अल्पसंख्यक आरक्षण
के किंतु-परंतु
उमेश चतुर्वेदी
( यह लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है।)
राजनीति में जरूरी
नहीं कि जो कुछ सामने दिख रहा हो, हकीकत ही हो। कामयाब राजनीति वही होती है,
जिसमें संकेतों के
जरिए सबकुछ साधने की कोशिश की जाती है। लेकिन ये संकेत भी इतने सहज और प्रभावी
होते हैं कि उनकी मकसद लक्ष्य समूह तक आसानी से पहुंच जाता है। 22
दिसंबर 2011
को जब केंद्र सरकार
ने कोटा में कोटा की व्यवस्था बनाते हुए ओबीसी आरक्षण में अल्पसंख्यकों के लिए
साढ़े चार फीसदी आरक्षण तय किया था तो उसका मकसद साफ था। दिलचस्प यह भी है कि इस
मकसद को उसी वक्त राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तरह से लपक लिया। भारतीय जनता पार्टी
को अपने वोट बैंक के खिसकने का खतरा था तो उसने इस पर सवाल उठाने में देर नहीं
लगाई।
लेकिन एक ही तरह के वोट बैंक पर निगाह गड़ाए बैठी समाजवादी पार्टी तो इससे
भी आगे बढ़ गई और उत्तर प्रदेश के करीब 18 फीसदी मुस्लिम
वोटरों के तर्ज पर मुस्लिमों के लिए इतने ही आरक्षण देने का वादा कर लिया। चूंकि
जिन दिनों ये कदम उठाए जा रहे थे, लिहाजा इन कदमों को सीधे-सीधे उत्तर प्रदेश की
चुनावी राजनीति में अपने प्रभाव को बढ़ाने और इस बहाने वोट बैंक की फसल काटने के
तौर पर देखा गया। क्योंकि तब उत्तर प्रदेश समेत
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे थे। भारतीय संविधान में आरक्षण की व्यस्था
जिस अनुच्छेद 15(4) के तहत की गई है, उसमें धार्मिक
समुदाय की बजाय जातिगत आधारों को अपनाया गया है। यही वजह है कि केंद्र सरकार के इस
फैसले को लेकर राजनीति के कई गलियारों से आवाजें उठने लगीं। लेकिन इससे बेफिक्र
सिर्फ एक शब्द अल्पसंख्यक के सहारे केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र
सरकार अपने बचाव के तर्क गढ़ती रही।
संभवत: केंद्र सरकार
के अलंबरदारों को लगा होगा कि संवैधानिक आधार में मनमाना बदलाव और वैसी ही
व्याख्या को तार्किक आधार दिया जा सकता है और इसके जरिए अल्पसंख्यक आरक्षण
के बहाने उस मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ जो़ड़ा जा सकेगा,
जो नब्बे के दशक के
पहले तक सत्ता हासिल करने के समीकरण का महत्वपूर्ण अंग रहा है। जो मंडल और कमंडल
की राजनीति के बाद कांग्रेस से कम से कम बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे प्रभावी
राजनीतिक दखल रखने वाले राज्यों में साथ छोड़ गया था। लेकिन केंद्र सरकार का यह
कदम वोट बैंक के मैदान कारगर नहीं रहा। रही-सही कसर पूरी कर दी न्यायिक सक्रियता
ने। आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने एक रिट याचिका पर सुनवाई के बाद इस नतीजे पर पहुंचा
कि केंद्र सरकार का यह आदेश संविधान की भावना के बिल्कुल खिलाफ है। क्योंकि
संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यस्था है ही नहीं। दरअसल आरक्षण की अब तक
की जो व्यस्था रही है, वह एक मान्य पैमाने पर आधारित है। जहां तक ओबीसी या अनुसूचित जातियों
और अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण का सवाल है तो ये समुदाय राज्य और समाज के जरिए
अब तक उपेक्षित रहे हैं। उनके पिछड़ेपन की बड़ी वजह सदियों से चलती आ रही राज
व्यवस्था भी रही है। उन्हें पिछड़ा बनाए रखने में धर्म या धार्मिक कर्मकांडों का
योगदान नहीं रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय अगर उपेक्षित रहा है तो यह मान लेना कि
इसके लिए धार्मिक कारण जिम्मेदार रहे हैं, अतिवादी होगा।
हालांकि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट या रंगनाथ मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट को आधार बनाया
