(यह पहले ही लिखा गया था..लेकिन अखबारों में जगह हासिल नहीं कर पाया)
उमेश
चतुर्वेदी
गुजरात में पहले दौर में रिकॉर्ड 70.74 फीसदी
मतदान ने राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया है। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों से
पहले रिकॉर्ड वोटिंग का मतलब माना जाता था कि सरकार के खिलाफ नाराज वोटरों ने
सरकार के खिलाफ जोरशोर से वोट डाला है। लेकिन बिहार के विधानसभा चुनावों में भारी
मतदान का मतलब ठीक उलट रहा। वहां के वोटरों ने भारी मतदान के साथ नीतीश सरकार के
कामकाज पर एक तरह से मुहर ही लगाई।
तो क्या गुजरात के चुनाव में एक बार फिर बिहार
पैटर्न ही दिखने जा रहा है या फिर पारंपरिक मान्यता ही आगे बढ़ेगी। मोदी के खिलाफ
जोरशोर से चुनाव लड़ रही कांग्रेस और उसके नेता ही नहीं, टेलीविजन पर चर्चाओं में
शामिल हिंदी पत्रकारों का एक वर्ग भी ऐसा ही मान रहा है। उनका कहना है कि भारी
मतदान दरअसल मोदी की एकाधिकारवादी छवि के खिलाफ हो रहा है। मोदी ने जिस तरह संजय
जोशी की पार्टी में वापसी के बाद भी नहीं रहने दिया और उन्हें अपमानित किया, उससे
भारतीय जनता पार्टी कार्यकर्ताओं का एक वर्ग बेहद गुस्से में है। फिर गुजरात
भारतीय जनता पार्टी को खुद के दम पर चलाने की मोदी की कोशिश भी लोगों को पसंद नहीं
आई है। भारी मतदान के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मोदी से नाराजगी की खबर का
हाथ बताने वाले पीछे नहीं हैं। तर्क दिया जा रहा है कि स्वयं सेवक संघ की नाराजगी
ने भारतीय जनता पार्टी के प्रतिबद्ध वोटरों को संकेत दिया है कि वे मोदी के खिलाफ
वोटिंग करें और इसी का नतीजा भारी मतदान हो रहा है। समाजवादी धारा के राजनीतिक
चिंतकों के एक वर्ग की सोच यह भी है कि कोली और आदिवासी वोटरों में खुद को किनारे
किए जाने से भी नाराजगी है। वहीं केशुभाई पटेल के साथ हुई नाइंसाफी को लेकर लेउआ
पटेल बेहद नाराज हैं और वे अपनी नाराजगी वोटिंग में दिखा रहे हैं। विपक्ष में
पिछले पंद्रह साल से बैठी कांग्रेस के लिए ये तर्क मायने तो रखते हैं, लेकिन इन
तर्कों पर विश्लेषण के पहले जानते हैं कि भारी वोटिंग को लेकर बीजेपी और उसका
समर्थक खेमा क्या सोचता है।
भारी वोटिंग के पीछे माना जा रहा है कि गुजरात के
नौजवानों और महिलाओं में नरेंद्र मोदी को लेकर बेहद क्रेज है। मोदी इस बार का
चुनाव सिर्फ गुजरात के विकास और गुजरातियों के आत्म सम्मान को लेकर चुनाव लड़ रहे
हैं। फेसबुक और सूचना प्रौद्योगिकी युग के दौर के नौजवान वोटरों को विकास और
स्थानीय सम्मान कहीं ज्यादा मायने रखते हैं। उन्हें जाति और दूसरी राजनीतिक
व्याधियां कम ही व्यापती हैं। उन्हें विकास और खूबसूरत भविष्य का सपना ज्यादा
आकर्षित करता है। सबसे बड़ी बात यह कि मोदी आज के नौजवानों की इन बातों को पूरी
तरह से समझते हैं। यही वजह है कि सादगी का संदेश देने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ का कार्यकर्ता रहते हुए भी मोदी खुद को सेलिब्रिटी की तरह पेश करने की कोशिश
करते हैं। अंग्रेजी के शब्दों को उधार लिया जाय तो मोदी ने गुजरात में अपनी छवि एक
ऐसे सेलिब्रिटी की तरह बना रखी है, जो विकास और गुजराती सम्मान की बात भी करता है।
उनकी यह सेलिब्रिटी शख्सीयत उनके साबरमती सीट पर रानिप में वोट डालने पहुंचने के
