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उमेश चतुर्वेदी
बिहार में कोसी के कहर ने प्रभावित इलाकों के बाशिंदों को गुस्से से भर दिया है। उनका गुस्सा जायज भी है। आखिर जिस सरकार से उन्हें उम्मीद थी, उसके प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। 18 अगस्त को कोसी ने सरकारी घेरे को तोड़कर खुले मैदान में उन्मुक्त राह चुनी, एक- दिन को छोड़ दें तो तब से लगातार लोग भूख और प्यास से जूझ रहे हैं। ऐसे में सरकार पर सवाल तो उठेंगे ही।
लेकिन क्या सचमुच इसके लिए नीतीश कुमार सरकार ही दोषी है। चूंकि बाढ़ उनके ही शासन काल में आई है, कोसी को उनके ही दौर में उन्मुक्त धार चुनने में मदद मिली, इसलिए उन पर सवाल तो उठेंगे ही। जिस जगन्नाथ मिश्र के दौर में कोसी परियोजना शुरू हुई – उन्हें भी अब नीतीश कुमार दोषी दिख रहे हैं। कोसी परियोजना करीब ढाई दशक से चल रही है। इस दौर में सिंचाई विभाग के इंजीनियरों, ठेकेदारों और आईएएस अफसरों के लिए ये परियोजना दुधारू गाय की तरह साबित हुई। पटना से लेकर दिल्ली तक में उनके बंगले बने,उनके बच्चे विदेशों पढ़ते रहे। लेकिन जिनके लिए ये परियोजना शुरू हुई, वे आज सबकुछ गवां चुके हैं। उनके सामने भूख का अंतहीन सिलसिला है।
क्या इस बाढ़ के लिए नीतीश कुमार से पहले राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव की सरकार जिम्मेदार नहीं है। क्या कोसी परियोजना शुरू करने वाले जगन्नाथ मिश्र और उनके पूर्ववर्ती केदार पांडे की सरकारें इस महाप्रलय के लिए जिम्मेदार नहीं हैं। ये सवाल कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है। लेकिन ये सवाल तब गलत नहीं लगेगा, जब अमेरिकन सोसायटी ऑफ सिविल इंजीनियरिंग की रिपोर्ट पढ़ने को मिलेगी। मार्च 1966 में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक कोसी नदी के किनारों पर 1938 से 1957 के बीच में प्रति वर्ष लगभग 10 करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा था। केन्द्रीय जल एवं विद्युत शोध प्रतिष्ठान के वी सी गलगली और रूड़की विश्वविद्यालय के गोहेन और प्रकाश ने कोसी पर बांध बनाए जाने के बाद पेश अपने अध्ययन में भी कहा था कि बैराज बनने के बाद भी गाद और तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा उपर उठ रहा है। ये रिपोर्टें जब आईं थीं, तब की सरकारें क्या कर रही थीं। जरूरत इस बात की है कि ये सवाल भी गंभीरता से पूछे जायं। वैसे ये भी सच है कि कोसी के तलछट को साफ करने के लिए इस बीच भी कोई कदम नहीं उठाया गया। आखिर ये तलछट बढ़ कैसे रहा है। इसके लिए कोसी परियोजना के जिम्मेदार अफसर रहे हैं। पूरी दुनिया में बांध जब बनाए जाते हैं तो वहां बांध पर पेड़ और घास लगाई जाती है। चीन में तो ऐसा ही हुआ है। ताकि मिट्टी ना कटे और तलछट ना जमे। लेकिन जिन्होंने गरमी के मौसम में कोसी के बांध को देखा है, उन्हें पता है कि वहां कितनी धूल और मिट्टी जमी रहती है। ये सवाल स्थानीय लोगों ने 2005 में हुए एक स्थानीय सम्मेलन में पानी वाले राजेंद्र सिंह और मेधा पाटकर के सामने भी उठाया था। उन्होंने भी माना था कि सरकारी तंत्र ये गलती कर रहा है। लेकिन इस ओर आज तक किसी का ध्यान नहीं गया है। वैसे बीजिंग से ल्हासा तक जाने वाली रेल परियोजना के चलते चीन की भी कुछ नदियों में रेत का बहाव बढ़ा है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक इसमें अरूण नदी प्रमुख है। कहना ना होगा कि कोसी में उसकी भी धार मिलती है और वहां से हर साल करोड़ों टन बालू कोसी में आ रहा है।
वैसे कोसी में तो हर साल बाढ़ आती है। लेकिन बांध बनाए जाने के बाद 1968 में पहली बड़ी बाढ़ आई थी। उस साल 25 हजार (क्यूमेक्स क्यूबिक मीटर प्रति सेकेंड) जल प्रवाह हुआ था। यह नया रिकार्ड था। वैसे हर साल जल प्रवाह नौ से सोलह हजार क्यूमेक्स तो रहता ही है। जिससे बाढ़ आती ही है और कोसी अंचल के लोग इसके आदी भी रहे हैं। लेकिन ना तो सरकार ने – ना ही स्थानीय लोगों ने सोचा था कि चीन की यांग टिसी क्यांग यानी पीली नदी की तरह कोसी भी अपना रास्ता बदल लेगी। पीली नदी ने 1932 में पीली नदी ने अपनी राह बदल ली थी और इस महाप्रलय में पांच लाख लोग मारे गए। कोसी नदी के जानेमाने विशेषज्ञ शिलिंग फेल्ड काफी समय से कोसी के पूरब की तरह खिसकने की चेतावनी दे रहे थे। लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।
