क्या पूरा होगा मनोहर आटे
का सपना
उमेश चतुर्वेदी
(यह लेख प्रथम प्रवक्ता में प्रकाशित हो चुका है।)
उत्तर प्रदेश की आज की ताकतवर पार्टी बहुजन समाज पार्टी के मूल संगठन
बामसेफ के संस्थापक सदस्य रहे मनोहर आटे की मौत हो गई। नागपुर में आखिरी जिंदगी
गुजारते रहे मनोहर आटे की मौत की खबर अनदेखी और अनसुनी ही रह गई। बहुजन समाज को
समाज में उसका उचित अधिकार दिलाने और नया समाज बनाने के एक स्वप्नकार की मौत का
यूं अनसुनी रह जाना, निश्चित तौर पर सवाल खड़ा करता है। यह सवाल इसलिए भी ज्यादा
महत्वपूर्ण है कि जिस सपने के साथ मनोहर आटे ने कांशीराम के साथ बामसेफ और बाद में
बीएसपी की नींव रखी थी, वह राजनीति की दुनिया में अहम मुकाम हासिल कर चुका है।
जिस
बामसेफ के पास कायदे से दफ्तर के लिए एक जगह तक नहीं होती थी, उससे ही निकले बहुजन
समाज पार्टी के पास आज अरबों की संपत्ति है...दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बंगलों और
जमीनों का अंबार है, इंटरनेट से लेकर प्रिंट और टीवी तक उसकी पहुंच है, इसके
बावजूद मनोहर आटे का गुजरने की कहीं कोई धीमी आहट भी नहीं है...ऐसे में सवाल उठता
है कि क्या बहुजन समाज की राजनीति भी उस मुकाम पर पहुंच चुकी है, जहां सहिष्णुता
का कोई स्थान नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि चाहे बामसेफ हो या फिर बहुजन समाज
पार्टी, दोनों का मकसद समाज से असहिष्णुता को दूर करके दलित और वंचित तबके को बराबरी का आधार दिलाना था। लेकिन मनोहर आटे की मौत की आवाज अनसुनी रह गई। तो क्या यह मान लिया जाय कि भारतीय समाज और मीडिया अब सिर्फ उन्हीं आवाजों को सुनता है, जिन्हें राजनीतिक आधार और ताकत हासिल हो। गांधी जी राजनीति में होते हुए भी ऐसी राजनीति के कतई हिमायती नहीं थे। शायद यही वजह है कि इसीलिए वे बदलाव की बात करते थे।
बहरहाल नागपुर में मनोहर आटे की मौत की आवाज उनके उन साथियों ने सुनी और बाद में दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में
पिछले दिनों श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया । इस आयोजन में भीड़ नहीं जुटी, लेकिन
जो लोग जुटे, उनका कहीं न कहीं मनोहर आटे के सपनों से वास्ता है। उन्हें लगता है
कि बीएसपी ने राजनीतिक ताकत भले ही हासिल कर ली हो, लेकिन सच यह है कि समाज बदलने
का बामसेफ का सपना अब भी अधूरा है। यही वजह है कि मनोहर आटे के सपने को पूरा करने
के लिए एक बार फिर उठने और नया समाज बनाने के लिए कोशिशें शुरू करने का ऐलान किया
गया।
15 दिसंबर 2009 को मनोहर आटे के नेतृत्व में गांधी शांति प्रतिष्ठान में
ही एक सम्मेलन हुआ था। जिसमें साफतौर पर कहा गया कि बहुजन समाज पार्टी न तो
कांशीराम के सपनों को पूरा कर पा रही है और नही उससे उम्मीद की जा सकती है। इस
दौरान मायावती को बीएसपी के अध्यक्ष पद से हटाने और दूसरा विकल्प तलाशने की कोशिश
शुरू करने की बात की गई। इसके लिए बामसेफ से जुडे रहे पुराने और सरोकारी लोगों से
संपर्क शुरू किया गया। अगली बैठक बंगलुरू में भी हुई। हालांकि इस पूरी कवायद में
बामसेफ से जुड़ी रही उत्तर प्रदेश की कोई शख्सीयत नहीं जुड़ी। लेकिन मनोहर आटे की
