Wednesday, September 3, 2008

छद्म धर्मनिरपेक्षता से भी तो बचिए .....

यह लेख प्रख्यात पत्रकार उदयन शर्मा की स्मृति में गठित उदयन शर्मा फाउंडेशन ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित किताब सांप्रदायिकता की चुनौती में प्रकाशित हुआ है।
उमेश चतुर्वेदी
इस लेख को शुरू करने से पहले अपने साथ घटी एक घटना का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। शायद सन 2000 की घटना है। तब मैं दैनिक भास्कर के राजनीतिक ब्यूरो में कार्यरत था। हमारा दफ्तर दिल्ली के आईएनएस बिल्डिंग में था। एक शाम बिल्डिंग के बाहर चाय की दुकान पर अपने कुछ सहकर्मी दोस्तों के साथ चाय पी रहा था- तभी एक पत्रकार मित्र वहां नमूदार हुए। आते ही उन्होंने पूछा – क्या आप कभी आपने खाकी निक्कर पहनी है। स्कूली पढ़ाई के दिनों में पीटी की कक्षा में खाकी निक्कर पहनना जरूरी था। जाहिर है – मित्र के सवाल का जवाब मैंने हां में ही दिया। मेरे वे मित्र तब एक न्यूज चैनल की बंदी के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष कर रहे थे। वामपंथी रूझान वाले मेरे मित्र उन दिनों पूरे तेवर में हुआ करते थे। लिहाजा मेरी आत्मस्वीकृति ने उन्हें दिल्ली के पत्रकारीय हलकों में मुझे सांप्रदायिक और आरएसएस का कार्यकर्ता बताने का मौका मिल गया। इसका उन्होंने जमकर प्रचार भी किया। ये तो मुझे बाद में पता चला कि उनका आशय खाकी निक्कर के बहाने मेरे आरएसएस से संबंधों की जानकारी पाना था। इसकी जानकारी तब हुई, जब उनके और मेरे दो –एक परिचितों ने हर मुलाकात में पूछा कि क्या मैं आरएसएस का कार्यकर्ता रहा हूं। मैं हर किसी को सफाई देता फिरता रहा। लेकिन सवाल थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इसके बाद जब कोई मुझसे पूछता कि क्या आप आरएसएस की शाखा में जाते थे तो मेरा जवाब आक्रामक होता – आपको कोई एतराज है। कहना न होगा – मुझे आरएसएस का कार्यकर्ता बताने वाले वे क्रांतिकारी पत्रकार मित्र एक प्रमुख चैनल में काम करते हैं और अब उनका वामपंथी रूझान ठंडा पड़ गया है। इन दिनों उन्हें भूत-प्रेत से लेकर चुड़ैंलें नचाने का एक्सपर्ट माना जाता है।
ये एक घटना गवाह है कि कैसे प्रगतिशीलता का दावा करने वाले लोगों ने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपने विरोधी लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता घोषित करने में देर नहीं लगाई। इसका असर ये हुआ कि प्रगतिशीलता का दावा करने वालों के इसी रवैये ने लोगों को आरएसएस के नजदीक जाने में अहम भूमिका निभाई। कई बार तो खुद मुझे भी लगता था कि मैं क्यों ना आरएसएस का कार्यकर्ता बन गया। अगर इस हिसाब से देखा जाय तो स्वतंत्र भारत में इतिहास की धारा बदलने वाले जयप्रकाश नारायण और समाजवादी सपनों के चितेरे रहे जवाहरलाल नेहरू को भी संघ का कार्यकर्ता ठहराया जा सकता है। जिन्होंने अजीत भट्टाचार्जी की लिखी जेपी की जीवनी पढ़ी है – उन्हें पता है कि जेपी ऐसी प्रगतिशीलता के घोर विरोधी थे। उनका ये विरोध ही था कि उन्होंने 1974 के आंदोलन में वामपंथी दलों का साथ लेने की कोई मंजूरी नहीं दी। जवाहरलाल नेहरू ने भी पचास के दशक में एक बार गणतंत्र दिवस की परेड में आरएसएस को भी हिस्सा लेने के लिए बुलाया था। उनकी कैबिनेट में संघ की विचारधारा वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे।
दरअसल नब्बे के बाद जिस तरह मंडल और कमंडल के आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा बदली, तब से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग में लोगों की पहचान का एक ही पैमाना रहा गया – खाकी निक्कर। अगर आपने गाहे-बगाहे छद्म धर्मनिरपेक्षता की खिंचाई कर दी तो समझो - आप आरएसएस के आदमी हो गए। ये कुछ ऐसा ही है – जैसे सत्तर और अस्सी के दशक में अमेरिका की बात करने वाला हर शख्स सीआईए का आदमी माना जाता था। लेकिन आज हालत बदल गए हैं। आज व्यक्ति चाहे प्रगतिशील हो या फिर संघी-सबका सपना अमेरिका की धरती पर पांव रखने की है। कुछ यही हाल आज