गया है। जिसके तहत मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका पिछड़ा है। लेकिन यह भी सच है
कि संघ परिवार ने सच्चर कमेटी को कभी भी ठोस आधार पर आधारित रिपोर्ट नहीं माना।
फिर यह भी ध्यान रखना होगा कि आजादी के बाद से ही मुस्लिम समुदाय को बराबरी का
वैसा ही हक मिला, जैसा दूसरे समुदायों को। इसके बावजूद अगर मुस्लिम समाज पिछड़ा रहा तो
उसकी एक वजह राज व्यस्था की असफलता मानी जा सकती है, जिसने उन्हें सही
तौर पर समान आधार मुहैया नहीं कराया। इसके लिए अल्पसंख्यक समुदाय अपने लिए
संवैधानिक और कार्यकारी उपचार की मांग कर सकता है। फिर हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि आजादी के पहले कई राज्यों में मुस्लिमों को आरक्षण दिए गए,
उनका भी फायदा
उन्हें नहीं मिल पाया। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट
के फैसले के खिलाफ कोई आदेश देने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र
सरकार से अपने आदेश को जायज ठहराने वाले दस्तावेजी सबूत मांगे थे। सरकार ने अपने
जबाव में कहा कि यह आरक्षण धर्म पर नहीं है। अटार्नी जनरल गुलाम वाह्नवती के
मुताबिक - ''22 दिसंबर 2011 के आदेश में सरकार
ने अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया है। इसका एक मात्र अर्थ है मुस्लिम इसे धर्म
आधारित आरक्षण नहीं कहा जा सकता।'' सुप्रीम कोर्ट के
सवालों के जवाब के तौर पर सरकार ने भी कहा है कि ओबीसी की सूची में 2343
ओबीसी समुदाय हैं।
इनमें से करीब 100 समुदाय अल्पसंख्यक समाज से हैं। यह लोग लाभान्वित नहीं हो पा रहे थे,
लिहाजा 22
दिसंबर 2011
का आदेश इन्हीं
लोगों के लिए है। लेकिन सरकार की इन दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने मानने से इनकार कर
दिया। उसने अपने फैसले में साफ कहा है -''सरकार का यह आदेश
गलत है। जो यह कहता है कि ऐसे लोगों को आरक्षण दिया जायगा,
जो सामाजिक और
आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं।
समस्या इन्हीं शब्दों पर है। '' जाहिर है कि सुप्रीम
कोर्ट को सरकार तार्किक तौर पर यह समझाने में नाकामयाब रही कि उसका आदेश संविधान
के अनुच्छेद 15(4) का उल्लंघन नहीं करता। इससे सरकार की मंशा को ही
जाहिर करता है। यह उस तर्क को भी आगे बढ़ाता है कि भेदभाव दो तरह का होता है- एक
सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। नकारात्मक भेदभाव का बड़ा आधार राज्य और समाज होता
है। शायद यही वजह है कि हमारे संविधान निर्माताओँ ने धार्मिक आधार पर आरक्षण को
पूरी तरह नकार दिया था। केंद्र सरकार भी अपने एक भी तर्क से यह साबित नहीं कर पाई
कि उसका ये आदेश संविधान की भावना के मुताबिक है। ऐसे में अब सरकार के सामने दो ही
रास्ता है...वह यह कि इसे लेकर पुनर्विचार याचिका दायर करे और उसके भी नामंजूर
होने की हालत में संविधान संशोधन का सहारा ले। शाहबानो प्रकरण में अंतीत में
कांग्रेस सरकार ऐसा कदम उठा भी चुकी है। लेकिन मौजूदा हालात में ऐसा कर पाना उसके
लिए संभव नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो धार्मिक ध्रुवीकरण का खतरा फिर बढ़ेगा।
निश्चित तौर पर इसका फायदा लालू, मुलायम, बदरूद्दीन अजमल या
ऐसी ही छोटी ताकतें उठाने की कोशिश करेंगी। फिर दूसरी छोर पर स्थित भारतीय जनता
पार्टी और शिवसेना जैसी पार्टियां इसे शायद ही स्वीकार करें। मुद्दा बनाएंगी सो
अलग...लेकिन ये तय है कि अगर केंद्र सरकार ने अड़ियलपन दिखाया तो धार्मिक आधार पर
राजनीति करने वालों को नई संजीवनी मिल सकती है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या देश,
सरकार या पार्टियां
इसके लिए तैयार हैं।
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