वक्त भी नजर आई। भारी भीड़ उनका इस्तेकबाल सेलिब्रिटी की तरह ही स्वागत के लिए
खड़ी थी। नई आर्थिकी के दौर के नौजवानों को ऐसे लटके-झटके पसंद भी आते हैं। फिर
मोदी ने खुद को भले ही खुद से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है।
लेकिन उनकी पूरी शख्सीयत को इस बीच जिस तरह गढ़ा गया है, उसके संकेत साफ हैं कि वे
गुजरात से निकलकर प्रधानमंत्री पद भी संभाल सकते हैं। गुजरात से चूंकि
प्रधानमंत्री पद के वे पहले दावेदार माने जा रहे हैं। लिहाजा वहां के हर वर्ग के
वोटरों का एक तबका जरूर ऐसा है, जो अपनी वर्गगत सीमाओं से बाहर जाकर मोदी को पसंद
कर रहा है। शायद यही वजह है कि वह जोरदार तरीके से मोदी के पक्ष में वोट देने के
लिए उतर रहा है। रही बात महिलाओं की तो गुजरात में पिछले दस साल में एक भी दंगा
नहीं होना, तुलनात्मक रूप से गुजरात में कानून-व्यवस्था की हालत बेहतर होना उन्हें
खासा पसंद आ रही हैं। एक बात और गुजरात की महिलाओं को पानी के लिए लंबी दूरी की
यात्राएं नहीं करनी पड़तीं। अतीत में उन्हें पानी के लिए लंबी दूरी की यात्रा भी
करनी पड़ती थी। इसलिए माना यह जा रहा है कि मोदी के साथ महिलाओं का भी भारी समर्थन
है और वे बढ़-चढ़कर उनके लिए वोट डाल रही हैं।
इन दोनों ही तरह के तर्कों के बीच एक तर्क लोग
भूल जाते हैं। कहा जा रहा है कि गुजरात में कोई राजनीतिक लहर नहीं चल रही है।
लेकिन भारी मतदान किसी न किसी तरह की राजनीतिक लहर के संकेत जरूर दे रहे हैं। बेशक
यह लहर या तो मोदी के पक्ष में हो सकती है या फिर उनके विपक्ष में। लेकिन अक्सर जब
राजनीतिक लहर चल रही होती है तो तटस्थ और वोटिंग को लेकर अन्यमनस्क रहे मतदाताओं
पर भी असर पड़े बिना नहीं रहता है। उस लहर में वे भी डूब कर तैरने लगते हैं।
गुजरात में भी कुछ वैसा ही हो रहा है। इस पर किसी का ध्यान नहीं है। भारी मतदान की
एक वजह यह भी है। अब रहा सवाल कि आखिर लहर चल ही रही है तो इसके राजनीतिक संकेत
लोगों को मिल क्यों नहीं रहे या राजनीतिक चेतनाएं इसे समझ क्यों नहीं पा रही हैं।
इसका जवाब बेहद जटिल है। लेकिन एक चीज तय है। दरअसल आज का पढ़ा-लिखा वोटर अपने वोट
की कीमत तो जानता है, लेकिन अपना मंतव्य जाहिर नहीं होने देना नहीं चाहता। हालांकि
उसके हावभाव बता देते हैं कि वह किस तरफ जा रहा है। चूंकि हावभाव पर गौर करने की
परिपाटी की बजाय खुलकर बोलने-सुनने की परंपरा पर अब राजनीतिक पंडितों का भरोसा बढ़
गया है। लिहाजा गुजरात के संकेतों को जानने की जरूरत कोई नहीं महसूस कर रहा है।
शायद यही वजह है कि गुजरात में हुए भारी मतदान के निहितार्थों को लेकर अभी भी
अटकलबाजियां ही की जा रही हैं।
लेकिन इन सारी अटकलबाजियों में जो मुखर हैं, वे
भारी मतदान को मोदी की हार की तरह ही प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन
इसका उलटा होने के भी ज्यादा आसार हैं। अगर मोदी हार जाते हैं तो मोदी विरोधी मुखर
स्वर अपनी मीमांसा का ढोल खूब पीटेंगे। लेकिन मोदी वापस आते हैं और लगातार चौथी
बार भारतीय जनता पार्टी गुजरात की सत्ता में वापसी करती है, जिसकी संभावना बिहार
की वोटिंग के बाद ज्यादा बढ़ गई है। तो
राजनीतिक पंडितों को अपने विश्लेषण के लिए नए बहाने गढ़ने भी होंगे। अब देखना यह
है कि बहाने गढ़े जाने का मौका आता है या नहीं...
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