कारगर रणनीति बनाने की जरूरत
उमेश चतुर्वेदी
भ्रष्टाचार की मुखालफत और काले धन की वापसी को लेकर योगगुरु बाबा रामदेव ने जिस तरह का समन्वयवादी कदम उठाया है, उससे उनके कट्टर समर्थकों को थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। रामदेव के समर्थक उनसे उसी ओज और आक्रामक अंदाज की उम्मीद कर रहे थे, जो उन्होंने रामलीला मैदान-कांड के ठीक पहले पिछले साल दिखाया था। मगर, इस बार बाबा का वैसा ओज गायब था। बाबा थोड़े डरे-सहमे से लगे। शायद उन्होंने अपने आंदोलन का रूप बदल दिया है। उनका जोर टकराव पर नहीं, समन्वय पर है।
टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल के आक्रामक अंदाज का अपनी भोली मुस्कान में जिस तरह बाबा रामदेव ने अपने मंच से प्रतिकार किया, उससे सिर्फ टीम अन्ना ही निराश नहीं हुई होगी, बल्कि उनके समर्थक भी मायूस हुए हैं। टीम अन्ना ही नहीं, चुनाव सुधार को लेकर काम कर रही तमाम संस्थाएं भी राजनेताओं के अतीत को खंगालकर उनके राजनीतिक निहितार्थ और भ्रष्टाचार को प्रभावित कर सकने की क्षमताओं को उजागर कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल मंच से इसी परंपरा को थोड़े मुखर अंदाज में उठा रहे थे, लेकिन बाबा रामदेव उनके आक्रामक अंदाज को टालते वक्त भूल गए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के साथ आज अगर पढ़े-लिखे युवाओं की लंबी फौज जुड़ी है, तो उसके पीछे यह आक्रामक सोच भी एक बड़ा कारण है।
याद कीजिए, एक साल पहले रामलीला मैदान-कांड के पहले के बाबा रामदेव को, तब उनका अंदाज भी कुछ उसी तरह आक्रामक था, जैसा कि टीम अन्ना का अब भी नजर आ रहा है। बाबा का यह आक्रामक अंदाज ही काले धन के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत कर चुके गोविंदाचार्य जैसे लोगों को भा गया था। बाबा के पिछले आंदोलन के सबसे बड़े रणनीतिकार गोविंदाचार्य, अजीत डोभाल, एस. गुरुमूर्ति और वेदप्रताप वैदिक ही थे, लेकिन यह भी सच है कि जब बाबा रामदेव से दिल्ली हवाई अड्डे पर मिलने तीन-तीन मंत्री पहुंचे, तो बाबा ने इन लोगों से सलाह-मशविरा करना बंद कर दिया था।
बाबा के आंदोलन की दूसरी पंक्ति के एक कद्दावर कार्यकर्ता ने इन पंक्तियों के लेखक से साफ कहा था कि बाबा अब उनकी सुन ही नहीं रहे हैं, जिसका हश्र रामलीला मैदान-कांड के तौर पर दिखा। अगर बाबा मंत्रियों को स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाते देख उड़ने नहीं लगे होते और अपने रणनीतिकारों के संपर्क में रहते, उनकी सुनते, तो शायद वह नहीं होता, जो बीते वर्ष चार जून की रात में हुआ था। जाहिर है कि वह दमन केंद्र सरकार की लोकतंत्र-विरोधी हरकत तो था, पर वह कर तब पाई, जब बाबा रामदेव की ओर से कई रणनीतिक गलतियां हो गईं। इस समय कोई यह भी नहीं कह सकता कि बाबा वैसी रणनीतिक भूल फिर नहीं करेंगे।
इधर, सच यह भी है कि काले धन को वापस लाने का मुद्दा सबसे पहले गोविंदाचार्य ने उठाया था। इसे 2009 के लोकसभा चुनाव अभियान में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उछाला, जिनका साथ जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव ने भी दिया। यह बात और है कि इतने बड़े कद्दावर नेताओं की आवाज अनसुनी-सी ही रह गई और जब बाबा रामदेव ने इस मुद्दे को अपने हाथ में लिया, तो देश भर में हवा बनते देर नहीं लगी। मगर, कांग्रेस और सरकार ने अपने चक्रव्यूह में फंसाकर बाबा रामदेव को हरिद्वार भागने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद बाबा को संभवत: अपनी चूकों का अहसास हुआ और वे नए सिरे से उठ खड़े हुए। अतीत की गलतियां ही रही हैं कि बाबा रामदेव अब गांधीवादी और समन्वयवादी रुख अख्तियार कर चुके हैं, लेकिन अब लाख टके का सवाल यह है कि क्या तमाम राजनीतिक दलों से समर्थन मांगकर वे सचमुच काला धन विदेशों से वापस ला सकते हैं?