की धर्मनिरपेक्षता का भी है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग भी जाति और धर्म की संकीर्णता से बाहर नहीं हैं। अगर रसूखदार पद पर हैं तो नौकरी देने- दिलाने, दमदार नेता हैं तो जाति और धर्म के आधार पर चुनाव का टिकट देने-दिलाने में वे भी जाति और धर्म का लिहाज करना अपना परमपुनीत कर्तव्य समझते हैं। लेकिन जब भी सामने माइक आया, लिखने – छपने का मंच मिला, वे धर्मनिरपेक्ष हो जाते हैं। जिस तरह साठ और सत्तर के दशक में वामपंथी और समाजवादी होना एक बौद्धिक शगल और फैशन बन गया था – कुछ यही हालत आज धर्मनिरपेक्षता को लेकर हो गई है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करिए और तमाम तरह की सुविधाएं भोगने का एकाधिकार पा जाइए। इसके लिए आपको सिर्फ मंचों – गोष्ठियों में अपनी सेक्युलर छवि का डंका बजानेभर की जरूरत है। भले ही हकीकत में आपका चेहरा कुछ और ही क्यों ना हो। एक दौर था – जब हकीकत में भी दक्षिणपंथी होने वाले लोग भी इस फैशन के सामने अपनी खाकी निक्कर का जिक्र करने से डरते थे। लेकिन भेड़िया आया की तर्ज पर धर्मनिरपेक्षता का अब जितना गान हो चुका है, उससे यह शब्द अपना अर्थबोध और भरोसा खोता जा रहा है। इसका असर है कि अब हकीकत के दक्षिणपंथियों को भी अब अपने आरएसएस से जुड़ाव को स्वीकार करने में हिचक नहीं रही।
संचार क्रांति के दौर में ऐसे लोग अब भी इसी भ्रम में जी रहे हैं कि जनता को वे जैसा समझाएंगे, वह उसी तरह मानती-समझती रहेगी। वे भूल जाते हैं कि पब्लिक अब सबकुछ समझती है। उसे पता है कि धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाले लोग भी अपनी जिंदगी में कितने धर्मनिरपेक्ष हैं। उसे हकीकत का भान है। इसीलिए आज धर्मनिरपेक्षता का दावा लोगों को लुभा नहीं पा रहा है। राजनीति में इसका असर दिख भी रहा है। नरेंद्र मोदी को कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने कठघरे में खड़ा करने की कम कोशिशें नहीं कीं। कर्नाटक में बीजेपी को सांप्रदायिक बताने का कोई मौका लोगों ने नहीं छोड़ा। लेकिन जनता इन सांप्रदायिक नरेंद्र मोदी और बीएस येदुरप्पा को ही चुना।
दरअसल धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले लोग इसका इतना गान कर चुके हैं कि उन पर जनता का भरोसा टूटता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली ताकतों को देखिए। उन्हें आम जनता से ज्यादा अपने परिवार की चिंता कहीं ज्यादा है। मुलायम सिंह के घर में ही अब सबसे ज्यादा सांसद और विधायक होते हैं। धर्मनिरपेक्ष ओमप्रकाश चौटाला धर्मनिरपेक्षता के नाम पर परिवारवाद का ही विस्तार करते रहे हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे एचडी देवेगौड़ा ने पिछले दिनों कर्नाटक में परिवारवाद का जो निर्लज्ज प्रदर्शन किया – वह लोगों के जेहन में अब भी ताजा है। इसका हश्र उन्हें कर्नाटक विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की हार के तौर पर देखना पड़ा है। इस कड़ी में नया नाम मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व स्पीकर पीए संगमा हैं। उनका बेटा राज्य का उपमुख्यमंत्री है और बेटी नई सांसद। खुद तो विधायक हैं हीं। ये सभी लोग धर्मनिरपेक्ष हैं।
तो क्या ये मान लिया जाय कि धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को धर्मनिरपेक्षता को सांप्रदायिक विरोध के नाम पर परिवारवाद और भ्रष्टाचार को ही बढ़ावा देने का ठेका मिल जाता है। धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाले नेता भले ही ये मानते रहे हों- लेकिन ये भी सच है कि इन ताकतों के इसी व्यवहार ने अब जनता की नजर में इनकी वकत घटा दी है। ऐसे में जनता को अब भारतीय जनता पार्टी में भी दम नजर आने लगा है। भाजपा के उभार में लोगों को जबरिया सांप्रदायिक ठहराने और अपनी ढोल खुद ही ऊंची आवाज में बजाने वाले लोगों का जोरदार हाथ है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सेक्युलर होने का दावा करने वाले लोग इस तथ्य को स्वीकार कर पाते हैं या नहीं।