यह कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। हालांकि इस बैठक में शामिल बीएसपी के पूर्व सांसद
हरभजन सिंह लाखा का कहना था कि उनका विरोध मायावती के खिलाफ नहीं है। लेकिन बहुजन
समाज बनाने के लिए जिस आंदोलन की शुरुआत `बामसेफ´ से हुई थी, उसका मायावती ने सत्यानाश कर दिया। सर्वजन समाज के नाम
पर ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को हवा दिया जा रहा है। बहुजन समाज अब उनके लिए महत्व
की चीज नहीं है। ऐसी स्थिति में विकल्प की तलाश जरूरी है। लाखा ने साफ कहा था, “हमारा मिशन यह नहीं था कि
हम राज करें। हमारा मिशन तो यह था कि लोगों को बता दें कि यह समाज जाग गया है।” उसी बैठक में कर्नाटक से आए बुजुर्ग ए.एस. राजन ने
कहा था, पूरे देश में बहुजन
आंदोलन स्थिर हो गया है। इस समाज का बड़ा तबका खाना, कपड़ा, आवास व शिक्षा के
अभाव में कष्टदायक स्थिति में है। दूसरी तरफ देखने में आ रहा है कि उनके नाम पर
करोड़ों रुपए की लूट मची है। इसलिए एक बहुउद्देशीय आंदोलन की जरूरत है। उन्होंने
मायावती की बसपा पर नकली बसपा होने का आरोप लगाया और कहा, हम असली लोग हैं। अब हमें
ही मोर्चा संभालना होगा।
इन लोगों की दर्द की वजह है संगठन के लिए जान लड़ा चुके लोगों की उपेक्षा।
इंटेलिजेंस ब्यूरो की नौकरी से इस्तीफा देकर 1978 में बामसेफ
में शामिल हुए आशाराम का भी दर्द यही है। कुछ यही दर्द पूर्वी उत्तर प्रदेश में बामसेफ
को खड़ा करने वाले सीताराम शास्त्री का भी है। सीताराम शास्त्री अपने घर में
गुमनाम जिंदगी बिता रहे हैं, जबकि बामसेफ के ही
एक पुराने साथी ज्ञानेन्द्र प्रसाद मुगलसराय के अलीनगर मोहल्ले में किराये की
कोठरी में रहकर दिन काट रहे हैं। मिलने-जुलने वालों से उनका दर्द छलक ही आता
है। वे कहते हैं कि हम लोगों के साथ धोखा
हुआ। एक और नींव के पत्थर मनोहर आटे अब पूरी तरह निष्क्रिय होकर नागपुर में हैं। कुछ
यही दर्द 1991 के लोकसभा चुनाव के
दौरान इटावा में कांशीराम के चुनाव इंचार्ज रहे खादिम अब्बास का भी है। उनका भी
मानना है कि बीएसपी वाले अपने मकसद से भटक गये हैं। कांशीराम के साथी रहे लाल सिंह
लोधी हो या कन्नौज में दलितों के मसीहा कहे जाने वाले अरुण कुमार बौद्ध, सभी आजकल
अलग-थलग हैं। महोबा में कांशीराम के साथ काम कर चुके डॉ. रामाधीन का भी नाम किसी
को याद नहीं है। जबकि वे तीन बार बीएसपी के बैनर तले लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। बामसेफ
के दिनों में कांशीराम के लिए साइकिल चला चुके चैनसुख भारती अपने गांव में गुमनामी
की जिंदगी जी रहे हैं। और तो और मायावती 2007 के मंत्रिमंडल में कुछ दिनों के साथी
रहे सुधीर गोयल का भी इन दिनों कुछ अता पता नहीं है।
बहरहाल मनोहर आटे की याद में तय हुआ है कि इन सभी लोगों और पुराने साथियों
को जोड़ा जाय और अपने पुराने सपने को पूरा करने के लिए काम किया जाय। अगर ऐसा शुरू
हो गया और धीरे-धीरे बीएसपी से निराश दलित वर्ग के बौद्धिकों का साथ मिला तो वह
बीएसपी के लिए खतरे की घंटी होगी।
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