अभी हाल ही में 21 मई को संसद में काले धन पर सरकार ने जो श्वेत पत्र पेश किया, उसके मुताबिक 2010 तक विदेशी बैंकों में केवल 9265 करोड़ रुपए ही जमा थे। यह सीबीआई के उस अनुमान से भी कम है, जिसे उसने सुप्रीम कोर्ट में पेश किया है। सुप्रीम कोर्ट में पेश इस अनुमान के मुताबिक विदेशों में भारतीयों की करीब साढ़े चौबीस लाख करोड़ रुपए की रकम जमा है। जाहिर है कि जो सरकार काले धन पर अब भी साफ जानकारी तक मुहैया नहीं करा पाई है, क्या बाबा रामदेव के समर्थन मांगने भर से उसका नजरिया बदल जाएगा? सरकार और कांग्रेस का फंडा बिलकुल साफ है। सोमवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने बाबा पर सीधा हमला किया। कांग्रेस के हमले की जद में अन्ना हजारे और उनकी टीम भी थी। बाबा या टीम अन्ना जो भी कर रही है, कांग्रेस उसको अपने खिलाफ दुष्प्रचार मान रही है। ऐसा दुष्प्रचार, जो कांग्रेस, प्रधानमंत्री और सरकार को बदनाम करने के लिए विपक्ष के साथ मिलकर किया जा रहा है। जब सरकार के तेवर ऐसे हैं, तो होगा क्या?
फिर भी, रामदेव को राजनीतिक दलों से समर्थन निश्चित तौर पर मांगना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दलों के समर्थन के बिना काले धन को वापस लाने के लिए कड़े कदम उठाए भी नहीं जा सकते। मगर, संसद की प्रमुख विपक्षी पार्टी इस सिलसिले में सरकार पर दबाव काफी वक्त से बनाए हुए है, लेकिन अब तक क्या हुआ? सच तो यह है कि शायद कोई नहीं चाहता कि काला धन वापस आए। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी ही है कि राजनीतिक दलों का दिल बदल जाएगा और वे काले धन को वापस लाने के लिए बाबा रामदेव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को तैयार हो जाएंगे। ऐसे में अगर बाबा रामदेव को अपनी रणनीति को लेकर एक बार फिर सोचना पड़ जाए, तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए।
इधर, अपनी कोर टीम की बैठक के बाद अन्ना के सहयोगियों ने बाबा रामदेव से किसी भी तरह के मतभेद होने से भले ही इंकार कर दिया है, लेकिन सच तो यह है कि बाबा रामदेव और टीम अन्ना, दोनों का भले ही मकसद एक हो, काम करने की शैली, आंदोलन चलाने के रवैए और नजरिए में फर्क जरूर है। बाबा रामदेव को कहीं न कहीं यह डर सता रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सारा क्रेडिट टीम अन्ना को न मिल जाए। वहीं, दिसंबर में अगस्त क्रांति मैदान में अपने फ्लॉप शो के बाद विचलित हुई टीम अन्ना को बाबा रामदेव के साथ जनसमर्थन की उम्मीदें बढ़ गई हंै।
लिहाजा, दोनों ही संगठन भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई में एक-दूसरे के सहयोगी बन गए हैं, लेकिन उनके बीच से आती मतभेद की खबरें उनके खिलाफ जा सकती हैं। तब तमाम चुनौतियों के अलावा, इस तरफ भी जब तक दोनों संगठन ध्यान नहीं देंगे, भ्रष्टाचार विरोधी इस लड़ाई की कामयाबी का इतिहास नहीं लिखा जा सकेगा।
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