कुरसेला में गंगा में मिलने से पहले कोसी करीब 3600 वर्ग मील इलाके को प्रभावित करती है। इसके पहले करीब 11900 वर्ग मील नेपाल और चीन में 11400 वर्गमील इलाके पर असर डालती है। कोसी के बाढ़ का कहर नेपाल में भी है। लेकिन वह उपरी इलाका है लिहाजा सबसे ज्यादा बुरी हालत भारतीय यानी बिहार के इलाके की ही है।
माना तो ये जाता है कि कोसी की बाढ़ भारत का आंतरिक मामला है। लेकिन ऐसा नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीय मामला भी है। कोसी बैराज नेपाल में है और इसके रख-रखाव और मरम्मत भारतीय इंजीनियर करते हैं। इस साल दो बार भारतीय इंजीनियर वहां गए – लेकिन स्थानीय लोगों ने उन्हें धमकाकर भगा दिया। इसमें माओवादियों का ज्यादा हाथ माना जा रहा है। लालू यादव अब खिचड़ी और चोखा रेलवे स्टेशनों पर खिलाकर अपने समर्थन में नारा लगवा रहे हैं। लेकिन इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी है कि इसकी जानकारी बिहार सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय को भी दी थी। लेकिन परमाणु करार के जरिए देश को विकसित बनाने का सपना देख रहे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने इस पर ध्यान नहीं दिया और जब 18 अगस्त को कोसी ने बांध से खुद को स्वतंत्र कर लिया तो उसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना पड़ा। हालांकि ये सवाल भी उठ रहा है कि केंद्र सरकार ने भी ये कदम उठाने में इतनी देर क्यों लगाई। तब लालू यादव ने केंद्र सरकार पर मरम्मत के लिए दबाव क्यों नहीं बनाया।
सबसे हैरतनाक बयान नेपाल की माओवादी सरकार के विदेश मंत्री उपेंद्र यादव का आया। लेकिन भारत अपनी सहिष्णु छवि बनाए रखने के लिए प्रतिक्रियास्वरूप बयान देने से बचता रहा। कहां तक बाढ़ राहत के कार्यों में नेपाल साथ आता, आर्थिक या तकनीकी रूप से सहायता देने की उसकी क्षमता भी नहीं है। लेकिन मानसिक और भावनात्मक सहयोग की उससे उम्मीद की जा सकती है। लेकिन निर्लज्जता पूर्वक उपेंद्र यादव भारत से कोसी बैराज के लिए मुआवजा मांगते नजर आए। ये उस सरकार के मंत्री हैं, जिसे बनवाने में भारतीय वामपंथियों ने भी खास भूमिका निभाई।
माना जा रहा है कि कोसी का पाट चालीस किलोमीटर लंबा हो गया है। खुद सरकार ही मानती है कि मधेपुरा, अररिया, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया की करीब चालीस लाख आबादी इससे परेशान हुई है। लेकिन राहत में लगी सेना के जवानों की गिनती देखिए। राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के प्रमुख सचिव आर के सिंह के मुताबिक राहत और बचाव कार्य में आर्मी के 1700 जवान 150 मोटरबोट के साथ जुटे हुए हैं, जबकि नौसेना के सिर्फ 135 जवान 45 नावों के साथ लोगों को बाहर निकालने की कार्रवाई में लगे हुए हैं। इसी तरह नेशनल डिजास्टर रेस्पांस फोर्स के जवान 137 नावों के साथ राज्य पुलिस तंत्र की मदद कर रहे हैं। वैसे सरकार ने पहली सितंबर को ऐलान किया कि आर्मी के 1120 और जवानों को सौ नावों के साथ बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में भेजा जा रहा है। जहां तक राज्य मशीनरी का सवाल है तो उनका भगवान ही मालिक है और उन पर भरोसा करना नाकाफी होगा। ये बात ना सिर्फ केंद्र सरकार – बल्कि राज्य सरकार भी जानती है।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि चीन और नेपाल के साथ मिलकर इस समस्या का समाधान निकाला जाय। चीन के असर में नेपाल के आने के डर से हम कब तक डरते रहेंगे। हमें चीन से भी ये सवाल उठाना पड़ेगा कि तिब्बत रेल परियोजना के चलते अरूण नदी के जरिए में कोसी में लगातार हो रहे बालू के प्रवाह पर तकनीकी और प्रभावकारी नियंत्रण लगाए। ये वक्त राजनीति का नहीं है। जरूरत जनता को बचाने का है। उन्हें फिर से नीड़ का निर्माण बनाने में मदद देने का है। क्योंकि इसी जनता पर ही टिकी है हमारी राजनीति। जनता ही नहीं रहेगी तो राजनीति किस काम की।
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