांकि आलोचना करने वाले यह कहने से नहीं चूक रहे कि दुबई में लोगों के बीच सवा घंटे का लंबा भाषण नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर वहां मौजूद चालीस हजार लोग भाषण सुनने के लिए टिके क्यों रहे। उनका टिकना ही साबित करता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी लय पर अपना काबू बरकरार रखा है..

सुबह सवेरे में