उमेश चतुर्वेदी
दिल्ली पुलिस का एक
नारा है- दिल्ली पुलिस सदा आपके साथ। दिल्ली पुलिस का यह सूक्त वाक्य गली-चौराहों
और आए दिन अखबारों में साया होने वाले विज्ञापनों के बावजूद जनता में क्यों नहीं
पैठ बना पाया है...इसका अनुभव आखिरकार पिछले दिनों हो ही गया। उसी दिन समझ में आया
कि राह चलते घायलों को देखने के बाद मददगार भावों के बावजूद दिल्ली का नागरिक
क्यों सौ नंबर पर फोन करने से बचता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के बगल से
गुजरते वक्त एक दिन शाम को सड़क पर दूर से ही नजर आई भीड़ ने बता दिया कि वहां कोई
अनहोनी हो गई है। नजदीक जाने पर भयावह नजारा था।
एक ऑटो सड़क के ठीक बीचोबीच पलट
गया था। उससे कुछ दूर एक साइकिल ठेला उलटा पड़ा था। ठेला वाला एक तरफ बेसुध सड़क
पर ही गिरा पड़ा था...नजदीक जाने के बाद पता चला कि ऑटो में लहूलुहान एक महिला और
ऑटो ड्राइवर फंसे पड़े हैं। कुछ लोग उस ऑटो को उठाने की जुगत में लगे हुए थे।
मैंने भी मदद की नीयत से अपनी कार एक किनारे खड़ी कर दी...घायलों की सहायता में भी
ऊंच-नीच का भाव साफ नजर आ रहा था। ऑटो में फंसी संभ्रांत सी महिला की मदद में कई
हाथ उठे। लेकिन साइकिल ठेले वाले के पास कोई नहीं था। भागकर मैंने एक व्यक्ति की
मदद से उसे उठाया और सड़क के किनारे ले जाकर बैठाया। उसकी बुरी हालत देख सौ नंबर
को डायल भी कर दिया। जब मैं सौ नंबर डायल कर रहा था तो कई लोगों ने मुझे टोका भी-
भैया मुसीबत क्यों मोल रहे हो। मैंने सोचा –इसमें भला कैसी मुसीबत। लेकिन सौ नंबर
डायल क्या किया-मुसीबत मेरे पीछे दौड़ने लगी। दिल्ली पुलिस का दावा है कि वह पांच
मिनट में पहुंच जाती है। लेकिन पांच मिनट में पुलिस तो नहीं पहुंच पाई, अलबत्ता
पांच नंबरों से पांच फोन आ भी गए। हर बार डांटने जैसी आवाज में पूछा जाता- कहां है
ये जगह। मैं जगह की तफसील से जानकारी देना खत्म करता कि दूसरा फोन आ जाता- तैंने
सौ नंबर डायल किया था..कहां ये जगह। बहरहाल कोई बीस-पच्चीस मिनट बाद पुलिस की
गाड़ी आई। इंचार्ज एक हेड कांस्टेबल थे। उन्हें सारी बात बताकर मैंने उनसे इजाजत
ली और अपने गनतव्य की तरफ निकल पड़ा। अभी कार स्टार्ट कर ही रहा था कि अगला नंबर आ
गया- पहला सवाल वही तैंने सौ नंबर डायल किया था...क्या हुआ...कहां ये जगह...मैंने
जवाब दिया – पुलिस आ गई है और घायल को ले गई। अभी कुछ दूर और गया कि फिर दूसरा फोन
आ गया। फिर वही सवाल- कहां है ये जगह क्या हुआ...किसको कितनी चोट लगी। मेरा जवाब
था- भैया चोट तो अस्पताल बताएगा। बहरहाल सौ नंबर वाले घायलों को अस्पताल ले गए। तब
दन से दूसरा सवाल-किस अस्पताल ले गए। अपनी रिरियाती आवाज में जवाब दिया- भैया मुझे
क्या पता। सौ नंबर वाले जानें। शाम साढ़े पांच बजे की इस घटना की जानकारी मैं
साढ़े सात बजे तक देता रहा। फोन पर ये जानकारी दे-देकर मैं परेशान हो गया था। आठ
बजे तक फोन नहीं आया तो मुझे लगा कि पुलिस महकमा अब संतुष्ट हो गया। लेकिन यह
क्या, अपनी सारी खुशी काफूर हो गई। सवा आठ बजते-बजते फोन आ गया- पहला सवाल तो वही –तैंने
सौ नंबर डायल किया...फिर अगला सवाल ये कहां हुआ...उसका जवाब देते ही अगला सवाल –
लेकिन यहां तो कुछ नजर नहीं आ रहा। अब अपना धैर्य जवाब दे गया था। मैंने कहा कि
हादसे के तीन घंटे हो गए। अभी तक क्या लोग वहीं रहेंगे। लगा मैंने सौ नंबर डायल
करके गुनाह कर दिया और पुलिस वाले नए-नए नंबरों से इस गुनाह की सफाई मांग रहे हैं।
चूंकि मेरा धैर्य चुक गया था, लिहाजा मैंने भी उल्टे सवाल दाग दिया- क्या पुलिस के
बीच कोई कोऑर्डिनेशन नहीं है। इतना सवाल पुलिस वाले के कान में पहुंचा तो ऐसा लगा
जैसे उसके वजूद को चुनौती ही दे डाली- ज्यादा भाषण ना दे...नहीं होता कोऑर्डिनेशन...साफ-साफ
बता कहां हुआ ये हादसा...उसके बाद मुझे भी अपनी वाली पर उतरना पड़ा। बहरहाल उसके
बाद एक और फोन आया और उस छोर पर सफाई मांग रहे सब इंस्पेक्टर साहब से भी बकझक हुए
बिना नहीं रही। इसके बाद समझ में आ गया कि आखिर लोग क्यों सौ नंबर पर डायल करने से
बचते हैं। आखिर इतनी पूछताछ के बाद कोई यह गुनाह करने का जोखिम क्यों उठाए। बहरहाल
राहत की बात ये है कि इस गुनाह ए जिल्लत के बावजूद उन घायलों की हालत सुधर रही है।
मैंने भी एक बार दिल्ली में सीलमपुर के पास एक मरे हुए बन्दे की जानकारी पुलिस को सौ नम्बर पर दी थी, जिसके बाद कई फ़ोन मेरे पास आये थे, जिनसे तंग आकर मैंने कहा था मैं पुलिस मुख्यालय में खड़ा हूँ, जिसे आना है यहाँ आ जाये।
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