4 comments:

  1. आपकी प्रतिक्रिया बेवजह नहीं है.

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  2. "आज व्यक्ति चाहे प्रगतिशील हो या फिर संघी-सबका सपना अमेरिका की धरती पर पांव रखने की है" इतनी साफ समझ लोगो मे नही है । वामपंथी जबान तो अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध चलाते है, लेकिन काम उनके हित मे करते है । वैसे हीं संघ भी ईसाइयत के प्रचारवाद का जितना विरोध करे लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद का पृष्टपोषण कर रह है । जरुरत है, अच्छे संघी और अच्छे प्रगतीशील साथ आए ।

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  3. अरे वाह आप भी बलीया के ही हैं। और मै भी बलीया का ही हूं। आपने "बासडीह" का नाम सूना होगा मै बासडिह से 4 कीलोमीटर दूर रहता हूं।
    और हो सक्ता है मेरे घर का कोई सदस्य आपको जानता हो।

    जब भी मै दिल्ल्दी से बलीया जाता हूं तो जब साम को बलिया पहूंचने वाला होता हुं। तो बडी अच्छी हवा चलती है। मन करता है की उस हरे भरे खेतो मे सो जाऊं।

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  4. उमेश जी, छद्म मार्क्सवाद की जो बात आपने कही..मैंने बड़े करीब से देखी है...अस्सी के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था..तो अखिलेंद्र प्रताप सिंह के व्यक्तित्व से सब के सब प्रभावित थे...बीए में आते ही PSO वाले भी नए बच्चों को पार्टी का कार्यकर्ता बनाने में जुट जाते थे। मेरे भी दो साथी थे..राम सुभग सिंह जो बाद में IAS अफसर बन गए और बद्री मिश्रा जो कवि हो गए..आजकल शायद कहीं पढ़ाते हैं....रामसुभग ने बीए में टॉप किया था..और पहली बार ही IAS में सेलेक्ट हो गए। वो और बद्री दोनों SFI के खांटी सदस्य थे...लेकिन राम सुभग का कहना था कि व्यवस्था में छेद करने के लिए व्यवस्था में घुसना होगा...और बद्री का कहना था ...लाल झंडा थामना ही एकमात्र विकल्प है। बाद में जो हुआ वो सबने देखा...रामसुभग सेलेक्ट होकर मंसूरी चले गए और बद्री ने पीसीएस के इम्तिहान की तैयारी शुरू कर दी। लोग जानते हैं कि वो छुप कर तैयारी करते थे...तो उमेश जी आप समझ लीजिए कितनी पारदर्शिता है मार्क्सवादियों में।

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